अब मैं ईमाहो शब्द को बताउंगा। ये शब्द का ज्ञान आज विकृत स्वरूप में बताया जाता है इसलिए ये प्रयास उस ज्ञान को विशुद्ध करने का है। इस साक्षात्कार के मूल में, ब्रह्माणी विद्या, अर्थात ब्रह्माणी देवी या ब्रह्माणी सरस्वती ही हैं।
ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।
ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का छठा अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
ब्रह्माणी विद्या और ईमाहो …
अब मैं ईमाहो शब्द को बताउंगा। ये शब्द का ज्ञान आज विकृत स्वरूप में बताता जाता है इसलिए ये प्रयास उस ज्ञान को विशुद्ध करने का है। इस साक्षात्कार के मूल में, ब्रह्माणी विद्या, अर्थात ब्रह्माणी देवी या ब्रह्माणी सरस्वती ही हैं।
ये 2010 ईस्वी की बुद्ध जयंती की बात है, और प्रातः काल के 3 से 4 बजे होंगे। उस समय मैं पानी के जहाज पर कप्तान था, जो लाल सागर में, उत्तर दिशा की ओर, मिस्र के स्वेज़ नहर की ओर जा रहा था। उस समय उस जहाज का अक्षांश भी मक्का शरीफ के अक्षांश के समीप ही था।
रात के कोई 3 से 4 बजे के बीच में, अकस्मात मुझे अपनी पिङ्गला नाड़ी में बहुत ही गर्मी लगी, जैसे कोई गरम बिजली भीतर बैठ गई है। इससे मेरी नींद टूट गई और मैं उठकर बैठ गया।
जैसे ही सीधा बैठा और ध्यान में गया, तब इस चित्र की दशा दिखई दी, जिसमे एक देवी मेरे सहस्रदल कमल में बैठी हुई थी।
इस चित्र में, देवी ब्रह्माणी जो पञ्च सरस्वति या पञ्च विद्या में अंतिम या गंतव्य विद्या हैं, वो साधक के ब्रह्मरन्द्र चक्र या सहस्रार चक्र या सहस्रदल कमल में बैठी हुई हैं।
और ऐसी दशा में, ब्राह्मणी विद्या को एक सुनहरे रंग ने घेरा होता है और वही रंग, साधक के सहस्रदल कमल के पत्तों में भी दिखाई देता है। ऐसे समय पर, साधक का त्रिनेत्र या नैंन कमल भी सुनहरे रंग का ही हो जाता है, जैसा इस चित्र में भी दिखलाया गया है।
तो ये था इस दशा का संक्षेप में वर्णन। तो अब मैं इसको थोड़ा विस्तारपूर्वक बताता हूँ।
ई मा हो की दशा, … ई मा हो …
उस समय, मुझे मेरे ब्रह्मरंध्र में एक देवी बैठी हुई दिखाई दी, जिनको देवी ब्रह्माणी कहा जाता है और जो पांचवी और अंतिम या गंतव्य विद्या है।
वो श्वेत वर्ण की देवी को एक सोने के रंग के प्रकाश में घेर हुआ था, इसलिए वो सुनेहरे रंग की ही दिखाई दे रही थी। और ऐसी अवस्था में, वो देवी मेरे सहस्रार चक्र में, पद्मासन में बैठी हुई थी। इन देवी ब्रह्माणि को भी इस इस अध्याय के चित्रों में, सांकेतिक रूप में दिखाया गया है।
जैसे ही उन देवी को अपने सहस्रदल कमल में देखा, वैसे ही उस गरम ऊर्जा में कम्पन आ गयी। और वो कम्पन इतनी बढ़ गयी, कि वो गरम ऊर्जा मेरुदंड के नीचे से ऊपर, हृदय की ओर उठने लगी।
जब वो कम्पन से भरी हुई ऊर्जा हृदय से थोड़ा नीचे, जहां सूर्य और चंद्र चक्र होते हैं, वहां पंहुची, तो मैंने उसे वहीं पर रोक दिया।
कुछ समय तक रुकने के बाद, वो कम्पन से भरी हुई गरमा गरम विद्युत् रूपी ऊर्जा बड़ी होने लगी, विक्राल होने लगी।
और वो गरम बिजली के समान कम्पन से भारी हुई ऊर्जा, इतनी शक्तिशाली हो गई, कि मुझे लगने लगा कि मेरा मेरुदंड ही जल रहा है और अभी बस फटने वाला है। लेकिन इस दशा के बाद भी, मैंने उसे रोके ही रखा।
कुछ समय और रोकने के बाद, जब उस ऊर्जा ने मेरे मेरुदंड और उसकी नाडियों में बवाल मचा दिया और तब भी मैं उसे रोके ही हुआ था ताकि वो और ऊपर ना उठे, तो एक नारी की वाणी आयी।
वो वाणी मेरे ही घटाकाश की वाणी थी, जिसने बस इतना ही कहा था… जाने दे …
ऐसी घटाकाश वाणी के पश्चात, मैंने उस ऊर्जा पर से अपनी रोक निकाल दी।
अपनी रोक निकालने के तुरंत बाद, वो ऊर्जा ऊपर को उठी और हृदय चक्र में प्रवेश कर गई।
और इस अध्याय में बतलाई गयी दशाओं से होती हुई, वो ऊर्जा मस्तिष्क को गयी और बाद में उस ऊर्जा ने मस्तिष्क को पार भी किया था।
जिस दशा में उस ऊर्जा ने मस्तिष्क को पार किया था, उसको ही इस चित्र में दिखाया गया है।
तो अब मैं ईमाहो के शब्द और इसके भागों को बताता हूँ।
ई मा हो का शब्द … ई-मा-हो …
उस ऊर्जा के ऊपर की ओर उठने के समय जो शब्द सुनाई दिए थे, वो ऐसे थे …
- जो पहला शब्द सुनाई दिया था, वो ईईईईई था… ये शब्द तब आया था, जब वो ऊर्जा की रोक मैंने निकाली थी, और इसके बाद वो ऊर्जा ऊपर हृदय चक्र की और उठ रही थी।
इसके बाद, कुछ समय तक वो ऊर्जा हृदय चक्र में स्थित हो गई, और हृदय चक्र में ही मैंने उसे दोबारा रोक दिया।
लेकिन रोकने के बाद, उस ऊर्जा ने बहुत विकराल स्वरूप धारण कर लिया।
मेरुदंड के भीतर, हृदय कमल में उसे रोकने के बाद, उस ऊर्जा का आकार बड़ा होता होता, शरीर के हृदय तक भी पहुंच गया था। और वो ऊर्जा के कारण, हृदय की गति में भी परिवर्तन आने लगा था।
ऐसी विक्राल दशा को देख कर, मैंने सोचा, इस ऊर्जा को उसकी ऐसी भयानक स्थिति में, अनंत काल तक तो रोक ही नहीं सकते, नहीं तो हृदय की गति में ही विकृति आ जाएगी, और हो सकता है, कि हृदय ही रुक जाए।
तो मैंने सोचा, कि क्यों ना इस ऊर्जा की विक्राल दशा को ही, हृदय की सारी नाड़ियों और हृदय में ही स्थित, अंतःकरण चतुष्टय की सफाई में लगाया जाए, अर्थात, क्यों ना इस ऊर्जा को ही मन, बुद्धि, चित्त और अहम को स्वच्छ करने में लगाया जाए।
वैसे एक बात बताता हूं, कि हृदय में, 100 नाड़ियां होती हैं, और सफाई तो भाव, इच्छा, कर्मादी संस्कारों की भी होती है।
- उसके बाद, जब वो ऊर्जा स्थूल शरीर के हृदय में ही थी, तो मा शब्द सुनाई दिया… ये मा का शब्द तब आया जब वो ऊर्जा इस स्थूल शरीर के हृदय में पहुंच गई, और हृदय में ऊर्जा का एक बम फटा था।
इस मा शब्द के ऊर्जा बम की शक्ति इतनी थी, कि पूरी छती हिल गई।
और इसके बाद, कुछ क्षणों के लिए मैं शक्तिहीन सा ही हो गया, जिसके कारण मैं ऊर्जा को हृदय में रोक भी नहीं पाया था।
जैसे ही ये ऊर्जा का बम हृदय में फटा और वो मा शब्द सुनाई दिया, और कुछ क्षणों के लिए मेरी चेतना का उस ऊर्जा पर से नियंत्रण निकल गया, तब वो ऊर्जा और ऊपर उठी और कंठ कमल या विशुद्ध चक्र में प्रवेश कर गई।
इससे मेरा कंठ ऐसा हो गया जैसे उसमें से सारी नमी बहार निकाल दी गई हो। मुझे कंठ के भीतर ऐसा लगा, जैसे वो पूरा सूख गया है।
मैने इस ऊर्जा को यहां भी रोकने के प्रयास किया, लेकिन ऐसा करना अब असंभव सा ही होता जा रहा था। इसलिए, बस थोड़ी देर, कुछ क्षण ही इस ऊर्जा को अपने कंठ कमल में रोका, ताकी इसकी भी सफाई हो सके।
इस विशुद्ध चक्र की सफाई की प्रक्रिया में, मेरा तालु, जिह्वा और होंठ तक सूख गए, और ऐसा लग रहा था, जैसे इनमें से भी पूरी नमी बहार निकाल दी गई है।
कंठ कमल में वो ऊर्जा इतनी विकराल हो गयी, की मुझे लगने लगा, जैसे कण्ठ का हिस्सा ही अब फट कर टूटने वाला है।
इसलिए मैंने इस ऊर्जा पर से, अपनी रोक पुन: निकाल दी।
- इसके बाद वो ऊर्जा नैन कमल या आज्ञाचक्र में पहुंच गई। और जैसी ही यहां पंहुची, उसमें ऐसा बम फटा, कि वो पूरी फट गई और उस ऊर्जा से अंगिनात सुनहरी रश्मियां निकल गई।
- उस समय मेरा आज्ञाचक्र या नयन कमल, वैसा ही सुनेहरे रंग का हो गया, जैसा इस चित्र में दिखलाया गया है।मुझे अर्धनारीश्वर, जो योगी का ही सगुण आत्मा स्वरूप होते हैं, उनके दर्शन भी हुए।वो अर्धनारी मुस्कुराते हुए, गोल गोल घड़ी की सुई की उलटी दिशा में घूम रहे थे, जैसे कि वो किसी अप्रदक्षिणा पथ पर हों। इसका अर्थ हुआ, कि उस समय, मेरी चेतना जो नैंन कमल में थी, वो ही उनकी प्रदक्षिणा या परिक्रमा कर रही थी।और क्योंकि अर्धनारीश्वर ही सगुण आत्मा होते हैं, तो इसका ये भी अर्थ हुआ, कि वो साक्षी चेतना, स्वयं ही स्वयं के सगुण आत्मा स्वरूप, अर्थात, अर्धनारी की ही प्रदक्षिणा कर रही थी। वैसे एक बात बता दूं, की प्रदक्षिणा सगुण की ही की जाती है। निर्गुण की प्रदक्षिणा या परिक्रमा कैसे करोगे? … थोड़ा सोचो तो।और इसका ये भी अर्थ हुआ, कि ये प्रदक्षिणा मेरे भीतर ही बसे हुए पञ्च मुखा सदाशिव के वामदेव मुख की हो रही थी, क्यूंकि अर्धनारीश्वर ही तो सदाशिव के वामदेव मुख के देवता भी होते हैं।इसका तो अर्थ ये भी हुआ, कि पञ्चमुखी सदाशिव में, पाशुपत मार्गानुसार ये प्रदक्षिणा या परिक्रमा, अथर्ववेदी ही थी।और इसके कारण, मुझे पता चला, कि आज्ञाचक्र की ग्रंथी ही बद्रीनाथ भगवान का धाम है, और आदिबद्री स्वरूप में भगवान विष्णु ही अर्धनारीश्वर है।बहुत वर्ष पूर्व मुझसे यही बात, कि श्रीविष्णु ही अर्धनारीश्वर हैं, एक साधुबाबा ने भी कही थी, जब मैं हिमालय के उन मानवरहित स्थानों पर, एक गुफा में बैठा हुआ साधनारत था।
उन साधुबाबा ने तो ये भी बतलाया था, कि आत्मप्रदक्षिणा में, पञ्च ब्रह्म मार्ग में, मठ चतुष्टय ऐसे होते हैं…
- ऋग्वेद की पीठ, प्राण वायु में होती है।
- यजुर्वेद की पीठ, उदान वायु में होती है।
- सामवेद की पीठ, समान वायु में होती है।
- और अथर्ववेद की पीठ, अपान वायु में होती है।
इन चारो वायु के भीतर बसे हुए कमलों की जो ग्रंथीयाँ होती हैं, उन्हीं में ये मठ चतुष्टय या पीठ चतुष्टय होते हैं।
अब आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन जब वो ऊर्जा नैन कमल में प्रवेश करके, अंगिनत रश्मियों के विशालकाए सर्वभौम स्वरूप में आ गई, तो मैं समझ गया, कि अब इसको रोकना असंभव है। अनंत को कैसे रोकोगे?।
इसलिए, मैंने उसपर अपनी लगाई हुई सारी बाधाएं निकाल दी।
और ऐसा करने के तुरत बाद, वो ऊर्जा ऊपर ब्रह्मरंध्र की ओर इतनी तीव्र गति से गई, कि मैं उसे रोकना क्या, मैं उसका कुछ भी नहीं कर पाया।
और जब वो ऊर्जा ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करके, बस उसे पार कर रही थी, तो मस्तिष्क में ही एक ऐसा बम फटा की मुझे ऐसा लगा, जैसे किसी ने मस्तिष्क के ऊपर के भाग में, कपाल के भीतर से ही एक भारी भरकम हथौड़ा चला दिया हो।
जब ऐसा हुआ, तो एक शब्द सुनाई दिया, जिसका नाद हो था।
- और जैसे ही वो ऊर्जा ब्रह्मरंद पार करके गई, तो पुन: ईईईईई शब्द सुनाई दिया।
लेकिन जब उस ऊर्जा ने ब्रह्मरंध्र पार करके, उस शून्य में प्रवेश किया, तब उस ऊर्जा की दशा एक तितली के समान थी, जिसका रंग सुनेहरा था, जैसा इस चित्र में भी दिखलाया गया है।
और अंत: वो सुनहरी तितली के समान ऊर्जा जो इस चित्रा में दिखलाई गई है, वो हिरण्यगर्भ ब्रह्म में ही विलीन हुई थी।
इसके बाद मैं समाधि में ही चला गया। वो समाधि शून्य तत्व में थी।
और कुछ समय के बाद, जब वो समाधि टूटी, तो मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी स्वास और भोजन, दोनों ही नलियों की सारी नमी खींच ली गयी है, और मेरे होंठ, जिह्वा और तालु भी ऐसे सूखे हुए थे, जैसे बस अभी ही वो सूखे पत्ते के समान टूटकर बिखर जायेंगे।
अब जो बोल रहा हूं, उसको ध्यान से सुनो…
इमाहो शब्द तीन बीज शब्दों से बना है, जो ई, मा, और हो हैं।
और ये तीन शब्द शरीर के भीतर ही होते हैं, लेकिन शरीर के प्रथक स्थानों से सुनाई देते हैं।
- इमाहो का इ शब्द, मणिपुर चक्र, सूर्य और चंद्र चक्र से लेकर हृदय चक्र तक सुनाई देता है।
- इमाहो का मा शब्द, हृदय चक्र में सुनाई देता है।
- और इमाहो का हो शब्द, ब्रह्मरंध्र चक्र में सुनाई देता है।
- और जैसे उस ऊर्जा ने, ब्रह्मरंध्र को पार करके शून्य में प्रवेश किया, जिसमे वो ऊर्जा एक सुनहरी तितली के समान ऊपर उठती चली गई और अंतः, वो हिरण्यगर्भ लोक में ही पहुंच गई। ऐसे समय पर ईईई का शब्द पुन: आया था।
और इसके तुरंत बाद ही, मैं उस समाधि को गया, जिसे योगीजन शून्य समाधि कहते हैं।
और अपने साक्षातकार के कारण, मुझे ऐसा भी लगता है, कि जबतक योगी इस ऊर्जा को हृदय के नीचे से ही रोकते रोकते ऊपर को नहीं लाएगा, तबतक उस ऊर्जा में इतनी शक्ति भी एकत्रित नहीं होगी, की वो ब्रह्मरन्द्र को ही पार कर जाए।
जब योगी के प्राण, ब्रह्मरंध्र चक्र को पार करते हैं, तो ही वो प्राण विसर्गी होते हैं, और इसके पश्चात ही, वो योगी कैवल्य मार्गी होता है।
इसके सिवा, जो कुछ भी किसी भी ग्रंथ में लिखा हुआ है, इस इमाहो शब्द के बारे में, उसको मनोलोक की उत्पत्ति ही मानता हूं, क्योंकि जो प्रत्यक्ष में नहीं, उसको प्रमाण भी नहीं माना जा सकता।
शून्य समाधि क्या? …
ब्रह्मरंध्र या ब्रह्म के द्वार के भीतर ही, तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, जो एक के ऊपर एक, ऐसे ही स्थित होते हैं।
इन तीन छोटे चक्रों में से, जो सब से ऊपर का चक्र होता है, वो मनस चक्र कहलाता है, और ये चक्र छह श्वेत वर्ण के पत्तों से बना होता है।
मनस चक्र या मन के कमल दल को पार करके ही शून्य समाधि होती है।
और क्योंकि ये कमल दल, ब्रह्मरंध्र चक्र या सहस्रार चक्र का अंग ही होता है, इसलिए सहस्रार को शून्यचक्र भी कहते हैं।
इ-मा-हो, तिब्बत और इंद्र का सम्बन्ध …
तिब्बती बौद्ध पंथ में इस इमाहो नामक शब्द का वर्णन आता है।
जब भारत पर आक्रमण हो रहे थे, तब इस ज्ञान को तिब्बत में सुरक्षित किया गया था।
जो आज का तिब्बत है, वो पुरातन काल में इंद्रपुरी कहलाता था। अपने पूरे इतिहास में इन्द्रपुरी या तिब्बत योगियों का स्थान ही रहा है।
वैसे तो इंद्र भी एक योगी ही थे, और अपनी योग सिद्धियों के बल पर, उनको देवराज का पद मिला था।
इंद्र ही ऐसे योगी हैं, जिन्होंने 100 आंतरिक अश्वमेध याग पूर्ण किए हैं, और इसी सिद्धि के बल पे, उनको देवराज का पद मिला था। इस आन्तरिक अश्वमेध याग के बारे में किसी बाद के अध्याय में बताऊंगा।
इस भूमंडल पर, तिब्बत में ही देवराज इंद्र की गद्दी है।
और आज भी ये गद्दी, ल्हासा नामक स्थान के पास जो एक नदी बहती है, उससे कुछ दूरी पर, जो एक पहाड़ी है, उसमें छुपा कर रखी हुई है।
इसलिए आज भी, इस भूमंडल पर, देवराज इंद्र की गद्दी सुरक्षित पड़ी हुई है। एक समय पर, सूक्ष्म शरीर गमन के समय, मैंने देवराज इंद्र की उस गद्दी को देखा भी है।
इ मा हो और त्रिनाड़ी तंत्र …
मेरुदंड के दाहिने ओर की नाड़ी को तैजस नाड़ी या पिङ्गला नाड़ी कहते हैं। ये तैजस नाड़ी जो सूर्य नाड़ी है और जो पिंगल रंग की होती है, उसके देवता रुद्र हैं।
रुद्र पद को वो योगी पाता है, जिसने उसके अपने जीव स्वरूप के संपूर्ण इतिहास में, 99 आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किए हैं।
जब इस पिङ्गला या तैजस नाड़ी को, उस रात्री के समान शून्य ने घेरा होता है, तो ऐसी दशा में इस तेजस या पिङ्गला नाड़ी के आस-पास एक नीले या कृष्ण रंग का प्रकाश होता है। वेद मनीषियों ने, इसी दशा को कृष्ण पिंगल रुद्रावस्था कहा था।
और तिब्बती बौद्ध धर्म में, इसी नीले रंग को समंतभद्र और पिंगल रंग को समंतभद्री कहा जाता है, जिनकी योगावस्था समन्तभद्र समन्तभद्री योग कहलाती है और जो किसी बिरले साधक के शरीर में भी होती है।
जब ऐसा योग, साधक के शरीर में ही होता है, तब इस योग से ही एक सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, जिसको कृष्ण पिंगल रुद्र शरीर भी कह सकते हैं। इस कृष्ण पिंगल सिद्ध शरीर के बारे में, किसी बाद के अध्याय में बात करूंगा।
और इसी कृष्णपिङ्गल शरीर को, कुछ मार्ग अर्धनारीश्वर, अर्थात, रुद्र का सगुण आत्मा स्वरूप भी कहते हैं।
इसके बारे में भी किसी बाद के अध्याय में बात करूंगा। इस सिद्ध शरीर का नाता, मूलाधार से विशुद्ध चक्रों तक है, अर्थात, नमः शिवाय नामक सर्व कल्याणकारी शिव पंचाक्षर मंत्र से भी है।
अब आगे बढ़ता हूं…
मेरुदंड के बायीं ओर जो नाड़ी है, उसको इड़ा नाड़ी कहते हैं। ये इड़ा नाड़ी का रंग पीला होता है और इसके देवता इंद्र हैं। इंद्र पद को वो योगी पाता है, जिसने उसके अपने जीव स्वरूप के संपूर्ण इतिहास में, 100 आंतरिक अश्वमेध याग पूर्ण किए हैं।
और मेरुदंड के भीतर जो नाड़ी होती है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। ये सुषुम्ना नाड़ी सुनहरे रंग की होती है, जिसके भीतर हीरे के प्रकाश को समायी हुई एक नाड़ी होती है और जिसको ब्रह्म नाड़ी कहते हैं।
आगम मार्ग में इसी ब्रह्म नाड़ी को चित्रिनी नाड़ी भी कहा गया है। इसके देवता सगुण साकार स्वरूप में, सर्वसम प्रजापति होते हैं।
जब योगी के शरीर में ही, इड़ा नाड़ी की पीली ऊर्जा और पिङ्गला नाड़ी की पिंगल रंग की ऊर्जाएँ योग करती है, तो वो ऊर्जाएँ सुषुम्ना नाड़ी में ही प्रवेश कर जाती है।
ये प्रवेश नीचे के तीन चक्रों में से कहीं पर भी हो सकता है, अर्थात, ये प्रवेश मूलाधार या स्वाधिष्ठान या मणिपुर, तीन चक्रों में से किसी में भी हो सकता है। मेरा तो मणिपुर चक्र में हुआ था।
जब वो ऊर्जाएँ सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, तो इड़ा नाड़ी की ऊर्जा के कारण उनमें कम्पन आता है, और पिङ्गला नाड़ी की ऊर्जा के कारण उनमें गर्मी आती है। यही कारण है कि इस चित्र में दिखलाये गए समय पर, वो ऊर्जा में कम्पन और गर्मी दोनों ही थी।
और यदि इस ऊर्जा को हृदयचक्र में ही रोक दिया जाए, तो क्योंकि हृदय क्षेत्र के प्राणों की गति, आगे की ओर होती है, इसलिए, हृदय के प्राणों के प्रभाव से, ये ऊर्जा जो उस समय मेरुदंड के भीतर हृदय चक्र में होती है, वो हृदय चक्र से आगे, हृदय की ओर बढ़ जाती है।
और इसके बाद, ये ऊर्जा हृदय में प्रवेश करके, मस्तिष्क के प्राण को, जिसका नाम उड़ान कहा गया है, और जो ऊपर की ओर गति करता है, अर्थात, आकाश की ओर गति करता है, उसे अपनी ओर आकर्षित करके, नीचे की ओर, हृदय में ही ले आती है।
ऐसा होने के तुरंत बाद, उड़ान प्राण के बल के कारण, ये ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंच जाती है, क्योंकि उड़ान प्राण आकाश की ओर, अर्थात, सर के ऊपर की ओर ही गति करता है।
और ऐसी दशा में कुछ समय ये ऊर्जा मस्तिष्क के ऊपर के भाग में, उस स्थान पर एकत्रित हो जाति है, जहां ब्रह्मरंध्र या ब्रह्म का द्वार होता है।
यदि इस ब्रह्मरंध्र के स्थान को जानना है, तो अपनी दोनो कनपटियों से दो रेखाएं ऊपर की ओर खीचो और तीसरी रेखा अपने भ्रूमध्य से ऊपर की ओर खीचो। जहाँ ये रेखाएँ मिलेंगी, वो ही ब्रह्मरन्द्र है, अर्थात, तुम्हारे शरीर में ही ब्रह्म का द्वार है।
इ-मा-हो और ब्रह्माणी विद्या …
मेरे बहुत पूर्व के जन्मों के उन पुरातन कालों में, कुछ तंत्र विद्याओं में, योगीजन उनके चक्रों में देवी देवता को देखते थे।
ऐसी साधनाओं के समय पर, योगीजन ऐसा सोचते थे, कि उनके इष्ट देवी या इष्ट देवता या दोनों, उनके अमुक चक्र या चक्रों में विराजमान हैं।
ऐसी साधनाओं के फलस्वरूप, वो योगीजन उन देवताओं का अपने उन चक्रों में ही साक्षातकार करके, उन देवी देवताओं में ही विलीन होके, उन देवी देवताओं का ही स्वरूप हो जाते थे। इसको इष्ट स्वरूप सिद्धि भी कहा जाता था, जो देवत्व सिद्धि का अंग होती है, और ये सिद्धि, जीवत्व सिद्धि का अंग भी कहलाती है।
साधक का उसके इष्ट में विलीन होना वैसा ही होता है, जैसे कोई बूंद सागर में विलीन होके, सागर ही हो जाति है।
अब आगे बढ़ता हूं…
पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती विज्ञान में, ब्रह्माणी देवी का स्थान ब्रह्मरंध्र में ही होता है और ब्रह्माणी देवी, ब्रह्मविद्या और ब्रह्म कला की देवी भी होती हैं।
सभी पञ्च विद्याएं इन्ही ब्रह्माणी देवी में ही बसी हुई हैं, इसलिए ये देवी बुद्धेश्वरी भी कहलाती हैं।
अष्ट मार्तिकाओं में भी ब्रह्माणी देवी का प्रथम स्थान है।
इस चित्र में, साधक के ब्रह्मरंध्र में, देवी ब्रह्माणी बैठी हुई हैं, जो पञ्च विद्याओं में, पांचवी और अंतिम या गंतव्य विद्या हैं।
तो अब मैंने संकेत में ही सही, लेकिन इस इमाहो शब्दों के मूल को बता दिया है।
लेकिन ये अध्याय अभी समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि अगले अध्याय में भी इसके कुछ बिंदुओं को बताया जाएगा। उस अगले अध्याय का नाम पञ्च विद्या, पञ्च सरस्वती है।
असतो मा सद्गमय।
लिंक:
कालचक्र, Kaal Chakra
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
शून्य तत्व, Shunya Tattva
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman