अथातो ब्रह्म जिज्ञासा और ब्रह्म भावापन

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा और ब्रह्म भावापन

अब मैं इस भीतर की यात्रा में, जिसको मैंने “स्वयं ही स्वयं में”, ऐसा कहा है, उसके एक प्रमुख बिंदु, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, जो ब्रह्म भावापन अवस्था को दर्शाता है…, उसे बतलाता हूँ।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु योगेश्वर कहलाते हैं, जो, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता, ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का ये नौवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा … ब्रह्म भावापन …

ये 2010 ईस्वी की बात है।

जब बहुत समय तक  मैं कई बार उन गोल गोल घूमती तारों को भेदने के प्रयास में, विफल होता चला गया, तो एक दिन अपने कमरे से बहार निकला, और उस कमरे में बैठ गया, जिसमें उस समय, पापा ग्रंथों को पढ़ते थे।

और वहां बैठा हुआ सोचने लगा, कि मेरे प्रयासों में कुछ कमी तो है, कुछ तो त्रुटि है, जिसके कारण मैं काई वर्षों से, बारम्बार विफल होता ही चला जा रहा हूं।

तो उस समय, अपनी कुल देवी और कुल देव को स्मरण किया, और मन ही मन में उन्हें बोल भी दिया, कि अब आप ही राह दिखाओ, क्योंकि मुझ मूरखानंद को पता ही नहीं है, कि उन गोल गोल घुमाती तारों को भेदना कैसे है।

उस समय जब बैठा हुआ था और ऐसा ही सोच रहा था, और मन ही मन ऐसा ही बोल रहा था, तब मेरी दृष्टि एक ग्रंथ पर पड़ी, जिसपर लिखा हुआ था, ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य। और उस ग्रंथ में भगवान वेद व्यास का नाम भी लिखा हुआ था।

और उस ग्रंथ में, एक भगवे रंग का कागज का टुकड़ा, जिसमे पीली मिट्टी का रंग भी था, एक पन्ने पर घुसाया हुआ था।

तो मैंने सोचा, यह भगवा रंग तो एकादशवें रुद्र (Rudra) का होता है, और पीली मिट्टी का रंग तो पृथ्वी महाभूत का होता है, जिसकी दैविक सत्ता, भू देवी होती हैं, जिनमे लाल रंग के बिन्दु भी होते हैं, जब वो चलित स्वरूप में होती है, अर्थात, जब वो रजोगुणी होती हैं।

तो मैंने उस ग्रंथ को, उसी कागज के टुकड़े वाले पृष्ठ पर खोला।

और सामने एक सूत्र आया, जिसमे गुरु वेद व्यास ने कहा था, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा

उस सूत्र को पढ़ते ही समझ गया, कि हो सकता है कि मुझे, मेरे भीतर के मार्ग का, एक विशुद्ध संकेत मिल गया है।

मैंने वो ग्रंथ बंद किया, अपनी कुल देवी भू देवी और कुल देव रुद्र सहित, गुरु आदि शंकर और गुरु वेद व्यास को मन ही मन नमन किया, और अपने कमरे में लौट गया।

कुछ दिनों तक, इसी सूत्र पर साधना करके, इसके वास्तविक अर्थ को ऐसा जाना, कि यही सूत्र मेरे भीतर की यात्रा में, मेरे आत्ममार्ग का मूलबिंदु बन गया।

और मैंने ये भी जाना, कि भगवान वेद व्यास ने इसको, उनके द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र में ही क्यों बोला था।

और इसके बाद, अबतक मैंने कोई ग्रंथ नहीं पड़ा, आवश्यकता ही नहीं पड़ी, क्योंकि इस सूत्र के दिशा संकेत पर, “स्वयं ही स्वयं में” जाके, मैं जो भी जानना चाहता था, जब भी जानना चाहता था, जिधर भी जानना चाहता था, वो सब कुछ, स्वयं ही स्वयं प्रकाशित होता चला जाता था।

और कुछ बाद में, एक ऐसी दशा भी आई, कि अपनी साधनाओं में, मैं जो भी साक्षातकार करता था, तो उस दशा से सम्बंधित वैदिक वाक्य, मेरे शरीर में ही सूक्ष्म रूप में बसे हुए वेद ग्रंथों में खुल जाते था, और मैं उनको पड़ के जान लेता था, कि साक्षातकार हुई दशा की वास्तविकता क्या है।

साधारण भाषा में बोलूं, तो इस अकेले सूत्र पर साधना करके, अपने भीतर की यात्रा में, मेरी चेतना की सारी की सारी बत्तियां जल गई।

और कभी तो कोई आकाशवाणी या घटाकाशवाणी भी होती थी, जिससे मुझे पता चल जाता था, उस दशा के बारे में, जो कुछ ही समय पूर्व साक्षातकार हुई थी।

और इसके अतिरिक्त, उन भीतर की यात्रा रूपी साधनाओं में, कभी कभी चेतना किसी पौराणिक वेद या सिद्ध मनीषी, देवी या किसी देवलोक, किसी भूधर, इत्यादि के पास ही चली जाती थी, और वो बता देते थे, उस पूर्व के साक्षातकार के बारे में।

और कभी तो ऐसा भी होता था, कि जो दशा मैंने कुछ समय पूर्व ही साक्षात्कार की थी, उससे सम्बंधित कोई वाक्य, दशा या दर्शन, अपने घर पर ही पड़े हुए किसी ग्रन्थ में मुझे अकस्मात् ही मिल जाता था।

और अधिकांश समय, ऐसे ग्रन्थों के किसी पृष्ट पर भी कोई न कोई मार्का भी लगा होता था, और उस पृष्ट पर लिखे हुए मंत्र या वाक्यों में ही, मुझे मेरा उत्तर मिल जाता था।

और इसके अतिरिक्त तो कभी कभी ऐसा भी हुआ है, कि मैंने कुछ साक्षात्कार किया, और उसे तुरंत बाद, इंटरनेट पर ही कोई ग्रन्थ का कोई पृष्ठ खुल गया, और उस पृष्ठ में ही उस दशा के बारे में कुछ सांकेतिक या स्पष्ट रूप में बतलाया गया था, जिसको पढ़कर मैं जान जाता था, कि साक्षात्कार की हुई दशा का अर्थ क्या है।

इनसब के कारण, मुझे कभी भी, कुछ भी ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ी…, सबकुछ स्वयं ही होता चला गया।

और कुछ तो मैंने समुद्र, पहाड़ों, नदियों, पक्षियों और वनस्पति सहित, चलित और अचलित जीवों से भी सीखा। बहुत कुछ तो मुझे पञ्च महाभूतों ने भी सिखाया।

और इस भीतर की यात्रा में, इन सबके साथ साथ, प्रकृति और पुरुष के विशुद्ध वैदिक बिंदु, उन विश्वरूपी मुद्राओं सहित, मुझसे बाते करते थे, और इसीलिये, ये सब मेरे मार्गदर्शक हुए।

उस भीतर की यात्रा में, ये सभी मेरे गुरु और गुरुमाई हुए।

और आज भी, इसी ब्रह्मसूत्र का प्रथम सूत्र, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, मेरा मूल मार्ग है।

जो अज्ञान रुपी अन्धकार से परे ले जाये, और उस सार्वभौम ज्ञान और चेतन रुपी प्रकाश में ही बसा दे, वो ही तो गुरु होता है। जो तमसो मा ज्योतिर्गमय के मूलार्थ में ही साधक की चेतना को बसा दे, वो ही तो गुरु होता है। और गुरु ही तो भगवद तत्त्व की दिव्यता को धारण किया हुआ, भगवद स्वरुप होता है।

शिष्य का गुरु ही तो भगवान होता है, और भगवान भी तो गुरु स्वरुप ही होते हैं।

जो गुरु, अपने शिष्य का भगवान ही न हो सके, वो गुरु कैसा। और जो भगवान अपने भक्त का गुरु ही न हो सके, वो भगवन कैसा।

इसलिए, अपने ही श्रुति स्वरूप में, मेरे लिए ये सूत्र एक विशुद्ध, वृत्तिहीन, निष्कलंक गुरूवाणी भी है, जिसके कारण यही सूत्र मेरे लिए गुरु स्वरुप भी है।

वाणी के मूल में शब्द होता है, जो वास्तव में ब्रह्म ही होता है, इसलिए, जिस ग्रन्थ को आज के वेदान्ती ब्रह्मसूत्र कहते हैं, वो मेरे लिए शब्द ब्रह्म ही हैं।

मैं ब्रहमसूत्र को ऐसा ही मानता हूँ, शब्द ब्रह्म ही मानता हूँ, ब्रह्म का शब्दात्मक स्वरुप ही मानता हूँ, और वो भी उसी ब्रह्म के श्रुति स्वरुप में।

इसका कारण ये है, कि जब मैंने इस सूत्र को पड़ा था, तो मेरे घटाकाश के भीतर एक वाणी स्वयंप्रकट हुई थी, जिसने भी “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा”, ऐसा ही कहा था। और इसीलिए, इस सूत्र को पढ़ते ही मैं जान गया था, की यही सूत्र मेरा मार्ग है, इसी सूत्र में मुझे मेरा मार्ग मिलेगा।

और क्यूँकि ब्रह्मसूत्र भगवान वेद व्यास द्वारा प्रकाशित किया गया था, इसलिए, मेरे लिए तो भगवान वेद व्यास भी साक्षात् ब्रह्म ही हैं।

और इसके साथ साथ, क्यूंकि ब्रह्मसूत्र का ग्रन्थ, जो मेरे घर पर है, और जिसका प्रथम सूत्र मेरे आत्ममार्ग का मूल हुआ था, वो शंकर भाष्य है, इसलिए मेरे लिए तो भगवान आदि शंकराचार्य भी साक्षात् ब्रह्म ही हैं।

मैं आज भी अपने आप को, उसी ब्रह्म का नन्हा विद्यार्थी ही मानता हूँ, क्यूंकि मुझे पता है, की इससे अधिक होने की मेरी औकात ही नहीं है।

 

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा को जानने के पश्चातविफलता का मूल कारण और उसका निवारण

अब इच्छुक साधक गण को, अपने बार-बार विफल होने के मूल कारण और उसके निवारण के मार्ग को बताता हूं…

अपने बार बार विफल होने के कारण को समझाता हूं, इसी ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र के द्वारा, जिसको भगवान और गुरु बादरायण ऋषि ने, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा कहा था।

इसी अकेले सूत्र में, प्रजापति ब्रह्म सहित, उनकी समस्त अभिव्यक्तियाँ, जीव और जगत स्वरूप में बसी हुई हैं।

जिस साधक नें, इस सूत्र के समस्त बिन्दुओं को, अपनी साधनाओं में जान लिया, उसने सारे वैदिक वांगमय को जान लिया।

ऐसा ज्ञानयोगी, वैदिक वांगमय के मूल सहित, उसके मार्ग और गंतव्य को भी जानता है।

ऐसा शरीर धारी योगी, स्वयं ही उस प्रजापति ब्रह्म का, एक ऐसा मूल ग्रंथ हो जाएगा, जिसमे समस्त ग्रंथ और उनकी दिव्यताएं बसी होती हैं।

और अपने इसी शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ में, वो योगी, उसी प्रजापति ब्रह्म के सगुण साकार, सगुण निराकार, सगुण निर्गुण साकार, सगुण निर्गुण निराकार, लिंगात्मक, भावनात्मक या इच्छात्मक, शुन्य और शुन्य ब्रह्म स्वरूपों सहित, उसी प्रजापति ब्रह्म के निर्गुण निराकार स्वरूप को भी, अपने ही आत्मास्वरूप में जान जायेगा।

वो अपने शरीर को ही, एक ऐसा ब्रह्मग्रंथ कहेगा, जिसमे समस्त दिव्यताएं बसी होती है।

और ऐसा योगी, ये भी जान जाएगा, कि वैदिक वांगमय में, आत्मास्वरूप ही, प्रजापति,  योगेश्वर, महेश्वर और  महाब्रह्म आदि शब्दों से बतलाया गया है।

और ऐसा साधक ये भी जान जाएगा, कि वैदिक वांग्मय में जो ब्रह्माण्ड बताया गया है, वो भी शरीर रूपी ब्रह्म ग्रन्थ या प्रजापति ग्रन्थ में ही बसा हुआ होता है, लेकिन वो ब्रह्माण्ड एक सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरुप में होता है, नाकि किसी और रूप या अरूप में।

ऐसा पूर्ण योगी, अपने इस साक्षात्कार का कभी भी प्रचार नहीं करेगा, लेकिन केवल तबतक, जबतक उसके भीतर से ही ऐसा करने का आदेश ना हो।

ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, ऐसा योगी बस शांत चित्त होके, एक अतिसाधारण मनुष्य के समान, अपना प्रारब्ध पूर्ण होने की, और अपने निरकाया होने की प्रतीक्षा करेगा।

और ऐसे समय पर, जब वो अपने प्रारब्ध पूर्ण होने की प्रतीक्षा कर रहा होगा, तो वो अपने आप को एक ऐसे स्वयंजनित आवरण रुपी निग्रह में डाल कर रखेगा, की उसका व्यहार ही उसकी वास्तविकता से विपरीत होगा।

वो किसी भी लोक में महिमा मंडित नहीं होना चाहेगा, क्योंकि तबतक उसको पता चल चुका होगा, प्रजापति स्वरूप के बाद, उसकी वास्तविक सत्ता, समस्त चतुरदश भुवन में है, नाकी किसी एक या एक से अधिक लोक में।

ऐसे लोकों में तो केवल उसका शरीर रहता है…, वो नहीं। तो शरीरी रूप में क्या महिमा मंडित होना।

 

ब्रह्मसूत्र का प्रथम सूत्र, … अथातो ब्रह्म जिज्ञासा का विशुद्ध मार्ग संकेत

तो अब इसी सूत्र के विशुद्ध मार्ग को सांकेतिक रूप में बतलाता हूँ …

उत्पत्ति से पूर्व, जब ना ही कोई जीव था, और न ही ये जगत था, जब कुछ नहीं था, तब केवल वो प्रजापति ही थे, जो उनके अपने वास्तविक स्वरूप में थे, और जो निर्गुण निराकार कहलाये थे।

जब हम निर्गुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वो निराकार ही अनंत होता है। लेकिन जब हम सगुण शब्द के साथ निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तब वो निराकार अनंत ही होगा, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।

और यही कारण है, कि उस समय पर, जो निर्गुण निराकार था, वो ही अनंत था।  जो अनंत होता है, वो ही तो सर्वव्याप्त होता है।

जो सर्वव्याप्त होता है, वो ही अनादि अनंत, सनातन अखंड होता है, इसलिए वो अखंड सनातन ही त्रिकालों के मूल में था, और ये त्रिकाल भी उसके अखण्ड सनातन स्वरूप में समरस होके ही बसा हुआ था।

और उसकी यही पुरातन अवस्था काल कहलाई थी, जिससे वो कालचक्र भी अभिव्यक्त हुआ था, जिसके गर्भ में ही समस्त जीव जगत बसाया गया था। यही कारण है, कि जो भी रचा गया था या आगे कभी भी रचा जायेगा, वो कालगर्भित ही होगा।

उस समय, उस निर्गुण निराकार प्रजापति के सिवा, और कुछ भी नहीं था। न ब्रह्माण्ड था, न ही कोई पिंड था और न ही इनके मध्य की कोई दशा ही थी।

उस समय, उस निर्गुण निराकार प्रजापति के सिवा, न तो कुछ और था, न ही कोई और था।

और उसी समय, उस निर्गुण निराकार प्रजापति के सिवा, ना तो कुछ और नहीं था, और ना ही कोई और नहीं था।

और उस समय, वो निर्गुण निराकार प्रजापति ही, सब कुछ होता हुआ भी, कुछ भी नहीं था, क्योंकि उस समय, बस वो ही था और इसके साथ साथ, वो उसके अपने निर्गुण निराकार प्रचीन से भी प्राचीनतम स्वरूप में, वो नहीं भी था।

ऐसा कहने का कारण है, कि, उस समय, उसे उसके पूर्ण स्वरुप में जानना, असंभव सा ही था, इसलिए, वो था, लेकिन नहीं था…, और इसके साथ साथ, वो नहीं था, लेकिन तब भी वो ही था, जो एकमात्र था।

उसको जानने के लिए, जो भी चाहिए होता है, जैसे मन, बुद्धि, चित्त, अहम इतियादी, उस समय वो कुछ भी नहीं था। इसलिए, उस समय, उसे जानने का कोई साधन भी नही था, क्योंकि उस समय बस वो ही था, और उसके सिवा कुछ और था ही नहीं।

यही कारण है, कि वेद मनीषी कह गए, कि यदि उस निर्गुण निराकार को जानना है, तो वो निर्गुण निराकार होकर ही जाना जा सकता है। जो साधक उसकी अपनी चेतना में वो नही होगा, वो साधक उसे जान भी नहीं पाएगा।

और क्यूंकी साधक का आत्मा ही वो निर्गुण निराकार होता है, इसलिए उस निर्गुण निराकार सर्वसाक्षी ब्रह्म को जानने का मार्ग भी साधक के आत्मस्वरूप से ही होकर जाता है। और ऐसे आत्मस्वरूप में, साधक का आत्मा ही पूर्ण संयासी, सर्वसाक्षी, निर्गुण निराकार ब्रह्म कहलाता है।

 

इसीलिये, वेद मनीषी ऐसा कह गए थे…

जो उसे जानता है और मानता है कि वो उसे पूर्ण रूप में जानता है, वो वास्तव में उसे नहीं जानता है

और जो उसे जान चुका है, लेकिन तब भी मानता है, कि वो उसे पूर्ण रूप में नहीं जानता है, वो ही वास्तव में उसका ज्ञाता है

 

जो मन, बुद्धि, चित, अहम् और प्राण, सब से परे हो, उसे उसके पूर्ण स्वरुप को कैसे जानोगे। उसको तो बस जान सकते हो, लेकिन केवल अपने ही सर्वसाक्षी, आत्मस्वरुप में।

जबतक साधक के भीतर की अवस्था, उस ब्रह्म के समान नहीं होती, तबतक साधक उस ब्रह्म का साक्षात्कार भी नहीं कर पाता।

उस ब्रह्म के समान हुए बिना, उसको जाना नहीं जा सकता, क्यूंकि ब्रह्म ही ब्रह्म का वास्तविक ज्ञाता होता है …, और कोई भी नहीं।

जो शब्दातीत है और भावातीत है, उसका वर्णन अपने भाव या शब्दों में कैसे करेंगे।

इसलिए, यदि कोई उसे जान भी गया, तो भी उसका पूर्ण वर्णन नहीं कर पाएगा।

वो शब्दात्मक और भावनात्मक है, इसलिए उसके पूर्ण वर्णन का न तो कोई शब्द है, और न ही भाव।

और इससे आगे भी उसे जान सकते हो, उसके निरंग, झिल्लि के समान सर्वव्याप्त स्वरूप में। लेकिन उसके इस स्वरूप में भी, उसके पूर्ण रूप में, तुम उसे जान पाए हो या नहीं, इसका प्रमाण भी तुम्हें तब ही मिलेगा, जब तुम तुम्हारे अपने आत्मास्वरूप में, उस निर्गुण निराकार प्रजापति को ही पाओगे।

लेकिन ऐसी स्थिति में भी, तुम उस निर्गुण निराकार को, उसके ही पञ्च ब्रह्म स्वरूप में, अपने ही आत्मस्वरूप में पाओगे…, और किसी भी स्वरूप में नहीं।

इसका कारण है, कि, उसे उसके आंशिक अभिव्यक्त स्वरूप में  तो जान सकते हो, लेकिन उसे उसके ही पूर्ण अभिव्यक्ता स्वरूप में, नहीं जान सकते हो।

अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता को बस उस स्वरुप सीमा तक ही जान सकती है, जो उस अभिव्यक्ति के भीतर है। इससे अधिक नहीं।

और ऐसी स्वरुप सीमा पूर्ण है या नहीं, उस अभिव्यक्ता का पूर्ण ज्ञान रुपी साक्षात्कार है या नहीं, इस जीव जगत में इसका भी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।

 

एक और बात संकेतिक बता रहा हूँ

उसको उसके पूर्ण रूप में, वो योगी ही जान पायेगा, जो उसमें ही विलीन होके, वो ही हो गया, … और कोई भी नहीं।

और उसमे विलीन होने के मार्ग भी, भावनात्मक ही होता है…, और कुछ भी नहीं।

उस निर्गुण निराकार प्रजापति में, न इन्द्रियाँ है, न इन्द्रिय विषय हैं, न तन्मात्र न ही कोई महाभूत ही हैं। यही कारण है, कि, इनसब का आलम्बन लेके, उस निर्गुण ब्रह्म को जाना जा ही नहीं सकता, क्यूंकि अपने प्रकृत स्वरुप में, इनसब की गति, उस निर्गुण ब्रह्म तक है ही नहीं।

निर्गुण निराकार प्रजापति में न मन है, और न ही बुद्धि, न ही चित्त अहम या प्राण ही हैं, इसलिए, उसमें विलीन होके भी, जिसने उसे पूर्ण रूप में जान लिया है, वो भी उसके बारे में, पूर्ण रूप में बतला नहीं पाएगा।

वो शब्दों से ही परे है, इसलिए उसको जान के भी, उसको उसके पूर्ण स्वरुप में  बतलाओगे कैसे?, … बतला ही नहीं पाओगे, क्यूंकि शब्दों की गति भी तो उस तक नहीं होती है।

इसलिए, उसे अपने ही आत्मास्वरुप में, जान तो सकते हो, लेकिन उसके बारे में पूर्ण रूप में बतला ही नहीं सकते हो, क्योंकि वो तुम्हारे भाव और शब्द, दोनो से परे हैं।

जो भावातीत है और शब्दातीत भी है, उसको कैसे बतलाओगे अपने भाव या शब्दों में।

इसलिए, जब भी उसको जानोगे, तो अपने ही आत्मस्वरूप में जानोगे…, और किसी भी स्वरूप या अवस्था में नहीं।

और अपने आत्मास्वरूप में जानने के लिए, तुम्हें भी “स्वयं ही स्वयं में”, इसी मार्ग पर जाना पड़ेगा, क्योंकि इसी स्वयं नामक शब्द के मूल और गन्तव्य, दोनो में, वोही एकमात्र बसा हुआ है।

और इसके साथ साथ, इसी स्वयं नामक शब्द की सारी अवस्थाओं में, सारी अभिव्यक्तियों के मूल और गन्तव्य में भी, वोही एकमात्र ही, उसके अपने सर्वसाक्षी केवल स्वरुप में बसा हुआ है।

और तुम्हें भी “स्वयं ही स्वयं में”, वैसे ही भावनात्मक होके जाना पडेगा, जैसे मैं गया था, क्यूंकि उसका और कोई मार्ग है ही नहीं।

यही भावनात्मक स्तिथि, ब्रह्म सूत्र के प्रथम सूत्र “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” में भी सांकेतिक रूप में बतलाई गयी है।

और ये भावनात्मक स्तिथि भी, ब्रह्म भावापन अवस्था को ही दर्शाती है। इसलिए, जो साधक ब्रह्म भावपन नहीं, वो साधक उसके अपने आत्मा स्वरूपी ब्रह्म का द्रष्टा भी नहीं हो पायेगा।

लेकिन एक बात पर ध्यान देना, कि उस निर्गुण निराकार में कोई सिद्धि नहीं होती, क्यूंकि वो सिद्धियों से भी परे है। इसलिए, यदि आप सिद्धियों के इच्छुक हो, तो आपके लिए ये मार्ग है ही नहीं।

आजकल तो कुछ लोग, मोक्ष सिद्धि जैसे शब्दों का भी प्रयोग करते हैं, लेकिन ऐसे शब्द ही द्वैतवाद को दर्शाते है…, जो निर्गुण निराकार में होता ही नहीं।

तुम्हारे अपने आत्मस्वरूप में, तुम मोक्ष ही तो हो। जो तुम हो ही तुम्हारे अपने वास्तविक स्वरुप में, अर्थात आत्मस्वरूप में, उसकी क्या सिद्धि।

अपने ही वास्तविक स्वरुप की भी कभी सिद्धि हुई है। जो तुम अपनी वास्तविकता में हो ही, उसको कैसे सिद्ध करोगे।

इसलिए, ये मोक्षसिद्धि नामक शब्द, मनोलोक से उत्पन्न हुआ, प्रपञ्च ही है।

 

अब सांकेतिक रूप में, कुछ बिंदुओं बतलाता हूँ …

सिद्ध कभी मुक्तात्मा नहीं होता। जो सिद्ध ही हो गया, उसको मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना।

और इसके विपरीत, मुक्तात्मा कभी सिद्धियों का धारक नहीं होता। वो मुक्ति पूर्ण कैसे होगी, जबतक वो सिद्धियों से ही अतीत या मुक्त नहीं होगी । जो मुक्त ही हो गया, उसको सिद्धि से क्या लेना देना…, वो तो सिद्धियों से भी मुक्त होता है।

इसलिए, जो वास्तव में मुक्तात्मा है, वो कभी भी सिद्धियों का धारक नहीं होता। और जो वास्तव में सिद्ध है, वो कभी भी मुक्ता नहीं होता।

मुक्तात्मा कभी किसी को आशीर्वाद या श्राप नहीं देता…, जो मुक्त ही हो गया, उसको इन सबसे क्या लेना देना। ये सभी कर्म सिद्धों के होते हैं।

सिद्ध से अच्छा कोई गुरु भी नहीं होता। और मुक्तात्मा को गुरु या शिष्य से क्या लेना देना, वो तो इन सब अवस्थाओं और उनके कर्मों से भी मुक्त होता है…, अतीत होता है।

मुक्तात्मा किसी भी देवादि लोकों में नहीं पाया जाता। वो तो इन सभी से भी मुक्त होता है। मुक्तात्मा तो लोक और अलोक, दोनों से ही अतीत होता है।

मुक्तात्मा केवल होता है, इसलिए आत्ममार्गी होता है, अपने ही आत्मस्वरूप का मार्गी होता है, स्वयं ही स्वयं में रमण करता है। उसको बाकी सब मार्गों से या उनकी सिद्धियों से, क्या लेना देना?।

मुक्तात्मा केवल मोक्ष मार्ग को बतलाता है, उसको बाकी सब प्रपंचों से क्या लेना देना?।

वो सिद्ध जो आगे चलके कभी भी मुक्त होगा, वो भी उसकी समस्त सिद्धियों का परित्याग करके ही मुक्त होगा। जो सिद्धियों से ही मुक्त नहीं, वो कैसा मुक्त। निर्गुण निराकार की भी कभी कोई सिद्धि हुई है।

यही अंतिम दशा, जो मुक्ति कहलाती है, वो भी इसी ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा से ही जानी जाती है…, अर्थात, इस सूत्र का योगी, अंततः ऐसी मुक्ति को ही पायेगा, जो जीव जगत के दृष्टिकोण से, सर्वातीत होती है।

और वो मुक्ति दिशातीत या मार्गातीत, दशातीत या लोकातीत, कर्मातीत, फलातीत, संस्कारातीत, गुणातीत, तन्मात्रातीत, भूतातीत, भावातीत, शब्दातीत, सिद्धितीत और कालचक्र से भी अतीत होती है।

मुक्ति वैसी ही होती है, जैसा निर्गुण निराकार ब्रह्म है।

 

और एक बात …

मुक्तात्मा से पूर्व सिद्ध होना ही होगा। सिद्ध अवस्था ही मुक्ति का मार्ग होती है।

लेकिन मुक्ति के समय, सिद्धियों का त्याग भी होता है, क्यूंकि मुक्ति जो पूर्ण सन्यास ही होती है, वो सिद्धियों से भी अतीत होती है।

इसलिए, इस ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा के मार्ग में, साधक के पास जो कुछ भी इस जीव जगत का है, वो सब त्यागा जाता है।

और उसको त्यागने का मार्ग भी ब्राह्म भावापन अवस्था में स्थित होके ही पाया जाता है, जिसके बारे में ये सूत्र, सांकेतिक रूप में सही, लेकिन बतलाता है।

इसलिए ये मुक्ति सूत्र भी है, जिसके कारण इसको भगवान वेद व्यास ने, ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र में ही कह दिया था। और ये उसी प्रकार है, जैसे श्रीमद्भगवद गीता के अंतिम श्लोक में ही, उसका गंतव्य मार्ग भी है।

लेकिन श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के अंतिम श्लोक में कहा गया जो कृष्ण शब्द है, वो साधक का ही आत्मस्वरूप, योगेश्वर ब्रह्म होता है।

और इस अंतिम श्लोक में, साधक के मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण ही पञ्च पाण्डव होते हैं, जिनमें से मन ही श्री कृष्ण का पार्थ, अर्जुन होता है, और जिसके बारे में श्रीमद्भगवद गीता के अंतिम श्लोक में भी बतलाया गया है।

इसी प्रकार, यहाँ बतलाये जा रहे “स्वयं ही स्वयं के” मार्ग में,  महाभारत के समस्त क्षेत्र और पात्र भी साधक के शरीर में ही बसे हुए वैदिक बिन्दों में पाये जाते है।

लेकिन उनको मैं यहाँ पर नहीं बतलाऊँगा, क्यूंकि यहाँ पर बात श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के अंतिम श्लोक की हो रही है।

इसलिए, अब मैं ये अध्याय समाप्त करता हूँ।

 

असतो मा सद्गमय

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