यहाँ पर हृदय चित्त गुफा (चित्त गुफा, हृदयाकाश की चित्त गुफा) को बताया जाएगा I इसको संस्कार नाश मार्ग, संस्कार ध्वस्त मार्ग, चित्त निरोध मार्ग, संस्कारतीत सिद्धि मार्ग, संस्कार रहित दशा का मार्ग (संस्कार रहित अवस्था प्राप्ति मार्ग), वैदिक संस्कार सिद्धांत साक्षात्कार मार्ग भी कहा जा सकता है I यहाँ पर ब्रह्माण्ड का चतुष्टय स्वरूप संक्षेप में बताया जाएगा जिसमें अचलित ब्रह्माण्ड (सनातन ब्रह्माण्ड, शून्य ब्रह्माण्ड), सर्वसम ब्रह्माण्ड, तम ब्रह्माण्ड (जड़ ब्रह्माण्ड), चलित ब्रह्माण्ड (भवसागर, संसार) आदि बिंदु होते हैं I
इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I
पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चौंतीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, यह अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का दूसरा अध्याय है।
सनातन गुरु से चित्त गुफा का ज्ञान, … ब्रह्माण्ड चतुष्टय स्वरूप, ब्रह्माण्ड का चतुष्टय स्वरूप क्या है, ब्रह्माण्ड चतुष्टय, … अचलित ब्रह्माण्ड क्या है, सनातन ब्रह्माण्ड क्या है, शून्य ब्रह्माण्ड क्या है, तम ब्रह्माण्ड क्या है, सर्वसम ब्रह्माण्ड क्या है, चलित ब्रह्माण्ड क्या है, भवसागर क्या है, संसार क्या है, …
टिप्पणी: इस भाग से आगे के कई भागों तक, हृदय गुफा में निवास करते सनातन गुरु जो आंतरिक अवतरण को दर्शाता हैं, उनके और उनके नन्हे शिष्य के बीच जो हुआ, उसको उसके मार्ग सहित बताया जाएगा I यह सबकुछ उस नन्हे शिष्य की हृदय गुफा में ही हुआ था I
आगे बढ़ता हूँ …
उस हृदय गुफा में जहां वह नन्हा विद्यार्थी अपने गुरु के साथ बैठा था, वहां सनातन गुरु ने उसका हाथ पकड़ कर कहा… अब हृदयाकाश गर्भ में चलो I
और इसके कुछ ही समय में, उन्होंने अपने नन्हे विद्यार्थी को हृदयाकाश में प्रवेश करवा दिया I
प्रवेश के पश्चात गुरुदेव अपने नन्हे शिष्य को हृदयाकाश गर्भ के मध्य में ले गए और वहीं पर बैठने को कहा, जिसके पश्चात गुरु बोले… अब सामने की इन सभी गुफ़ाओं को देखो और इनके संस्कारों का अध्ययन करो I
जब शिष्य ने अध्ययन करा, तो गुरु बोले… यह संस्कार चित्त सहित स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में भी पाए जाते हैं, इसलिए चित्त के यह संस्कार हृदयाकाश गर्भ की अन्य सभी गुफाओं में भी दिखेंगे I
सनातन गुरु आगे बोले… लेकिन पहले चित्त गुफा के इन संस्कारों को ध्वस्त करना होगा I इस हृदयाकाश की चित्त गुफा के इन संस्कारों के नाश के पश्चात ही अन्य सभी गुफाओं के संस्कार नष्ट किए जा सकते हैं I चित्त गुफा के संस्कारों के नाश के पश्चात, अन्य गुफाओं के सभी संस्कार भी सरलता से नष्ट हो पाएंगे… इससे पूर्व नहीं I
शिष्य ने प्रश्न किया… क्या यह सब विनाश करना आवश्यक है? I
इसपर गुरु बोले… प्रथम कार्य प्रथम ही होता है, और यह प्रथम कार्य चित्त गुफा सहित हृदयाकाश की अन्य सभी गुफाओं को संस्कार रहित करना है, और यहीं हृदयाकाश के मध्य भाग में बैठकर करना है, जहाँ अभी हम दोनों बैठे हुए हैं I ऐसा करने से वह सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड जो तुम्हारे भीतर है और जिससे ब्रह्माण्ड अपने चतुष्टय स्वरूप में आया था, उन चारों स्वरूपों से तुम्हारा संपर्क टूट जाएगा और तुम उस मार्ग पर चले जाओगे, जिसे मुक्तिमार्ग कहा गया है I
हृदयाकाश गर्भ में अपने गुरु के सानिध्य में बैठे हुए शिष्य ने अपने गुरु से पूछा… ब्रह्माण्ड चतुष्टय क्या है? I
इसपर गुरु मुस्कुराते हुए बोले… प्रत्येक ब्रह्माण्ड अपने चतुष्टय (या चार) स्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ है, जो ऐसे होते हैं…
- अचलित ब्रह्माण्ड, सनातन ब्रह्माण्ड, प्रकाश रहित ब्रह्माण्ड, शून्य ब्रह्माण्ड, … यह ब्रह्माण्ड शून्य में बसा हुआ है, और शून्य के समान ही प्रकाश रहित होता है और इसी के भीतर, ब्रह्माण्ड के अन्य तीनों स्वरूप बसे हुए होता हैं I यही प्राकृत ब्रह्माण्ड का प्रथम स्वरूप है, और इसी को अचलित ब्रह्माण्ड कहते हैं I इसका प्रादुर्भाव उसी प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से हुआ था, जो ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुआ था और उसी इच्छा के व्यापक संस्कार स्वरूप में था I
- तम ब्रह्माण्ड, तमोमय ब्रह्माण्ड, जड़ ब्रह्माण्ड, बिन्दु शून्य रूपी ब्रह्माण्ड, … यह ब्रह्माण्ड जड़ प्रकृति से संबद्ध है, और बिन्दु शून्य रूपी ब्रह्माण्ड है I इस बिंदु शून्य में अथाह ऊर्जाएं दबाव में आकर बिंदु के समान हो जाती है I और जब यह बाहर का दबाव समाप्त होता है, तो इन्ही सब बिंदुओं में से एक-एक ब्रह्मांड का भाग, जैसे कोई लोक या आकाश गंगा स्वयंप्रकट होता है I ब्रह्माण्ड का यह तमोमयी भाग अचलित ब्रह्माण्ड के भीतर ही बसा हुआ होता है I और इसमें कई सारे बिंदु होते हैं जो समय समय पर विचित्र प्रकार के विस्फोटों से ब्रह्माण्ड के एक-एक भाग को उत्पन्न और लय करते ही रहते हैं, और वह भी सर्वसम ब्रह्माण्ड के प्रभाव में आकर I इस भाग की दिव्यता दस हाथ वाली माँ महाकाली हैं, जो इन सभी बिंदु शून्यों में बसी हुई हैं I इसलिए जब इन बिन्दु शून्यों से ब्रह्माण्ड के किसी भाग का प्रकटीकरण होता है, तब वह दस हाथ वाली महाकाली भी उस बिंदु शून्य से प्रकट होती हुई पाई जाती हैं I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब ब्रह्माण्डीय आकाश के किसी भी स्थान पर, किसी भी ऊर्जा पर, किसी और बड़ी ऊर्जा का दबाव बढ़ता है, तब वह ऊर्जा छोटी होने लगती है और अंततः वह सभी ऊर्जाएँ बिन्दु रूप में आ जाती हैं I यह बिंदु शून्य उसी विशाल ऊर्जा का बिंदु रूप होता है, जो बहुत बड़े दबाव में आकर संगठित हुई थी और अंततः बिन्दु रूप में आ गई थी I ऐसी दशा में वह ऊर्जाएं एक काले वर्ण का बिन्दु रूप में दिखाई देती हैं, और यही तम ब्रह्माण्ड (या तमोमयी ब्रह्माण्ड) है I ऐसे एक-एक बिंदु शून्य में इतनी ऊर्जा संगठित होती है, जितनी किसी एक पूरे लोक में होती है I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… और जिन बिन्दु शून्यों में दबाव बहुत बड़ा होता है, उनमें तो इतनी ऊर्जा होती है कि एक आकाश गंगा में भी नहीं होगी I इसलिए ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के संकुचित (या संगठित) स्वरूप को ही बिन्दु शून्य कहा गया है और उस बिंदु शून्य की दिव्यता दस हाथ वाली महाकाली हैं I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब तक उस किसी ऐसे बिन्दु शून्य पर उसके बाहर की ऊर्जाओं का दबाव बना रहता है, तब तक ही वह बिंदु शून्य होता है I परन्तु एक समय आता ही है, जब यह दबाव कम हो जाता है I और जैसे ही यह दबाव बहुत कम हो जाता है वैसे ही उस स्थान पर वह ऊर्जाएं बहुत कम समय में ही बहुत बड़ी हो जाती है, जिससे उस बिंदु शून्य में विस्फोट होने लगता है, और अंततः एक नयी आकाश गंगा उसमें से निकल आती है I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… धातु और ऊर्जा अंतरपरिवर्तनीय हैं I संगठित (या संकुचित) रूप में ऊर्जा ही धातु कहलाती है और अपने वास्तविक स्वरूप में धातु ही ऊर्जा है I और इन दोनों स्वरूपों के मूल में यही तमोमयी ब्रह्माण्ड ही है I ब्रह्माण्ड की समस्त ऊर्जा के केंद्र भी तम ब्रह्माण्ड ही है और इसी को डार्क मैटर भी कहा जाता है, और तमोमयी ब्रह्माण्ड के ऊर्जा भाग को डार्क एनर्जी भी कहा जाता है I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब ऊर्जा पर बाहर से बहुत बड़ा दबाव आता है, तब वही ऊर्जा संकुचित हो जाती है और अंततः धातु का स्वरूप ले लेती है I और जब दबाव बहुत कम समय में ही बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब वह ऊर्जा इतनी संगठित हो जाती है कि वह बिंदु शून्य ही हो जाती है I इसलिए बिंदु शून्य भी ऊर्जा ही है I ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं का बहुत संकुचित स्वरूप ही बिन्दु शून्य कहलाता है I बिंदु शून्य से ही ब्रह्माण्ड के चलित स्वरूप की उत्पत्ति होती है I ब्रह्माण्ड के तीनो स्वरूप जो बिन्दु शून्य (या तम ब्रह्माण्ड), चलित ब्रह्माण्ड और सर्वसम ब्रह्माण्ड कहलाए गए हैं, वह सब अचलित ब्रह्माण्ड के भीतर ही निवास करते हैं I तो अब ब्रह्माण्ड के चतुष्टय स्वरूप अन्य भागों को बताता हूँ I
- सर्वसम ब्रह्माण्ड, समतामय ब्रह्माण्ड, … यह ब्रह्माण्ड हीरे के समान प्रकाश सरिका ही प्रतीत होता है I यह भाग सर्वसम, सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति का ही अंग है I
- चलित ब्रह्माण्ड, भवसागर, संसार, … तम ब्रह्माण्ड से ही चलित ब्रह्माण्ड स्वयं उत्पन्न होता है I यह वह ब्रह्माण्ड है जो स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपों में प्रतीत होता है और जिसमें समस्त जीव और अजीव पिंड बसे हुए हैं I
नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने सर आगे पीछे हिलाकर अपने गुरु को इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I
दृश्य और अदृश्य संस्कार, दृश्य संस्कार क्या हैं, अदृश्य संस्कार क्या हैं, संस्कार और जगतातीत मुक्ति, संस्कार और रचनातीत मुक्ति, संस्कार और ब्रह्माण्डातीत मुक्ति, संस्कार और कर्मातीत मुक्ति, संस्कार और फलातीत मुक्ति, संस्कार और संस्कारातीत मुक्ति, …
यह सब जो गुरु उस नन्हे शिष्य को बोल रहे थे, वह सब उस नन्हे शिष्य के हृदयाकाश गर्भ में बैठकर ही बताया जा रहा था I
गुरु ने अपने नन्हे विद्यार्थी का हाथ पकड़ कर आगे बोला… जबतक यहाँ से दिखाई दे रहे संस्कार ध्वस्त (नष्ट) नहीं होंगे, तबतक इस हृदयाकाश गर्भ में बसी हुई अन्य सभी गुफाएं और उनके तंत्र भी दिखाई नहीं देंगे I जब संस्कार बहुत अधिक होते हैं, तब वह सत्य को ढक लेते हैं, और ऐसा ही अभी हो रहा है I इन दिखाई दे रहे संस्कारों के पीछे छुपे हुए अदृष्य संस्कार भी हैं, जो तभी दिखाई देंगे जब इन प्रत्यक्ष संस्कारों को ध्वस्त किया जाएगा I
गुरु अपने नन्हे शिष्य का हाथ पकड़कर आगे बोले… जीव जगत कर्ममय है I जीवातीत और जगतातीत दशा कर्मातीत है I जबतक यह सभी संस्कार, जो दृश्य और अदृश्य रूप में होते हैं, वह नष्ट नहीं होंगे, तबतक कर्म मुक्ति नहीं होती I जबतक कर्म मुक्ति नहीं होती तबतक जीव जगत से नाता भी नहीं टूटेगा I और जबतक यह नाता नहीं टूटेगा, तबतक जगत रूपी शब्दमय भ्रमर में ही जीव फंसा रहता है I
गुरु बोले… जबतक संस्कार चित्तादि बिन्दुओं में निवास करते हैं, तबतक कोई निर्वाण, मोक्ष या कैवल्य भी नहीं मिलता I जब कर्म किये जाते हैं, तो उनके फल प्राप्त होते है, और उन फलों का प्रमाण यह संस्कार ही होते हैं I इसलिए जब संस्कार ही न रहें, तब जो दशा प्राप्त होती है वही कर्म और कर्मफल से मुक्ति कहलाती है I मुक्ति भी कभी मुक्ति नहीं होती जबतक वह सर्वस्व से नहीं होती I इसका अर्थ हुआ कि, मुक्ति तबतक नहीं होती जबतक वह इस जीव जगत सहित, इस जीव जगत में बसे हुए समस्त कर्म, कर्मफलों और और उनके संस्कारों से नहीं होती I इसलिए संस्कारतीत दशा ही वास्तविक मुक्ति है I
गुरु बोले… क्यूँकि संस्कारतीत दशा कर्म और कर्मफल दोनों से अतीत होती है, इसलिए यह संस्कारतीत ही कर्मातीत और फलातीत कहलाती है I ऐसी दशा में न तो कोई कर्म शेष रहता है और न ही कोई फल, इसलिए यह दशा कर्म चतुष्टय (अर्थात क्रियामान कर्म, आगामी कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म) से भी परे होती है I
नन्हा विदरार्थी अधिकांश भाग को समझ गया, लेकिन उसे अभी भी कुछ शंका थी, इसलिए उसने गुरु से पूछा… तो क्या अदृष्य संस्कार भी होते हैं? और यदि होते हैं तो क्या उनका नाता भी पूर्व कर्मों और उनके के फलों से ही होता है? I
गुरु मंदहास धारण करके बोले (अर्थात गुरु मुस्कुराए और बोले)… इन दृश्य संस्कारों के पीछे भी बहुत संस्कार छुपे हुए हैं और यही अदृष्य संस्कार हैं I अधिकांश रूप में अदृश्य संस्कार तब निर्मित होते हैं जब उत्कर्ष मार्गों पर जीव उतावला होता है, और किसी दशा को प्राप्त करने हेतु, वह जीव अपनी अभी की उत्कर्ष दशा और उस उस उत्कर्ष पथ की अंतिम के बीच की कई सारी दशाओं को कूद जाता है I ऐसा होने के कारण वह उन बीच की दशाओं के बाहर-बाहर से ही निकल जाता है, और जिससे वह उन दशाओं का अनुभव भी नहीं कर पाता है I जब जीव का उत्कर्ष पथ उन दशाओं का साक्षात्कार किये बिना ही आगे के किसी उत्कर्ष बिन्दु पर चला जाता है, तो ऐसी उत्कर्ष गति को उत्कर्ष की छल्लांग भी कहा जा सकता है I अधिकांशतः जो योगी मुक्त कहलाते हुए भी, ब्रह्माण्ड के किसी लोकादि में ही निवास कर रहे होते हैं, वह सब के सब इन्ही अदृश्य संस्कारों के कारण ही ऐसे होते हैं I जिस योगी के दृष्य संस्कारों सहित, अदृश्य संस्कार भी नष्ट हुए हैं, वही योगी इस समस्त ब्रह्म रचना से अतीत हो पाता है… अन्य कोई भी नहीं I यही जगतातीत मुक्ति, रचनातीत मुक्ति, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति, कर्मातीत मुक्ति, फलातीत मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति आदि कहलाती है, और यही वास्तविक कैवल्य मोक्ष है I
गुरु ने आगे बोला… इस उत्कर्ष की छल्लांग से चाहे वह जीव गंतव्य को ही क्यों न प्राप्त हुआ हो, लेकिन वह उस गंतव्य से भी कभी न कभी, अपनी उस पूर्व की उत्कर्ष गति की कूदी हुई दशाओं का अनुभव करने हेतु किसी स्थूल जीव रूप में लौटेगा ही I यही कूदी हुई दशाओं के संस्कार अदृश्य रूप में उस जीव के चित्त आदि भागों में निवास करते हैं, और तबतक करते हैं, जबतक वह जीव या तो इनको किसी योगमार्ग से ध्वस्त (या नष्ट) नहीं करता या इन अदृश्य संस्कारों की दशाओं में लौटकर, इन संस्कारों को फलित नहीं करता… ऐसा इसलिए है क्यूंकि इन दोनों विकल्पों से सिवा इस उत्कर्ष की छलांग के प्रभावों को अंत करने का कोई और मार्ग भी नहीं है I
गुरु बोले… क्यूंकि यह जीव जगत कर्ममय है, इसलिए जिस साधक ने संस्कार रहित दशा को पा लिया, वह इस जीव जगत से ही परे चला गया… ऐसा ही माना जाता है I और यदि एक बार किसी योगी का चित्त पूररूपेण संस्कार रहित हो गया, तो वह योगी आगे के किसी भी कालखंड में, किसी भी संस्कार को पुनः धारण भी नहीं कर सकता है, और ऐसा तब भी होगा जब वह योगी इस जगत में जीव रूप में निवास करता हुआ, कर्ममय सा ही प्रतीत हो रहा हो I इसलिए, संस्कार रहित चित्त को पाया हुआ योगी, चाहे कर्मों और उनके फलों में ही क्यों न प्रतीत हो रहा हो, लेकिन तब भी वह उन कर्मों के फल रूपी संस्कारों को अपने चित्त में धारण नहीं कर पाएगा I इसलिए ऐसा जीव कर्म करता हुआ, और उन कर्मों के फलों को भोगता हुआ सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में कर्मातीत, फलातीत और संस्कारतीत ही होता है… और ऐसा ही वह जीव आगे के समस्त कालों में रहता है I
सनातन गुरु द्वारा बताया गया संस्कार विज्ञान, संस्कार विज्ञान, चित्त के संस्कार, संस्कारों का उदय, संस्कारों की गति, संस्कार का कर्म से नाता, संस्कारों का कर्मफल से नाता, संस्कार ही कर्मों के मूल हैं, संस्कार ही कर्मफल के बीज रूप हैं, कर्मफल का बीज रूप संस्कार हैं, चित्त और संस्कार का नाता, कर्म और संस्कार का नाता, कर्मफल और संस्कार का नाता, संस्कार ही कर्ममूल हैं, संस्कार ही कर्मफल हैं, कर्म ही फल का कारण है, कर्मफल ही आगामी कर्मों का कारण है, कर्म और कर्मफल का चक्रव्यूह, कर्म कर्मफल और संस्कार, …
सनातन गुरु बोले… जो भी साधक के भाव, इच्छा, तृष्णा से उत्पन्न कर्म होते हैं, उनके सभी कर्मों के फल, बीज रूप में चित्त के समकारों के स्वरूप में निवास करते हैं I इसलिए संस्कार ही कर्म फलों के बीज रूप हैं, जो अंतःकरण चतुष्टय के चित्त नामक भाग सहित, हृदयाकाश की चित्त गुफा में भी निवास करते हैं I और इन्ही संस्कारों के कुछ भाग मन, बुद्धि, अहम् और प्राणों में भी पाए जाते हैं, लेकिन ऐसा होने पर भी इन संस्कारों का नाता, प्रधानतः चित्त से ही होता है I
गुरु आगे बोले… क्यूंकि साधक के अंतःकरण का चित्त नामक भाग, ब्रह्माण्डीय चित्त काया का अभिन्न अंग ही होता हैं, इसलिए जो संस्कार साधक की चित्त में होते हैं, वही ब्रह्माण्डीय चित्त काया में भी पाए जाते हैं और ऐसा होने के कारण इन दोनों दशाओं के संस्कारों में कोई भेद नहीं होता I और इसके अतिरिक्त, योगमार्ग पर गमन करके, जो संस्कार साधक की चित्त में ध्वस्त किए जाते हैं, उनके वह भाग जो ब्रह्माण्डीय चित्त काया में होते है, वह भी इसी नष्ट करने की प्रक्रिया में नष्ट हो जाते हैं I
नन्हे विद्यार्थी को यह बात समझ में आ गई, कि जो पिण्ड में है, उसके अनुसार उसका भाग ब्रह्माण्ड में भी है, इसलिए उस विद्यार्थी में अपना सर आगे पीछे झुलाया और गुरु को संकेत दिया, कि उसको यह बिंदु समझ में आ गया है I
सनातन गुरु आगे बोले… कर्म से ही कर्मफल उत्पन्न होता है, क्यूंकि उस कर्म के भीतर ही उसका कर्मफल अनादि कालों से बसा हुआ है I लेकिन ऐसा होने पर भी वह कर्मफल तभी प्रकट होगा, जब कर्म किया जाएगा I इसलिए, …
कर्म ही कर्मफल है, और कर्मफल भी कर्म ही होता है I
कर्म ही कर्मफल के प्रकटीकरण का कारक और कारण भी है I
कर्मफल का बीजरूप, संस्कार स्वरूप में, चित्त में निवास करता है I
कर्मफल ही अगले कर्म के प्रकटीकरण का कारण और कारक बनता है I
जब बीजरूप संस्कार को फलित होना होगा, तब वह कर्मरूप में प्रकट होगा I
वह कर्म उस संस्कार को फलित करके, एक नए कर्मफल रूप में प्रकट हो जाएगा I
जहां वह कर्मफल भी एक बीज रूप में चित्त के संस्कार स्वरूप में भी पाया जाएगा I
गुरु आगे बोले…
यही कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों का अनादि और अनंत, व्यापक चक्रव्यूह है I
जो योगी इस चक्रव्यूह के परे, उस संस्कार रहित चित्त को पाएगा, वही कर्ममुक्त है I
इस कर्ममुक्ति का योगमार्ग भी, इस हृदयाकाश गर्भ नामक तंत्र से प्रारम्भ होता है I
नन्हे विद्यार्थी ने गुरु को सर हिलाके संकेत दिया, कि उसे समझ में आ गया है I
और इसके पश्चात, गुरु बोले… कर्मफल ही संस्कार रूप में साधक के चित्त नामक भाग में बसा होता है I इसलिए, …
कर्मफल ही चित्त में बसा हुआ बीज रूप संस्कार है I
नन्हे विद्यार्थी ने गुरु को सर हिलाके संकेत दिया कि उसे समझ में आ गया है I
तब गुरु बोले… कर्मफल अपने संस्कार रूप में तबतक चित्त में बसा रहता है, जबतक उसके पुनः कर्मों द्वारा फलित होने का समय न आए I और जब यह समय आ जाएगा, तब वही संस्कार जो बीज रूप में चित्त में पड़ा हुआ था और पूर्व का कर्मफल ही था, वह पुनः ऊर्जावान हो जाएगा और ऐसी दशा में वह चलित होकर, अगले कर्म का कारण बन जाएगा I इसलिए, …
कर्मफल और उसका बीज रूपी संस्कार ही अगले कर्म का कारण और कारक है I
नन्हे विद्यार्थी को यह बिंदु भी समझ में आ गया, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाके गुरु को इसका संकेत भी दिया I
तब गुरु बोले… जब कोई संस्कार जो चित्त में पड़ा होता है, और वह समय आने पर पुनः फलित होने हेतु अगले कर्मों का कारण बनता है, तब ही वह संस्कार कर्म रूप में प्रकट होकर, पुनः चलित होकर, अगले कर्मों के स्वरूप में परिवर्तित होता है I यह कर्म भी अगले कर्मफल का कारण बनता है और वह कर्म फल भी एक बीज रूपी संस्कार स्वरूप में ही चित्त में निवास करने लगता है I और जैसे जैसे यह प्रक्रिया चलती ही जाती है, वैसे वैसे वह संस्कार बारम बार फलित होकर सूक्ष्म भी होता ही चला जाता है I कर्मफल के रूप में जो संस्कार, पूर्व के संस्कार के फलित होने पर उत्पन्न होता है, वह संस्कार पूर्व के संस्कार से सूक्ष्म ही होता है I इसलिए, …
जैसे जैसे यह संस्कार कर्मों से फलित होते जाएंगे, वह सूक्ष्म भी होते जाएंगे I
नन्हे विद्यार्थी को यह बिन्दु भी समझ में आ गया, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिला के गुरु को इसका संकेत भी दिया I
गुरु आगे बोले…
ब्रह्म की समस्त रचना की कर्मभूमि है I
जीव जगत में कुछ है ही नहीं, जो कर्ममय न हो I
इच्छा और भावों के अनुसार कर्मों से ही संस्कार उत्पन्न होते हैं I
कर्मों से ही पूर्व के कर्मफलों के बीज रूप संस्कार पुनः फलित होते हैं I
कर्मों से फलित होकर पूर्व कर्मफलों के बीज रूपी संस्कार सूक्ष्म होते चले जाते हैं I
गुरु आगे बोले… कर्म करते-करते और उन कर्मों से बारम बार फलित होते-होते जैसे जैसे संस्कार सूक्ष्म होते जाते हैं, वैसे-वैसे उन संस्कारों का नाता सूक्ष्म, दैविक आदि जगत से होने लगता है I जब ऐसा होता है, तब साधक उस जगत से जुड़ जाता है, जिससे उसके संस्कारों का नाता स्थापित हो जाता है I इसके पश्चात ही साधक उस उत्कर्ष मार्ग पर जाने का पात्र होता है, जिससे साधक संस्कारों को नष्ट करने के मार्ग और तंत्र पर जाता है I जब तक संस्कार दैविक जगत के समान सूक्ष्म नहीं होते, तबतक साधक दैविक जगत से जुड़ भी नहीं पाता I और जब साधक का नाता दैविक जगत से स्थापित हो जाता है, तब ही वह साधक उस दैविक जगत के भागों के साक्षात्कार का पात्र बन पाता है I ऐसी पात्रता के पश्चात ही साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में जाता है, और इसी हृदयाकाश गर्भ में बसकर, वह साधक समस्त संस्कारों को नष्ट करता है I इसी हृदयाकाश गर्भ तंत्र से वह साधक अपने चित्त को संस्कार रहित करने के मार्ग पर जाता है, और अंततः निर्बीज समाधि को पाकर संस्कारतीत दशा को पाता है I इसलिए, हृदयाकाश गर्भ तंत्र वह उत्कर्ष पथ है, जिससे साधक स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि जगत से परे होकर, उस सूक्ष्म सांस्कारिक प्राथमिक जगत में स्थित हो जाता है, जो ब्रह्म रचना में ब्रह्म की इच्छा शक्ति से सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ था और जिससे जगत केअन्य सभी भागों की उत्पत्ति हुई थी I इसलिए संस्कारों के दृष्टिकोण से, …
संस्कारों को सूक्ष्म करने का मार्ग ही उत्कर्ष पथ होता है I
उत्कर्ष पथ की अंतगति भी साधक के चित्त की संस्कार रहित अवस्था है I
कर्म, कर्मफल और संस्कारों की सूक्ष्मता की ओर जाने वाला पथ ही उत्कर्ष पथ है I
नन्हे विद्यार्थी को यह बिन्दु भी समझ में आ गया , इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिला के गुरु को इसका संकेत भी दिया I
तब सनातन गुरु बोले… ब्रह्म रचना में जीव की उत्पत्ति के पश्चात, जैसे जैसे वह जीव कर्म करता जाएगा, वैसे वैसे उसके कर्मों के फलों के अनुसार, संस्कार भी बनते जाएंगे I यदि कर्म समस्त जीव जगत के लिए करे जाएंगे, तो उन कर्मों के फलों के अनुसार जो संस्कार उत्पन्न होकर चित्त में बसेंगे, वह सूक्ष्म होंगे I और जब जीव समतावाद में बसकर समस्त जीव जगत को अपनी धारणा में रखकर कर्म करेगा, तब जो संस्कार बनेंगे वह समतावादी ही होंगे और वह संस्कार भी श्वेत या हीरे के समान प्रकाशमान होंगे I ऐसे संस्कार ही मुक्तिमार्ग पर लेकर जाते हैं और ऐसे संस्कारों का धारक जीव ही मुक्तिमार्ग पर जाने का पात्र होता है I जिस जीव के हृदय आकाश गर्भ के चित्त में ऐसा संस्कार बन जाता है, वह जीव इस हृदयाकाश गर्भ के मार्ग पर जाने का पात्र बनता है, अन्य कोई भी नहीं I ऐसे संस्कारों को प्रकट करने हेतु ही वैदिक वाङ्मय में सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वं खल्विदं ब्रह्म इत्यादि वाक्य आए हैं I
सनातन गुरु आगे बोले… जब कर्म स्वयं के लिए, या किसी एक समाज के लिए, या किसी एक भूखंड के लिए करे जाते हैं, तब जो संस्कार बनते हैं, वह मुक्तिमार्ग पर जाने की पात्रता सिद्ध ही नहीं करते हैं I इसलिए परिवारवाद, समाजवाद, पंथवाद और राष्ट्रवाद भी मुक्तिमार्ग पर गमन करने का कारण नहीं होता, क्यूंकि इसकी एकता सीमित ही होती है I मुक्तिमार्ग पर गमन वही जीव कर पाएगा, जो सर्वसमता को पाया होगा, और उस सर्वसम तत्त्व में बसकर वह जीव समस्त जीव-जगत के हित के लिए ही कर्म करेगा I और क्यूँकि ज्ञान की वास्तविकता भी ऐसी सर्वव्यापक ही होती है, इसलिए जो जीव ऐसे ज्ञान को पाकर उस ज्ञान को बाँटेगा, वह हृदयाकाश गर्भ तंत्र नामक मुक्तिमार्ग पर गमन करने का पात्र भी हो जाएगा I
सनातन गुरु आगे बोले… क्यूंकि कर्मों में ही कर्मफल छुप कर निवास करते हैं और क्यूंकि कर्मफल ही अगले कर्मों के कारण और कारक होते हैं, इसलिए यही कर्म और कर्मफल का अथाह चक्रव्युह स्वरूप है I पर जो जीव सर्वसमता को अपनी इच्छा शक्ति में ही धारण करके, उसी सर्वसम तत्त्व में बसकर, जीव जगत को अपनी इच्छा शक्ति में रखकर कर्म करेगा, और ऐसा होने पर भी वह जीव न कर्मों से और न ही उनके कर्मफलों से आसक्ति या अनासक्ति रखेगा, वही जीव के चित्त में वह हीरे के समान प्रकाशमान संस्कार बन जाएगा, जिससे वह जीव उस मुक्तिमार्ग पर जाने का पात्र हो जाएगा, जिसके बारे में अभी बताया जा रहा है, और जिसको हृदयाकाश गर्भ तंत्र भी कहा जाता है I जिस जीव के हृदय में सर्वसमता को दर्शाने वाला वह हीरे के समान संस्कार नहीं बना है, वह न अपने मुक्तिमार्ग पर और न ही हृदयाकाश गर्भ तंत्र के मार्ग पर ही गमन कर पाएगा I
नन्हे विद्यार्थी को यह बिन्दु भी समझ में आ गया, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हीला के गुरु को इसका संकेत भी दिया I
तब सनातन गुरु बोले… इस कर्म और कर्मफल के चक्रव्यूह से आगे जाने का मार्ग साधक की इच्छा शक्ति से ही प्रकट होता है, न की किसी दैविक आदि बिंदु का आलम्बन लेके I दैविक आदि बिंदु केवल इच्छा शक्ति को विशुद्ध करते हैं, और अन्ततः सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु आदि वाक्यों के वास्तविक अर्थ में स्थापित करते हैं I लेकिन ऐसा होने पर भी, सर्वसमता की प्राप्ति और उस सर्वसम तत्त्व में स्थिति साधक की इच्छा शक्ति से ही होती है I इसलिए इस हृदयाकाश गर्भ की पात्रता के मूल में साधक की सर्वसमता को धारण करी हुई और जीव जगत से योग करी हुई इच्छा शक्ति ही होती है I जब कोई साधक ऐसे निष्कलंक सर्वसमता के भाव में स्थित हुई इच्छा शक्ति में बस जाता है, तभी उसके “हृदय शून्य गुफा” के भीतर बसी हुई “हृदय तमस गुफा” में उसका सनातन गुरु स्वयंप्रकट होता है… इससे पूर्व नहीं I और क्यूंकि ऐसी इच्छा शक्ति का उदय भी समस्त ब्रह्म रचना से समतावादी एकवाद में ही बसकर होता है, इसलिए यही इस हृदयाकाश गर्भ रूपी मुक्तिमार्ग का मूल बिंदु भी है I
हृदय में निवास करते हुए सनातन गुरु आगे बोले… जो जीव इसमें या उसमें, इस मार्ग या ग्रन्थ में, या उस मार्ग या ग्रन्थ में बसेगा, अर्थात विकृत एकवाद (या मोनोथेइसम) में बसेगा, उसके लिए यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र ही मृत्युपथ हो जाएगा I इस बात को स्पष्ट जान लो और अपने ग्रन्थ में इसको बताना नहीं भूलना I
नन्हे विद्यार्थी को यह बिन्दु भी समझ में आ गया, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाके गुरु को इसका संकेत भी दिया I
हृदय के सनातन गुरु बोले… जब साधक के संस्कार विशुद्ध हो जाएंगे, तब वह संस्कार या तो श्वेत वर्ण के हो जाएंगे और या हीरे के समान ही प्रकाशमान हो जाएंगे I जो संस्कार श्वेत होते हैं, वह सगुण निर्गुण ब्रह्म (अर्थात परा प्रकृति या अदि शक्ति) से संबद्ध होते हैं, और जो संस्कार हीरे के समान प्रकाशमान होते हैं, वह ब्रह्मलोक से ही नाता रखते हैं I यदि किसी साधक के चित्त में हीरे के समान बस एक ही संस्कार प्रकट हो जाए, तब भी वह एक संस्कार अन्य सभी संस्कारों को सर्वसमता की और लेके जाने लगता है I ऐसे साधक के चित्त में ही उसका सनातन गुरु प्रकट होता है, इसलिए ऐसे साधक को किसी और गुरु की आवश्यकता भी नहीं होती है, क्यूंकि उसको उसकी काया के भीतर ही उसको उसका गुरु मिल जाएगा I और ऐसा साधक ही उस मुक्तिमार्ग पर जाने का पात्र बनता है, जिससे साधक का चित्त ही संस्कार रहित हो जाता है I और ऐसे साधक को ही सत्य का सीधा-सीधा साक्षात्कार होता है, और वह साधक अंततः वैदिक महावाक्य का सार जान पाता है I लेकिन इसका मार्ग बहुत कठिन और कष्टकारक भी है I और इसी हृदयाकाश गर्भ तंत्र के मार्ग से आगे जाकर (अर्थात हृदयाकाश गर्भ तंत्र) का सिद्ध साधक वैदिक महावाक्यों को उसके अपने आत्मस्वरूप में ही जान जाता है I जब साधक ऐसा ज्ञान जाएगा, तब वह साधक तत् त्वम् असि, प्रज्ञानं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि, शिवोहम और सोऽहं आदि महावाक्यों के सार को अपने ही आत्मस्वरूप में जानकार, उसी सार में रमण भी करने लगेगा I और अंततः, ऐसा साधक ही मुक्तात्मा कहलाएगा I
हृदय के सनातन गुरु बोले… कोई उत्कर्ष पथ है ही नहीं, जो संस्कारों की सूक्ष्मता से संबंधित न हो, इसलिए उत्कर्ष मार्गों के मूल में संस्कारों की सूक्ष्मता को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही है I जब कोई साधक सीमित इच्छा शक्ति से, जैसे स्वयं के उद्धार के लिए या किसी समाज आदि सीमित दशा के उद्धार के लिए कर्म करता है, और उस साधक की इच्छा शक्ति भी स्वयं तक (या उस समाज तक या किसी और दशा तक) ही सीमित होती है, और ऐसी स्थिति में उस साधक के कर्मों से जो संस्कार उसके चित्त में बीज रूप में निर्मित होते हैं, वह भी सीमित उत्कर्ष पथ से ही संबंधित होते हैं I इसलिए ऐसे संस्कार का धारक साधक उत्कर्ष पथ पर होता हुआ भी, मुक्तिमार्ग पर गमन करने का पात्र नहीं माना जाता है I
नन्हे विद्यार्थी को यह बिन्दु भी समझ में आ गया, की यदि मुक्तिमार्ग पर जाना है, तो अपने भावों में ही समस्त ब्रह्म रचना से एकवाद में होना होगा, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिला के गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I
इसके पश्चात हृदय के सनातन गुरु बोले…
जो उत्कर्ष पथ निर्गुण ब्रह्म तक ही न जाए, वह कैसा उत्कर्ष पथ? I
जो उत्कर्ष मार्ग कैवल्य मोक्ष तक ही न जा पाए, वह कैसा मुक्तिमार्ग? I
जिस योगी को निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार ही नहीं हुआ, वह कैसा मुक्तात्मा? I
जो गति कैवल्य रूपी गंतव्य तक ही लेकर न जाए, वही तो दुर्गति कहलाती है I
और सनातन गुरु यह भी बोले… अब उस कैवल्य मोक्ष स्वरूप निर्गुण ब्रह्म से संबद्ध उत्कर्ष पथ के बारे में ध्यानपूर्वक सुनो…
ऐसे मार्ग आंतरिक हैं, और वह साधक की काया के भीतर से ही प्रशस्त होते हैं I
उस गंतव्य की ओर जाता हुआ एक उत्कृष्ट मार्ग, हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I
जो मार्ग साधक को मुक्त करदे, वही गंतव्य पथ है, वही मुक्तिमार्ग है I
ऐसे मुक्तिमार्ग को आत्ममार्ग, आत्मज्ञान मार्ग आदि कहा जाता है I
ऐसा मार्ग जीवातीत, जगतातीत , पिण्डातीत, ब्रह्माण्डातीत होता है I
सनातन गुरु आगे बोले …
जो आत्मपथगामी है, वह समस्त मार्गों में एक ही समय पर गमन करेगा I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि आत्मा ही सर्वाधार, सर्वव्यापक और सर्वातीत ब्रह्म है I
आत्ममार्गी योगी के लिए न जीव है, न जगत, उसका आत्मस्वरूप ही सर्वस्व है I
उस आत्मस्वरूप साक्षात्कार मार्ग भी “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य में बसा होता है I
हृदयाकाश गर्भ में अपने नन्हे शिष्य के साथ बैठ हुए सनातन गुरु बोले… जब साधक इन चित्त आदि बिंदुओं में निवास करते हुए संस्कारों का नाश करता है, तब उस साधक को कई प्रकार की पीड़ाएं होती हैं I यह पीड़ाएं भौतिक भी होंगी, और इसके साथ साथ यह पीड़ाएं आध्यात्मिक और दैविक भी होंगी I ऐसा होने का कारण है, कि इन संस्कारों के समूल नाश के पश्चात, साधक की काया को उस संस्कार रहित दशा के आदी होने में समय लगता है I
हृदय गुफा में अपने नन्हे शिष्य के साथ बैठे हुए सनातन गुरु आगे बोले… संस्कारों के समूल नाश से साधक का ब्रह्माण्ड से नाता भी कट जाता है I यदि साधक अपने संस्कारों के समूल नाश के पश्चात भी अपने अपनी काया को धारण करके ब्रह्माण्ड के भीतर ही निवास करता गया, तो ऐसी दशा में उसकी स्थूल, सूक्ष्म और कारण काया ब्रह्माण्डीय नहीं हो पाएगी I और ऐसी स्थिति में उस साधक को बहुत कष्ट भी आएँगे और ऐसे कष्ट तबतक आते जाएंगे, जबतक साधक की स्थूल, सूक्ष्म और कारण काया इस दशा की आदि नहीं हो जाएंगी I ऐसे भयंकर कष्टों के कारण, अधिकांश साधकगणों की तो मृत्यु ही हो जाती है I
सनातन गुरु आगे बोले… जो काया संस्कारों के प्रभाव में थी, जब उसके संस्कार ही नहीं रहेंगे, तो पीड़ाएं होगी ही I यह पीड़ाएं काया की होती हुई भी, साधक के भीतर बसी हुई प्रकृति और जीव जगत से भी संबंधित होंगी I इसलिए जो भी साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में जाए, उसको इस बिंदु को स्मरण में रखकर ही जाना चाहिए I इस जीव जगत के समस्त इतिहास में कोई योगी हुआ ही नहीं जिसने इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पूर्ण किया है और उसको पीड़ाएं न हुई हों I और एक बात, कि अधिकांश योगी तो इस तंत्र को पार करके, देहावसान ही कर देते हैं क्यूंकि संस्कार रहित दशा को पाकर, उनकी काया जीवित रह ही नहीं पाती है I बहुत विरले योगीजन ही इस तंत्र को पूर्ण करने के पश्चात अपनी काया में रह पाते हैं, और ऐसी दशा में भी उनकी प्राण शक्ति प्रचण्ड होकर ही रहती है, जिसके कारण भी उन्हें कुछ पीड़ाएं आती ही रहती हैं, लेकिन केवल तबतक जबतक उनकी स्थूल, सूक्ष्म और कारण कायें इस नयी और विचित्र संस्कार रहित दशा के आदी न हो जाएं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र जो आंतरिक यज्ञमार्ग भी है, वह मुक्ति में ही स्थापित कर देता है I
हृदय सनातन गुरु आगे बोले… अधिकांश साधक मुक्ति की प्राप्ति के पश्चात, अपनी काया को रख भी नहीं पाते हैं I ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि यह संस्कार अधिकांश रूप में अभिमानी देवताओं के लोकों के ही होते हैं और यह देवता अपनी ओर से तो पूर्ण प्रयास भी करते हैं, कि साधक उनके लोकों से संबद्ध संस्कारों से छूट ही न पाए I और इन प्रयासों में यह देवताओं की ऊर्जाएं, त्रिनाडी में प्रवेश करके, साधक की काया के भीतर ताण्डव सा ही मचा देती हैं I
हृदय में बैठे सनातन गुरु बोले… अभिमानी देवता कभी भी नहीं चाहता, कि कोई साधक उनके लोक से संबद्ध संस्कार के नष्ट होने का कारण बने या उनको नष्ट करे, इसलिए भी इन देवताओं के वह भाग जो साधक की काया के भीतर होते हैं, वह एक प्रचण्ड स्वरूप धारण करते हैं, और यही उन पीड़ाओं के कारण बनते हैं, जो साधक को होती हैं जब वह इन संस्कारों को ध्वस्त करना प्रारम्भ करता है I इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में, यह भी एक सत्य ही है जिससे साधक दैविक पीड़ाओं को पाता है I
हृदय में बैठे सनातन गुरु बोले… और जब वही साधक उन देवताओं (और उनके लोकों) से संबद्ध संस्कारों को, जो साधक के चित्त में होते हैं, पूर्णतः नष्ट ही कर देता है, तो यही अभिमानी देवता उस साधक को उनके लोक से आगे जाने का मार्ग भी दिखाते हैं I यह मार्ग गुप्त होते हैं और इनको इनके लोक के अभिमानी देवतागण ही जानते हैं, इसलिए जो साधक उन देवता के लोक से आगे जाने का पात्र ही हो जाता है, तब ऐसी दशा में उस साधक को यह देवतागण अपने लोक से आगे जाने का मार्ग दिखाने के लिए बाध्य भी होते हैं I यही कारण है कि जब तक साधक उन अभिमानी देवताओंके लोकों के संस्कार को नष्ट कर रहा होगा, तब तक वह अभिमानी देवता उस साधक को कई प्रकार की पीड़ाएं देंगे I और जब साधक उन संस्कारों का समूल नाश ही कर देगा, तब यही देवता जान जाएंगे कि वह साधक उनकी पकड़ से आगे चला गया है, और ऐसी दशा में वही अभिमानी देवता उस साधक को उनके लोकों से आगे जाने का मार्ग भी दिखेंगे I
हृदय में बैठे सनातन गुरु बोले… ऐसी ही दशा तब भी आती है, जब साधक के संस्कार इतने सूक्ष्म हो जाते हैं, कि उस देवता का उनपर नियंत्रण ही नहीं रहता क्यूंकि ऐसे सूक्ष्म संस्कार उस देवता और उसके लोक के संस्कारों को ही भेदकर, उनके नियन्त्रक हो जाते हैं I लेकिन यह तो एक उत्कर्ष बिन्दु होने के साथ साथ, एक दैविक युद्ध बिंदु भी है I
हृदय में बैठे सनातन गुरु बोले… जब साधक उस अभिमानी देवता के लोक से आगे जाने का पात्र बनता है, तब वह साधक उस देवता से भी आगे जाने का पात्र होता है I और ऐसा होने का मूल कारण भी उस साधक के संस्कार की वह गति है, जिसपर उस अभिमानी देवता का कोई नियंत्रण ही नहीं होता I क्यूंकि द्विवेदी लोक आध्यात्मिक सत्ता से भी संबद्ध होते हैं, इसलिए जब संस्कारों को ध्वस्त किया जाता है, तब अध्यात्मिक ताप की भी भरमार आएगी I इसलिए इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में, आध्यात्मिक पीड़ाओं की भी अति ही पाई जाएगी I
नन्हा विद्यार्थी को यह बात पता ही थी, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिला के गुरु को इसका संकेत भी दिया I
इसके पश्चात सनातन गुरु यह भी बोले… इस बिंदु को भी अपने ग्रन्थ में डाल देना ताकि सभी साधकगणों को इस मार्ग पर जाने से पूर्व ही पता हो, कि स्थूल काया के दृष्टिकोण से अधिकांश साधकगण के लिए यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र, मृत्यु मार्ग भी हो सकता है I
नन्हे विद्यार्थी को समझ आया और उसने अपने सर हिलाकर गुरुदेव को इसका संकेत भी दिया I
चित्त के संस्कारों को ध्वस्त करने का मार्ग, संस्कारों को नष्ट करने का मार्ग, संस्कार का नाश, संस्कार नाश, संस्कारों का नाश, चित्त के संस्कारों का नाश, …
टिप्पणी: जबकि इस अध्याय श्रंखला में योग अग्नि को गाढ़ा लाल वर्ण का कहा गया है, लेकिन इस योगाग्नि में और भी वर्ण होते हैं I और जबकि इस योगाग्नि का स्थान ऊपर के चित्र में दिखाया गया है, लेकिन इसका चित्र नहीं बनाया है I
सनातन गुरु बोले… अब तुमको चित्त के संस्कारों का नाश, योगाग्नि गुफा का आलम्बन लेकर करना होगा I
इसके पश्चात, सनातन गुरु ने योगाग्नि गुफा की ओर उंगली दिखाकर बोला… इस योगाग्नि गुफ़ा में उन संस्कारों का नाश होता है I
सनातन गुरु आगे बोले… अब इन सब संस्कारों को उसी योगाग्नि गुफा में भेजकर, इनका नाश करना होगा I और जब तुम इनको उस योगाग्नि में भेजोगे, तब भेजने से पूर्व से और जबतक यह सब संस्कार उस योगाग्नि में ही ध्वस्त न हो जाएं, तबतक स्वयंको एक स्वयंजनित सर्वस्व व्यापक वैराग्य में डाल कर रखना I इसलिए जबतक यह संस्कार नाश चलित हो और यह पूर्ण न हो जाए, तब उसी सर्वस्व वैराग्य में बसे रहना I
इसके पश्चात, सनातन गुरु ने अपनी ऊँगली से उस योगाग्नि को ओर संकेत देकर कहा… वहाँ इन सब संस्कारों को अपने मनोबल का आलम्बन लेकर वैसे ही भेज दो जैसा अभी बताया था I
नन्हे विद्यार्थी ने वैसा ही किया जैसे उसके सनातन गुरुदेव ने बोला था I और जैसे ही यह कार्य हुआ और संस्कार उस योगाग्नि में चले गए, वैसे ही वह योगाग्नि गुफा बहुत प्रकाशमान हो गई I और इस प्रक्रिया में उस योगाग्नि गुफा के भीतर की अग्नि उस गुफा से भी बाहर की ओर प्रकट होने लगी I
नन्हे विद्यार्थी ने देखा कि वह सभी संस्कार उस योगाग्नि में पटाखों के समान फूट रहे थे I इसके पश्चात एक हरी प्रकाशमान अग्नि प्रकट हुई, जिसको नीले प्रकाश ने घेरा हुआ था और उस नीले वर्ण की अग्नि को लाल, पीले और श्वेत वर्णों ने भी घेरा हुआ था I और जब उस योगाग्नि गुफा में समस्त संस्कार ध्वस्त हुए तब योगाग्नि पुनः वैसी ही हो गई जैसी वह इस प्रक्रिया के चलित होने से पूर्व में थी I
सनातन गुरु ने अपने नन्हे विद्यार्थी का हाथ पकड़कर कहा… चलो अब इस चित्त गुफ़ा में जाकर देखते हैं कि वहां क्या स्थिति है I
और इसके पश्चात, गुरु और नन्हा शिष्य अपने उस हृदयाकाश गर्भ के मध्य भाग से उठे और चित्त गुफा में पहुंच गए I
चित्त गुफा में पहुँच कर शिष्य ने देखा कि अधिकांश संस्कार तो नष्ट हो ही चुके हैं, जिसपर गुरु बोले… यह चित्त गुफा अब निर्बीज अवस्था (अर्थात संस्कार रहित अवस्था) को पाने के मार्ग पर चल पड़ी है I
सनातन गुरु आगे बोले… इस चित्त गुफ़ा की अभी की दशा को देखकर तो ऐसा ही लग रहा है कि वह नन्हा बालक जिसका स्थूल देह तुमने परकाया प्रवेश से प्राप्त किया था, ताकि तुम अजन्मे होते हुए भी काया धारी हो सको, वह (नन्हा बालक) भी एक उत्कृष्ट आत्मा ही था, जो इस जीव जगत में अपने “अंतिम से दुसरे” बार के जन्म में आया था (अर्थात वह नन्हा बालक जिसका शरीर मैंने परकाया प्रवेश मार्ग से पाया है, वह आगे के समय में, किसी स्थूल काया रूप में बस एक और बार ही लौटेगी, और जब वह पुनः लौटेगा, तब उसका वह जन्म भी अंतिम जन्म ही होगा) I
सनातन गुरु ने आगे बोला… क्यूंकि वह नन्हा बालक जिसका स्थूल शरीर तुमनें धारण किया हुआ है, वह इसी दशा में था, इसलिए उसके समस्त समकारों को भी तुमने (अर्थात नन्हे विद्यार्थी ने) अपनाया था I और उस नन्हे बालक के यह संस्कार तुमनें (अर्थात नन्हे विद्यार्थी ने) इसलिए अपनाए थे, क्यूंकि उसके प्रारब्ध में उसकी वो काया जिसमें तुम अभी निवास कर रहे हो, वह “अंतिम से दूसरी” ही थी और उस बालक के इसी काया धारी जन्म में, उसने इन सभी संस्कारों से मुक्त भी होना था I क्यूंकि तुम उसकी काया मेंआये हो, इसलिए उसके यह कर्म भी तुमने ही करने होंगे और क्यूंकि तुम्हारे पास इतना समय ही नहीं है कि इन कर्मों को शनैः शनैः उस बालक के प्राब्धानुसार उसके जीवन काल में करो, इसलिए तुम्हे इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र केआंतरिक यज्ञमार्ग में जाना पड़ा है, और ऐसा करने हेतु भी मेरा (अर्थात सनातन गुरुदेव का) स्वयं प्रकटीकरण तुम्हारे (अर्थात नन्हे विधार्थी के) हृदय में हुआ है I
नन्हा विद्यार्थी अचंभित रह गया और अपने सनातन गुरुदेव के मुख की ओर ही एकटक दृष्टि से देखता गया, लेकिन उस नन्हे विद्यार्थी ने बोला कुछ भी नहीं क्यूंकि उसके पास कोई शब्द ही नहीं बची थे I
इसपर गुरु बोले… यही कारण है, कि उस नन्हे बालक की काया को अपनाकर, तुम आज इन सभी संस्कारों को नष्ट करने के मार्ग पर चल पड़े हो, ताकि उस नन्हे बालक के प्रारब्ध को तुम पूर्ण कर सको I जो परकाया प्रवेश प्रक्रिया से किसी काया को अपनाता है, वह उस काया से साथ आए हुए प्रारब्ध आदि संस्कारों को भी अपनाता है I और जब किसी और की काया परकाया प्रवेश मार्ग से अपनाई जाती है, तब जो जीव उस काया को धारण करता है वह उस काया के दानी के प्रारब्ध को उसी दशा में फलित भी करता, जैसा उस काया के दानी के जन्म में होना चाहिए था यदि उसने अपनी काया उस परकाया प्रवेशी को दान नहीं करी होती I और यह भी वह कारण है की सिद्ध योगीजन उसी काया में परकाया प्रवेश के मार्ग से जाते हैं, जिसने अपना प्रारब्ध पूर्ण किया है, और वह काया मृत्यु को बस कुछ ही समय पूर्व पाई है I ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि उस पूर्व के काया धारी जीव के प्रारब्ध आदि कर्मों का भार न उठाना पड़े I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… पर क्यूंकि तुमने तो उस नन्हे बालक के शरीर को उसके जीवित रहते हुए ही परकाया प्रवेश प्रक्रिया से धारण किया है, इसलिए तुमको उस नन्हे बालक के प्रारब्ध का भार उठाना पड़ गया था, और इसीलिए आज तुम्हें इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र नामक मार्ग पर डाला गया है, ताकि तुम उस नन्हे बालक का प्रारब्ध, जिसका स्थूल शरीर तुमने शरीर परकाया प्रवेश प्रक्रिया से धारण किया था, उसको उसी दिशा और गति की ओर लेकर जाओ, जिसमे उसको अपने उस जन्म के प्रारब्धानुसार जाना था I
नन्हे विद्यार्थी के पास अभी भी कोई शब्द नहीं था, इसलिए वह अपने गुरु के मुख को एकटक देखते ही गया I
इसके पश्चात सनातन गुरु बोले… क्यूंकि उस नन्हे बालक के प्रारब्ध में ही ऐसा था, इसलिए तुमने (अर्थात नन्हे विद्यार्थी) ने उसके यह संस्कार धारण किए थे I उस नन्हे बालक के प्रारब्ध में ही था, कि वह अपने इसी जन्म में अपने समस्त संस्कारों से अतीत हो और अंततः बस एक अंतिम संस्कार ही उसके चित्त में शेष रहे… और ऐसा ही तुम्हें इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र से भी करना है, ताकि उस नन्हे बालक का प्रारब्ध पूर्ण हो सके, और उसके शरीर में परकाया प्रवेश प्रक्रिया से आने के पश्चात, तुमपर कोई दोष न आए I यही कारण है कि इस हृदयाकाश तंत्र को पूर्ण करने के पश्चात, तुम्हारे अंतःकरण के चित्त नामक भाग में भी बस एक ही संस्कार शेष रह जाएगा, और यह संस्कार भी उसी नन्हे बालक को लौटाया जाएगा जिसके स्थूल शरीर को तुमनें परकाया प्रवेश मार्ग से धारण किया हुआ है I वह एकमात्र संस्कार जो अंत में तुम्हारे चित्त में निवास करता हुआ पाया जाएगा, वही अंतिम संस्कार है I
इसके पश्चात गुरु आगे बोले… यह अंतिम संस्कार लंबा सा होता है, निरंग या पारदर्शी भी हो सकता है, या नीचे से चपटा और ऊपर से थोड़ा नोकीला सा और थोड़ा गोल सा भी होता है I इसी को अंतिम संस्कार की कपाल क्रिया से, कपाल से बाहर निकाला जाता है, और यह अंतिम संस्कार ही इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया के नाम का मूल है I जब शरीर का अग्नि दाह होता है, तब यदि उस जीव का यह संस्कार बन चुका होगा, और उस मृत्यु की प्रक्रिया में किसी कारणवश कपाल से बाहर नहीं निकला होगा, तब उस अग्नि के ताप से यह संस्कार मस्तष्क में आ जाता है, और इसी संस्कार को अंतिम संस्कार की कपाल क्रिया से बाहर का मार्ग दिखाया जाता है I इसी कारणवश मृत शरीर पर करी गई इस प्रक्रिया को अंतिम संस्कार ही कहा जाता है I
नन्हा विद्यार्थी जो यह सब सुन रहा था, वह अभी भी पूर्ण अचंभित ही था, इसलिए वह कुछ बोल ही नहीं पाया और बस अपने गुरुदेव के मुख को एकटक दृष्टि से ही देखता गया I
गुरु आगे बोले… यही कारण है कि तुम्हे (अर्थात इस नन्हे विद्यार्थी को) उस नन्हे बालक के (अर्थात वह बालक जिसके शरीर में मैं अभी बैठा हुआ हूँ, और बैठी भी हूँ) समस्त संस्कारों को, उस नन्हे बालक के प्रारब्ध अनुसार दशा में लेकर भी आना है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि परकाया प्रवेशी को उसके प्रारब्ध का भी ध्यान रखना होता है, जिसके देह को उसने परकाया प्रवेश के मार्ग से पाया है I और यही कारण है कि इस प्रक्रिया के पूर्ण होने पर, तुम्हारे (अर्थात नन्हे विद्यार्थी) चित्त में भी बस वही अंतिम संस्कार ही शेष रहना चाहिए, नहीं तो तुम भी उस बालक के तबतक रिणी हो जाओगे, तबतक वह बालक पुनः जन्म लेकर मुक्त नहीं होता I यही कारण है कि तुम इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र प्रक्रिया में डाले गए हो, और जहाँ तुम्हें इसमें डालने जाने का कारण भी उसी नन्हे बालक का प्रारब्ध है, जिसके शरीर में तुम अभी बैठे हुए हो… और बैठी हुई भी हो I
नन्हे विद्यार्थी तो अब तक पूर्ण अचंभित सा हो हो चुका था, इसलिए उसके पास न तो कोई शब्द था, और न ही कोई प्रश्न, इसलिए वह बस एकटक दृष्टि से अपने गुरुदेव को देखते ही जा रहा था I
गुरु आगे बोले… जब तुम्हारे (अर्थात नन्हे विद्यार्थी के) चित्त में भी बस वही अंतिम संस्कार शेष रह जाएगा, तब तुम्हे उस संस्कार को उस नन्हे बालक को लौटाना भी पडेगा I यह लौटाने का मार्ग शिवरंध्र से होकर जाता है I जिस मार्ग से यह अंतिम संस्कार उस बालक को लौटाया जाएगा, वह राम नाद (अर्थात शिव तारक मंत्र) है I
नन्हें विद्यार्थी के हृदय गुफा में नन्हें विद्यार्थी के साथ ही में निवास करते हुए सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस अंतिम संस्कार को लौटाने के पस्चात ही तुम निरालम्बस्थान (अर्थात अष्टम चक्र या निरलम्ब चक्र) पर जाओगे, और संस्कार रहित ही हो जाओगे I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इस मार्ग से अंततः तुम्हें (अर्थात नन्हे विद्यार्थी को) संस्कार रहित होकर निर्बीज ब्रह्म में ही लीन होना है I और अंततः ऐसा तुम्हें इसलिए होना है, क्यूंकि ऐसे ही तुम तब भी थे, जब तुम्हे तुम्हारी अभी की स्थूल काया में सावित्री विद्या सरस्वती द्वारा, योगेश्वर (अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म की कार्य ब्रह्म नमक अभिव्यक्ति) के लोक से लौटाया गया था I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… जिस योगी के पूर्व जन्मों के कर्मफल भोगे ही नहीं गए हों, और तब भी वह मृत्युलोक में लौट आए, तो ऐसी दशा में वह अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि किसी दैविक सत्ता की इच्छा से लौट सकता है I और यही कारण है कि ऐसे योगी को लौटा हुआ नहीं, बल्कि लौटाया गया… ऐसा कहा जाता है I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… और जो योगी निर्बीज हुआ है, और इसके पश्चात भी वह लौट आए, तो ऐसे योगी को भी लौटाया हुआ है… ऐसा ही कहा जाता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि उस निर्बीज ब्रह्म के सिद्ध योगी के पास तो कोई संस्कार ही नहीं था, जिससे वह स्वयं लौट सकता I और यही कारण है, कि ऐसे योगी को जो दिव्यता लौटाती हैं, वह पञ्च विद्या सरस्वती में से कोई एक सरस्वती विद्या ही होती हैं I इसीलिए तुम्हें इस काया रूप में, इस मृत्युलोक में लौटाने के लिए, तुम्हारे को जिन देवी ने अपने दैविक गर्भ में धारण किया था, वह इस महाब्रह्माण्ड की सबसे उग्र देवी हैं, और जिन्हें पञ्च सरस्वती विद्या में, सावित्री सरस्वती कहा जाता है I वह सावित्री विद्या सरस्वती ही अकार कहलाती हैं, जो ओ३म् का प्रथम बीज अ की दिव्यता और शक्ति भी हैं और उन्ही देवी को बुद्ध प्रज्ञापारमिता I और बाइबिल नामक ग्रन्थ में इन्ही देवी को मदर मैरी भी कहा गया है I वास्तव में सावित्री विद्या ही ॐ नामक ब्रह्म का सगुण साकार मानव स्वरूप हैं I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… वह निर्बीज प्राप्ति इसलिए भी होगी, क्यूंकि महेश्वर (अर्थात योगेश्वर) के लोक और उनके योगतंत्र में, जिससे तुम लौटाए गए हो, कोई मार्ग है ही नहीं जो पतन का हो I इसलिए जिस उत्कर्ष दशा में तुम तब थे, जब तुम इस स्थूल काया में प्रवेश नहीं किए थे, और ऐसे समय पर जब तुम उन योगेश्वर (अर्थात उकार या कार्य ब्रह्म) के लोक में निवास कर रहे थे, उस उत्कर्ष स्थिति और स्थान से नीचे तुम जा ही नहीं सकते हो I और क्यूंकि इस शरीर में आने से पूर्व कालों में जब तुम उन योगेश्वर (अर्थात उकार या कार्य ब्रह्म) के लोक में थे, तब तुम निर्बीज ही थे, और क्यूंकि निर्बीज अवस्था संस्कार रहित दशा को ही दर्शाती है, इसलिए इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म के पूर्ण होने से पूर्व ही तुम्हे पुनः निर्बीज होना ही होगा I इस निर्बीज होने के कारण भी वही है जो पूर्व में बताया था कि योगेश्वर के लोक में निवास करते हुए और उस लोक से लौटाए गए योगीजनों के लिए कोई अपकर्ष पथ नहीं होता है I
सनातन गुरुदेव आगे बोले… यह भी एक कारण है कि मैं (अर्थात सनातन गुरुदेव श्री विष्णु) तुम्हारे शरीर में ही आंतरिक अवतरण किया हूँ I और यह आंतरिक अवतरण इसलिए भी हुआ है क्यूंकि उन महेश्वर लोक के सिद्धांत में अपकर्ष नामक शब्द होता ही नहीं है I और ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि महेश्वर ही योगेश्वर हैं, और ऐसा होने के साथ साथ वह महेश्वर ही योगसम्राट, योगगुरु, योगीजनों के इष्ट, योगर्षि, योग और योगतंत्र भी हैं I जो ऐसे ईश्वर के लोक का निवासी हो, उसका अपकर्ष कैसे हो सकता है?, इसलिए योगेश्वर ही एकमात्र हैं, जिनके लोक में और उनके लोक में निवास करते हुए योगीजनों के लिए, अपकर्ष नामक शब्द का कोई मार्ग ही नहीं होता है I यही कारण है कि जब ऐसे योगीजन लौटाए जाते हैं, तब उनके गुरु स्वरूप में कोई ऐसी सत्ता भी लौटेगा ही, जो उनके भीतर ही प्रकट होकर, उनको उस मार्ग पर लेकर जाती है, जिससे उनके अपकर्ष की संभावना ही समाप्त हो जाए I यदि ऐसा नहीं होगा, तो योगेश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड से ही उस अतीत दशा में चले जाएंगे, और जो उनकी वास्तविक स्थिति है I और ऐसा होने पर इस समस्त ब्रह्माण्ड में कोई भी उत्कर्ष पथ ही नहीं बचेंगे, जिसके कारण ब्रह्माण्ड के समस्त जीव अपकर्ष मार्गों में ही चलने लगेंगे, और अंततः यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही नर्क बन जाएगा I
नन्हा विद्यार्थी जो यह सब सुन रहा था, वह अभी भी पूर्ण अचंभित ही था, इसलिए वह कुछ बोल ही नहीं पाया और बस अपने गुरुदेव के मुख को एकटक दृष्टि से ही देखता गया I
सनातन गुरुदेव बोले… जब तुम हृदय कैवल्य गुफा से होकर ॐ के साक्षात्कार को जाओगे और इसके पश्चात जब तुम शिव तारक मंत्र (अर्थात राम नाद) से होकर अष्टम चक्र (अर्थात निरालम्ब चक्र) पर चले जाओगे, तब तुम इस अंतिम संस्कार को भी त्यागोगे I और तुम्हारे चित्त से बाहर निकलकर, यह अंतिम संस्कार उसी नन्हे बालक के चित्त में, जिसका शरीर तुम्हे दान में मिला था… स्थापित भी होगा I जैसे ही यह अंतिम संस्कार तुम्हारे कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकलेगा, वैसे ही यह भाप के समान होकर, लुप्त हो जाएगा, अर्थात तुम्हे यह अंतिम संस्कार दिखाई नहीं देगा I और इसके पश्चात यही अंतिम संस्कार उसी नन्हे बालक के चित्त में चला जाएगा, जिसने तुम्हे यह स्थूल शरीर दान में दिया था I और जब ऐसा हो जाएगा, तब तुम उस बालक के प्रारब्ध और अन्य सभी कर्मों आदि से भी मुक्त होकर, अपने अगले चरण में जाओगे, जिसमें तुम्हे वैसे ही निर्बीज होना है, जैसे तुम तब थे जब तुम उकार (अर्थात कार्य ब्रह्म या योगेश्वर) के लोक में निवास कर रहे थे I इसी अंतिम संस्कार को अपने चित्त में धारण करके, वह नन्हा बालक अपने जन्म के प्रारब्ध को सफल बनाएगा, और किसी आगे के समयखण्ड में वह नन्हा बालक जिसने तुम्हें अपनी स्थूल काया दान में दी थी, अपनी मुक्ति को ही प्राप्त हो जाएगा I
गुरु आगे बोले… इसलिए अपने उस अंतिम जन्म से वह नन्हा बालक जिसने तुम्हें अपनी स्थूल काया दान में दी थी, उस अंतिम जन्म के प्रारब्ध को सफल करेगा और मुक्ति को भी पाएगा I इससे पूर्व उस बालक की मुक्ति असम्भव ही है I और उसी अंतिम जन्म में, वह बालक भी इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र के समान, किसी उत्कृष्ट तंत्र मार्ग पर जाकर ही अपनी मुक्ति को प्राप्त हो पाएगा I ऐसे मनीषी जो अपनी काया को ही उस योगी को दान करते हैं, जो समस्त जीव जगत के कल्याण के लिए लौटाया गया है, वह मनीषी कैवल्य मुक्ति के पात्र ही हो जाते है I और जब ऐसे काया के दानी पुनः किसी स्थूल शरीर रूप में लौटते हैं, तब वह उत्कृष्ट योगी के स्वरूप में ही प्रादुर्भाव होते हैं I वह नन्हा बालक जिसके शरीर को तुमनें परकाया प्रवेश प्रक्रिया और मार्ग से पाया है, जब पुनः लौट गया होगा, तब वह अपने उस जीवन के अंत से पूर्व एक उत्कृष्ट योगी ही होगा… उस जन्म में, उस नन्हे बालक का यही प्रारब्ध बनेगा और वह नन्हा बालक जिसके शरीर में तुम आज बैठे हुए हो, उस आगामी जन्म में, पूर्ण संन्यास को ही, ब्रह्म और प्रकृति के पूर्ण अनुग्रह से प्राप्त होगा… ऐसा निश्चित ही हुआ है, क्यूंकि उसने अपनी स्थूलादि काया को ही दान किया है I
सनातन गुरु आगे बोले… मेरी यह बात की जिसने तुम्हे अपना शरीर दान दिया है, वह एक उत्कृष्ट आत्मा ही था, इसका प्रमाण वह योगाग्नि भी है I ऐसी प्रचण्ड योगाग्नि जो इस हृदयाकाश गर्भ में दिखाई दे रही है, किसी ऊपर के लोक से लौटाई गई आत्मा की ही हो सकती है I
नन्हे विद्यार्थी ने उस योगाग्नि के प्रचण्ड स्वरूप को देखा ही था, जब उसने चित्त के संस्कारों को उस योगाग्नि गुफा में डाला था, इसलिए उसने गुरु की ओर देखते हुए अपना सर आगे पीछे हिलाकर उनको इसका का पुष्टिकारी संकेत भी दिया I लेकिन नन्हे विद्यार्थी ने कुछ भी शब्द नहीं बोला, क्यूंकि अपनी हृदय गुफा में बैठे हुए गुरुदेव की वाणी को सुनकर, वह शब्द शून्य सा ही हो गया था I
गुरु आगे बोले… वह नन्हा बालक जिसकी दान करी हुई काया में तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) अभी बैठे हो, वह भी इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र प्रक्रिया से अपने मुक्तिमार्ग पर जाएगा, जिसके कारण वह नन्हा बालक एक अंतिम जन्म को पाएगा और उसी अंतिम जन्म में वह जीवातीत और जगतातीत होकर (अर्थात पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत होकर) मुक्तात्मा ही हो जाएगा I लेकिन यह सब उसके उस जन्म में ही होगा, जिसको यहाँ पर अंतिम जन्म कहा गया है I उस नन्हे बालक का मुक्तिमार्ग भी इसी हृदयाकाश गर्भ तंत्र से, जिसमें तुम अभी चल रहे हो, प्रशस्त हो रहा है I इसलिए यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र को, तुम्हारी मुक्ति और उस नन्हे बालक का मुक्तिमार्ग भी मानो I
सनातन गुरु आगे बोले… यदि किसी भी लोक और कालखंड में, किसी भी जीव का एक बार भी यदि यह मुक्तिमार्ग प्रशश्त हो जाए, तो इस दशा के पश्चात उस मुक्तिमार्ग को रोका नहीं जा सकता है I और यही कारण है, कि किसी लोक के किसी भी जीव के लिए और किसी भी कालखंड में, यदि यह मार्ग एक बार भी चलित हो गया, तो यह मुक्ति में स्थापित करके ही रुकता है I यह भी वह कारण है, कि वह नन्हा बालक जिसने तुम्हे अपने स्थूल शरीर को दान में दिया था, उसके साथ भी ऐसा ही होगा I
सनातन गुरु आगे और भी बोले… ऐसा होने का कारण है कि एक बार चलित होने पर, हृदयाकाश गर्भ तंत्र का प्रभाव तभी रुक सकेगा, जब योगी मुक्ति को चला जाएगा… इससे पूर्व नहीं I और ऐसा ही उस नन्हे बालक के साथ भी होगा, जिसके शरीर को दान में ही पाकर, तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र पर चल पड़े हो I
सनातन गुरु आगे बोले… लेकिन ऐसा तब नहीं होता है, जब साधक प्रकृति के अष्टम कोष को पाया होता है I और मुस्कुराकर गुरु इस नन्हे विद्यार्थी की ओर ऊँगली से दिशा संकेत करके बोले… इस नन्हे विद्यार्थी के समान I
गुरु ने आगे बोला… क्यूंकि तुम पूर्व कालों में प्रकृति के अष्टम कोष के सिद्ध भी हुए थे (अर्थात अपरा प्रकृति का पूर्ण सिद्ध थे), इसलिए कम से कम इतना तो जान ही लो कि इस जन्म के पूर्ण होने के पश्चात तो तुम्हारी मुक्ति है नहीं I जो अपरा प्रकृति, परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति, तीनों के सिद्ध होते हैं, उनके लिए क्या बंधन और क्या मुक्ति?… वह तो इन दोनों प्राचीन द्वैतवादों (अर्थात बंधन और मुक्ति) से ही परे चले जाते हैं, इसलिए ऐसा योगीजनों के लिए न कुछ इधर का है, न उधर का और न ही कहीं और का I वह योगी पूर्ण ब्रह्म होकर, अर्थात ब्रह्म का सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार स्वरूप ही होकर, ब्रह्माण्ड में बसे होने पर अपनी ऐसी योग सिद्धि के अनुसार ब्रह्माण्डातीत ही होते हैं I ऐसे योगी पृथक प्रकार के बंधनों में निवास करते हुए करते हुए से प्रतीत होते हुए भी, वास्तव में मुक्त ही होते हैं I
गुरु ने आगे बोला… बहुत लम्बे समय से, तुम ऐसा ही रहे हो I तुम किसी न किसी लोक की किसी काया में आते जाते हुए भी, वास्तव में तुम मुक्तात्मा ही हो I और यही कारण था कि उन सृष्टिकर्ता योगेष्वर ने ही तुम्हें, उनके अपने लोक में स्थान दिया था, और उसी लोक से इस जन्म में तुम लौटाए गए हो I यही सिद्धि तो कर्म मुक्ति, संस्कारमुक्ति, गुणमुक्ति, कालमुक्ति, भूतमुक्ति, तन्मात्रमुक्ति आदि वाक्यों से बताई जाती है I और जहाँ इस कर्मातीत का मार्ग भी हृदयाकाश गर्भ से ही प्रारम्भ होता है I
नन्हा विद्यार्थी जो चित्त गुफा में अपने सनातन गुरुदेव के साथ ही था और उस चित्त गुफा का अध्ययन भी कर रहा था, उसने गुरुदेव के सभी वाक्य सुनकर, अपनी अचंभित सी दशा को पाकर, सोचा “बहुत वर्ष पूर्व, मेरी जन्म कुंडली को देखकर भी तो एक ज्योतिषाचार्य ने कुछ ऐसा ही कहा था और उन्होंने तो यह भी कहा था, कि बेटा इस जन्म कुंडली को किसी को भी दिखाना नहीं, घोर कलयुग है आज, इसलिए अधिकांश ज्योतिषी भी या तो अनभिज्ञ हैं और या इसके आधार पर तुम्हारे ऊपर ही कलियुग के विकृत तंत्रों का प्रयोग करेंगे” I और नन्हे विद्यार्थी ने यह भी सोचा, कि उन्ही ज्योतिषाचार्य ने तो यह भी कहा था कि इस कुंडली पर जिस आत्मा ने परकाया प्रवेश किया है, वह पूर्ण संन्यासी की है, जिसके लिए न बंधन है और न ही मुक्ति”… इसलिए इस कुंडली को किसी को भी न दिखाना I वह आदमी जो इस जन्म कुंडली के स्थूल शरीर में परकाया प्रवेश करि है, वह बाँधनातीत भी है और मुक्ति से भी अतीत ही है, क्यूंकि वह पूर्ण संन्यासी ही है I उन पूर्ण संन्यासी को ही निर्गुण निराकार ब्रह्म और कैवल्य मोक्ष कहा गया है I
सनातन गुरुदेव ने अपने नन्हे विद्यार्थी के भाव पढ़कर बोला… इस दशा में अभी बहुत समय है I वह दशा जिसके बारे में तुम विचार कर रहे हो, उसमें अभी बहुत वर्ष शेष हैं I
इस पर नन्हे विद्यार्थी ने पुछा… गुरूजी, क्या यह भी वो कारण है कि अधिकांश ज्योतिष आदि मार्गों पर रमण करने वाले मेरा भविष्य गलत ही बताते हैं?, अब तक बहुत सारों को मिला, इसलिए ऐसा प्रश्न कर रहा हूँ I
गुरु बोले… वह भविष्य कैसे बताएंगे, जब जिसकी कुंडली है, वह नन्हा बालक तो जा चूका है, और उस कुंडली के शारीर में तो अब कोई और ही बैठा हुआ है जिसका प्रारब्ध वह है ही नहीं, जिसकी कुंडली देखी जा रही है I जिसकी कुंडली वह देखते हैं, वह नन्हा बालक तो चला गया इस लोक से, और जिसके बारे में उस कुंडली को देख कर बताया जा रहा है, उसके परकाया प्रवेश का समय तो उस जन्म कुंडली में स्पष्ट रूप से है ही नहीं I जबतक उसका परकाया प्रवेश का समय नहीं जाना जाएगा, तबतक कोई ज्योतिषविद उस वास्तविकता को कैसे बता पाएगा? I
इसके पश्चात, गुरुदेव ने उस नन्हे विद्यार्थी का हाथ पकड़ा, और बोले… आगे चलो, अब हम दोनों को इस हृदयाकाश गर्भ की अगली गुफा में जाना है I
नन्हा विद्यार्थी अपने गुरु के साथ, उनका हाथ पकड़कर, उसी चित्त गुफा में आगे की ओर चलने लगा I
आगे जाते जाते, गुरु ने रुक कर पूछा… देखो उस ओर, जहाँ समता को समाया हुआ सत्त्वगुण है, और विज्ञान गुफा भी है और इन दोनों को चित्त गुफा का प्रकाश भेद रहा है I
नन्हे विद्यार्थी ने गुरु आदेश के अनुसार देखा और फिर वह बोला… अब सत्त्वगुण में कोई सापेक्षता का क्रम (या पदानुक्रम, या पदक्रम या महान्तशाही) नहीं है… विज्ञान गुफा में बस दो ही ऐसे भाग हैं, और चित गुफा में यह पदानुक्रम (या पदक्रम या महान्तशाही) अभी भी शेष है I
इसपर सनातन गुरु ने नन्हे विद्यार्थी की पीठ को थपथपाया और कहा… तुम्हारा अवलोकन (पर्यवेक्षण) उत्तम है I लेकिन तुम्हें (अर्थात नन्हे विद्यार्थी को) इसी बिंदु पर तब पुनः विचार करना होगा, जब हृदयाकाश गर्भ तंत्र को तुम पार कर चुके होगे I और उस समय तुम यह भी पाओगे, कि चित्त एक गुफा के स्वरूप में नहीं होगा, और यह चित्त अन्य सभी गुफाओं से ऐसा पृथक भी नहीं होगा जैसा इस हृदयाकाश गर्भ के भीतर अभी दिखाई दे रहा है I और तुम उस आगामी अवलोकन में जो इस ह्रदय आकाश गर्भ तंत्र को पार करके किया जाएगा, यह भी पाओगे कि इस चित्त में केवल एक संस्कार (अर्थात अंतिम संस्कार) ही शेष रह गया है I अभी के समान जो थोड़े से संस्कार चित्त में बसे हुए दिखाई दे रहे हैं, वह उस समय दिखाई भी नहीं देंगे जब तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पूर्ण कर लोगे I
सनातन गुरु आगे बोले… उस आगामी समय का वह अंतिम संस्कार अभी के संस्कारों के नाश होने के पश्चात ही स्वयंप्रकट होगा और वह अंतिम संस्कार अभी के सभी संस्कारों का परिणामी (या अंतिम परिणामस्वरूप) भी पाया जाएगा I और वह अंतिम संस्कार इस हृदयाकाश आकाश गर्भ तंत्र की सिद्धि को भी दर्शाएगा I और अंततः यह अंतिम संस्कार, तुम्हारे कपाल से शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकलेगा और उसी नन्हे बालक के चित्त में प्रवेश कर जाएगा, जिसने तुम्हे अपना स्थूल शरीर दान में दिया था, और जिसके प्रारब्ध की पूर्ती के लिए तुम यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र मार्ग का आलम्बन लेकर संस्कार नाश कर रहे हो I
और इसके पश्चात उस नन्हे विद्यार्थी का हाथ पकड़कर, सनातन गुरु उस अगली गुफा की ओर बढ़ने लगे, जो इस अध्याय श्रंखला में प्राण गुफा या प्राणमय गुफा भी कहलाई गई है I
असतो मा सद्गमय I
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra