अब मैं ॐ शृंखला का प्रारम्भ कर रहा हूँ। यहाँ पर ॐ या ओम् या ओउम् को विस्तारपूर्वक बतलाया जायेगा। इस श्रृंखला का मुख्य उद्देश्य है की साधकगण जाने… ॐ क्या है, ॐ की महिमा, ॐ किसे कहते हैं, ॐ का स्वरूप, ॐ और ब्रह्म का नाता, ॐ और देवी का नाता, ॐ शक्ति, ॐ का शक्तिमय स्वरूप, ॐ और शक्ति का नाता, ॐ और प्रणव का नाता, ॐ और प्रकृति का नाता, ॐ और पुरुष का नाता, ॐ का प्रकृति और पुरुष से नाता, ॐ और ब्रह्मतत्त्व का नाता, ॐ महामंत्र है भी या नहीं, ॐ का महामंत्र स्वरूप, महामंत्र ॐ क्या है, ॐ ब्रह्म है, ॐ का ब्रह्म स्वरूप, ॐ साक्षात्कार कहाँ होता है, साधक के शरीर में ॐ का साक्षात्कार स्थान कहाँ होता है, ॐ और ब्रह्मरंध विज्ञानमय कोष, ब्रह्मरंध विज्ञानमय कोष में ॐ साक्षात्कार, ॐ के भाग क्या हैं, ॐ शब्द ब्रह्म है, ॐ और शब्दब्रह्म का नाता, ॐ का शब्द ब्रह्म स्वरूप, ॐ नाद ब्रह्म है, ॐ और नादब्रह्म का नाता, ॐ का नाद ब्रह्म स्वरूप, ॐ ही ब्रह्म लिपि लिंगात्मक स्वरूप है, ॐ का ब्रह्म लिपि लिंगात्मक स्वरूप, ॐ का ब्रह्म लिपिलिंग स्वरूप, ॐ का शब्द लिंगात्मक स्वरूप, इत्यादि।
और क्यूंकि, ॐ के भागों को, ॐ के महामंत्र स्वरूप और ॐ के ब्रह्म स्वरूप को ऐसे ही एक या दो अध्याय में बतलाया ही नहीं जा सकता, इसलिए इस ॐ शृंखला में कई सारे अध्याय भी होंगे।
जो यहां पर बतलाया जायेगा, वो ज्ञान अब लुप्त हो चुका है। कलियुग की काली काया ने इस ज्ञान को ढक लिया है, इसलिए इस कलियुग के पूरे काल खंड में, इसको बस मुट्ठी भर योगी ही साक्षात्कार कर पाये होंगे।
ये ज्ञान कलियुग का है ही नहीं, इसलिए इसको प्रकाशित भी तब किया जाता है, जब या तो कलियुग समाप्त हो रहा हो या कलियुग स्तम्भित होकर गुरुयुग या आम्नाय युग आ रहा होता है… अन्यथा नहीं।
आज का समयखंड कलियुग के स्तम्भित होने का ही है, इसलिए मुझे मेरे सनतान गुरु, जो मेरे हृदय की घोर तमस गुफा में निवास करते हैं, उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व, इसको तब लिखने और कभी बाद में प्रकाशित करने को कहा था।
मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं, क्यूंकि मै योग भ्रष्ट हूँ और प्रबुद्ध भी हूँ, ओउम् को वैसा ही बतलाया जाता था, जैसा यहां बताया जाएगा।
आत्मा ही ब्रह्म है, और ॐ ब्रह्म का लिपि लिंगात्मक स्वरूप होने के साथ, उसी ब्रह्म का शब्द लिंगात्मक स्वरूप भी है। वैसे तो ओउम् ही आत्मा होता है, जो वास्तव में ब्रह्म ही है।
इसलिए, योगमार्ग के दृष्टिकोण से, जो मार्ग गंतव्य रुपी कैवल्य मोक्ष को लेके जाता है, उस मार्ग में ॐ आत्मा है, और इसके साथ साथ, ॐ ब्रह्म है।
यहां जो कहा गया है, उससे ही साधक का आत्मपथ या ब्रह्मपथ या कैवल्यपथ होकर जाता है। जो कुछ भी इस ॐ श्रृंखला में बतलाया जायेगा, वो सब आत्मज्ञान का मार्ग है, और आत्ममार्ग का गंतव्य भी है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
मैंने यहां योगी शब्द का प्रयोग किया है। यह शब्द उस योगी को दर्शता है, जिसकी परिभाषा बाद में दी गई है और इसके अतिरिक्त, यह शब्द, साधक की चेतना को भी दर्शता है, क्योंकि वास्तव में साधक की चेतना ही योगी होती है, न कि वो साधक।
ये सब मेरे साक्षात्कार के अनुसार है, इसीलिए यदि किसी भी ग्रंथ में कुछ और कहा गया है, तो आप उसे मानो और मैं इसको मानूंगा, क्योंकि किसी भी साधक के दृष्टिकोण से, प्रत्यक्ष से बड़ा कोई प्रमाण भी तो नहीं होता है।
यह ओउम् शृंखला भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
ये ओउम् शृंखला, मेरे जन्म स्थान की आम्नाय पीठ, जिसे गोवर्धन मठ पुरी कहा जाता है, उसके साथ साथ, अन्य तीनों व्यास पीठों को भी समर्पित है।
और ये ओउम् शृंखला, वेदों के सारे आराध्य, वेद मनीषी, समस्त आगम निगम गुरु परंपरा और उनकी पारंपरिक गुरु गद्दियों को भी समर्पित है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तिरपनवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, ओ३म् सावित्री मार्ग का पहला अध्याय है।
ॐ विज्ञान … आत्ममार्ग का मूल और गंतव्य …
वेद मार्ग का गंतव्य, आत्म साक्षात्कार ही होता है।
लेकिन, क्योंकि ओउम् ही तो आत्मा है, इसलिए जो यहां कहा गया है, वो ही आत्ममार्ग भी कहलता है। यही ॐ विज्ञान आत्ममार्ग का मूल है, और गंतव्य भी है।
इस मार्ग में जिस भी साधक की चेतना जाति है, वो साधक ॐ स्वरूप में ही अपनी आत्मा को पाता है। इसका कारण है, की अंततः, साधक की चेतना, ॐ में ही विलीन होती है…, और कहीं भी नहीं।
इसी ओउम् मार्ग से होकर, साधक की चेतना गंतव्य रूपी कैवल्य को चली जाती है।
ओउम् वेदों का बीज है। और वेदों की अंत गति भी ओउम् साक्षात्कार से ही होकर जाती है। इसलिए, ओउम् वेदों का मूल और गंतव्य, दोनों ही है।
ना तो मूल का कोई मूल होता है, ना ही गंतव्य का ही कोई गंतव्य होता है।
जो ऐसा होता है, वो ही आत्म मार्ग है, और ऐसा योगमार्ग ओउम् साक्षात्कार से होकर ही जाता है, और यही योगपथ आत्ममार्ग कहलाता है। इसलिए, इस श्रंखला में बतलाया गया ॐ साक्षात्कार, आत्ममार्ग का अमूल गंतव्य भी है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
आत्ममार्ग में…, मूल में योग होता है और गंतव्य में वेद। वेद से मेरा तात्पर्य है, आत्मज्ञान।
कोई गंतव्य प्राप्त वैदिक ऋषि नहीं हुआ, जिसके मूल में योग नहीं था ।
और कोई सिद्ध योगी नहीं हुआ, जिसके गंतव्य में वेद नहीं था ।
इसी कारण वश पूर्व में भी बतलाया था कि …,
मूल में योग होता है और गंतव्य में वेद, या आत्मज्ञान।
ये मूल और गंतव्य, दोनो ही ओउम् में बसे होते हैं।
इसलिए, जो ओउम् का नहीं होता, वो ना तो मूल का होता है और न ही गंतव्य को ही पाता है। जो ऐसा होता है, उसकी दुर्गति ही होती है।
जो गति मूल में बसी नहीं होती, वो गति उस अमूल गंतव्य, जिसको कैवल्य और मोक्ष कहा जाता है, उसकी ओर भी नहीं लेकर जाती। और जो गति ऐसे अमूल गंतव्य की ओर लेकर नहीं जाती, वो ही दुर्गति कहलती है।
साधक किसी भी देवलोक में ही क्यों न चला जाए, लेकिन उस कैवल्य मोक्ष रूपी अमूल गंतव्य के दृष्टिकोण से, जो पूर्ण स्वतन्त्र होता है और जो समस्त देवादि लोकों से भी परे होता है…, ऐसी गति दुर्गति ही कहलाएगी।
मूल, आधार होता है, और गंतव्य निराधार। जो ऐसा नहीं होता, वो मुक्तिमार्ग नहीं होता। और क्यूँकि मूल और गंतव्य, दोनों में ही ॐ है, इसीलिए ॐ सर्वाधार मूल रूप में भी है, और निराधार गंतव्य स्वरूप भी है।
मूल तत्व, ब्रह्म शक्ति या प्रकृति कहलाता है, और गंतव्य, ब्रह्म या पुरुष कहलाता है। ॐ विज्ञान, प्रकृति और पुरुष, दोनों में समान रूप में बसा हुआ है, इसलिए ॐ विज्ञान, प्रकृति और पुरुष, दोनों को एक साथ लेकर चलता है।
और क्यूंकि वेदों का बीज भी ओउम् ही है, इसलिए वेदमार्ग ही ऐसा मार्ग है, जो प्रकृति के तारतम्य का अलम्बन लेके भी, गंतव्य को ही लेकर जाता है। वेदों के सिवा, और कोई मार्ग है ही नहीं, जो प्रकृति के तारतम्य का अलम्बन लेके भी, गंतव्य प्राप्ति करवा सके। गंतव्य से मेरा तात्पर्य है, कैवल्य मोक्ष।
अब आगे बढ़ता हूँ …
अपने मूल, प्रकृति स्वरूप में, ॐ ही प्रणव कहलाता है।और अपने ही गंतव्य, पुरुष स्वरूप में, ॐ ही ब्रह्म है।
जिस मार्ग में प्रकृति और पुरुष, दोनों का निष्काम योग नहीं होता, वो मुक्ति मार्ग भी नहीं होता।
क्योंकि ॐ में प्रकृति और पुरुष, दोनो का सामंजस्य है, इसलिए जो ॐ विज्ञान यहां बतलाया जा रहा है, वह उस गंतव्य रूपी मुक्ति का मार्ग ही है।
ॐ विज्ञान को कौन बतला सकता है …
यदि किसी ने ओउम् का साक्षात्कार नहीं किया, और तब भी वह ओउम् के बारे में दूसरों को बताएगा, तो ना उसे कोई लाभ होगा, न ही किसी दूसरे को।
इसलिए, मेरे पूर्व जन्मो में, ओउम् विज्ञान को वही ऋषि या सिद्ध बतलाते थे, जिन्होंने इसका साक्षात्कार किया होता था…, अन्य कोई भी नहीं।
लेकिन अब इस कलियुग की काली काया के प्रभाव में, इस बिंदु का कोई भी पालन नहीं कर रहा है, जिसके कारण ये पृथ्वी लोक ओउम् विज्ञान शून्य सा ही हो गया है।
और क्यूंकि मैं अभी इस मानव काया में हूँ, इसलिए वो सब सुनता भी हूँ, जो आज के बहुत सारे वेद मनीषी ॐ के बारे में बतलाते हैं। और उनको सुनकर कभी कभी तो मैं सोचता भी हूँ, की अब ये मृत्युलोक, लगभग ॐ विज्ञान शून्य सा ही हो गया है।
ॐ विज्ञान को जाने बिना तो ॐ का उच्चारण, मनन या चिंतन भी उचित फल नहीं देता और ऐसा उच्चारण, मनन और चिंतन भी विपरीत फल सिद्धांत को ही लेकर जायेगा।
तीन कालों में, समस्त विश्व में, बिरले ही योगी होते हैं, जो ओउम् विज्ञान पर चले होते हैं, और ओउम् का पूर्ण साक्षरकार भी किए होते हैं।
इसलिए जो यहां बतलाया जा रहा है, वो एक अति दुर्लभ ज्ञान है, जो किसी भी स्थूल धरा पर, कई हजारों वर्षो में एक बार ही बतलाया जाता है।
इसलिए यदि इसको धारण करना हो, तो कर लेना।
ऐसे साधकगण और मुमुक्षुजन के लिए ही इस ओउम् विज्ञान को यहां बता रहा हूं, ताकि उन साधकों और मुमुक्षुओं के ॐ उच्चारण और उनकी ॐ साधाएँ, उस विपरीत फल सिद्धान्त को न जाएं, जैसा आज अधिकांश रूप में साधकों के साथ हो रहा है…, और जिसके कारण कुछ वेद मनीषी तो ये भी कहते हैं, इस इस धरा के अच्छे साधकगण सदैव कष्ट ही पाते हैं। लेकिन यह बात सत्य नहीं है क्यूंकि उन कष्टों का कारण वो नहीं है जो वो वेद मनीषि बोलते हैं, बल्कि वो है जो यहाँ बताया गया है।`
और एक बात जान लो, कि यदि इसको अपने इस जन्म में धारण नहीं करना हो, तो कुछ हजार वर्षों के पश्चात, जब तुम इसे धारण करने के पात्र हो जाओगे, और तब एक और योगी, उन्ही पंच मुखा सदाशिव के किसी और मुख से आएगा, जो ओउम् का साक्षातकारी होगा, तबतक प्रतीक्षा कर लेना इसको जानने की और धारण करने की।
ॐ का मार्ग… ओउम् मार्ग … ओम मार्ग ॐ भाव का ही होता है …
ओउम् को रटने से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा, केवल कुछ सिद्धियां मिलेंगी, जो वास्तव में व्यार्थ हैं, क्यूंकि सिद्ध की गति कभी भी उस गंतव्य रूपी कैवल्य (मोक्ष) तक नहीं होती।
ऐसा कहने का कारण है, कि …
जो योगी सिद्ध ही हो गया, उसको मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना।
और मुक्तात्मा को सिद्धियों से क्या लेना देना, वो तो सिद्धियों से भी मुक्त है।
मैं ऐसा यूं ही नहीं बोल रहा, बल्कि अपने साक्षात्कार की हुई अवस्था का आधार लेके ही बोल बोल रहा हूँ, क्यूंकि अपने एक पूर्व जन्म में, जो इसी महायुग में था, मैं चौरासी सिद्धों में से एक था…, जिसका नाम धर्म शब्द से था।
अब आगे बढ़ता हूँ …
यदि ओउम् मार्ग पर जाना है, तो ओउम् भाव में ही अपनी चेतना को बसा लो, और इसके पश्चात, उस ओउम् भाव में स्वयं भी बस जाओ।
यही मार्ग है गंतव्य साक्षात्कार, अर्थात ॐ साक्षात्कार का मार्ग है।
अब जो बोला जा रहा है, उसपर ध्यान देना …
उस ओउम् मार्ग में, भाव में ही साधन होता है। इसलिए, जैसा साधन चाहिए इस मार्ग पर जाने के लिए, वैसा भाव अपने भीतर उत्पन्न कर लो।
ऐसा करने से, कुछ ही समय में, उस साधक के भीतर और उसी साधक के लिए, उस साधक के भाव के अनुसार एक अति सूक्ष्म साधन स्वयंप्रकट हो जाएगा, और उसी साधन का आलम्बन लेके, साधक इस ॐ मार्ग पर जाएगा।
और क्यूंकि वो साधन, साधक के अपने भाव से ही स्वयंप्रकट हुआ है, इसलिए उस साधन पर केवल उस साधक का ही अधिकार होगा…, और किसी का भी नहीं।
इस संपूर्ण जीव और जगत में, तेरे भाव से उत्पन्न हुए, तेरे साधन का प्रयोग, कोई और नहीं कर पाएगा।
इस संपूर्ण चतुर्दश भुवन में, कोई माई का लाल है ही नहीं, जो तेरे भाव से उत्पन्न हुए साधन का प्रयोग, तेरी इच्छा के बिना कर ले।
इसलिए, तीनों काल में, तेरे भाव से उत्पन्न हुआ तेरे साधन पर केवल तेरा ही अधिकार रहेगा …, और किसी का भी नहीं।
इसका कारण है, कि जब भाव ही तेरा था, तो उस भाव से स्वयंउत्पन्न साधन भी केवल तेरा ही होगा…, और किसी का नहीं।
इसलिए, तेरे ही भाव से उत्पन्न, तेरे साधन का प्रयोग, कोई और नहीं कर पाएगा। ऐसा साधन, सनातन काल तक, तेरा ही कहलाएगा, और तेरे नाम पर और तेरी सिद्धि स्वरूप में ही जाना जाएगा।
तेरे भाव से स्वयंउत्पन्न हुआ साधन, तेरा गंतव्य प्राप्ति का मार्ग होगा …, और कुछ भी नहीं।
इसलिए, गंतव्य प्राप्ति के मार्ग में, भाव भी तेरा होना चाहिए, और साधन भी तेरा। जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक तू अपने गंतव्य मार्ग में, किसी ना किसी बीच के लोकों में ही फंसा रह जाएगा।
अब ऐसे बीच के लोकों को, तू स्वर्ग बोल या नरक, यह तेरे ऊपर है। लेकिन एक बात जान ले, कि, ऐसे लोक गंतव्य बिल्कुल नहीं होते।
पूर्ण स्वतंत्रता, अर्थात कैवल्य, को ही गंतव्य कहते हैं।
स्वतंत्रता, पूर्ण होती ही नहीं, यदि समस्त लोकों से और उनकी सिद्धियों, अवस्थाओं मतों और मार्गों से भी स्वतंत्र न हो।
इसलिए, उस पूर्ण स्वतंत्रता या कैवल्य में, कोई देवी देव या उनका लोक भी नहीं होता। उस कैवल्य में, तेरे सिवा कोई और सत्ता ही नहीं होती।
ऐसे पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग, ॐ साक्षात्कार से होकर ही जाता है।
अब जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान दो…
मुक्तात्मा कभी सिद्धि नहीं होता, क्योंकि वो तो सिद्धियों से भी मुक्त होता है। मुक्तात्मा बस निर्गुण निराकार में बसा होता है, जिसमें कोई सिद्धि नामक वस्तु ही नहीं होती। निर्गुण निराकार को ही तो कैवल्य मोक्ष कहा गया है।
और इसके विपरीत, सिद्ध कभी मुक्त नहीं होता। जबतक कोई साधक सिद्धियां धारण करके बैठा है, तबतक उसकी कैसी मुक्ति। सिद्ध ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों में से, एक या एक से अधिक में बसा हुआ होता है। और एक बात, चाहे वो सिद्ध निर्गुण निराकार का साक्षात्कारी ही क्यों न हो, लेकिन सिद्ध कभी भी निर्गुण निराकार में बसा नहीं होता।
साधारण भाषा में बोलूं, तो सर्वातीत दशा को ही कैवल्य मुक्ति कहते हैं, पूर्ण संन्यास को ही कैवल्य मोक्ष कहते हैं, और ऐसी दशा तो चेतना चतुष्टय या दशा चतुष्टय में भी नहीं होती।
तुरीयातीत को ही आत्मा कहते हैं, जिसको “प्राप्त हुआ” योगी ही मुक्तात्मा कहलाता है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
यहाँ कहे गए शब्दों पर ध्यान देना, क्यूंकि मैंने यहाँ पर, “प्राप्त हुआ”, ऐसा कहा है …, न कि “प्राप्त किया”, ऐसा कहा है।
इसका कारण है, की जो तुम स्वयं ही हो, जो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप ही है, उसको प्राप्त कैसे करोगे, उसको तो प्राप्त होना पड़ेगा ना।
और यही कारण है, की मुक्ति कर्मों में नहीं होती…, बल्कि वो मुक्ति कर्मातीत होती है।
जो मुक्ति कर्मातीत नहीं होती, वो वास्तव में कैवल्य मोक्ष ही नहीं होती। ऐसी मुक्ति तो बस छलावा ही है, जो किसी न किसी देवादि लोकों से ही सम्बंधित होती है, न कि उस निर्गुण निराकार पूर्ण सन्यासी या सर्वस्व त्यागी सर्वसाक्षी ब्रह्म से।
मैंने यह बात कि देवलोकों में मुक्ति नहीं होती, अपने जीवरूप में, कई कल्पों के इतिहास में, कई सारे ऐसे लोकों में निवास करने के पश्चात, अपने अनुभव से ही कही है। देवलोकों में मुक्ति तो बस छलावा है, क्यूंकि कर्मातीत मुक्ति देवादि लोकों में नहीं होती।
यदि तू जीवत्व को ही पा गया, तो भी देवलोकों को पार कर जायेगा, और ऐसी दशा में, तेरा अगला पड़ाव बुद्धत्व का ही होगा। बुद्धत्व के बाद ही तू अपनी आत्मा में ही, अर्थात, अपने आत्मस्वरूप में ही ब्रह्मत्व को पाएगा।
जबतक ऐसा नहीं पाएगा, तबतक तू घूमता ही रह जायेगा, कभी इस लोक में तो कभी उस लोक में, और मुक्त नहीं हो पायेगा, क्यूंकि ऐसी दशा में तू कर्मों से परे नहीं हो पायेगा।
उस तुरीयातीत मुक्ति या कर्मातीत मुक्ति का मार्ग, ॐ साक्षात्कार से होकर जाता है।
अब आगे बढ़ता हूं…
अपने भाव रूपी इच्छा शक्ति से ही चतुर्मुखा पितामह प्रजापति ने इस जीव जगत को उत्पन्न किया था।
इसको उत्पन्न करने के लिए, उस ब्रह्म ने भी अपने विशुद्ध भाव का ही अलम्बन लिया था, इसलिए, ये जीव जगत उसी ब्रह्म का भाव साम्राज्य है। ब्रह्म का वो विशुद्ध भाव ही उस ब्रह्म की इच्छा शक्ति कहलाया था।
और उसी इच्छा शक्ति, अर्थात ब्रह्म के भाव से उत्पन्न साधन से, इस जीव जगत की रचना हुई थी। इसलिए मेरा ये बताया भाव रूपी मार्ग, ब्रह्म मार्ग ही है।
और इस मार्ग में, ॐ ही ब्रह्म है, और वो ब्रह्म भी तेरे ही आत्मस्वरूप में, तेरे ही गंतव्य स्वरूप में, तेरे ही भीतर बसा हुआ है।
तू उस ब्रह्म की एक सर्वोत्कृष्ट रचना ही है, जो उस रचैता की ही पूर्ण अभिव्यक्ति है और वो भी तेरे ही अपने सगुण साकार, काया धारी स्वरूप में… और यही सत्य समस्त जीव जगत पर भी लागू होता है।
इस ओउम् साक्षात्कार के मार्ग में, तू तेरे ही पिंड स्वरूप में, वो रचैता, उसकी समस्त रचना और उसका समस्त रचना का तंत्र भी है।
ऐसा होने के कारण तू ही रचैता, रचना और रचना का तंत्र भी है, जिसके कारण तू उस ब्रह्म के समान, परिपूर्ण भी है।
जो कुछ भी जीव जगत के रचैता ने रचाया है, वो सब तू ही है, क्यूंकि उसने तुझे बिलकुल उसके जैसा ही बनाया है। इसलिए, तेरे काया धारी स्वरूप में भी, वो ही ब्रह्म एकमात्र प्रकाशित हो रहा है।
इस समस्त जीव जगत में, तेरे सिवा ना कुछ और कभी था, ना ही आगे कभी होगा। उस रचैता की सर्वोत्कृष्ट रचना के स्वरूप में, तीनो कालों में, इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में और इस ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों में, जो भी हुआ है, या है या आगे कभी होगा, वो सब कुछ तू ही है… क्यूंकि ये सब कुछ तेरे भीतर ही जो प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड है, उसमे ही बसा हुआ है।
इस समस्त जीव जगत में, अबतक जो भी था, या अभी है, या आगे कभी भी होगा, उस सबमें तू ही तेरे अपने आत्मस्वरूप में एकमात्र प्रकाशित हो रहा है, और जहाँ तेरा आत्मस्वरूप ही वो ब्रह्म है, जिसके भाव रूपी इच्छा शक्ति से ही तेरे सहित, इस समस्त जीव जगत की रचना हुई है।
और यही भाव, ॐ मार्ग कहलाता है, जो तेरी ब्रह्म भावापन अवस्था को दर्शाता है, और जो तेरे ही ब्रह्मपथ स्वरूप में, तेरे लिए ही, तेरे भीतर से ही स्वयंप्रकट होता है। इसलिए, उस ब्रह्मपथ को अपनी काया से बाहर की ओर ढूंढने की कोई भी आवश्यकता नहीं।
तुझे जब भी वो ब्रह्मपथ मिलेगा, तब वो तुझे तेरी काया के भीतर ही मिलेगा क्यूंकि तेरी काया के बाहर वो ब्रह्मपथ है ही नहीं।
न वो ब्रह्मपथ किसी शास्त्र में है, न ही किसी मन्त्र, तंत्र या यन्त्र में है, न ही किसी देवादि लोकों में है, और न ही उस ब्रह्माण्ड में ही है, जिसमें तू कायाधारी स्वरूप में बसा हुआ है।
वो ब्रह्मपथ जो तुझे ब्रह्मत्व की ओर लेके जाएगा, वो तो तेरे अपने आत्मस्वरूप में ही है, इसलिए अपनी आत्मा की ओर जा…, “स्वयं ही स्वयं में” जा।
तेरा आत्मस्वरूप ही तेरा वास्तविक विधाता है, जो ब्रह्म कहलाता है, इसलिए अपने ही आत्मस्वरूप की ओर…, स्वयं ही स्वयं में जा।
तू और तेरा ये जगत, उसी ब्रह्म का भाव साम्राज्य है, इसलिए तेरा गंतव्य या ब्रह्ममार्ग भी तेरे भाव साम्राज्य से ही जाता है…, न कि किसी ग्रन्थ या किसी की वाणी से।
इसलिए तू अपने भाव साम्राज्य से ही ब्रह्म को पाएगा, क्यूंकि ब्रह्म की रचना में, ब्रह्म की रचना ही होकर, तेरी ब्रह्मप्राप्ति का कोई और मार्ग है ही नहीं।
और मेरी इस बात पर ध्यान देना …
सतयुग कभी भी बाहर के मार्गों से नहीं आता…, वो सदैव भीतर के मार्गों से, आत्ममार्ग से ही आता है।
और इसके विपरीत, कलियुग कभी भी भीतर के मार्गों से नहीं आता, वो सदैव बाहर के मार्गों से आता है, अर्थात किसी देवता या शास्त्र के मार्गो से ही आते है।
इसलिए, जब से मानव जाति इन बहार के मार्गों में, जैसे किसी देवता का मार्ग, या किसी और साधक का मार्ग, या किसी शास्त्र के मार्ग, इत्यादि में गई थी, तभी से वो मानव जाति सत्युग को त्याग के, कलियुग की दशाओं की ओर प्रस्थान करने लग गयी थी।
और जब मानव जाति पुनः भीतर के मार्गों में चली जाएगी, अर्थात आत्ममार्ग में चली जाएगी, तब इस ब्रह्माण्ड के कालचक्र के अनुसार, चाहे युग कोई भी हो, वो मानव जाति सत्युग को ही इस मृत्यु लोक में पाएगी।
बाहर के समस्त मार्ग, जैसे किसी देवलोक का मार्ग, या किसी भी ग्रन्थ का मार्ग, प्रकृति के तारतम्य का होता है, इसलिए ऐसा मार्ग विषमता का होता है, विभिन्न प्रकार के कलह कलेश और त्रितापों का होता है।
और इसके विपरीत भीतर का मार्ग, या आत्ममार्ग, समता का होता है, उस सत् का होता है, जीव जगत से ही संन्यास का होता है, और इसीलिए ऐसा भीतर का मार्ग, उस पूर्ण संयासी, अद्वैत ब्रह्म का होता है, जो सर्वात्मा होता है अर्थात सबका आत्मा होता है, जिसके कारण इस आत्ममार्ग में किसी भी कलह कलेश का कोई अंशमात्र भी नहीं होता।
जब अधिकांश मानव जाति इस आंतरिक मार्ग में होती है, तो सतयुग जैसा होता है।
और जब इसी पृथ्वीलोक या मृत्युलोक की अधिकांश जीव सत्ता, आत्ममार्गी हो जाती है, तब इस मृत्युलोक में, देवता भी अपने स्वर्ग त्याग के आते है, और मानव काया धारण करके यहीं मृत्युलोक में निवास करते हैं …, उनके अपने देवलोकों में नहीं।
इस ब्रह्माण्ड के वैदिक इतिहास मे, ऐसा कई बार हुआ है और आगामी गुरुयुग में, जिसका कुछ ही वर्षों में प्रकाश होने वाला है, ऐसा ही होने वाला है…, कि देवतागण भी इसी मृत्युलोक में जन्म लेके, यहीं निवास करेंगे।
और इस अवस्था को पुनः लौटने का मार्ग, जीवों के भाव साम्राज्य से ही जाता है…, जैसा यहाँ बतलाया जा रहा है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
यही कारण है, कि यदि तुझे उस ब्रह्मपथ पर जाना है, तो तुझे उस ब्रह्मपथ को अपनी काया के भीतर ही ढूंढ़ना पड़ेगा… तेरी काया के बाहर तो वो तुझे मिलेगा ही नहीं।
इसलिए, ओउम् साक्षात्कार के मार्ग में, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य में ही होकर जाना चाहिए…, क्यूंकि वो ॐ भी तो तू ही है।
जो योगी ऐसा ब्रह्म भावापन हो गया, उसके लिए युग चाहे जो भी चल रहा हो, वो स्वयं ही स्वयं को जाता हुआ, सतयुग में ही जियेगा।
अब जो बोल रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …
सतयुग कभी बहार से नहीं आता, वो मानव की काया के भीतर से ही आता है।
और इसके विपरीत …
कलियुग कभी भी भीतर से नहीं आता, वो मानव की काया के बहार से ही आता है।
इसलिए …
कलियुग में बहार के, अर्थात किसी देवादि सत्ता या किसी ग्रन्थ के मार्ग होते हैं।
और सतयुग में भीतर के, अर्थात ब्रह्मग्रंथ और आत्मसाक्षात्कार के मार्ग होते हैं।
इसलिए, जब मानव जाति स्वयं ही स्वयं को चली जाएगी, तो चाहे युग कोई भी चल रहा हो, उस मानव जाति के लिए सतयुग जैसा ही होगा।
और मैं, अनादि कालों से चला आ रहा एक जीव, जो अपने मनस पिता की आज्ञा के अनुसार, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ था, ये बात अनगिनत युगों को, उनके परिवर्तन को और उनकी स्थम्भन प्रक्रिया को देख कर ही बोल रहा हूँ, कि सतयुग कभी भी बाहर से नहीं आता…, सत्युग भीतर से ही आता है।
मानव काया के बहार से, सत्युग न पूर्व में कभी आया था, ना ही भविष्य में ही कभी आएगा।
इसलिए यदि सतयुग को जाना है, तो स्वयं ही स्वयं को जाओ …, और मेरी एक बात याद रखो, कि ऐसा मार्ग भी ॐ साक्षात्कार से ही होकर जाता है, जिसका आधार यहाँ पर डाला जा रहा है।
आगे बढ़ता हूँ …
तू ब्रह्म की सर्वोत्कृष्ट रचना, ब्रह्म ही है, क्योंकि वास्तव में तो, वो रचैता ही तेरे स्वरूप में उसकी अपनी रचना हुआ था।
रचना ही तो रचैता होती है, क्यूंकि रचैता ने स्वयं को रचना रूप में ही अभिव्यक्त किया था। और तेरे जीव स्वरूप में, तू भी तो उस रचैता की रचना स्वरूप में…, वो रचैता ही है।
और इसके साथ साथ, तेरे भीतर ही रचना का समस्त तंत्र भी है, क्योंकि रचैता अपने रचना तंत्र से कभी पृथक ही नहीं हुआ है।
यही सत्य की रचैता ही उसकी रचना और रचना का तंत्र है, सनातन आर्य वैदिक सिद्धांत का एक बिंदु है, और इसी को अद्वैत सिद्धांत भी कहा गया है।
इसिलिए, इस मार्ग में, तू ही नारायण है, तू ही सदाशिव और तू ही ब्रह्मा, तू ही देवी है, तू ही गणपति और इंद्रादि देव भी तू ही है। तेरे भीतर ही तैंतीस कोटि देवी देवता, पंच कृत्य, पंच देवादि प्रकाशित हो रहे हैं।
ये समस्त सृष्टि तुझसे है, और तू इस समस्त सृष्टि से है, क्यूंकि दोनों एक ही ब्रह्म की, समान अभिव्यक्तियां हैं।
ब्रह्म की एक अभिव्यक्ति दुसरे के भीतर है, इसलिए, तेरे भीतर ही समस्त सृष्टि है, और इसके साथ साथ, तू भी उसी सृष्टि में ही समान रूप में बसा हुआ है।
तू उसी सृष्टि में ही बसा हुआ है, जो तेरे भीतर भी है, इसलिए, स्वयं ही स्वयं को जा। और इस स्वयं ही स्वयं में, के मार्ग में, तेरे अपने आत्मस्वरूप में, तू ही वो पूर्ण, वो ब्रह्म है …, ऐसा जान।
इसलिए, तू स्वयं ही स्वयं को नमन करके, “स्वयं ही स्वयं में” जा, और स्वयं को पाके, मुक्तात्मा हो जा।
यही ब्रह्मत्व पथ कहलाता है, जो ॐ भावापन से होकर, ॐ के साक्षात्कार को ही लेके जाता है।
आगे बढ़ता हूँ …
जो साधक ॐ भावापन नहीं होता…, वो ॐ साक्षात्कार के मार्ग पर भी नहीं जा पाता।
और ऐसी अपूर्ण भावावस्था में, यदि वो साधक, ॐ मार्ग में जाने का प्रयास भी करेगा, तो भी उसे वो गंतव्य रुपी ॐ, उसके आत्मस्वरूप में नहीं मिलेगा।
ॐ भावपन अवस्था को ही, ब्रह्म भावपन या आत्म भावपन कहते हैं।
ऐसा मार्ग, “स्वयं ही स्वयं में” होकर जाता है, क्योंकि इसका कोई और मार्ग रूपी विकल्प है ही नहीं।
और इस मार्ग में, साधक समस्त ब्रह्माण्ड को ही अपने पिंड के भीतर साक्षात्कार करता है, और वो भी उस ब्रह्माण्ड के प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में।
और उस प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड के पड़ाव से ही, वो साधक ओउम् साक्षात्कार करता हुआ, प्रजापति का साक्षात्कार करता है।
और ऐसा होने के बाद, वो साधक उन्ही प्रजापति के सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार स्वरूपों में ही, समान रूप में विलीन हो जाता है।
ऐसा साधक उस सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति का ही स्वरूप होकर, शेष रह जाता है।
ऐसा साधक कभी लौट के नहीं आता है, क्योंकि इस चतुरद्श भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, कोई माई का लाल है ही नहीं, जो ऐसे साधक को किसी लोक में, उस साधक की इच्छा के विरुद्ध लौटा सके।
लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है, कि वो साधक कभी भी लौटेगा ही नहीं।
वो लौट सकता है, लेकिन उसके लौटने का समय कोई भी बता नहीं पायेगा, क्योंकि उसके लौटने पर केवल उसका ही अधिकार रहता है …, किसी और का भी नहीं।
इसलिए, यदि ओउम्, जो गंतव्य है, उसे पाना है, तो तेरे भाव से उत्पन्न साधन ही तेरा मार्ग हो सकता है, न की किसी देवी देवता, या किसी ग्रन्थादि का बतलाया हुआ कोई मार्ग।
यदि तुझे ओउम् जो जाना है, तो भाव और साधन, दोनों ही तेरा होना होगा।
किसी और के भाव या साधन का आलंबन लेके, तू ओउम् को कभी नहीं जा पाएगा।
इसलिए, ओउम् के बारे में, जो भी शास्त्र में दिया हुआ है, वो उस योगी के ही साधन रूप में है, जिसने उसे उस शास्त्र में बाताया है।
ऐसा मनीषी उस ज्ञान को बाँट तो सकता है, लेकिन कोई भी साधक उसका प्रयोग तबतक नहीं कर पाएगा, जबतक उस साधन का प्रकाशक या बताने वाला, ऐसा नहीं चाहेगा।
ऐसा योगी जो अपनी भाव रूपी इच्छा शक्ति से ही एक विशुद्ध मुक्तिमार्ग, उसके अपने साधन रूप में ही स्वयंप्रकट कर दे, वो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दुर्लभ से भी दुर्लभ योगी होता है।
लेकिन कुछ ॐ साक्षातकारी ऐसे भी होते हैं, जो किसी ना किसी लोक में, आते जाते रहते हैं …, प्रजापति, काल, प्रकृति, गुण आदि की प्रेरणा से।
और लौटने के पश्चात भी ऐसे योगी, कर्मों या कर्म फलों में लिप्त नहीं होते… वो कर्मातीत ही रहते हैं, और इस जीव जगत को बस सर्वसाक्षी स्वरूप में, उनके अपने भावराज्य में ही देखते हैं।
ऐसे मनीषी बस अपने कर्म करके, वापिस लौट जाते हैं, और उनके पुनरागमन के पश्चात, ये भी हो सकता है, कि उनके पिंड रूप में, कोई भी उन्हें पहचान ही न पाए।
लेकिन अपने पुनरागमन के बाद, वो अपने कर्म, जिसके लिए वो आए थे या लौटाए गए थे, वो कर ही देते हैं। वेदों के सनातन कालों के इतिहास में, ऐसा अंगिनत बार हुआ है।
ॐ क्या है …
- ॐ महामंत्र है … ॐ ही एकमात्र महामन्त्र है …
वेदों में जब महा शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वो महा का शब्द, परम शब्द को ही दर्शाता है।
इसका कारण है की, कभी भी दो या दो से अधिक महा नहीं हुए। जो महा है, वो ही परम है।
इसलिए, ॐ के लिए जो महामंत्र शब्द प्रयोग किया गया है, वो परममंत्र शब्द को दर्शाता है।
- ॐ सनातन अच्युत है … ॐ अज है … ॐ अजन्मा है … ॐ सनातन है …
जो अज या अजन्मा होता है, वो ही अंत रहित होता है। ऐसा तत्व ही परिवर्तनरहित होता है, और उसे ही अनादि अनंत और सर्वव्याप्त कहते हैं।
जिसने जनम ही नहीं लिया, उसका अंत कैसे होगा। ऐसे तत्व को ही सनातन कहते हैं।
जिसने जन्म ही नहीं लिया, वो सभी प्रपंच और तारतम्य से भीअतीत होता है। जो ऐसा होता है, वो ही भेद रहित, निरालम्ब, निर्बिज, निराधार और निष्कलंक कहलाता है।
जो ऐसा होता है, वो कभी भी च्युत न होने वाला…, सनातन अच्युत कहलाता है।
वैसे ये सारे शब्द, जो शाश्वत, अच्युत, अजन्मा, अनादि अनंत, निरालंब, निर्बिज, निराधार और निष्कलंक हैं, वो सब मेरे सनातन गुरु, श्रीमन नारायण को ही दर्शाते हैं, जो मेरे भीतर ही, मेरे अंग संग हैं, और जिनके आदेश पर ही मैं ये सब बता रहा हूं।
- ॐ ही शब्द है … ॐ ही शाश्वत है … ॐ ही अविनाशी अक्षर है …
पंच महाभूत की उत्पत्ति से भी पूर्व, जब न जगत था और न ही कोई जीव था, तब केवल शब्द था, और वो भी उसके अपने ही ब्रह्म स्वरूप में। वो शब्द ॐ था।
ऐसी अवस्था में, वो ओउम् तीन बीजों में नहीं, बल्कि 2 बीजों में बसा हुआ था, जो ओकार या ओ शब्द और मकार या म शब्द थे। ऐसी अवस्था में, ओ का शब्द, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का था और म का शब्द, प्रकृति का ब्रह्मनाद कहलाया था।
और जब जगत की रचना हो रही थी, वो वोही ओउम्, त्रिबीज रूप में अभिव्यक्त हुआ था, जो अकार या अ शब्द, ओकार या ओ शब्द और मकार या म शब्द थे।
जब कोई भी योगी ओउम् का पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है, तब वह अवश्य कहता है, कि ओउम् जगत से पूर्व में भी था…, लेकिन अपने ही तात्त्विक स्वरूप में।
और ऐसा योगी ये भी कहेगा, कि ओउम् का शब्द इस संपूर्ण जीव जगत का मूल होने के साथ साथ, इस जीव जगत से परे भी है, इसलिए ओउम् इस समस्त जीव जगत का मूल और गंतव्य…, दोनों ही है।
जो मूल और गंतव्य दोनो होता है, वो ही सर्वव्याप्त, सार्वभौम, शाश्वत, और अविनाशी या अक्षर होता है।
- प्राथमिक तत्त्व भी ॐ का ही अंग है, … ॐ तत् सत्वम, … ॐ तत् सत् …
ॐ जो ब्रह्म है, उसके प्राथमिक तात्त्विक स्वरूप को योगी जन ब्रह्मतत्त्व कहते हैं। और इसी ब्रह्मतत्व को, कुछ योगी जन शुद्ध चेतन तत्व भी कहते थे।
ॐ के इसी तात्त्विक ब्रह्म स्वरूप को, श्रीमद भगवद् गीता के सत्रहवें अध्याय में, “ॐ तत् सत्वम”, इस वाक्य से भी, सांकेतिक रूप में बतलाया गया है। ये ॐ तत् सत का महावाक्य, ब्रह्मतत्त्व को ही दर्शता है।
इस ॐ तत् सत्वम में, जो तत शब्द का प्रयोग किया गया है, वो ब्रह्म के सगुण स्वरूप को दर्शता है।
और इसलिए ये तत् शब्द, ब्रह्म के ॐ स्वरूप में, ॐ के ही सगुण निराकार और सगुण साकार, दोनों स्वरूपों को दर्शता है।
इस ॐ तत् सत्वम के वाक्य में, तत् शब्द सगुणात्मक है, लेकिन वो सगुण निराकार भी है और सगुण सकार भी है। इसलिए ये तत् शब्द, ब्रह्म के सम्पूर्ण सगुण स्वरूप का वाचक है।
जब तत् शब्द कहा जाता है, तो वह शब्द, सगुणात्मक स्वरूप को दर्शता है। तत् शब्द निर्गुण को कभी भी नहीं दर्शता।
इसलिए, साधक को तत् शब्द का अर्थ, सगुण ब्रह्म और सगुण आत्मा, ऐसा ही मानना चाहिए।
- ॐ अक्षर है, … ॐ ही अविनाशी है …
जिसने जन्म लिया है, उसका अंत भी अवश्य होगा। केवल अजन्मा ही अनंत होता है।
इसलिए, जो कुछ भी है, इस जीव जगत के स्वरूप में है, वो सब नशवर ही है।
और जो जगत से परे होता है, वो ही अनश्वर अर्थात, शाश्वत होता है।
जो अनश्वर, शाश्वत होता है, उसे ही अक्षर कहते हैं।
क्योंकि ओउम् जगत के भीतर और जगत से परे, वो अनश्वर ही है, इसीलिए ओउम् ही अक्षर है।
इसलिए, तुम चाहे ओउम् को अपने भीतर के जगत में, उस ॐ के ही शब्दात्मक या लिपि लिंगात्मक या दोनों ही स्वरूपों में जानो… या अपने भीतर के जगत से परे उस ॐ को उसकी अभिव्यक्तियों के स्वरूप में, अर्थात जीवों और जगत के स्वरूपों में ही जानो, तुम्हे उस ओउम् का साक्षात्कार, सदैव ही उसके अक्षर स्वरूप में होगा।
जो भी अक्षर होता है, उसके साक्षात्कार के पश्चात, योगी की अंत गति, उसी अक्षर में, अपने आप ही लय हो जाती है।
यदि किसी भी साक्षात्कार के पश्चात, योगी की चेतना, उस साक्षात्कार किए हुए बिंदु या तत्व में, स्वतः ही लय होती है, तो वो जो साक्षात्कार किया है, वो ही अक्षर है। अक्षर का शब्द भी ब्रह्म का ही वाचक है।
जिस योगी ने ओउम् के अक्षर स्वरूप का साक्षात्कार कर लिया और इसके पश्चात उस योगी की चेतना, उस अक्षर में विलीन भी हो गई है, तो ऐसा योगी का वास्तविक आंतरिक स्वरूप अक्षर ही हो जाता है।
उस अक्षर में लय होके, उस अक्षर में ही, वैदिक महावाक्यों का साक्षात्कार होता है।
और क्यूंकि ॐ ही अक्षर है, इसलिए ॐ साक्षात्कार का मार्ग, वैदिक महावाक्यों के स्व:ज्ञान का मार्ग भी है।
- ॐ शब्द लिंगात्मक और लिपि लिंगात्मक स्वरूप है … ॐ ब्रह्म लिंग है … ॐ शब्द लिंग है …
ॐ शब्द ब्रह्म का वाचक है, इसलिए शब्द स्वरूप में, ॐ ही ब्रह्म का शब्द लिंगात्मक स्वरूप है। ॐ ही ब्रह्म का शब्दात्मक स्वरूप है।
ॐ का चिन्ह ब्रह्म का ही ध्योतक है, इसलिए चिन्ह रूप में, ॐ ही ब्रह्म लिंग है, जिसके कारण ॐ ही ब्रह्म का लिपि लिंगात्मक स्वरूप है।
ॐ ब्रह्म का ही शब्द रूप है, इसलिए ब्रह्म का शब्दात्मक स्वरूप भी ॐ ही है।
- ॐ ही तत्त्व है, … ॐ ही शक्ति है, … ॐ ही प्रणव है … ॐ ही शक्ति की प्राणात्मक बीजावथा है …
ओउम् ही है जगत की मूल शक्ति है, और वो भी उस शक्ति की ही प्राणात्मक बीजावथा में।
इसलिए ओउम् ही ब्रह्म का प्राण बीजात्मक स्वरूप है, जिसे प्रणव कहा जाता है।
और इस प्रणव का साक्षात्कार भी उसी ब्रह्मतत्व या शुद्ध चेतन तत्व में ही होता है, जिसके भीतर ओउम् का चिन्ह लिखा भी होता है।
वैदिक देवी देवता और चिन्हों का ज्ञान …
इन बतलाई गई बातों पर ध्यान देना…
जो कुछ भी वेदों में बतलाया गया है, वो साधक के शरीर के भीतर के ब्रह्मांड में भी है, और इसके साथ साथ, साधक का शरीर जिस ब्रह्माण्ड में बसा हुआ है, उस ब्रह्माण्ड में भी है।
जो तत्त्व या दिव्यता ऐसे नहीं होती, उससे वेदों में कभी डाला ही नहीं गया है।
इसलिए, वेदों में जितने भी चिन्ह या देवी देवता हैं, वो सभी साधक के भीतर होने के साथ साथ, ब्रह्माण्ड में उनके अपने अपने स्थानों या लोकों में भी हैं।
इसका अर्थ है कि, यदि किसी भी देवी देवता को वेदों में प्रकाशित किया गया है, या उसके कोई लिंगात्मक या विग्रह स्वरूप का वर्णन वेदों में किया गया है, तो वो देवी देवता या चिन्ह साधक के भीतर होने के साथ साथ, ब्रह्मांड में भी होगा।
जो ऐसा नहीं पाया गया, उसे वैदिक ऋषियों ने कभी भी वैदिक वांगमय में नहीं डाला था।
और यही बात ओउम् और बाकी सभी वैदिक चिन्हों पर भी लागू होती है।
ॐ साक्षात्कार के स्थान …
तैंतीस कोटि देवी देवता होते हैं।
कोटि का अर्थ, करोड़ के साथ साथ, प्रकार भी मानना चाहिए।
तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, उत्कर्ष मार्ग में, प्रजापति का स्थान गंतव्य या अंतिम है।
और उनही तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, ॐ प्रजापति का लिपि लिंगात्मक और शब्द लिंगात्मक स्वरूप भी होता है।
उन प्रजापति के दो प्रधान सगुण स्वरूप होते हैं, जिनको अब बताता हूँ …
- पहले सगुण स्वरूप में प्रजापति कार्य ब्रह्म होते हैं, अर्थात जगत के रचैता होते हैं। ये कार्य ब्रह्म, सगुण स्वरूप में ही होते हैं…, निर्गुण स्वरूप में नहीं।
इन्ही कार्य ब्रह्म को योगशास्त्रों में, उकार या ओकार कहा जाता है।
उकार या ओकार, कार्य ब्रह्म ही होते है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की ही एक रजोगुणी, अर्थात लाल रंग की अभिव्यक्ति होते हैं।
- और दुसरे सगुण स्वरूप में प्रजापति ही हिरण्यगर्भ होते हैं, अर्थात ईश्वर होते हैं। हिरण्यगर्भ सगुण स्वरूप में ही होते हैं …, निर्गुण स्वरूप में नहीं। और इस स्वरूप में, हिरण्यगर्भ ही सगुण ईश्वर या सगुण ब्रह्म होते हैं।
हिरण्यगर्भ, प्रजापति की ही एक अभिव्यक्ति हैं, प्रजापति के ही सगुण ईश्वर या सगुण ब्रह्म स्वरूप में।
यहाँ पर प्रधानतः, प्रजापति के ॐ रुपी, लिपि लिंगात्मक अवस्था का वर्णन होगा। लेकिन कहीं कहीं पर, उनका हिरण्यगर्भ ब्रह्म या सगुण ब्रह्म, और कार्य ब्रह्म या रचैता स्वरूप भी बतलाया जायेगा।
साधक के शरीर में ॐ साक्षात्कार के स्थान …
अब आगे बढ़ता हूँ, और शरीर में ॐ साक्षात्कार के जो दो स्थान हैं, उनको बतलाता हूँ …
वैसे तो ॐ का प्रकाश सर्वव्याप्त होता है, लेकिन साधक के शरीर में, ॐ के साक्षात्कार के दो स्थान होते हैं।
- ॐ साक्षात्कार का पहला स्थान …
ॐ साक्षात्कार का पहला स्थान त्रिनेत्र में है, अर्थात, नैंन कमल या अज चक्र, या भ्रूमध्य में है।
इस नैंन कमल में जो ओउम् का साक्षात्कार होता है, वो प्रजापति के कार्य ब्रह्म स्वरूप में होता है।
क्योंकि प्रजापति का कार्य ब्रह्म स्वरूप, रजोगुणी होता है, जिसका वर्ण लाल होता है, इसलिए, नैंन कमल में जब भी ओउम् का साक्षात्कार होगा, तो वो ओउम् लाल रंग का होगा।
ये लाल रंग का ओउम्, प्रजापति के कार्य ब्रह्म, रजोगुणी स्वरूप को दर्शता है।
इसी लाल रंग के रजोगुण का आलम्बन लेके, प्रजापति ने इस जीव जगत की रचना की थी, जिसके कारण उस प्रजापति के रचैता स्वरूप को, उस कार्य ब्रह्म या ब्रह्मा को, रजोगुणी कहा जाता है, और लाल रंग का भी कहा जाता है।
ये लाल रंग का ब्रह्मा ही प्रजापति का कार्य ब्रह्म स्वरूप है, अर्थात, प्रजापति का ही रचैता स्वरूप है।
पुराणों में इसी को लाल रंग के ब्रह्म देव या ब्रह्मा कहा गया है।
इसी लाल रंग के रजोगुणी ब्रह्मा के कारण, नैंन कमल या आज्ञा चक्र को स्वयं जाग्रत या स्व:जाग्रत चक्र कहा जाता है।
और ऐसे ओउम् के साक्षात्कार की सिद्धि को, कार्य ब्रह्म के लिपि लिंगात्मक स्वरूप की सिद्धि भी कहा जा सकता है, क्यूंकि नैंन कमल का ॐ, लाल रंग का और लिपि स्वरूप में ही होता है ।
इस स्वरूप का साक्षातकारी साधक, यदि उस नैंन कमल के लाल रंग के ओउम् में ही लय हो जाता है, तो वो साधक कार्य ब्रह्म स्वरूप हो जाता है।
- ॐ साक्षात्कार का दूसरा स्थान …
सहस्रदल कमल जो मस्तिष्क के ऊपर के भाग में होता है, उसमें एक चमकदार पीले रंग का अति सूक्ष्म कोश होता है। इस कोश को ही ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश कहा जाता है।
इसी ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में ॐ साक्षात्कार होता है।
इस स्थान पर जो ॐ साक्षात्कार होता है, वो प्रजापति का ही हिरण्यगर्भात्मक लिपिलिंग स्वरूप है। यही ओउम् साक्षात्कार का गंतव्य भी है।
और इस स्वरूप का साक्षातकारी साधक, यदि अपनी चेतना में उस ओउम् में ही लय हो जाता है, तो वो साधक, योग शिखर पर विराजमान होकर, उसी योगेश्वर प्रजापति का ही सगुण साकार स्वरूप हो जाता है।
ऐसा साधक, कालचक्र को ही पार करके, उस कालचक्र से ही अतीत हो जाता है, और सनातन काल रुपी तत्त्व को, अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है।
हिरण्यगर्भ से जो काल अपने चक्र रूप में अभिव्यक्त हुआ था, ऐसा साधक उस कालचक्र में नहीं रहता है, क्योंकि वो कालचक्र से अतीत हो जाता है।
और ऐसा साधक, काल के ही सनातन अनादि अनन्त स्वरूप को पाता है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
और इसके विपरीत, यदि इस स्वरूप का साक्षातकारी साधक, उसकी अपनी ही चेतना में, ॐ में विलीन नहीं हो पाता है, तो वो साधक प्रजापति का ही अंश स्वरूप होके, ब्रह्मपुत्र कहलाता है।
हिरण्यगर्भ से जो काल अपने चक्र रूप में अभिव्यक्त हुआ था, ऐसा साधक उस कालचक्र में ही रहता है, क्योंकि वो कालचक्र से अतीत नहीं हो पाता है।
जबतक वो साधक उसके ब्रह्मरन्द्र में बसे हुए ॐ में ही विलीन नहीं हो पाता है, तबतक वो साधक कालचक्र से भी अतीत नहीं हो पाता है।
और ऐसी अवस्था में वो साधक, उसी कालचक्र में ही रह जाता है, और उसी काल की प्रेरणा से, वो साधक किसी न किसी लोक में, किसी न किसी जीव रूप में…, आता जाता रहता है।
ॐ साक्षात्कार का दूसरा स्थान …
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं।
ये सभी चक्र, मेरुदंड (रीड की हड्डी) में होते हैं। लेकिन अभी इन सप्तचक्र के बारे में नहीं बताऊंगा।
लेकिन यदि किसी को इन सप्त चक्रों के बारे में जानना है, तो मेरे पूर्व जन्म का दिया हुआ एक ग्रंथ पड़ ले, जब मैं पत्तल के नाम वाला एक वैष्णव अघोरी साधु था, जो 5694 इसा पूर्व से 108 वर्षो के भीतर आया था, और जिसने अपना उस जन्म का कार्य करके, मात्र 26-27 वर्ष की आयु में ही अपना देह त्याग दिया था। अभी का बाबा रामदेव जिसके नाम पर महिमा मंडित हो रहा है…, वो मैं ही था।
सप्तचक्रों में से, सबसे नीचे वाला चक्र, मेरुदंड के नीचे के भाग में होता है। और सप्तचक्रों में से, सप्तम चक्र, मस्तिष्क के ऊपर के भाग में होता है।
जो ये सातवां चक्र है, वो सहस्र दल कमल के समान होता है। इसी को ब्रह्मरंध्र चक्र, सहस्रार और शून्य चक्र भी कहा जाता है।
इन सभी सप्त चक्रों के मध्य में, एक एक शब्द होता है। और इनके हर एक पत्ते पर भी एक शब्द होता है। ये सभी शब्द, बीजातमक होते हैं, और इसके नाद, बीज मंत्रों के समान होते हैं। वैसे मंत्र शब्द का वास्तविक अर्थ तो, मनु शब्द ही होता है।
जो सप्तम चक्र, अर्थात, जो मस्तिष्क के ऊपर के भाग में सहस्रदल कमल है, उसमें एक पीले वर्ण के प्रकाश का समूह होता है। ये प्रकाश का समूह बहुत ही सूक्ष्म होता है।
और इसी प्रकाश के समूह को, जो ब्रह्मरंध्र चक्र में स्थित होता है, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष कहा गया है।
ये ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश, मस्तिष्क के मध्य भाग से थोड़ा सा ऊपर की ओर, और थोड़ा सा आगे की ओर भी होता है।
इसी ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, यहाँ बतलाये गए ॐ के दुसरे स्थान में, ॐ का साक्षात्कार होता है।
ॐ साक्षात्कारी योगी का वर्णन और पुनरागमन …
ऐसा योगी, प्रजापति का सगुण स्वरूप होता है, अर्थात, वे अपनी काया में रहता हुआ भी, प्रजापति सरिका ही होता है।
जब ऐसा योगी लौट के किसी धरा पर आता है, तब उसका साथ देने के लिए, समस्त देवी देवता भी अपना दुर्ग या मंदिर तक त्याग के, उसके साथ खड़े हो जाते हैं।
ऐसे योगी के लौटने पर, कुछ देवी देवता उसके मार्ग दर्शक या गुरु होते हैं और कुछ उसके रिश्तेदार, मित्र आदि भी होते हैं। इसलिए, अपना कार्य पूर्ण करने को, ऐसे योगी को किसी भी अन्य गुरु या सहायक की आवश्यकता नहीं पड़ती।
इसके साथ साथ, उस योगी का साथ देने के लिए काई सारे ऋषि और सिद्ध सत्ताओं के मनीषी भी लौट आते हैं।
जब ऐसा योगी किसी भी लोक में आता है, तो प्रजापति की अर्धांगनी, महामाया की समस्त अभिव्यक्तियां, जैसी पंच विद्या, दस महाविद्या, नव दुर्गाएं, मातृकाएं, भैरवी गण, योगिनि गण और समस्त देवियां, उस योगी को घेरे रहती है, अर्थात छुपा कर रखती हैं।
इसलिए, ना तो ब्रह्माण्ड, ना ही कोई जीव सत्ता ऐसे योगी की वास्तविकता या उपस्थिति को जान पाती है…, लेकिन केवल तबतक, जबतक महामाया की अभिव्यक्तियाँ उसे ढक कर रखती हैं।
और महामाया भी उसे, अपने ऐसे आँचल से तबतक ढक कर रखती है, जबतक वो योगी तैयार न हो जाये, उन कार्यों को करने के लिए, जिनके लिए वो किसी लोक में लौटाया गया है।
और जब वो योगी तैयार हो जाता है, तब महामाया उसपर से अपना आंचल उठा लेती है। ऐसे होने के बाद ही, देव आदि लोकों के मनीषी जान पाते हैं, कि वो अमुक लोक में, आ चुका है।
और इस दशा के पश्चात ही, उसका साथ देने के लिए, कुछ प्रमुख देवी देवता, अपने अपने लोकों को त्याग के, उसी लोक में लौट आते हैं, जहां वो प्रजापति का योगी, उस समय पर निवास कर रहा होता है। उनमें से, कुछ देवी देवता सूक्ष्म रूप में आते हैं, तो कुछ स्थूल शरीर भी धारण करते हैं।
और इनके साथ साथ, लेकिन धीरे धीरे, बाकी सभी आगम निगम के देवी देवता भी लौटने लगते हैं, और उस योगी के साथ खड़े हो जाते हैं, और उसके कार्यों में, उसका साथ देते हैं।
और इन सबके साथ साथ, अन्य देवलोकों से भी, कई सारी आत्मायें भी लौट आती है, उस योगी के कार्यों में, उसका साथ देने हेतु।
और अपना निर्धारित समय आने तक, या वो निर्धारित स्थिति आने तक, जिसके लिए वो योगी उस नीचे के लोक में आया था, ऐसा योगी एक साधारण मानव के समान रहता है।
और ऐसे समय या स्थिति तक, वो शरीर से तो समाज में ही रहता है, लेकिन अपने मन बुद्धि, चित्त और अहम से, वो समाज से सुदूर ही रहता है।
अब आगे बढ़ता हूं…
ॐ का तात्त्विक दर्शन स्वरूप…, ॐ का अद्वैत स्वरूप, … ॐ का द्विमूल स्वरूप, … ॐ का त्रिबीज स्वरूप, … ॐ का दशा चतुष्टय स्वरूप, या ॐ का चतुर्दशा स्वरूप, … ॐ का पंचक स्वरूप, … ॐ का षट्साक्षातकार स्वरूप, …
ओउम् का साक्षात्कार कुछ भागों में ही होता है।
तो अब मैं ओउम् के भागों को संक्षेप में बतलाता हूँ। लेकिन, इन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन, आगे के अध्यायों में होगा।
- ॐ का अद्वैत स्वरूप, … ॐ में एक अमूल गंतव्य रूपी, अद्वैत सिद्धांत होता है … ये ॐ के ऊपर का बिंदु है, जिसमें लय होके, उस ॐ का साक्षातकारी ही, साक्षात्कार और साक्षी भी हो जाता है।
और ऐसी अवस्था में, ओउम् का ज्ञानी ही, ज्ञान और ज्ञेय भी हो जाता है।
- ॐ का द्विमूल स्वरूप, … ओउम् में दो मूल होते हैं जो प्रकृति और पुरुष कहलाते हैं … ये ॐ का द्विमूल स्वरूप है।
ये दोनों, ॐ के चिन्ह और ब्रह्मतत्त्व रूप में होते हैं, जिसमें ॐ का चिन्ह पुरुष का वाचक होता है, और ब्रह्मतत्त्व, प्रणव रूपी ब्रह्म शक्ति का, या प्रकृति का सूचक होता है।
ॐ के चिन्ह या अक्षर स्वरूप का साक्षात्कार भी ब्रह्मतत्त्व के भीतर ही होता है, और ये ब्रह्मतत्त्व भी ब्रह्मरन्द्र विज्ञानमय कोष में ही होता है।
- ॐ का त्रिबीज स्वरूप, … ओउम् के तीन बीज भी होते हैं … ये त्रिबीज हैं, जो अकार, ओकार या उकार और मकार कहलाते हैं।
- ॐ का दशा चतुष्टय स्वरूप, या ॐ का चतुर्दशा स्वरूप, … ॐ में चार दशाएं भी होती हैं … ये दशा चतुष्टय हैं जो अकार, ओकार या उकार, मकार और शुद्ध चेतन तत्व या ब्रह्मतत्त्व कहलाते हैं।
- ॐ का पंचक स्वरूप, … ॐ में पांच स्वरूप होते हैं … ये स्वरूप पंचक हैं, जो आकार, ओकार, मकार, शुद्ध चेतन तत्व और ॐ का लिपि लिंगात्मक स्वरूप कहलाते हैं।
इन पांच के योग में ही ओउम्, ब्रह्मलिंग स्वरूप कहलाता है।
- ॐ का षट्साक्षातकार स्वरूप, … ॐ में छह साक्षात्कार या तात्विक दर्शन होते हैं … ये षट् साक्षात्कार हैं, जो आकार, उकार, मकार, ब्रह्मतत्त्व, ॐ का लिपि लिंगात्मक स्वरूप और ॐ में जीवात्मा का लय या समाधि कहलाते हैं। इन छह के बाद ही, पूर्व में बतलाए गए, ओउम् के अद्वैत स्वरूप को जाना जाता है।
ॐ के भाग …
ऐसा होते हुए भी, ओउम् के सभी भागो में, केवल एक ही सत्य प्रकाशित होता है। वो सत्य, सत् या ब्रह्म ही है, इसलिए ओउम् को ही योगी जनों ने ब्रह्म कहा था।
और ये सब दर्शन, बतलाए गए छह भागो में होते हैं, इसलिए अब मैं इन छह के बारे में संक्षेप में बताता हूं।
जब कोई योगी इस प्रकार ॐ का पूर्ण साक्षात्कार करता है, तब ही उसे इन छह भागो का साक्षात्कार होता है…, अन्य किसी अवस्था में नहीं।
- ओउम् का प्रथम भाग, … अकार, … इसमें एक शब्द का साक्षात्कार होता है। ये शब्द, अअअअअ…, ऐसे सुनाई देता है।
इसी को अकार कहा गया है, क्योंकि ये रूपात्मक होता है, अर्थात ये निराकार नहीं होता।
लेकिन रूपात्मक होने के बाद भी, ये निराकार में ही व्याप्त होता है … इसलिए, इसमें रूप ही अरूप होता है।
जिस रूप में ही अरूप हो, उसे ही विराट कहते हैं और उस विराट का ही विश्वरूप होता है।
पुरुषार्थ चतुष्टय में, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं। पुरुषार्थ चतुष्टय में, अकार का शब्द, धर्म पुरुषार्थ का वाचक है।
- ओउम् का दूसरा भाग, … ओकार या उकार … इसमें ओ शब्द का साक्षात्कार होता है … ये, ओ शब्द, ओ ओओओओ, ऐसे सुनाई देता है।
इसी को ओकार कहा गया है, क्योंकि इसमें ओ का शब्द होता है।
और इसी को उकार भी कहा गया है, क्योंकि ये योगी की चेतना को ऊपर की ओर, अर्थात उत्कर्ष की ओर उछाल देता है, और इसीलिए, ये योगी के उत्कर्ष मार्ग का एक प्रमुख बिंदु होता है।
जो ऐसा होता है, वो ही अभिमानी और अनाभिमानी दोनों प्रकारों का देवता होता है, जिसे प्रजापति का हिरण्यगर्भ ब्रह्म स्वरूपऔर कार्य ब्रह्म स्वरूपकहते हैं।
तो अब ध्यान दो …
इसको ओकार और उकार दोनो बतलाया गया है।
इसे ओकार इसलिए कहा गया है, क्योंकि इसमें ओ शब्द होता है।
और इसे उकार इसलिए कहा गया है, क्योंकि ये शब्द योगी की चेतना को ऊपर की ओर, अर्थात उत्कर्ष की ओर, परमार्थ रूपी ओउम् में ही तीव्र गति से भेज देता है।
ये ओकार या उकार, अरूपात्मक होता है, रूप में नहीं होता।
ये निराकारी होता है, सकारी नहीं होता।
लेकिन अरूपात्माक होने के बाद भी, ये रूप में होता है, इसलिए, इसमें अरूप ही रूप होता है।
इसलिए, साधक के ब्रह्मरन्ध्र विज्ञानमय कोष में, ये ओकार या उकार एक लिंग स्वरूप में साक्षात्कार किया जाता है, और ऐसी अवस्था में, ये कार्य ब्रह्म के ही लिंगात्मक स्वरूप में होता है।
अब थोड़ा और ध्यान देना…
इसलिए अपने मूल शब्दगुण के दृष्टिकोण से, यह ओकार है।
और उस अद्वैत परमार्थ को जाने वाले उत्कर्ष मार्ग की तीव्र गति के दृष्टिकोण से, यह उकार है।
पुरुषार्थ चतुष्टय में, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं। पुरुषार्थ चतुष्टय में, ओकार या उकार का शब्द, अर्थ पुरुषार्थ का वाचक है।
- ओउम् का तीसरा भाग … मकार … इसमें मममम शब्द का साक्षात्कार होता है … इसका शब्द म है, जो मम्मममम्मम, ऐसे सुनाई देता है।
इसको ही मकार कहा गया है, क्योंकि इसमें म का शब्द होता है।
मकार नामक शब्द ही त्रिदेव और त्रिदेवी की सनातन योगवस्था का शब्द लिंगात्मक स्वरूप है, और इसलिए मकार ही ब्रह्मानंद को दर्शाता है।
मकार को ब्रह्मनाद भी कहा गया है। भ्रामरी प्राणायाम में भी यही ब्रह्मनाद प्रकाशित हो रहा है, जो त्रिदेव और त्रिदेवी की सनातन योगावस्था को दर्शाता है।
ये रूप अरूप का लिंगात्मक स्वरूप होता है, अर्थात, इसमें रूप और अरूप ऐसे मिले जुले होते हैं, कि उनको विभाजित या पृथक करना असंभव होता है।
ये अरूप में होता हुआ भी, रूप ही होता है।
और अपने रूप में होता हुआ भी, अरूप में ही होता है।
और ऐसा होता हुआ भी, ये त्रिमणि अर्थात, तीन मणियों के समान ही साक्षात्कार होता है।
इसमें अरूप और रूप को विभाजित या पृथक करना असंभव सा ही होता है, लेकिन तब भी, साक्षात्कार के अनुसार ये रूपात्मक ही होगा, और गंतव्य मार्ग पर गति के दृष्टिकोण से, ये अरूपात्मक ही पाया जाएगा।
इसलिए इसमें पहले बताये गए, आकार और उकार के समस्त रूप और अरूपों का ऐसा समावेश होता है, कि क्या रूप है और क्या अरूप है, उसको पृथक रूप में जाना ही नहीं जा सकता है।
इसमें देवी ही देव है, और देव ही देवी है।
इसमें शक्ति ही शिव है और शिव ही शक्ति है।
इसमें पुरुष और प्रकृति अपनी संनातन योगावस्था में होते हैं, इसलिए इसमें पुरुष ही प्रकृति है, और प्रकृति ही पुरुष है।
जैसे, देव और उसकी दिव्यता रूपी शक्ति को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता, और जैसे सूर्य और उसके प्रकाश को पृथक नहीं कहा जा सकता, वैसे ही मकार में भी होता है।
अब जो सांकेतिक रूप में बताया जा रहा है, उसपर ध्यान दो …
इसमें वैदिक महावाक्योंक के दो शब्दों के अर्थ, जो तत् और अयम हैं, वो ऐसे मिले जुले होते हैं, कि उनको विभाजित या पृथक करना असंभव होता है।
और इसमें वैदिक महावाक्यों के तीसरे शब्द, जो अहम् होता है, उसका भी साक्षात्कार होता है। लेकिन यहाँ पर मैं केवल पूर्व में कहे गए, दो शब्दों पर ही ध्यान केंद्रित करूंगा, और तीसरे शब्द को बाद में बस सांकेतिक रूप में ही दर्शाऊँगा।
अब आगे बढ़ता हूँ …
इन दो शब्दों में, तत् शब्द, सगुण ब्रह्म को दर्शाता है, और अयम शब्द ब्रह्म की अभिव्यक्ति, प्रकृति सहित समस्त जीव जगत का वाचक है।
इसमें वेदों के पुरुष और प्रकृति के सनातन योग का साक्षात्कार, शब्दात्मक ऊर्जा रूप में ही होता है।
जब पुरुष और प्रकृति ने अपना प्राथमिक योग किया था, तो जो शब्द उत्पन्न हुआ था, वो ब्रह्मनाद या मकार कहलाया था। लेकिन मूल रूप में, शब्द प्रकृति का ही होता है, जिसका आलम्बन लेके ब्रह्म को प्राप्त हुआ जाता है।
और क्योंकि मकार में, प्रकृति और पुरुष का योग ही होता है, जो निष्काम योग कहलाता है, इसलिए, मकार शब्द, उसी प्रकृति और पुरुष के निष्काम योग में, गंतव्य को जाने का, गंतव्य प्राप्ति का, एक बहुत विशुद्ध बिन्दु होता है।
यही कारण था, की इसी मकार नाद को, योगतंत्र में भी भ्रामरी प्राणायाम के स्वरूप में अपनाया गया था।
अब आगे बढ़ता हूँ …
पुरुषार्थ चतुष्टय में, मकार का शब्द, धर्म पुरुषार्थ का वाचक है।
पुरुषार्थ चतुष्टय में, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं। इसलिए, काम नमक पुरुषार्थ से ही, मोक्ष नमक पुरुषार्थ को जाया जाता है।
लेकिन पुरुषार्थ का काम, वैसा ही निष्काम होता है, जैसी प्रकृति और पुरुष का निष्काम योग इस मकार के नाद में है। इसलिए, मकार ही काम पुरुषार्थ का सूचक है, जिसके कारण, ये मोक्ष पुरुषार्थ का एक सीधा और विशुद्ध मार्ग भी है।
- ॐ का चतुर्थ भाग, … ब्रह्मतत्त्व, … इसे ही ब्रह्मतत्त्व और शुद्ध चेतन तत्त्व कहते हैं … यही प्रणव भी है …
इसमें शब्द तो मकार का ही होता है, अर्थात इसका नाद तो ब्रह्मनाद का होता है, लेकिन वो केवल अरूप स्वरूप में ही होता है। और उसी अरूप में, ब्रह्म की रचना के समस्त रूप बसे हुए होते हैं।
और उस अरूप में ब्रह्म की रचना के समस्त रूप बसे होने के बाद भी, ये ब्रह्मतत्त्व, एक विशालकाय हेमा वर्ण या पीले रंग के अरूप प्रकाश के स्वरूप में ही साक्षात्कार होता है ।
इस अवस्था में, उस अरूप का किसी भी रूप से संबंध नहीं होता, लेकिन तब भी, समस्त रूप उस अरूप की ओर ही अग्रसर होते हैं, क्योंकि वो समस्त रूप, उसी अरूप बसे हुए होते हैं । समस्त रूप, उसी अरूपात्मक ब्रह्मतत्त्व या शुद्ध चेतन तत्त्व के ही रूपात्मक अंश होते हैं।
अंश सदैव ही अपने अंशी की ओर ही जाता है, इसलिए, सब रूप, उसी अरूप की ओर ही जाते है।
अपने ही अरूप स्वरूप में, ये शुद्ध चेतन तत्व है। यही ब्रह्मतत्त्व है। इसी को ही श्रीमद्भगवद गीता में, श्रीकृष्ण ने, ॐ तत् सत् से संबोधित किया था।
ये ब्रह्म का ही प्राण शक्ति स्वरूप है। और इस अवस्था में जो प्राण शक्ति है, वो अनगिनत किरणों के स्वरूप में साधक के मस्तिष्क में होती है और वो सभी किरणें ऊपर की ओर, गोल गोल घूमती हुई जाती है।
इसकी किरणों की गति को, विस्तार सर्पिल या प्रसार कुंडली जैसा भी कहा जा सकता है। इसी विस्तार सर्पिल या प्रसार कुंडली को अंग्रेजी में expanding spiral भी कहा जाता है।
इस विस्तार सर्पिल या प्रसार कुंडली की अवस्था में किरणें ऐसी गति करती है, जैसे वो गोल गोल घूमती और अनंत में फैलती हुई, ऊपर की ओर जा रही हैं, अर्थात ब्रह्मरन्ध्र की ओर जा रही हैं। सूरजमुखी आदि पुष्प के बीज भी ऐसे ही आकार में होते हैं।
ये अवस्था बहुत प्रकाशमान पीले वर्ण के प्रकाश की अनगिनत किरणों की है।
पुरुषार्थ चतुष्टय में, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं।
पुरुषार्थ चतुष्टय में यह ब्रह्मतत्त्व या शुद्ध चेतन तत्त्व, मोक्ष नामक पुरुषार्थ के मार्ग का वाचक है…, अर्थात, मुक्तिमार्ग का वाचक है।
- ॐ का पंचवा भाग … इसमें ॐ का शब्द होता है, और वो भी उसके अपने शब्द लिंगात्मक स्वरूप में।
इसमें ओउम् का चिन्ह लिखा होता है। इसलिए ये ब्रह्म का लिपि लिंगात्मक स्वरूप है, और यही ब्रह्म का शब्द लिंगात्मक स्वरूप भी है।
ये पूर्व में बतलाए गए चौथे भाग के भीतर होता है।
पुरुषार्थ चतुष्टय में यह ब्रह्मतत्त्व या शुद्ध चेतन तत्त्व, मोक्ष नामक पुरुषार्थ का वाचक है…, अर्थात, मुक्ति का वाचक है।
- ॐ का छटा भाग … ओउम् का बिन्दु … ये छठा भाग, पूर्व में बतलाये गए पांचवे भाग का ही अंग है, लेकिन इसको पृथक बताया गया है, क्यूंकि ये ॐ में ही समाधी या लय होने की अवस्था को बतलाता है।
यही ओउम् विज्ञान की तुरिय अवस्था है, जो चेतन चतुष्टय की अंतिम और गंतव्य चौथी अवस्था है।
ॐ के ब्रह्म लिपिलिंग स्वरूप के ऊपर के भाग में, जो बिन्दु लिखा जाता है, ये वही है।
जब योगी की चेतना ओउम् के ऊपर के बिंदु में प्रवेश करती है, तो उसमें विलीन होके वो योगी, स्वयं ही स्वयं को नहीं देख पाता है, अर्थात, वो योगी इसमें ऐसा विलीन हो जाता है, की उसकी चेतना में, दृष्टि, दृष्टा और दृश्य का कोई भेद नहीं रहता।
इसीलिए, ॐ के चिंन्ह के ऊपर का ये बिंदु ही उस अंतिम अद्वैत को दर्शाता है, जो आत्मा और ब्रह्म कहलाता है और जिसे कैवल्य मोक्ष भी कहते हैं।
योगी की चेतना का ॐ के ऊपर के बिंदु में विलीन होने के पश्चात, वो योगी जो पहले ओउम् का दृष्टा था, वही दृष्टि और दृश्य भी हो जाता है।
इसलिए, ये दशा निर्विकल्प कहलाती है, निर्भेद कहलाती है, जिसकी प्राप्ति के पश्चात, वो योगी, जीव और जगत से ही निर्भाव होके, निर्विचार हुए बिना नहीं रह पाता है।
इस दशा की एक और बात बता रहा हूँ, जिसपर ध्यान देना …
जहां दृष्टा, दृष्टि और दृश्य एक हो जाएँ, वोही अद्वैत ब्रह्म (अर्थात, निर्गुण निराकार ब्रह्म) है। इसलिए, यही अद्वैत ब्रह्म को प्राप्ति की स्थिति है, जो निर्विकल्प समाधि कहलाती है।
वैसे इस स्थिति को प्राप्त होने के पश्चात, योगी अधिक दिनों तक, जीवित नहीं रह पाता। लेकिन यदि वो योगी जीवित रह जाए, तो ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, वो ओउम् का ही सगुण साकार स्वरूप कहलाता है।
ऐसा होने के पश्चात, उस योगी के लिए उसके जीवन का बस एक ही मार्ग रह जाता है, जो वो योगी स्वयं ही स्वयं से निर्मित करता है।
ऐसे विलीन होने के पश्चात, जीवित रहने के लिए वो योगी, उसके भीतर से ही त्रिगुण को स्व:प्रकट करता है, और इन त्रिगुणों को वो योगी उसके मेरुदण्ड के सबसे नीचे और सबसे ऊपर के भागों में स्थापित करता है, ताकि उसका देहावसान न हो जाए।
और ऐसी अवस्था में ही जीवित रहकर वो योगी उन कार्यों को कर सके, जिसके लिए उसे इस मृत्युलोक में लौटाया गया था। इसके बारे में, इससे अधिक नहीं बताऊंगा।
इस अवस्था के पश्चात, यदि कोई भी जीव उस योगी के बारे में ब्रह्माण्ड या उसकी दिव्यताओं से ही पूछेगा, तो ऐसे पूछने वाले को उत्तर भी बस यही मिलेगा …
वो ऐसा सर्वसाक्षी है, जिसका उसके सिवा कोई और साक्ष ही नहीं है।
वो स्वयं ही स्वयं का एकमात्र साक्षी है … वो अपना ही एकमात्र साक्ष भी है।
उसकी अवस्था में, उसके सिवा कोई और है ही नहीं, इसलिए उसको जानने के लिए, उसके जैसा ही होना पड़ेगा।
ऐसा योगी के जैसा हुए बिना, उसको इस पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी पूर्णरूपेण जान नहीं पाएगा…, और वो भी लल्लूराम के समान रहता हुआ, अपने बारे में किसी को भी अधिक रूप में बताएगा नहीं।
ऐसा ॐ के बिन्दु में विलीन हुए योगी के बारे में तो देवादि लोकों के जीव भी पूर्णरूपेण जान नहीं पाते है।
ॐ समाधि … ओउम् समाधि … ओम समाधि …
अब ॐ समाधि शब्द को साधारण रूप में, कुछ उदाहरणों से प्रकाशित करता हूं…
जैसे बूंद तबतक ही बूंद होती है, जबतक वो सागर में विलीन ना हो।
वैसे ही साधक भी तबतक ही होता है, जबतक ब्रह्म रूपी सागर में विलीन न हो।
जैसे जब बूंद सागर में विलीन हो जाती है, तो वो सागर ही कहलाती है।
वैसे ही जब साधक समाधि मार्ग से उस ब्रह्म रूपी सागर में विलीन हो जाता है, तो ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, वो साधक भी ब्रह्म ही कहलाता है।
इसका अर्थ है, चाहे वो साधक मानव रूप में ही क्यों न दिखाए पड़े, वो ब्रह्म में विलीन होने के पश्चात, ब्रह्म सरीका होकर ही शेष रह जाता है।
उस ॐ रूपी ब्रह्म परमार्थ में विलीन होना, या लय होना, ही ॐ समाधि कहलाती है।
ऐसे विलीन योगी को ही जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनमुक्त शब्द का साधारण अर्थ होता है, जो जीवित होता हुआ भी मुक्त हो चुका है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
योगी की इस अवस्था के पश्चात, यदि कोई मनीषी, किसी भी दिव्यता या मां प्रकृति से ही पूछेगा, कि वो योगी कहां है, तो उसे यही उत्तर मिलेगा …
वो था … लेकिन अब नहीं है।
और यदि उसके बारे में कोई पूछेगा, कि वे जो दिख रहा है मानव रूप में, वह कौन है… तो भी उत्तर कुछ ऐसा ही मिलेगा…
वो है … लेकिन तब भी नहीं है।
और वो नहीं है… लेकिन तब भी वो सदा है… और रहेगा भी।
इससे मेरा तात्पर्य है, कि ओउम् में विलीन होके ही, उस सनातन ब्रह्म को प्राप्त हुआ जाता है।
इसी ओउम् समाधि को निर्विकल्प समाधि कहा गया था। निर्विकल्प का अर्थ होता है, वो जिसका और कोई विकल्प नहीं है। और इसलिए, ये निर्विकल्प शब्द भी उसी अद्वैत ब्रह्म या निर्गुण ब्रह्म या निर्गुण निराकार ब्रह्म, को ही दर्शता है।
जब हम निर्गुण शब्द के साथ निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वो निराकार ही अनंत होता है। और अनंत को ही परब्रह्म, या नारायण कहते हैं।
इस बताई गयी दशा के पश्चात, साधारणतः तो वो योगी कभी लौट ही नहीं पाएगा।
लेकिन, यदि वो कभी, किसी भी लोक में लौटाया ही जाता है, तो उसका लौटना भी केवल उस सनातन काल के स्वामी, महाकाल की प्रेरणा से, और उसी काल स्वामी की दिव्यता, महाकाली की शक्ति से ही हो पाता है।
और लौटने के बाद, जबतक वो योगी, स्वयं ही स्वयं का परिचय नहीं देता, तबतक उससे कोई पहचान भी नहीं पाता है।
अब इस भाग के अंत में, कुछ सांकेतिक रूप में बोल कर अपनी वाणी को विराम दूंगा …
तुम वही हो जिसका तुमने अपनी साधनाओं में साक्षात्कार किया है।
और यदि इसी बात को अंग्रेजी में बोलूंगा तो, ऐसा कह सकता हूँ … You are what you have self realized।
लेकिन इस बारे में, इससे आगे मैं कुछ नहीं बोलूंगा, इसलिए, अब अगले भाग पर जाता हूं, जिसमें ओउम् के प्रथम बीज शब्द, अकार या अ के शब्द को थोड़ा स्पष्ट और थोड़ा सांकेतिक रूप में बतलाया जायेगा।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra