यहाँ पर ॐ, जिसे ओम्, ओउम्, ओंकार, और ओमकार भी कहा जाता है, उसकी बात होगी I इस अध्याय का साक्षात्कार तब होता है, जब साधक की चेतना पूर्व में बतलाए गए अकार, उकार (या ओकार), मकार, शुद्ध चेतन तत्त्व (ब्रह्मतत्त्व) का साक्षात्कार करके, इन सबसे परे चली जाती है I यह ॐ साक्षात्कार, यहाँ बतलाए गए ॐ मार्ग का अंतिम बिंदु है I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है।
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का साठवाँअध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, ॐ मार्ग की श्रृंखला का आठवाँ अध्याय है।
इस चित्र का वर्णन …
इस चित्र में पीला रंग ब्रह्मतत्त्व का है, जिसमें ॐ का चिंन्ह लिखा होता है, अर्थात ॐ अपने लिपिलिंगात्मक स्वरूप में होता है I
और इस चित्र की दशा में, ॐ का शब्द ब्रह्म स्वरूप भी होता है, अर्थात ॐ अपने शब्दात्मक स्वरूप में भी होता है I
इस चित्र के प्रकाश में ॐ के भीतर और ॐ को घेरे हुए भी, निरंग (निर्गुण) प्रकाश अपने निराकार रूप भी होता है, जो एक निरंग झिल्ली के समान होता है I यह निरंग और निराकार प्रकाश ही निर्गुण निराकार ब्रह्म है I
ॐ साक्षात्कार मार्ग … ओम् और सावित्री विद्या … ओम् और माँ सावित्री सरस्वती …
साधक का उत्कर्ष मार्ग, जीव जगत की रचना के मार्ग से विपरीत होता है I
ॐ मार्ग के दृष्टिकोण से, ॐ से प्रणव (अर्थात ब्रह्मतत्त्व या शुद्ध चेतन तत्त्व) स्वयंउत्पन्न हुआ था, उस शुद्ध चेतन तत्त्व में मकार स्वयंउत्पन्न हुआ था, मकार से उकार स्वयंउत्पन्न हुआ था और उकार से अकार I और इन सब दशाओं की मूल विद्या भी माँ सावित्री सरस्वती ही थीं I
ॐ की दिव्यता को ही सावित्री सरस्वती कहा जाता है, जो ॐ का प्रथम बीज, अकार ही हैं I
मुझे पता है, आज के वेद मनीषी इस बिंदु को मानेंगे नहीं, लेकिन यही सत्य है I ऐसा होने के कारण ही माँ सावित्री से सब देवी देवता भी भयभीत होते हैं, क्यूंकि ॐ की दिव्यता और शक्ति स्वरूप में, माँ सावित्री समस्त जीव जगत की सार्वभौम और सर्वव्यापक माता ही हैं I
और ॐ दिव्यता सावित्री सरस्वती (या अकार) के स्वयंप्रादुर्भाव के पश्चात ही ब्रह्म की रचना की बाकी सब दशाओं और अवस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ था I
आगे बढ़ता हूँ …
क्यूंकि उत्कर्ष मार्ग जो कैवल्य को लेके जाता है, जगत के रचना मार्ग से उल्टा होता है, इसलिए, योगमार्ग में जब योगी की चेतना अकार, फिर उकार, मकार और फिर ब्रह्मतत्त्व को पार कर जाती है, तब ही वो योगी ॐ साक्षात्कार कर पाएगा I
मकार ही त्रिदेव और त्रिदेवी है, इसलिए जब वह योगी, ॐ साक्षात्कार से पूर्व, त्रिदेवों में से किसी एक देव का साक्षात्कार करके, उनका आशीर्वाद प्राप्त करेगा, तब ही वह देव उस योगी की चेतना को उनकी अपनी दशा, अर्थात मकार से पार जाने का मार्ग दिखलाएंगे I ऐसे अशीर्वाद के पश्चात ही वो योगी, ब्रह्मतत्त्व साक्षात्कार से होता हुआ, ओम् साक्षात्कार कर पाएगा I
इस ॐ मार्ग में, पञ्च देव का आशीर्वाद भी आवश्यक है, जिसके कारण जिस योगी ने स्वयं ही स्वयं का समर्पण पञ्चदेव को नहीं किया, वो भी इस ओम् मार्ग पर नहीं जा पाएगा I
और पञ्च देव को समर्पित हुए बिना, यदि वो योगी ओउम् मार्ग पर चल भी पड़ा, तो भी वो इसके गंतव्य को नहीं पाएगा, जो ॐ के बिन्दु में लय होने की अवस्था होती है I
और जब वह योगी ॐ को जायेगा, तब उसे पता चल जायेगा, कि ब्रह्म की रचना के प्रारम्भ में वही ॐ था, जो उसी ब्रह्म की रचना को पार करने के पश्चात भी साक्षात्कार होता है I
और ऐसा योगी जान जायेगा कि चाहे मकार, त्रिदेव की ही अवस्था क्यों नहीं हो, लेकिन यह अवस्था मुक्ति को नहीं दर्शाती, क्यूंकि मुक्ति या कैवल्य, ॐ के साक्षात्कार से ही होता है, नाकि किसी और अवस्था के साक्षात्कार से I और ॐ का साक्षात्कार भी त्रिदेव अर्थात मकार के अनुग्रह से ही होता है I
इसलिए अब ॐ का वर्णन करता हूँ…, और जैसा साक्षात्कार है…, वैसा ही करता हूँ I
ॐ साक्षात्कार का स्थान …
यह साक्षात्कार भी ब्रह्मरंध्र के विज्ञानमय कोष में, ब्रह्मतत्व के भीतर ही होता है I
जब साधक की चेतना पूर्व के अध्यायों में बतलाए गए अकार, उकार (या ओकार), मकार (या त्रिदेव), शुद्ध चेतन तत्त्व (ब्रह्मतत्त्व) का साक्षात्कार करके, इन सबसे परे चली जाती है, तब ॐ साक्षात्कार होता है I
ॐ ज्ञान और उसके साक्षात्कार में पात्र की आवश्यकता …
अब इन बातों पर ध्यान देना …
यदि कोई साधक योगमार्ग की किसी बिंदु साक्षात्कार का पात्र नहीं बनता, तो उस साधक को उस बिंदु का साक्षात्कार भी नहीं हो सकता I
ऐसे साधक को यदि उस बिन्दु की दीक्षा भी दी जाएगी, तो भी उस साधक को कोई लाभ नहीं होगा, अर्थात उस साधक को कोई उत्कृष्ट फल प्राप्ति भी नहीं होगी I यही कारण है, कि वैदिक और योगमार्ग में, जो पात्र नहीं होता, उसको दीक्षा भी नहीं दी जाती है I
यह भी एक कारण है, कि इस ग्रन्थ में कुछ बिंदु सांकेतिक भी कहे गए हैं, क्यूंकि जो पात्र नहीं हैं, उनको वो बातें स्पष्ट रूप में बताई भी नहीं जा सकती हैं I
लेकिन ऐसा होने पर भी, जो इस ग्रन्थ के ज्ञान के वास्तविक पात्र होंगे, वो उस बिंदु को (या उन सब बिन्दुओं को) भी जान जाएंगे, जो इस ग्रन्थ में संकेतिक आदि स्वरूपों से बताए गए हैं, और जिनके मूल इस ग्रन्थ के ज्ञानमय शब्दों में या तो छिपाये गए हैं, और या सांकेतिक रूप में ही बतलाए गए हैं I
गुरुदक्षिणा क्या है … गुरुदक्षिणा पूर्ती का अंतिम समय और स्थिति” सीमा …
एक बात और बता दूं, कि कलियुगों में अधिकांश जीव (मानव सहित) ऐसे ज्ञान के पात्र भी नहीं होते I
और क्यूंकि मेरा यह जन्म, कलियुग के कालखंड में ही हुआ है, इसलिए यदि मेरे पास कोई और विकल्प होता, तो मैं इस ग्रन्थ को बताता भी नहीं I लेकिन इस जन्म में, मेरे पास ऐसा विकल्प था ही नहीं, क्यूंकि मेरी तो यह पूर्व जन्मों से चली आ रही और उन जन्मों की शेष गुरुदक्षिणा है I
मेरे तीन पूर्व जन्मों के तीन गुरुदेवों ने जो कहा था…, यह ग्रन्थ उन्ही की गुरुदक्षिणा के अनुसार है I
गुरुदक्षिणा तब लागू होती है, जब गुरु अपनी दीक्षा शक्तिपात आदि पूर्ण करते हैं I वैसे तो योग और वेदमार्ग में गुरु के शब्द भी दीक्षा ही होते हैं I
और शिष्य को भी वो गुरुदक्षिणा बिलकुल वैसे ही देनी होती है, जैसे उस शिष्य के गुरुदेव ने उसे कहा था…, न उससे न्यून और न ही अधिक I
लेकिन किसी भी शिष्य के दृष्टिकोण से, गुरुदक्षिणा देने की अंतिम समय सीमा तब होती है, जब वो शिष्य उसके उन गुरु के शक्तिपात या ज्ञान मार्ग का पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है I ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वो शिष्य बाध्य होता है अपनी गुरुदक्षिणा की पूर्ती के लिए कार्य करने को I
अब आगे बढ़ता हूँ …
मेरे एक पूर्व जन्म के गुरु, जो एक प्रजापति स्वरूप ब्रह्मऋषि थे, और जो उस समय के गोत्र प्रवर्तक ऋषि भी थे, और मेरे मनस पिता भी थे, उन्होंने अपने सभी 60,000 मनस पुत्रों को ऐसा आदेश दिया था I
उन्होंने कहा था, कि जैसे जैसे तुम सब मेरे मनस पुत्र, एक एक करके अथर्ववेद में सूक्ष्म रूप में बतलाये गए अष्टम चक्र को, एक सौ एकवी बार पार करोगे, तभी तुम्हारी मुक्ति होगी I
और उन्होंने यह भी कहा था कि इस सिद्धि तक, तुम सब मनस पुत्र, प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होकर ही रहोगे, जिसके कारण तुम सभी बारम्बार मानव आदि जीवों के शरीरी रूप में आते ही रहोगे, और वो भी परकाया प्रवेश के मार्ग से I
इसलिए तुम में से कोई भी, किसी भी स्थूल जगत की माता के गर्भ से जन्म नहीं लेगा I तुम सब काल की प्रेरणा से और काल की दिव्यता महाकाली की शक्ति से, केवल परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही लौटोगे…, लेकिन समय समय पर और एक एक करके I
और उन प्रजापति स्वरूप हमारे मनस पिता, ब्रह्मर्षि क्रतु ने यह भी कहा था, कि अंततः, जब जब उस समय के देव कलियुग में, गुरुयुग आना होगा, तब तुम में से मेरा कोई एक मनस पुत्र लौटेगा, अष्टम चक्र को एक सौ एकवी बार पार करने के लिए I और उस अष्ठम चक्र को एक सौ एकवी बार पार करके, वो मेरे मनस पुत्र, प्रजापति स्वरूप हो जाएगा, क्यूंकि यह प्रजापति सिद्धि ही है I
उन प्रजापति पितामह का स्वरूप धारण करने से पूर्व, तुम्हारी भीतर की एक हृदय गुफा में, तुम सब के सनातन गुरु श्रीमन नारायण स्वयंप्रकट होंगे और तुम्हें उस मार्ग पर लेके जाएंगे, जिससे तुम उस अष्ठम चक्र को एक सौ एकवी बार पार करोगे, और प्रजापति स्वरूप को पाओगे I इस स्वरूप में वो मनस पुत्र, उन प्रजापति का ही सगुण साकार स्वरूप हो जाएगा, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म, कार्य ब्रह्म, सवितुर, आदित्यादी (सूर्यादि) देवत्व, जीवत्व,जगतत्व, बुद्धत्व और ब्रह्मत्व बिंदुओं से भी जानी जाती है I
और इस अष्ठम चक्र को एक सौ एकवी बार पार करने के पश्चात, वो मनस पुत्र, प्रजापति का स्वरूप धारण करेगा, अर्थात वो चतुर्मुखा पितामह प्रजापति मेरे उस मनस पुत्र के आदिअंग में सर्वसम ऊर्जा रूप में ख्यापित होंगे I
उस समय पर, वह मेरा मनस पुत्र श्रीमान नारायण का शिष्य होगा, और साक्षात् नारायण उसके भीतर ही बसे हुए, मेरे उस पुत्र का सनातन गुरुदेव होंगे और उस पुत्र के निष्काम प्रेमी भी होंगे I ऐसे समय पर, भगवान शिव भी मेरे उस पुत्र के परमगुरु स्वरूप होंगे I मूल विद्या, अर्थात पञ्च विद्या सरस्वती भी मेरे उस पुत्र के साथ होंगी, जिसके कारण समस्त शक्ति रूपी देवीगण भी मेरे उस पुत्र के साथ होंगी I ऐसे जन्म में, पञ्च ब्रह्म सहित, पञ्च मुखी सदाशिव भी मेरे उस पुत्र के साथ होंगे I
मैंने इस जन्म में, मेरे मनस पिता और गुरुदेव, प्रजापति स्वरूप ब्रह्मऋषि क्रतु की यह आज्ञा का पालन किया और इसके पश्चात, उनके और सनातन गुरु श्री विष्णु के आदेशानुसार, यह ग्रन्थ लिखा, जो वास्तव में मेरी गुरुदक्षिणा ही है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
मेरे एक और पूर्व जन्म में, जब में एक सम्राट था, जिसका नाम सत्यव्रत था, जिसकी दो पत्नियां थी और जो ब्रह्मऋषि विश्वामित्र का शिष्य था, और जो त्रिशंकु कहलाया था…, और जिसको उसके उस समय के गुरुदेव ने भी ऐसा ही कहा था I
उन गुरुदेव ने कहा था, कि जब तू इस त्रिशंकु अवस्था से बाहर आ जाएगा, तब तू अपना ज्ञान मानव जाती में बाँट कर ही मुक्ति को जाएगा I और तेरा दिया हुआ मार्ग, 36,000 गुणा 3 मानव वर्षों तक रहेगा I
इसलिए यह ग्रन्थ मेरे उन गुरुदेव, ब्रह्मऋषि विश्वामित्र की आज्ञानुसार भी है I
उन पूज्य गुरुदेव ब्रह्मऋषि विश्वामित्र ने, जिनके श्री पादों में मैं आज भी समर्पित हूँ, मुझे त्रिशंकु अवस्था से पार जाने का मार्ग भी बतलाया था, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताऊंगा…, जब रकार मार्ग पर बात होगी I
अब आगे बढ़ता हूँ …
मेरे एक और पूर्व जन्म के गुरु, जो श्री विष्णु के अवतार भी हैं, जो बुद्धत्व सिद्धि के सगुण साकार स्वरूप थे, उन्होंने भी ऐसा ही कुछ कहा था उस पूर्व के जन्म में जब मैं उनका शिष्य था I
उन्होंने कहा था, कि तू अष्टम चक्र को उस पूर्व के जन्म में एक सौ एकवी बार पार नहीं करेगा…, बल्कि अपने अगले जन्म में करेगा I
और जब मैंने उनसे कई बार बोला, कि अपनी आज्ञा लौटाइये, क्यूंकि अब मैं तैयार हूँ, तो उन्होंने बारम्बार मना ही किया I
और जब मैंने उनको बोला की मुझे इतने जन्म हो गए इसकी प्रतीक्षा करते हुए, इसलिए कृपया अपना आदेश लौटा लीजिये…, तो भी उन्होंने मुझे रोक दिया I
लेकिन जब मैं उनको बारमबार बोलता ही रहा, तो अंत में गुरु बोले…, यह आदेश कि तुम अगले जन्म में उस अष्ठम चक्र को एक सौ एकवी बार पार जाओगे…, मेरी गुरु दक्षिणा ही मानो I इसके पश्चात तो मेरे पास उनको कुछ कहने को भी नहीं रह गया था I
इसीलिए, इस जन्म में पुनः लौटना पड़ गया, वो भी उस समय पर जब दैविक, प्राकृतिक और मानव जनित विप्लव, बस आने को हैं, क्यूंकि देव कलियुग को कोई 10,000 वर्षों के लिए स्थम्बित होना है I और इसी देवताओं के कलियुग में, गुरु गद्दी अर्थात, आम्नाय गद्दी का युग प्रकाशित और चलित भी होना है I
गुरुदेव बुद्ध ने यह भी बोला था, कि तू उस आगामी जन्म में ही मेरी यह गुरुदक्षिणा पूर्ण करेगा I चाहे तू जैसा भी रहे, जो भी करे, तू पूर्ण करेगा … तुझे कोई भी रोक नहीं पाएगा I
और जब तू पूर्ण कर लेगा, तो उस समय जो भी तुझे उचित लगे, वो मानव जाती को बतलाना I ऐसा करने के पश्चात ही तू कैवल्य मुक्ति को पाएगा…, इससे पूर्व नहीं I
और उन गुरुदेव बुद्ध ने तो यह भी कहा था, कि जब तू अष्ठम चक्र को पार करेगा, तो उस समय मैं (अर्थात गुरुदेव बुद्ध) जिस भी लोक में होऊँगा, तू मुझे उस लोक में आकर ही बताएगा, कि तूने मेरी गुरुदक्षिणा पूर्ण कर ली है I
और उस आगामी जन्म में, तेरा मार्ग पञ्च ब्रह्म, पञ्च सरस्वती और पञ्च मुखा सदाशिव…, तीनों की प्रदक्षिणा से होकर जायेगा I
उस प्रदक्षिणा में, वो सदाशिव, सगुण साकार होने के साथ साथ, सगुण निराकार भी होंगे, जिनसे तेरी अंतगति, उस निर्गुण निराकार गंतव्य को जाएगी I
तो मैंने जब उनसे कहा, कि उस समय पर तो कलियुग घोर होगा, तो उस विकृत कालखंड में गुरु कैसे मिलेगा इस मार्ग के लिए I
तब उन्होंने कहा था, कि यदि इस पृथ्वी लोक में मेरे बताए गए मार्ग का पूर्ण ज्ञाता कोई गुरु, मानव शरीर में नहीं होगा, तो ऐसी अवस्था में साक्षात् भगवान् (श्री विष्णु) ही गुरु होकर, तेरे भीतर, तेरे हृदय में ही स्वयंप्रकट हो जाएंगे I और वो श्री विष्णु अपने सूर्य नारायण स्वरूप, जिनकी आभा अमिट है, उसमें ही होंगे I
गुरुदेव बुद्ध ने यह भी कहा था, कि बेटा चिंता मत कर, क्यूंकि उस जन्म में तू स्वयं ही स्वयं को जायेगा, तू अनात्मा से होकर आत्मा को जायेगा, तू योग से उस आयोग को भी पाएगा जो केवल केहलाता है, इसलिए तेरे उस जन्म के मार्ग में, तेरे भीतर का समस्त अनात्मा प्रपंच भी, तेरे उस जन्म के आत्ममार्ग का अभिन्न अंग होगा I
और उन्होंने कहा था, कि ज्ञान का प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यापार नहीं होता, इसलिए उस जन्म में, अपने बाँटें हुए ज्ञान का कोई भी व्यापार नहीं करना I यह भी एक कारण है, कि इस जन्म में इस ज्ञान को बाँटने के सिवा मेरे पास तो कोई और विकल्प है ही नहीं I इस जन्म में, यदि मेरे पास कोई और विकल्प होता, तो मैं इस ग्रन्थ के ज्ञान को बिलकुल नहीं बताता I
शास्त्र कहते हैं, कि जिस योगी ने पूर्ण साक्षात्कार कर लिया, उसे शांत चित होके, सब कुछ छिपा के, अपना शेष जीवन जीना चाहिए I ऐसे योगी को किसी दुर्गम स्थानों में जाके, अपना शेष जीवन, शांत चित्त होके व्यतीत करना चाहिए I उसे किसी को कुछ भी नहीं बतलाना चाहिए…, बस अपना शेष जीवन, एक अनभिज्ञ अतिसाधारण मानव के समान, एकांत में ही व्यतीत करना चाहिए I
और इसके विकल्प में, उस योगी को अपनी चेतना को ब्रह्मरंध्र से परे उठाके, उस पूर्णविसर्ग की दशा में जाके, अपने स्थूल शरीर को त्याग देना चाहिए I
लेकिन इस जन्म में तो, मेरे पास ऐसा विकल्प नहीं था I मेरे पूर्व जन्मों में मेरे पास ऐसा विकल्प था, लेकिन इस जन्म में नहीं है I यदि होता, तो यह सब मैं कभी भी नहीं बतलाता…, न ही वेबसाइट से, और न ही किसी और माध्यम से I
इस ब्रह्मकल्प में, मैं कई बार परकाया प्रवेश मार्ग से लौटा हूँ, लेकिन उन सब जन्मों में, मेरी ऐसी विकल्पविहीन स्थति नहीं थी I पर इस बार तो है, क्यूंकि स्वयम्भू मन्वन्तर के मेरे मनस पिता, अर्थात ब्रह्मऋषि क्रतु के द्वारा कहे गए मार्ग को पूर्ण कर लिया है I
तो उन सभी पूर्व जन्मों में, बस एक ही बार, अष्टम चक्र को पार किया, और ऐसा करने के पश्चात, मैंने अपने देह भी त्याग दिया था I
लेकिन इस जन्म में, जब अष्टम चक्र एक सौ एकवी बार पार हुआ, तो ऐसा सुनहरा विकल्प नहीं था, इसलिए अष्टम चक्र के पार होने के पश्चात ग्यारह माह तक उस मृत्यु तुल्य कष्ट को झेलना पड़ा, ताकि उन पूर्व जन्मों की गुरुआज्ञा और गुरुदक्षिणा का पालन हो सके I
अष्टम चक्र को पार करने से, निर्बीज समाधि होती है I
इस समाधि के पश्चात, मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है, क्यूंकि इस समाधि में, पुरुष और प्रकृति का योग होता है, जिसमें योगी की नाभि से 2-3 ऊँगली नीचे पड़ा हुआ अमृत कलश, अष्टम चक्र में ही चला जाता है I इसके पश्चात ही उस योगी को शून्य ब्रह्म, अर्थात श्रीमन नारायण का साक्षात्कार होता है I
इस निर्बीज समाधि के बारे में, कभी और बतलाऊँगा नहीं तो यह अध्याय भी बहुत लम्बा हो जायेगा…, इसलिए अब आगे बढ़ता हूँ I
लेकिन इस अष्ठम चक्र का मार्ग भी ओ३म् मार्ग से ही होकर जाता है, जिसकी बात यहाँ पर हो रही है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
वैसे भगवान बुद्ध का आगमन, 1914 इसा पूर्व से 2.7 वर्षों के भीतर हुआ था, अर्थात बीसवीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था I
क्यूंकि बौद्धों को इसका पता ही नहीं, इसलिए कुछ बौद्ध मार्ग उनका आगमन चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में कहते हैं, कुछ पाँचवीं से लेकर दसवीं शताब्दी तक बताते हैंI लेकिन इनमें से कोई भी समय ठीक नहीं है I
ओ३म् साक्षात्कार मार्ग के मूल में भाव होता है, … और ॐ मार्गी साधक के भाव में ही साधन होता है …
योगमार्ग के किसी भी उपमार्ग में, जबतक साधक के भाव उचित नहीं होते, तबतक उस साधक के लिए कोई भी उत्कर्ष पथ रूपी साधन स्वयंप्रकट नहीं होता I
और जबतक साधक अपने उत्कर्ष के लिए कोई साधन स्वयं प्रकट नहीं करता, तबतक साधक उस उत्कर्ष रूपी मुक्तिमार्ग पर भी गमन नहीं कर पाता, जो ॐ साक्षात्कार को लेके जाता है I
दूसरों के दिए हुए (या बताए हुए) साधन से, स्वयं के लिए का गंतव्य मार्ग प्रशस्त भी नहीं होता, और यदि कोई मार्ग प्रकट भी हो जाए, तो भी वो गंतव्य तक नहीं लेके जाएगा I
इसलिए, यदि किसी साधक को उस गंतव्य (निर्गुण निराकार ब्रह्म) तक जाना है, तो उस साधक को अपने ही भाव से, अपने लिए एक उचित साधन प्रकट करना ही पड़ेगा I जो साधक (और योगीजन) ऐसा नहीं करते, वो अंततः बोलते ही हैं, कि निर्गुण को कौन जान पाया है I लेकिन प्रत्येक कलियुग में, अधिकांश रूप में ऐसे साधक और योगीजन ही तो होते हैं I
इसलिए, ॐ भावापन या ॐ की भावना ही, ॐ का मार्ग है…, ऐसा बोल रहा हूँ I
और यहाँ जो भावना कही गयी है, वो साधक की होगी, लेकिन उस गंतव्य का मार्ग कृपा (अर्थात किसी मुक्त सत्ता के अनुग्रह) से पाया जाता है I
अब मैं भाव या भावना शब्द को बतलाता हूँ …
जबतक यह नहीं पाओगे, तबतक कुछ भी सार्थक नहीं मिलेगा I इसलिए, जो अब बताने जा रहा हूँ, उसको भी ध्यान से सुनो …
भाव तबतक भाव नहीं होता, जबतक पितामह ब्रह्मा से सम्बद्ध नहीं होता I इस ब्रह्म भावापन अवस्था को ही पितामह ब्रह्मा की इच्छा शक्ति से सम्बद्ध होना कहा जाता है I
इसलिए, यदि ॐ, जो ब्रह्म ही है, उसको पाना है (अर्थात ॐ साक्षात्कार मार्ग पर जाना है) तो ब्रह्म भावापन होने ही पड़ेगा I
बिना ब्रह्म भावापन हुए, ॐ को न तो कोई पाया है, न ही आगे कोई पाएगा I इसीलिए, ब्रह्म भावापन अवस्था ही ॐ मार्ग है I
और इस ब्रह्म भावापन अवस्था में, वो ब्रह्म में बसा हुआ भाव, ब्रह्मा की इच्छा शक्ति के समान होता है, जिसका आलम्बन लेके पितामह ब्रह्म ने भी इस जगत और समस्त जीवों की रचना की थी I
उत्कर्ष या मुक्ति का मार्ग, रचना के मार्ग से विपरीत होता है I
जिस मार्ग से इस जीव जगत की रचना हुई थी, उससे विपरीत ही उत्कर्ष या मोक्ष का मार्ग (अर्थात मुक्तिमार्ग) होता है I
लेकिन क्यूंकि रचना के मार्ग में, पितामह ब्रह्मा की जो इच्छा शक्ति थी, वो ही उत्कर्ष या मुक्ति के मार्ग का मूल होती है, इसलिए उत्कर्ष या मुक्ति के समस्त मार्गों में, ब्रह्म की इच्छा शक्ति की प्राप्ति ही साधक की ब्रह्म भावापन अवस्था होती है I
जो योगी ब्रह्म भावापन हो गया, वो ही ब्रह्म की इच्छा शक्ति का धारक और सूत्रधार भी होता है I
और अब इस बात पर और ध्यान दो, कि …
ब्रह्म भावापन अवस्था के मूल में, योगी का मुक्ति भाव ही होता है, जो उस योगी को ॐ साक्षात्कार की ओर भी तब लेके ही जाता है, लेकिन तब, जब उस भाव में वो योगी पूर्णरूपेण बस जाए…, इससे पूर्व नहीं I
स्व:ज्ञान मार्ग की वास्तविकता में तो …
योगी के भाव में ही योगी का साधन होता है I
इसलिए इस मार्ग में, जिस ओर जाने वाला या जैसा साधन चाहिए, वैसे भाव अपने भीतर प्रकट कर लो I और ऐसा करने के पश्चात, उस भाव में ही स्थित हो जाओ I
ऐसे करने से, कुछ समय अंतराल के बाद, उस भाव के अनुसार, एक साधन, तुम्हारे लिए स्वयंप्रकट हो जायेगा I
और उसी साधन का आलम्बन लेके, तुम उस साधन के गंतव्य को प्राप्त भी कर लोगे I
और वो जो साधन जो तुम्हारे ही भाव से तुम्हारे लिए ही स्व:प्रकट होगा, उस पर अधिकार भी केवल तुम्हारा ही होगा…, और किसी भी माई के लाल का नहीं I
इसलिए, ऐसा साधन भी तुम्हारे नाम से (अर्थात तुम्हारे ज्ञान, ग्रन्थ और देव से) ही जाना जायेगा I
ओ३म् मार्ग और ओम मार्गी साधक …
अब ॐ के मार्ग में ही आगे बढ़ता हूँ …
यहाँ पर भावना शब्द की एक और अवस्था का वर्णन कर रहा हूँ I
भावना ऐसी होनी चाहिए, कि तुम अपने भाव से स्वयंप्रकट हुए तुम्हारे साधन को भी अपने साक्षी भाव में स्थित होकर ही देखो I
ऐसा भाव और उस भाव से स्व:प्रकट हुआ साधन ही गंतव्य प्राप्ति का मार्ग होता है…, अन्य कोई भी नहीं I
यदि साधन से लगाव कर बैठे, तो भी उस साधन तक ही सीमित रह जाओगे और ऐसी दशा में, उस साधन के गंतव्य, अर्थात कैवल्य मोक्ष रूपी ओम को भी नहीं पाओगे I
जब उस साधन का आलम्बन लेके, जो तुम्हारे भाव से तुम्हारे लिए ही स्वयंप्रकट हुआ था, तुम उस गंतव्य को पाओगे, तो उस पूर्व के साधन से अलगाव भी स्वतः ही हो जाएगा I
लेकिन इसके पश्चात भी, ब्रह्माण्ड और ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में, वो साधन तुमसे ही जाना जाएगा…, और इसलिए तुम्हारा ही कहलाएगा I
ओम पथ और ब्रह्माण्ड धारणा, … ओ३म् मार्ग और ब्रह्माण्ड योग, … मुमुक्षुपथ और त्याग …
जब योगी हृदयाकाश गर्भ से होकर, हृदय कैवल्य गुफा को पार करके ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में पहुँच जाता है, और इसके बाद वो योगी अकार से होके उकार, मकार और शुद्ध चेतन तत्त्व को भी पार हो जाता है, अर्थात इनसब से भी आगे (या इनसब से ऊपर की ओर) चला जाता है…, तब वह योगी ॐ के साक्षात्कार का पात्र बनता है I
इसका अर्थ हुआ, कि ओम मार्ग में, ॐ से पूर्व, योगी को इन सब बतलाए गए मार्ग बिंदुओं को साक्षात्कार (अर्थात सिद्ध) करना होगा, और इस सिद्धि के पश्चात, इन सबको त्यागना भी होगा I
जबतक योगी किसी बिंदु को साक्षात्कार करके, उसको त्यागेगा नहीं, तबतक वो योगी उस बिंदु से आगे की दशाओं में भी नहीं जा पाएगा I इसका अर्थ हुआ, कि त्याग भाव ही उत्कर्ष मार्ग पर उस गति को दर्शाता है, जो गंतव्य, अर्थात मुक्ति की ओर लेके जाता है I
इसलिए आत्मपथ रूपी योगमार्ग में, जैसे-जैसे योगी उन सूक्ष्म बिन्दुओं और उनके तत्त्वों का साक्षात्कार करते जाता है, वैसे-वैसे इन सभी साक्षात्कारों के पशचात वो योगी उन साक्षात्कार की हुई दशाओं को अपने भाव साम्राज्य में त्यागता भी जाता है I
साक्षात्कार और सिद्धि के पशचात का ऐसा त्यागमार्ग, मुमुक्षुपथ भी कहलाता है I
जबतक किसी बिंदु की सिद्धि ही नहीं हुई, तबतक उसका त्याग कैसे करोगे I
इसलिए, त्याग की दशा, सिद्धितीत अवस्था को ही दर्शाती है I
और सर्वसिद्धितीत दशा ही तो मुक्ति है, जिसका पथगामी मुमुक्षु कहलाता है I
मुक्ति की कोई सिद्धि नहीं होती…, क्यूंकि आत्मस्वरूप में प्रत्येक जीव मुक्त ही है I
जो तुम अपनी वास्तविकता, अपने आत्मस्वरूप में हो ही, उसको सिद्धि कैसे करोगे I
जो तुम अपनी वास्तविकता में हो ही…, उसका तो होना पड़ेगा न? I
इसलिए मुक्ति की सिद्धि नहीं होती, और मुक्तिमार्ग त्याग से ही होकर जाता है I
यदि वो योगी किसी साक्षात्कार किए हुए बिन्दु को त्यागेगा नहीं, अर्थात यदि वो योगी उस साक्षात्कार किए हुए बिन्दु से लगाव कर लेगा, तो उस योगी को उस बिन्दु की सिद्धि भी प्राप्त हो जाएगी I
और ऐसी दशा में, योगी के उत्कर्ष मार्ग की गति उस बिंदु तक ही सीमित रह जाएगी, जिसके कारण वो योगी उस बिंदु से आगे, जो गंतव्य रूपी मुक्ति है…, उसको नहीं पाएगा I
यह भी एक कारण है, कि …
जबतक सिद्ध अपनी सिद्धियों को नहीं त्यागता, तबतक मुक्तात्मा नहीं होता I
मुक्तात्मा, सिद्धि का धारक नहीं होता, क्यूंकि वो सिद्धियों से भी मुक्त होता है I
और एक बात …
जो मुक्तात्मा है, उसको सिद्धियों से क्या लेना देना I
और जो सिद्ध ही हो गया, उसको मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना I
एक और बात …
सिद्ध ही गुरु होता है…, वो जीव जगत में बसा हुआ भी, उसमें लिप्त नहीं होता I
मुक्तात्मा, जीवातीत और जगतातीत होता है, इसलिए वो गुरु भी नहीं हो सकता I
और एक बात …
सिद्ध की अंतगति में, वो मुक्तात्मा होता है, जो उस सिद्ध का मार्गदर्शक होता है I
मुक्तात्मा मार्ग, सिद्ध पद से जाता है, जो उस मुक्तिमार्गी का रक्षक भी होता है I
इसलिए, सिद्ध और मुक्तात्मा, भिन्न होते हुए भी एक दुसरे के पूरक होते हैं I
क्यूंकि ॐ मार्ग मुक्तिपथ ही है, इसलिए …
इसके गंतव्य, ब्रह्म रूपी ॐ को वो मुक्तात्मा पाएगा…, जो सर्वस्व त्यागी ही होगा I
और मुक्तात्मा होने से पूर्व, वो योगी सिद्ध ही होगा…, जो सर्वस्व का धारक होगा I
और इसी ॐ रूपी मुक्तिमार्ग पर एक और बात …
सर्वस्व धारक से सर्वस्व त्याग का मार्ग, सर्वसमता से होकर जाता है I
अंततः, सिद्ध अपनी सर्वस्व सिद्धि से ही सर्वसम होकर, मुक्तिमार्ग पर जाता है I
यही कारण है, कि यदि हम मुमुक्षु मार्ग को पूर्णतः जानेंगे, तो वो मार्ग सर्वस्व त्याग में ही बसा हुआ पाया जाएगा I
जिसने सर्वस्व के सभी प्रधान बिंदुओं को धारण किया है, वो ही सिद्ध होता है I
और जिसने सर्वस्व को ही त्याग दिया, वो ही मुक्तात्मा कहलाता है I
और कुछ बातें …
मुक्तात्मा होने से पूर्व, वो मुमुक्षु भी सिद्ध ही होता है I
सिद्ध पद से मुक्तिमार्ग प्रशस्त होता है…, मुक्तात्मा ही सिद्धों की अंतगति है I
जब सिद्ध सर्वस्व त्यागी होगा, तब वो भी अपनी अंतगति में मुक्तात्मा ही होगा I
मुक्तिमार्गी का रक्षक, सिद्ध होता है…, सिद्धों के मुक्तिमार्ग का रक्षक, मुक्तात्मा I
सिद्ध ही गुरु होता है…, मुक्तात्मा जो जीव जगत में है ही नहीं, वो गुरु कैसे होगा I
मुक्तात्मा केवल उन साधकों के मार्गरक्षक होते हैं…, जो पूर्व के सिद्ध होते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
सिद्धों की गंतव्य दशा को ही विश्वरूपात्मा कहते हैं I
सिद्ध ही गुरु होते हैं…, और जहाँ वो गुरु ही उनके शिष्यों के भगवान् होते हैं I
सिद्ध गंतव्यमार्गियों, अर्थात मुक्तिमार्गियों के रक्षक होते हैं I
मुक्तिमार्गी, सिद्धों द्वारा रक्षित होकर ही अपनी मुक्ति को पाता है I
और मुक्तात्मा, सिद्धों के अन्तिममार्ग, अर्थात मुक्तिमार्ग का रक्षक होता है I
उस रक्षित मुक्तिमार्ग पर सिद्ध, सर्वस्य त्यागी होके, स्वयं ही स्वयं में जाता है I
मुक्ति को पाया हुआ मुक्तात्मा, सिद्धों के मुक्तिमार्ग को ख्यापित करके रखता है, ताकि जब भी वो सिद्ध अपनी मुक्ति को जाना चाहे, तो उस विश्वरूपी सिद्धात्मा को कोई विलम्ब ही न हो I
आगे बढ़ता हूँ …
रचैता ही रचना और रचना का तंत्र हुए हैं…, यही एकमात्र अद्वैत सत्य है I
सिद्ध, रचना और रचना का तंत्र होके…, सिद्धि का गंतव्य विश्वरूपात्मा है I
सर्वस्व त्यागी मुक्तात्मा, रचैता में ही विलीन होके, रचैता का ब्रह्मत्व ही है I
इसलिए, न सिद्ध और न मुक्तात्मा, रचैता का पूर्ण स्वरूप धारण किए होते हैं I
अब इस ॐ मार्ग रूपी ब्रह्मत्व पथ में, वेदों के तैंतीसवें देवता, पितामह प्रजापति और उनकी हिरण्यगर्भात्मक और कार्य ब्रह्मात्मक अभिव्यक्तियों के दृष्टिकोण से सिद्ध और मुक्तात्मा को बताता हूँ …
प्रजापति ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म स्वरूपों में अभिव्यक्ति हुए हैं I
और जहाँ सिद्ध, हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म का स्वरूप होता है I
हिरण्यगर्भ ब्रह्म रचनात्मक और कार्य ब्रह्म रचना की तंत्रात्मक सिद्धि का मार्ग हैं I
और इनके अतितिक्त …
मुक्तात्मा, सर्वसम सगुण सकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति का स्वरूप होता है I
सर्वसम सगुण सकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, सिद्धितीत ब्रह्मत्व को दर्शाते हैं I
मैंने यह बातें अपने जीव रूपी इतिहास में जाकर बताई हैं, क्यूंकि अपने जीव रूपी इतिहास में, मैं इन दोनों मार्गों का रहा हूँ I
किसी जन्म में सिद्धों के मार्ग का था…, और इस जन्म सहित, कुछ और जन्मों में मुक्तिमार्गी था I
अब ध्यान देना …
इसलिए, ॐ साक्षात्कार के मार्ग में …
मूल में योग है I
मार्ग में त्याग है I
उपलब्धि में स्व:ज्ञान है I
गंतव्य में वो कैवल्य मोक्ष है…, जो ॐ ही कहलाता है I
ॐ मार्ग की गंतव्य दशा, अर्थात कैवल्य मुक्ति भी, पूर्ण त्याग से होके जाती है I
इसलिए …
जहाँ तक ॐ मार्ग के गंतव्य, अर्थात निर्गुण निराकार ब्रह्म के साक्षात्कार की बात है, उसको वो योगी ही पाएगा, जो …,
उस पूर्ण सन्यासी, निर्गुण ब्रह्म के समान, सर्वसाक्षी भाव में होगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जबतक किसी से योग नहीं करोगे, उसका त्याग कैसे करोगे I
जबतक अपनी योगावस्था का साक्षात्कार नहीं होगा, त्याग की भावना कैसे आएगी I
इस भावना शब्द पर ध्यान देना, क्यूंकि इस पर भी बात होनी है I
जबतक पूर्व की योगावस्था का त्याग नहीं करोगे, उससे परे कैसे जाओगे I
यहाँ कहे गए परे शब्द का अर्थ ऊपर की ओर, या आगे भी है I
त्याग किये बिना, जिससे योग हुआ है, उसी में फँस नहीं जाओगे I
जब त्याग करोगे, तभी तो उस योगावस्था के आगे जाओगे, और उस पूर्व की योगावस्था से आगे की दशा का ज्ञान पाओगे I
और इसके अतिरिक्त …
कोई ऐसा साधक हुआ ही नहीं, जिसके गंतव्य मार्ग में पूर्ण त्याग नहीं था I
कोई गंतव्य का योगी हुआ ही नहीं, जो पूर्णसंन्यासी निर्गुण ब्रह्म में बसा नहीं था I
अब ध्यान देना …
मूल में योग होता है, और गंतव्य में ज्ञान I
लेकिन यहाँ कहा गया ज्ञान का शब्द, योगी के आत्मज्ञान को दर्शा रहा है, न की किसी पुस्तक के ज्ञान को I
जब इस समस्त जीव जगत को अपने भीतर से, स्वयं ही स्वयं में रहकर त्यागोगे, तब जो ज्ञान पाओगे, वो आत्मज्ञान ही होगा I
इसका अर्थ हुआ, कि …
पूर्ण संन्यास ही आत्मज्ञान का मार्ग है I
यहाँ कहा गया, पूर्ण संन्यास का शब्द, निर्गुण ब्रह्म का ही वाचक है I
और पूर्ण शब्द के अंतर्गत, तो वो त्यागी भी आता है, जिसके मार्ग के बारे में यहाँ बात हो रही है I
इसलिए …
यदि ॐ रूपी ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म ही हो जा I
ब्रह्म होके ही ब्रह्म साक्षात्कार होता है I
ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता होता है I
और इस साक्षात्कार का मार्ग भी योग से होकर ही जाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
कोई गंतव्य स्थित वैदिक ऋषि नहीं हुआ, जिसके मूल में योग नहीं था I
और कोई सिद्ध योगी नहीं हुआ, जिसके गंतव्य में वेद नहीं था I
यहाँ वेद का अर्थ है आत्मज्ञान I
इसीलिए …
मूल में स्वयं ही स्वयं से योग होता है I
और गंतव्य में योगी का स्वयं ही स्वयं के त्याग के पश्चात, का ज्ञान I
यहाँ कहा गया स्वयं का शब्द, पिण्ड रूपी साधक, ब्रह्माण्ड, साधक की आत्मा और उस सर्वव्यापक ब्रह्म को भी दर्शाता है I
जीव जगत के दृष्टिकोण से, योग तबतक सिद्ध नहीं होता, जबतक वह ब्रह्माण्ड से नहीं होता I इसलिए योग की परमावस्था ब्रह्माण्ड योग ही है , और इस ब्रह्माण्ड योग में, वो ब्रह्माण्ड भी अपने प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में, साधक के पिंड रूपी शरीर के भीतर ही बसा होता है I
इस ब्रह्माण्ड योग के पश्चात्, जब योगी उस समस्त ब्रह्माण्ड का ही त्याग करता है, तभी वह योगी आत्मा और ब्रह्म के सनातन योगमार्ग पर जाने का पात्र बनता है…, अन्यथा नहीं I
इसलिए …
ब्रह्माण्ड योग ही आत्मज्ञान का मार्ग होता है I
ब्रह्माण्ड योग का मार्ग भी, साधक की आंतरिक ब्रह्माण्ड धारणा से होकर जाता है I
आत्मा और ब्रह्म के एकत्व को जानना है, तो इससे पहले ब्रह्माण्ड योग सिद्ध करो I
और इस “स्वयं ही स्वयं में” के ब्रह्माण्ड योग में, वो ब्रह्माण्ड भी तुम्हारे पिंड रूपी शरीर के भीतर ही होगा…, न कि तुम्हारे बाहर I
जबतक साधक उस आंतरिक ब्रह्माण्ड से योग नहीं लगाता…, योगी नहीं कहलाता I
जिस साधक ने ब्रह्माण्ड योग सिद्ध किया…, वो ही योगी I
लेकिन ब्रह्माण्ड योग सिद्धि के लिए, ब्रह्माण्ड धारणा ही मार्ग होता है I
इसका अर्थ हुआ, कि जबतक भाव में ब्रह्माण्ड से एकता नहीं होगी, साधक ब्रह्माण्ड योग की सिद्धि भी नहीं पा सकता, और ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में ऐसा साधक योगी भी नहीं कहला सकता I
योगी वो होता है, जिसने ब्रह्माण्ड से ही योग लगा लिया है I लेकिन वह ब्रह्माण्ड उस योगी के भीतर का ब्रह्माण्ड होता है, न कि वो ब्रह्माण्ड जिसके भीतर योगी की काया बसी हुई है I
और इस ब्रह्माण्ड योग में, यह भीतर का ब्रह्माण्ड, सूक्ष्म संस्कारिक अवस्था में होता है I
ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म सांस्कारिक अवस्था ही ब्रह्माण्ड की प्राथमिक अवस्था है, जिसका स्वयंउदय पितामह ब्रह्मा की इच्छा शक्ति से स्वयंउत्पन्न, एक सूक्ष्म संस्कार स्वरूप में हुआ था I
जब पितामह ब्रह्मा में ब्रह्माण्ड रचना करने के लिए, इच्छा शक्ति उत्पन्न हुई, तो उसके मूल में जो भाव था, उससे ही यह प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था I
और इसी सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से दैविक या कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत और उनके समस्त जीवों का प्रादुर्भाव हुआ था I
वो प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड समस्त जीवों सहित, उस योगी की काया के भीतर ही होता है, जिसकी बात यहाँ पर की जा रही है I
यह ब्रह्माण्ड एक लम्बे पारदर्षी (अथवा स्वच्छ स्फटिक) के समान होता है I इसमें आठ कोने होते है I यह नीचे की ओर से चपटा होता है, और ऊपर से हल्का गोलाकार और हल्का नोकीला भी होता है I यही संस्कार पितामह ब्रह्मा की इच्छा शक्ति से उत्पन्न, सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड का पिंड रूप है, जो योगी के भीतर होता है I और इसी ब्रह्माण्ड की योग सिद्धि को ब्रह्माण्ड योग कहते हैं I
जो योग शिखर है, उसमें इसी सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से योग सिद्धि होती है, जिसको यहाँ पर ब्रह्माण्ड योग कहा गया है I और इस ब्रह्माण्ड योग के मूल में, ब्रह्माण्ड धारणा होती है, अर्थात ब्रह्माण्ड से एकत्व का भाव होता है I
इसलिए, जबतक कोई साधक उसके भीतर के भाव से ही ब्रह्माण्ड से एकत्व में नहीं होता, तबतक ब्रह्माण्ड योग की सिद्धि भी नहीं हो सकती I
और जबतक ब्रह्माण्ड योग सिद्धि नहीं हुई, तबतक ब्रह्माण्ड का त्याग भी नहीं हो सकता I
और जबतक साधक उस समस्त ब्रह्माण्ड का त्याग नहीं करेगा, ॐ मार्ग में उसका जाना असंभव सा ही होगा I
इसलिए, अब जो बोल रहा हूँ, उसपर ध्यान दो …
साधक का गंतव्य मार्ग, ब्रह्माण्ड धारणा से प्रारम्भ होता है, ब्रह्माण्ड योग को जाता है, और ऐसी ब्रह्माण्ड योगावस्था में, वो साधक ब्रह्माण्ड को ही त्याग के, ॐ साक्षात्कार के मार्ग में चला जाता है I
इसको ही ॐ पथ और ब्रह्मपथ कहते हैं I
ओ३म् मार्ग और ब्रह्मपथ … ओम मार्ग और आत्मपथ …
ॐ ही आत्मा है और आत्मा ही ब्रह्म है, इसलिए ॐ मार्ग को आत्ममार्ग (या आत्मपथ) और ब्रह्म मार्ग (या ब्रह्मपथ) भी कह सकते हैं I
अब ॐ पथ (आत्मपथ या ब्रह्मपथ) के बारे में बतलाता हूँ…,
ॐ से जाते हुए इस ब्रह्मपथ में, सर्व समता होनी भी आवश्यक है I
इसका कारण है, कि इस जीव जगत की रचना के समय पर, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा भी सर्वसमता में बसे थे I
सर्वसमता की दशा एक हीरे के समान प्रकाश जैसी होती है, इसीलिए, उन सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह ब्रह्माजी को, सर्वसम भी कहा जा सकता है I
जबतक कोई साधक, उन पितामह ब्रह्मा की मूल अवस्था, जो सर्वसमता की है, उसमें नहीं बसेगा, तबतक उस साधक की ब्रह्माण्ड धरना भी पूर्णरूपेण नहीं बनेगी I
और जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक वह साधक ब्रह्माण्ड योगी भी नहीं हो पाएगा I
जबतक किसी साधक का ब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध नहीं होता, तबतक वह साधक ब्रह्मपथगामी भी नहीं हो पाएगा I
इसलिए,
अब इस ॐ पथ या ब्रह्मपथ के बिंदुओं को वैसा ही जानो,जैसे मेरे सनातन गुरु, श्रीमन नारायण, जो मेरे हृदय की एक गुफा में विराजमान हैं, उन्होंने मुझे बतलाया था …
जो भी योगी ॐ पथगामी (या ब्रह्मपथगामी) है, उसको इसी मार्ग पर जाना चाहिए, जो मैं अब बतला रहा हूँ …
यह ब्रह्मपथ ही अंतिम पथ है, जिससे योगी तब जाता है, जब वह ॐ साक्षात्कार का पात्र बनता है…, अन्यथा नहीं I
सनातन गुरु जो मेरे भीतर ही निवास करते हैं, उन्होंने कहा था, कि जब तू ॐ पथ (या आत्मपथ या ब्रह्मपथ) को जायेगा, तब इन कहे गए शब्दों के एकमात्र मूल भाव में अपने अंतःकरण को बसा के जाना I
लेकिन क्यूंकि मैंने इसी जीवन में, इस भू मंडल के अधिकांश देशों का भ्रमण किया है, इसलिए मुझे पता है, कि आज के अधिकांश मानव, इन कही गयी बातों का वो एकमात्र मूल ढूँढ़ ही नहीं पाएंगे I
इसलिए, यह केवल उनके लिए कह रहा हूँ, जो ॐ मार्ग के पात्र है…, न कि और किसी के लिए I
इसलिए, इस ब्रह्मपथ को, जैसे मेरे सनातन गुरु ने बतलाया था…, वैसा ही अब बता रहा हूँ …
आत्मा ब्रह्म, सर्वात्मा ब्रह्म, परमात्मा ब्रह्म, एकात्मा ब्रह्म
कोष ब्रह्म, अकोष ब्रह्म, पराकोष ब्रह्म, निराकोष ब्रह्म
काया ब्रह्म, अकाया ब्रह्म, पराकाया ब्रह्म, निराकाया ब्रह्म
शक्ति ब्रह्म, देवी ब्रह्म, शक्तिमान ब्रह्म, देवता ब्रह्म
कार्य ब्रह्म, अकार्य ब्रह्म, निषकार्य ब्रह्म, पराकार्य ब्रह्म
अपरा ब्रह्म, परा ब्रह्म, पर-पारा ब्रह्म
सम्प्रज्ञात ब्रह्म, असम्प्रज्ञात ब्रह्म, स्व:प्रज्ञ ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म
सगुण ब्रह्म, सगुण-निर्गुण ब्रह्म, शून्य ब्रह्म, निरपाय ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म
निराबाधम् ब्रह्म, निराबाधकर ब्रह्म, निरभिभव ब्रह्म, निरभिलाष ब्रह्म, निरभिमान ब्रह्म
निरादान ब्रह्म, निराधार ब्रह्म, निराधिष्ठान ब्रह्म, निराधि ब्रह्म, निराग ब्रह्म
निरागम ब्रह्म, निरागस् ब्रह्म, निरहम् ब्रह्म, निरहंक्रिय ब्रह्म, निरिंग ब्रह्म
निरनुयोज्य ब्रह्म, निरंजन ब्रह्म, निर्विचार ब्रह्म, निरालम्ब ब्रह्म, निरंतर ब्रह्म
निरमित्र ब्रह्म, निरामिष ब्रह्म, निर्भूत ब्रह्म, निरतनमात्र ब्रह्म, निर्भय ब्रह्म
निरीन्द्रिय ब्रह्म, नीरव ब्रह्म, निर्विकार ब्रह्म, निर्विशेष ब्रह्म, धर्म ब्रह्म, गुरु ब्रह्म
निरवरोध ब्रह्म, निरवयय ब्रह्म, निर्बाध्य ब्रह्म, निर्बंधु ब्रह्म, निऋतिक ब्रह्म
निर्जर ब्रह्म, निर्मल ब्रह्म, निर्मन्तु ब्रह्म, निरुपाधि ब्रह्म, निर्वाणधातु ब्रह्म
तत्त्व ब्रह्म, अतत्त्व ब्रह्म, निर्विकल्प ब्रह्म
व्यक्त ब्रह्म, परव्यक्त ब्रह्म, अव्यक्त ब्रह्म
प्रज्ञ ब्रह्म, सम्प्रज्ञ ब्रह्म, अप्रज्ञ ब्रह्म, स्व:प्रज्ञ ब्रह्म
बीज ब्रह्म, निर्बीज ब्रह्म, गर्भ ब्रह्म, अगर्भा ब्रह्म
आदि ब्रह्म, अनादि ब्रह्म, सनातन ब्रह्म
यथा ब्रह्म, तथा ब्रह्म, सर्वथा ब्रह्म, सर्वदा ब्रह्म
ज्ञान ब्रह्म, विज्ञान ब्रह्म, चेतन ब्रह्म, क्रिया ब्रह्म
पृथ्वी ब्रह्म, जल ब्रह्म, अग्नि ब्रह्म, वायु ब्रह्म, आकाश ब्रह्म
शब्द ब्रह्म, स्पर्ष ब्रह्म, तेज ब्रह्म, रस ब्रह्म, गंध ब्रह्म
प्रकृति ब्रह्म, पुरुष ब्रह्म, सर्वत्र ब्रह्म
भूमि ब्रह्म, भूधर ब्रह्म, भूमा ब्रह्म, भूमत्व ब्रह्म
अणु ब्रह्म, विराट ब्रह्म, विश्वरूप ब्रह्म
जा ब्रह्म, अज ब्रह्म, जा-अज ब्रह्म
साकार ब्रह्म, निराकार ब्रह्म, साकार-निराकार ब्रह्म, अनंत ब्रह्म
ऐसा कहने के पशचात, उन भीतर के सनातन गुरु ने ऐसा भी कहा था…,
यही अंतिम पथ है, जो निर्भाग होने के कारण, पथहीन पथ है I
इसके सार मार्ग पर, वो साधक ही जा सकता है, जो ॐ पथगामी होगा…, और कोई भी नहीं I
इसकी वास्तविकता में, यह अद्वैत मार्ग ही है I
इस मार्ग में कोई भेद या अभेद नहीं होता I
इस मार्ग में जो भी है, सब ब्रह्म ही है I
इस मार्ग में, सबकुछ उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, इसलिए मूलतः सबकुछ ब्रह्म ही है I
इसलिए इस मार्ग पर, जीव जगत में जो भी है, जैसा भी है, जहाँ भी है, और जो कुछ इस जीव जगत से परे भी है…, वो सब ब्रह्म ही है I
इस मार्ग में, इस जीव जगत के रचैता ने अपने सिवा कुछ भी नहीं बनाया, इसलिए जो कुछ भी जन्मा या अजन्मा है, वो सब ब्रह्म ही है I
इस मार्ग में, रचैता ही रचना और रचना का तंत्र हुआ है, इसलिए रचना और उसका तंत्र भी वो ब्रह्म ही है I
इसलिए इस मार्ग मे, सबके भीतर और सबके बाहर भी, वो ही एकमात्र अद्वैत एकेश्वर, ब्रह्म स्वयंप्रकाशित हो रहा है I
स्व:प्रकाशित या स्वयंप्रकाशित उसे कहते हैं, जो सबको प्रकाशित करता हुआ भी, सबमें और सबसे परे एकमात्र अद्वैत तत्त्व होता है, जो सबमें और सबसे परे भी स्वयं ही स्वयं में होता है, और इसलिए वो छुपा हुआ होता है, और जिसको इस ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, मुट्ठी भर साधक भी जान नहीं पाए हैं, क्यूंकि वो सबमें बसा हुआ भी, सबसे पृथक, सबका साक्षी ही है I
इसलिए, यदि कोई साधक उस ब्रह्म को जानने का इच्छुक होगा, तो वो उस ब्रह्म के जैसा होकर ही उस ब्रह्म को जान पाएगा I
जिस साधक की भीतर की अवस्था उस ब्रह्म के जैसी नहीं है, वो साधक उस ब्रह्म को जान भी नहीं पाएगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और अंत में, हृदय गुफा में बसे हुए मेरे सनातन, श्री विष्णु ने ऐसा कहा था …
- इस मार्ग की अंतगति में साधक, केवल ही होता है, इसलिए इस मार्ग पर अकेला होकर जा I
टिप्पणी : यहाँ कहे गए अकेला शब्द की परिभाषा बहुत बड़ी है, इसलिए इसको किसी परंपराप्राप्त वेद मनीषि से जान लो I
- इस केवल का मार्ग भी स्वयं ही स्वयं में रहकर पाया जाता है, इसलिए इसपर तू भी स्वयं ही स्वयं में जा I
- इस मार्ग पर न गुरु होगा, न परिवार, न परंपरा और संप्रदाय, न देव, न जीव और न जगत…, और न ही कोई और या कुछ और ही होगा…, क्यूंकि यह कैवल्य पथ ही है I
- इसलिए, जब इस मार्ग में तू चला जाएगा, तब तुझे मैं (अर्थात हृदय गुफा के सनातन गुरु श्री विष्णु) भी नहीं मिलूंगा I
- जो इस स्वयं ही स्वयं में, के मार्ग पर चला गया, और इसकी अंतगति को भी पा गया, वो न जीव का होगा और न ही जगत का, न देवत्व का होगा और न ही बुद्धत्व का, न पुरुष का होगा और न ही प्रकृति का, और न ही वो किसी और का ही होगा या नहीं ही होगा I वो ब्रह्मत्व, विष्णुत्व, शिवत्व आदि से भी परे का होगा, जो निर्गुण ब्रह्म, महाविष्णु और परमशिव आदि नामों से सांकेतिक रूप में दर्शाया गया है I
और एक बार, लेकिन कभी थोड़ा बाद में, मेरे उन सनातन गुरु में मुझे यह भी बोला था कि…,
- लेकिन जब तू ब्रह्मत्व में स्थित हो जाएगा, तब उसमें बसकर, उसका मार्ग इस जीव जगत को देकर ही, उससे आगे जाना I
और वो सनातन गुरु यह भी बोले थे, कि …
- तू चाहे उस मार्ग के मुख्य बिंदु ही देना, लेकिन उनको इस जीव जगत को देकर ही ब्रह्मत्व से आगे जाना…, यही तेरी गुरु दक्षिणा भी होगी I
यह भी वो कारण बना, कि मुझे यह ग्रन्थ लिखना पड़ गया, जोकी सनातन गुरुदेव आदि पूर्व के गुरुजनों को मेरी गुरुदक्षिणा ही है, क्यूंकि संजोग से उन सभी गुरुजनों ने भी मुझसे ऐसा ही बोल दिया था I
अब मैं इस गुरु वाणी का मूलार्थ बतलाता हूँ …
ॐ पथ या ब्रह्मपथ में, तू जो भी पायेगा, उसको उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति मान I
इसका अर्थ है, कि ॐ पथ में, तुझे जिसका भी साक्षात्कार हो, उसे ब्रह्म की अभिव्यक्ति, ब्रह्म ही मान I
इसका कारण है, कि अपने वास्तविक स्वरूप में, अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता होती है और अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति स्वरूप में, स्वयं ही स्वयं को अभिव्यक्त किया होता है I
और इस ॐ मार्ग में, क्यूँकि प्रकृति भी ब्रह्मपथ का ही अंग है, इसलिए प्रकृति को भी ब्रह्म मानो I प्रकृति उसी ब्रह्म की प्रथम और पूर्ण अभिव्यक्ति, उसी ब्रह्म की पूर्ण शक्ति, अर्धांगनी, दूती और दिव्यता को भी दर्शाती है, इसलिए, उस अद्वैत को लेके जाने वाले ब्रह्मपथ या ॐ पथ में, पुरुष ही प्रकृति और प्रकृति ही पुरुष होती है I
इस पथ में, प्रकृति और उसके समस्त स्वरूपों को ब्रह्म ही मानो I
जिस मार्ग में प्रकृति ही पुरुष हो, और पुरुष ही प्रकृति, तो वो मार्ग ब्रह्मतत्त्व का ही होता है, जो प्रणव, सगुण शिव और शुद्ध चेतन तत्त्व कहलाता है I इसलिए यह ॐ मार्ग, उस ब्रह्मतत्त्व से होकर ही जाता है I
इस अद्वैत पथ (या ॐ पथ) में, तेरी चेतना जहाँ भी जायेगी, जो भी देखेगी या जानेगी, उसको ब्रह्म की अभिव्यक्ति, ब्रह्म ही मान, क्यूंकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्त से पृथक नहीं होती I इसलिए, यह ब्रह्मपथ (या ॐ पथ) अद्वैत पथ ही होता है I
और इस पथ में, अंततः, तू निर्गुण निराकार को ही पाएगा, और वो भी तेरे अपने आत्मस्वरूप में I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस मार्ग में जबकि तेरा मार्ग तो तेरे भीतर की दिव्यताओं का ही होगा, लेकिन इस मार्ग की अंत गति में, तेरे भीतर और तेरे बाहर का कोई भेद नहीं होगा I इसलिए जो ब्रह्माण्ड तेरे भीतर है, वो ही ब्रह्माण्ड तेरे बहार भी होगा, जिसके कारण तेरे भीतर का घटाकाश ही महाकाश होगा…, अनंत ब्रह्म ही होगा I
इस मार्ग में, यदि कुछ तेरे भीतर नहीं पाया जाएगा, तो वह तुझे, तेरे पिण्ड रूपी शरीर के बाहर भी नहीं मिलेगा I
इस मार्ग में, क्यूंकि ब्रह्माण्ड से एकवाद होता है, इसीलिए जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वो सब तेरे भीतर भी होगा I
और इस मार्ग में, जो तेरे भीतर के सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड में नहीं है, जो तुझे उस ब्रह्माण्ड में भी नहीं मिलेगा, जिसमें तेरी जीव स्वरूप काया बसी हुई है I
यह ॐ मार्ग (या ब्रह्म मार्ग), ब्रह्म की ही सर्वसमता का मार्ग है I इसलिए इस मार्ग में, जो साधक सर्वसमता को धारण नहीं करता, वो इस मार्ग के गंतव्य का पात्र भी नहीं होता I
इस मार्ग पर जाते समय, इन सभी बिंदुओं को अपने स्मरण में रखना I
ॐ मार्ग पर गमन से पूर्व, सनातन गुरुदेव का शब्दात्मक आदेश …
हृदय में, श्रीमन नारायण एक बुड्ढे, बहुत पतले से योगी, साधु के वेश में निवास करते हैं I यही साधु बाबा मेरे भीतर के गुरु हैं I यह बूढ़े योगी ही मेरे सनातन गुरुदेव हैं I
हृदय में कई गुफाएं होती हैं, और उन सनातन गुरु का स्थान एक प्रकाश विहीन गुफा में है, जिसको मैं घोर तम की गुफा भी कहता हूँ I
उनकी गुफा, शून्य अनंत में बसी हुई है, अर्थात उस गुफा को घेरे हुए जो दशा है, उसमें शून्य ही अनंत रूप में है, और अनंत ही शून्य रूप में I
इसी को शून्य ब्रह्म भी कहा जाता है, और इस शून्य ब्रह्म की समाधि को ही असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं I
और उस घोर तम की गुफा की समाधि को ही जड़ समाधि कहते हैं, जिसकी शक्ति दस हाथ वाली महाकाली होती हैं I और इसी गुफा से शून्य समाधि का मार्ग भी प्रशस्त होता है I
हृदय के उसी शून्य ब्रह्म में, उस घोर तम की गुफा के बाहर की ओर और कुछ दूरी पर, एक और योगी रहते हैं, जो सनातन गुरु की गुफा के द्वारपाल हैं I
उन योगी को मैंने ज्ञान गुरु के नाम से सम्बोधित किया है, क्यूंकि उनके स्थान से ही सनातन गुरु की गुफा का मार्ग प्रशस्त होता है I
उन ज्ञान गुरु ने श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किये होते हैं, और वो मुझे सदैव ही पद्मासन में बैठे हुए दिखाई दिए हैं I उनको मिलने के पश्चात, वो ज्ञान गुरु ही मुझे सनातन गुरु की गुफा का मार्ग बतलाते थे I
उन योगी के साथ, दो माताएं भी होती हैं, जो उन योगी के पीछे की ओर खड़ी होती हैं I उनमें से एक माता हरे रंग की है, जिनको मैं हरी देवी बोलता हूँ, और इन माता के साथ, एक और माता भी हैं जिनके भृकुटी मध्य से एक श्वेत वर्ण का प्रकाश निकल रहा होता है I यह दोनों माताएँ साध्वी हैं I
मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव गौतम बुद्ध के दिए हुए बौद्ध मार्ग में, इन सबको अमिताभ बुद्ध के परिवार का कहा गया है I बौद्धों के अमिताभ बुद्ध ही वेद मार्गियों के हिरण्यगर्भ ब्रह्म हैं I
अपनी हृदय गुफा में स्थित, सनातन गुरु के ब्रह्मपथ रूपी मार्गदर्शन से ही मैं ॐ मार्ग पर गया था I
अब आगे बढ़ता हूँ …
ॐ मार्ग पर मुझे मेरे हृदय की एक गुफा में रहने वाले, सनातन गुरुदेव, श्रीमन नारायण ने ही डाला था I
2011 ईस्वी के प्रारंभ भाग मैं जब उन सनातन गुरु ने हृदयाकाश की दीक्षा पूर्ण की थी, तो उन्होंने मुझे ऐसा कहा था… कि बेटा, मेरी इस दीक्षा से आगे वो कैवल्य मोक्ष रूपी निर्गुण ब्रह्म का मार्ग है, जिसे ब्रह्मपथ कहते हैं और जिसमें योगी केवल होकर ही जाता है I
कैवल्य का मार्ग, योगी की अपनी केवल अवस्था से ही प्रशस्त होता है I
जिस साधक के भीतर की स्थिति ही केवल नहीं, वो उस कैवल्य को क्या जाएगा I
इसलिए, यदि तुझे इससे आगे जाना है, तो तू स्वयं ही स्वयं में होकर जा I
यह स्वयं ही स्वयं में, का मार्ग ही तेरा और प्रत्येक साधक का ब्रह्मपथ सार है I
जो स्वयं ही स्वयं में, अर्थात केवल होकर जाएगा, वही निर्गुण ब्रह्म को पाएगा I
और जहाँ वो निर्गुण ब्रह्म भी, उस साधक के ही केवल-आत्मस्वरूप में होगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
उन सनातन गुरु ने मुझे कहा था, कि इससे आगे मैं (अर्थात वो हृदय गुफा में बसे हुए सगुण साकार सनातन गुरु) भी नहीं होऊंगा I
इससे आगे योगी केवल होकर ही जाता है, इसलिए बेटे…, तू भी ऐसे ही जा I
और इस केवल में बसे हुए मार्ग में, अंततः उस निर्गुण में ही विलीन हो जा, जो उन पञ्च ब्रह्म का ईशान मुख कहलाता है, और जो उनकी अर्धांगिनी, दिव्यता, शक्ति, और तेरी अपनी माँ गायत्री के पञ्च मुखों में से, मुक्ता नामक मुख को भी दर्शाता है I
और जब उन सनातन गुरु ने इस ॐ मार्ग पर मुझे डाला था, तब उन्होंने जो कहा था, वो अब बताता हूँ I
उस समय वो सनातन गुरु बोले थे …
अबतक जो बतलाया है, वो किसी भी योगी के उत्कर्ष पथ का अंतिम बिंदु है I
इस बतलाए गए ज्ञान से आगे वो ब्रह्मपथ है…, जिसपर केवल होकर ही (अर्थात अकेले) ही जाया जाता है I
इसलिए बेटा, यदि तुझे इससे आगे जाना है, तो तू भी “स्वयं ही स्वयं में” जा I
अबतक जो बतलाया गया है, उससे आगे का मार्ग, हृदय मोक्ष गुफा से होता हुआ, ॐ को जाएगा, और ॐ साक्षात्कार के पश्चात, रकार मार्ग से होता हुआ, अष्टम चक्र (अर्थात निरालम्ब चक्र) को जाएगा, जिसके पश्चात साधक, विराट काल कृष्ण से होता हुआ, सदाशिव प्रदक्षिणा करके, अपने कैवल्य मोक्ष रूपी गंतव्य, निर्गुण निराकार ब्रह्म को जाता है I
और ऐसे मार्ग पर, वो निर्गुण निराकार भी सदाशिव के ईशान मुख में ही साक्षात्कार होता है, और इस ईशान में ही वो योगी, अंततः विलीन होता है…, और मुक्तात्मा कहलाता है I
उस आगे के मार्ग में, साधक केवल होकर ही जा पाता है, इसलिए उसमें न तो कोई देवत्व बिंदु की सिद्धि होगी, न ही किसी जीवत्व बिंदु की और न ही वो साधक जगतत्व को ही धारण कर पाएगा I
ऐसे मार्ग पर न तो कोई देवी देवता होंगे, और न ही कोई गुरु और न ही कुछ या कोई और I
साधक इससे आगे अकेला ही जाता है, अर्थात सर्वत्र को ही त्याग देता है I
और ऐसा साधक ही, अंततः, आत्यंतिक प्रलय से जाकर, उस पूर्ण संन्यासी स्व:प्रकाश सर्वसाक्षी निर्गुण निराकार ब्रह्म में विलीन होता है I
उस समय सनातन गुरु यह भी बोले थे, कि कैवल्य मोक्ष की कोई सिद्धि नहीं होती, क्यूंकि वो तो सब जीव हैं ही I
जो तुम हो ही, उसको सिद्ध कैसे करोगे…, उसका तो होना पड़ेगा न? I
इसलिए, उस स्वयं ही स्वयं के मार्ग में जो उस कैवल्य मोक्ष रूपी निर्गुण ब्रह्म को ही जाता है, तू अपनी समस्त सिद्धियों का भी त्याग कर देगा, और सिद्धितीत होकर ही जाएगा I
वो सिद्धितीत स्वरूप को ही आत्मस्वरूप कहते हैं…, जो निर्गुण ब्रह्म ही है I
इस बात को जानकार ही इससे आगे जाना I
वो सनातन गुरुदेव यह भी बोले थे, कि …
जब सिद्धियों का परित्याग होता है, तो वो सिद्धियाँ उनके अपने देवत्व, जीवत्व, जगतत्व और बुद्धत्व बिंदुओं में विलीन हो जाती है I
ऐसे होने के पश्चात ही साधक, उस ब्रह्मत्व को पाता है, जो उस साधक का ही आत्मस्वरूप होता है, और जो वेदों के तैंतीस कोटि देवताओं में, प्रजापति कहलाया था, और जो महाब्रह्म भी कहलाता गया है और जिनका इस धरा पर धाम जगन्नाथ पुरी कहलाता है I
इसलिए, वो “स्वयं ही स्वयं में” बसा हुआ तेरा आत्ममार्ग भी उन महाब्रह्म सर्वेश्वर जगन्नाथ से होकर जाएगा, जिनसे काल अपने कालचक्र स्वरूप में स्वयंउत्पन्न हुआ था, और जिस कालचक्र में बसकर, यह जीव जगत कालगर्भित कहलाया था I
यह सभी बिंदु भी उसी निर्गुण निराकार ब्रह्म की सगुण निराकार और सगुण साकार अभिव्यक्तियां हैं I इसलिए जो साधक सिद्धितीत होता है, वो इन सबसे परे, उस निर्गुण निराकार को ही पाता है, जो देवातीत, जीवातीत, जगतातीत, बुद्धातीत, गुणातीत, कालातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत, तत्त्वातीत, सिद्धितीत और तुरीयातीत आदि शब्दों से भी सांकेतिक रूपों में बतलाता जाता है I
और उन सनातन गुरु ने तो यह भी कहा था …
अब तक बतलाए गए ज्ञान से आगे, अंतिम पाठ प्रारम्भ होता है, जिसपर जो भी योगी गया है, वो केवल होकर (अर्थात अकेला होकर) ही गया है I
इसलिए, अब तक जो भी तुझे मैंने बतलाया है, उसतक ही सिद्धि ऋद्धि आदि प्राप्तियां होती हैं…, और उस से आगे, सिद्धितीत ऋद्धितीत अवस्थाएँ ही होंगी I
उन परे की अवस्थाओं में, तुझे लगेगा कि तू सिद्धी पाया है, लेकिन ऐसा होगा नहीं, क्यूंकि प्राप्ति के तुरन्त बाद, उन सिद्धियों का त्याग भी स्वतः ही होता चला जाएगा I
इसलिए, इस बिंदु को जानकार, तू स्वयं ही अपना आत्मा स्वरूपी विधाता होकर, स्वयं ही स्वयं में जा, या न जा, मैं यह तेरे ऊपर छोड़ता हूं…, क्यूंकि इस बिंदु से आगे, वो योगी ही स्वयं के लिए निर्णय लेता है I
और सनातन गुरु यह भी बोले…,
इसलिए बेटे, अब तेरी ओर मेरा कर्त्तव्य और कार्य, दोनों ही संपूर्ण हुए I
इसके आगे, तू स्वयं ही स्वयं के लिए निर्णय ले, और यदि इससे आगे तू जाएगा, तो स्वयं ही स्वयं में होकर ही, स्वयं ही स्वयं का विधाता होकर जा…, और उस पूर्ण स्वतंत्र, अद्वैत सर्वसाक्षी ब्रह्म में ही विलीन हो जा I
ब्रह्म ही ब्रह्म को पाता है, इसलिए जो ब्रह्म नहीं, वो ब्रह्मद्रष्टा भी नहीं I
अपनी आंतरिक भावनात्मक दशा में साधक, ब्रह्म होकर ही ब्रह्म को पाता है I
इसलिए …
यदि ब्रह्म को पाना है, तो अपने भावनात्मक साम्राज्य में, ब्रह्म ही हो जा I
और वो पूज्यपाद सनातन गुरुदेव यह भी बोले थे …
ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कारी होता है I
इसलिए …
यदि ब्रह्म का साक्षात्कार करना है, तो अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म ही हो जा I
ब्रह्म को ब्रह्म के सिवा, कोई भी जान नहीं पाया है I
ब्रह्म होकर ही ब्रह्म को जाना जाता है, क्यूंकि ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
और इसके अतिरिक्त…, ब्रह्म का ज्ञाता भी ब्रह्म हो होता है I
यही ॐ मार्ग का प्रमुख बिंदु है, क्यूंकि अपनी वास्तविकता में, ॐ ही ब्रह्म है, जो साधक का ही आत्मस्वरूप कहलाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसके बाद ही मैं हृदय कैवल्या गुफा से होकर, उस मार्ग पर गया था, जिसके बारे में मैं इस ग्रन्थ में बता रहा हूँ I
वो सबकुछ जो मैंने इस ग्रन्थ की अध्याय संख्या बारह से बताया है, वो इसी केवल मार्ग के बिंदु हैं, जिसपर योगी बिलकुल अकेला, अर्थात केवल होकर ही जाता है I
इसलिए, जैसा मेरा मार्ग था, वैसे ही भविष्य के सभी साधकगणों का भी होगा… क्यूंकि…,
ब्रह्मपथ में साधक की दशा, मार्ग और गंतव्य में तारतम्य नहीं होता I
जबतक साधक को ऐसा पथ न मिले, तबतक उस साधक को अपने उत्कर्षपथ को ब्रह्मपथ (अर्थात आत्मपथ या ॐ पथ) भी नहीं मानना चाहिए I
और इस ब्रह्मपथ से पृथक मार्गों में, अर्थात अन्य सभी उत्कर्ष मार्गों में जो होता है…, वो अब बता रहा हूँ…,
साधकों और मार्गों में तारतम्य होता हुआ भी, उनके गंतव्य में तारतम्य नहीं होता I
अब आगे बढ़ता हूँ …
ॐ की दशा का वर्णन …
जैसा पूर्व के अध्याय, मकार में बतलाया था, की जब योगी की चेतना, उन तीन मणियों के नीचे की त्रिकोण आकार की गुफा में चली जाती है, तब वह चेतना, वास्तव में ॐ पथ गामी होती है I
और इसके पश्चात ही वह चेतना, उसी ब्रह्मतत्त्व में बसकर, ॐ के शब्दात्मक और लिपिलिंगात्मक स्वरूप को पाती है I
यह ॐ साक्षात्कार भी योगी को उस योगी के अपने ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में ही होता है I
तो अब मैं उस ॐ की दशा का वर्णन करता हूँ, वैसा ही, जैसा साक्षात्कार हुआ था …
और यह ज्ञान मैं अपने सनातन गुरुदेव, श्रीमन नारायण स्वरूप, उन बूढ़े सन्यासी, जो मेरे हृदय के भीतर ही निवास करते है, उनके आदेश पर बतला रहा हूँ I
और यह बताया हुआ ज्ञान, मेरे इस जन्म की शेष गुरुदक्षिणा के अंतर्गत भी है I
जैसे ही उस योगी की चेतना, उन तीन मणियों को पार करती है, वह चेतना एक बहुत अधिक प्रकाश के केंद्र में प्रवेश कर जाती है I यह प्रकाश पुंज हिरण्य वर्ण, अर्थात चमकदार सोने के रंग का होता है I
इस सुनहरे प्रकाश पुंज में असख्य सुनहरे प्रकाश की किरणे, गोल गोल घूमती हुई, ऊपर की ओर जा रही होती हैं, अर्थात साधक के मस्तिष्क के ऊपर के भाग की ओर जा रही होती हैं I
जैसे ही योगी की चेतना इस अति प्रकाशमान अवस्था में प्रवेश करती है, तो वह चेतना भी इन गोल गोल घूमती हुई प्रकाश की किरणों के समान, ऊपर की ओर जाने लगती है और एक ऐसे लोक (या दशा) में पहुँच जाती है, जो केवल उन सुनहरी किरणों का होता है I
यह प्रकाश का लोक, ब्रह्मतत्त्व है I यही शुद्ध चेतन तत्त्व भी कहा गया है, और इसी को श्रीमद्भगवद गीता के सत्रहवें अध्याय में, ॐ तत्सत्त्वं नामक वाक्य से सूक्ष्म रूप में प्रकाशित किया गया है I
इसी प्रकाश के लोक में वह चेतना घूमते घूमते, ॐ के लिपिलिंगात्मक स्वरूप का साक्षात्कार करती है I ॐ का वह लिपि लिंगात्मक स्वरूप ही ॐ का चिन्ह है, जो इस अध्याय के प्रथम चित्र में दिखाया गया है I
इस दशा में, जो शब्द होता है, उसमे अकार, उकार और मकार, इन तीनों बीज नादों का आपस में योग होता है, अर्थात इन तीनो को वह चेतना, एक ही समय पर सुनती है I
इसका अर्थ हुआ, की यह ॐ के तीनो बीज नादों की, जो आकार, उकार और मकार हैं…, उनकी अद्वैत योगावस्था है I
इस शब्द को सुनकर, वह चेतना, ॐ के लिपि लिंगात्मक स्वरूप या लिपि चिन्ह को साक्षात्कार करती है I
ॐ प्रदक्षिणा में ॐ का अद्वैतमार्गी साक्षात्कार … ॐ का सर्वदिशा दर्शी स्वरूप …
यहाँ दिशा शब्द का अर्थ, दिशा के अतिरिक्त, मार्ग और पथ भी है I
जब योगी की चेतना, ॐ के लिपिलिंगात्मक चिंन्ह के पास पहुँच जाती है, तब वो चेतना उस चिन्ह को अपनी ओर ही देखते हुए पाती है I
ऐसी दशा में वो चेतना, सोचती है, की …
इसके बाकी ओर क्या है?…, यह इस दिशा के पीछे की ओर से कैसा दिखता है?…,चलो इसको बाकी सब दिशाओं से भी जानते हैं…
इसलिए, वो चेतना ॐ के लिपिलिंगात्मक चिंन्ह (अर्थात ॐ का चिन्ह, जिसको वो चेतना उस समय देख रही होती है) की प्रदक्षिणा करने लगती है, अर्थात दक्षिण मार्ग से, उस ॐ के चिंन्ह के चारों ओर घूमने लगती है I
लेकिन उस ब्रह्मतत्त्व के भीतर लिखे हुए ॐ के चिन्ह को किसी भी दिशा से देखने पर, वो ॐ का चिन्ह उसी चेतना की ओर देख रहा होता है I
वो चेतना जो ॐ के लिपिलिंग की प्रदक्षिणा कर रही होती है, ॐ के इस चिन्ह को सदैव ही अपनी ओर देखते हुए पाती है I
इस ॐ प्रदक्षिणा में, उस योगी की चेतना जो ॐ के चिंन्ह की चारों ओर प्रदक्षिणा करती है, यही पाती है, की वो चिंन्ह हर एक दिशा से देखने पर भी, उस चेतना की ओर ही देख रहा होता है I
ब्रह्मतत्त्व के भीतर लिखे हुए ॐ के उस चिंन्ह को चाहे आगे से देखो या पीछे से, चाहे दाएं से देखो या बाएं से, चाहे ऊपर से देखो या नीचे से ही देखो…, वो चिंन्ह उस चेतना की ओर ही देखता हुआ पाया जाता है I
इस ॐ प्रदक्षिणा के पश्चात, उस योगी की चेतना जान जाती है, कि …
वास्तव में, ॐ सर्वदिशा दर्शी ही है, इसलिए, ॐ मार्ग ही अद्वैत मार्ग है I
और ॐ प्रदक्षिणा मार्ग में, यही साक्षात्कार ॐ का अद्वैतमार्गी स्वरूप भी है I
ॐ मार्ग ही वो अद्वैत मार्ग है, जिसको वो चेतना इतने वर्षों से खोज रही थी I
लेकिन क्यूंकि दिशा शब्द का अर्थ उत्कर्ष पथ (या उत्कर्ष मार्ग) भी होता है, इसलिए वो चेतना यह भी जान जाती है, कि …
प्रत्येक उत्कर्ष पथ के मूल और गंतव्य, दोनों में…, ॐ ही है I
और क्यूंकि वेद ही उत्कर्ष मार्ग के गंतव्य, अर्थात कैवल्य मोक्ष का सार्भौम सर्वव्यापी सर्वकाल सर्वव्याप्त, बहुवादी-अद्वैत सनातन मार्ग है, इसलिए वो चेतना यह भी जान जाती है, कि …
ॐ, वेद मूल (या वेद बीज) है I ॐ वेद मार्ग भी ही है I ॐ वेदों का गंतव्य भी है I
और इसके पश्चात, वह योगी जिसने ऐसा साक्षात्कार किया है, वो भी उस सर्वदिशा दर्शी सिद्धि को पा लेता है I
वह योगी एक ही मार्ग में होता हुआ, सब मार्गों के मूल, अर्थात ॐ में बसकर, सभी मार्गों के देवलोकों और अंतिम अद्वैत गंतव्य का ज्ञाता हो जाता है I
ऐसे योगी की चेतना समस्त देवादि लोकों का साक्षात्कार करती है, जिससे वो योगी जान जाता है, कि इस जन्म के पश्चात, उसका निवास किसी भी देवादि लोकों या अलोकों में भी नहीं होगा I
इसका कारण है, की जिसने समस्त देवादि लोकों और समस्त अलोकों का भी साक्षात्कार अपनी जीवित अवस्था में ही कर लिया, वो अपने देहावसान के पश्चात, उनमे जा ही नहीं पाता है I
इसलिए वो योगी यह भी जान जाता है, कि इस ॐ प्रदक्षिणा के पश्चात, उस योगी के लिए, बस एक ही विकल्प रह गया है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाता है, और जिसको निर्गुण निराकार ब्रह्म भी कहा जाता है I
लेकिन उस योगी के सनातन गुरु ने भी तो यही कहा था, जब उन्होंने ईशान नामक शब्द, पञ्च ब्रह्म और पञ्च मुखा सदाशिव के लिए प्रयोग किया था I और इसके साथ साथ, उन सनातन गुरु ने तो, मुक्ता नामक शब्द का भी प्रयोग, पञ्च मुखा गायत्री सरस्वती के लिए I
इसलिए वो योगी जान जाता है, कि अब उसके सनातन गुरु की वाणी, फलित हो रही है I और शीघ्र ही उसकी गुरुदक्षिणा प्रदान करने की अंतिम स्थित भी आने वाली है, जिसके पश्चात, उसे वो सब कुछ जीव जगत को बांटना पड़ेगा, जो उसकी गुरुदक्षिणा के अंतर्गत आएगा I
ॐ का सर्वदशा व्याप्त स्वरूप … योगी के भीतर के ब्रह्माण्ड में ॐ व्याप्ति …
जैसे पूर्व में बतलाया था, कि ॐ का चिंन्ह योगी के मस्तिष्क के भीतर जो ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष होता है, उसके भी भीतर के ब्रह्मतत्त्व में ही लिखा हुआ होता है I
यह चिन्ह वैसा ही होता है, जैसा इस अध्याय के चित्र में दिखाया गया है I
इस बताए गए साक्षात्कार के पश्चात, उसी ॐ के चिन्ह को देखते हुए, उस चेतना ने सोचा, कि चलो यह देखते हैं…, इस ॐ का प्रकाश कहाँ तक व्याप्त है? I
तब उस ॐ के चिंन्ह के समीप बैठी हुई योगी की चेतना ने, उस ॐ की प्रकाश किरणों का अध्ययन किया, कि वो किरणें जीव जगत में कहाँ तक जाती हैं (अर्थात कहाँ तक व्याप्त हैं) I और जहाँ वो जीव जगत, जिसका अध्ययन वो योगी करता है, वो भी उस योगी की काया के भीतर ही बसा होता है I
इसका अर्थ हुआ, कि इस अध्ययन में, वो योगी की चेतना, अपनी काया के भीतर बसे हुए सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड में ही ॐ की प्रकाशमान किरणों को देखती हुई, उन किरणों की, उस ब्रह्माण्ड में व्यापकता का अध्ययन करती है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और ऐसा करने पर, वो योगी की चेतना पाती है, कि यह ॐ की किरणे, उसकी काया के भीतर बसे हुए सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड में, सभी स्थानों पर समान रूप में व्याप्त (अर्थात स्थित) हैं I
और ऐसे सूक्ष्म अध्ययन में, वो योगी ॐ की सर्वदशा व्याप्ति को जान जाता है I
और इसलिए वो योगी जान जाता है, कि यदि कोई सर्वव्याप्त सार्भौम सर्वज्ञ सत्ता है, तो वो सत्ता ॐ ही है I
इस साक्षात्कार में योगी ॐ की सर्वदशा व्याप्ति का साक्षात्कार करता है I
और यही ज्ञान मार्ग का साक्षात्कार, योगी की (अर्थात योगी की चेतना की) सर्वदशा स्थिति नामक सिद्धि को भी लेके जाता है I
जो ज्ञान रूपी साक्षात्कार मार्ग, किसी योगी की चेतना को सर्वदशाओं में ही स्तिथ करदे, अर्थात सर्वदशा व्याप्ति नामक सिद्धि प्रदान करदी, वो ॐ साक्षात्कार का मार्ग ही है…, जिसको यहाँ बताया जा रहा है I
और किसी भी उत्कर्ष रूपी मार्ग में, यह सर्वदशा व्याप्ति नामक सिद्धि नहीं पाई जाती I
ओउम् त्रिबीज है, … ब्रह्म का त्रिबीज स्वरूप, … ओउम् ब्रह्म त्रिबीज है …
ओउम् महामंत्र के जो तीन बीजशब्द (अर्थात त्रिबीज) होते हैं, और जो आकार, उकार और मकार कहलाते हैं, अर्थात जो पूर्व के अध्यायों के अ शब्द, ओ शब्द और म शब्द हैं, वो तीनों बीज ही ॐ के त्रिबीज स्वरूप को दर्शाते हैं I
पूर्व का अध्यायों में, इन त्रिबीजों के बारे में बताया जा चुका है I
इसके सिवा जो कोई भी इन त्रिबीजों (अर्थात ब्रह्म के त्रिबीज स्वरूप) के बारे में कुछ भी बोलता है, उन सब बातों को अविद्या जनित प्रपंच ही मानना चाहिए I
महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, मुट्ठी भर योगी भी नहीं हुए हैं, जो ब्रह्म के त्रिबीज स्वरूप को जानते हैं, और वो भी उनके अपने साक्षात्कार के अनुसार (ना कि किसी ग्रंथ, संप्रदाय या परंपरा आदि से) I
लेकिन इस कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, आज कोई भी कुछ भी बोल रहा है, इस या उस ग्रन्थ का आलम्बन लेके, या इस या उस संप्रदाय परंपरा के नाम पर I
इस अविद्या का मूलकारण है, कि आज के वेद और योगमनीषी बनिए हो गए हैं I और पिछले कुछ दशकों में, ऐसे योगियों और वेद मनीषियों के वेश में, इन बनियों नें कोई भी उत्कर्ष माग विशुद्ध नहीं छोड़ा है I
और तो और, नेतागण भी आज गुरु बनने के इच्छुक हैं, और कुछ गुरु ही नेतागन बन गए हैं, जबकि इन दोनों प्रकार की श्रेणियां वाले उस गंतव्य की वास्तविकता से अनभिज्ञ ही हैं I
और ऐसा होने का मूल कारण है, कि इन सब बनियों में होड़ भी लगी हुई है, शिष्यों की गणना बढ़ने के लिए, जबकि मेरे पूर्व जन्मों के कालों में, योगशिखर पर बैठे योगीजन जो ब्रह्मऋषि पद को भी पाए होते थे, वो भी बस कुछ ही गिने-चुने शिष्य बनाते थे I
बनिया कभी योगी नहीं होता और योगी कभी भी ज्ञान या योग का व्यापारी नहीं होता I
जो योगी नहीं होता, वो ॐ साक्षात्कारी भी नहीं होता I
जो ॐ साक्षात्कारी नहीं होता, वो विशुद्ध बिंदुओं को विकृत ही करता है, जैसे आज के बनियों नें किया है, जो योगी और वेद मनीषि बन कर धर्म, वेद और योग मंडियों में, उन बिंदुओं का भी व्यापार कर रहे हैं, जिनका व्यापार हो ही नहीं सकता I
ऐसा कहने का कारण है, कि जो उत्कर्ष मार्ग रूपी बिंदु, मूल, मध्य और गंतव्य, तीनों में समान रूप में हैं, उनका व्यापार ही नहीं हो सकता, क्यूंकि वो सभी बिन्दु प्रकृति के तारतम्य में होते ही नहीं हैं I
जो प्रकृति के तारतम्य में नहीं होता, वो अर्थ पुरुषार्थ का अंग ही नहीं होता, और इसीलिए, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भी व्यापार नहीं हो सकता I
और एक बात, व्यापार केवल धन नामक शब्द का ही नहीं होता…, और धन केवल मुद्रा तक ही सीमित नहीं होता I
इसलिए न ॐ का, और न ही इन त्रिबीज का और न इन ही इनसे जुड़े हुए किसी भी वेद या योगमार्ग का व्यापार ही होना चाहिए I
ॐ मूल है, ॐ अमूल गंतव्य है, ॐ अद्वैत है, ॐ प्रारम्भ है, ॐ मध्य है, ॐ अंत है …
ॐ मूल है … जगत की रचना से पूर्व, जब पूर्व के अध्याय में बताया गया ब्रह्मतत्त्व भी नहीं था, तब केवल ॐ ही था I
इसलिए, ॐ ही इस जीव जगत का और उसके समस्त बिन्दुओं और भागों का मूल है I
ॐ प्रारंभ है … मूल ही प्रारम्भ होता है, इसलिए ॐ जो ब्रह्म की रचना का मूल है, वो ही इस सृष्टि का प्रारंभ भी है I
ॐ मध्य है … क्यूँकि मूल का कोई और मूल नहीं होता, इसलिए ऐसे मूल का कभी भी नाश नहीं होता I
यही कारण है, कि जगत की उत्पत्ति के समय और इस उत्पत्ति के बाद भी, ॐ अपने उसी स्वरूप में रह गया, जैसा वो तब था, जब न तो कोई जीव था और न ही कोई जगत ही था I
इसलिए उस ब्रह्म की रचना में, ॐ सभी रचित दशाओं के भीतर (मध्य में) भी रह गया I
ॐ अंत है … जो प्रारम्भ और मध्य में समान रूप में होता है, वो ही परिवर्तनरहित अचलित या पूर्ण स्थिर होता है I
जो परिवर्तन रहित होता है, उसी को तो अंत में और अंत के पश्चात भी पाया जाएगा I
इसलिए, इस जीव जगत के अंत में भी वही ॐ होगा I
यही कारण है, कि ब्रह्म की रचना के समस्त उत्कर्ष मार्गों में, ॐ अंत ही है I
ॐ अमूल गंतव्य है … जो प्रारम्भ के पूर्व से लेकर, प्रारम्भ के पश्चात की सभी दशाओं में, और इनसे से लेकर अंत तक और अंत के बाद भी, एकमात्र परिवर्तनरहित ही बना रहता है, उसकी अंतगति में योगी उस मूलरहित, मध्यरहित, अमूल गंतव्य का ही साक्षात्कार करता है I
इसलिए ब्रह्म की रचना में, ॐ ही एकमात्र अमूल गंतव्य भी है I
ॐ अद्वैत है … जो मूल से लेकर अमूल गंतव्य तक समान रूप में, अर्थात परिवर्तन रहित दशाओं और दिशाओं में, समान रूप में ही बना रहता है, वो ही तो अद्वैत कहलाता है I
ॐ कर्मातीत है, ॐ फलातीत है, ॐ कृपा सिद्धि है, … ॐ अनुग्रह सिद्धि है, …
ॐ के साक्षात्कार के पश्चात, साधक का कोई उत्कर्ष मार्ग ही नहीं होता, क्यूँकि ॐ कर्मातीत दशा को दर्शाता है, अर्थात ॐ कर्मों और कर्मफलों से अतीत है I
इसलिए,
ॐ कर्मातीत है…, जिसके कारण ॐ फलातीत है I
जो ऐसा होता है, वो न तो कर्मों में होता है, और न ही उन कर्मों के फलों में ही होता है…, इसलिए उसको प्राप्त या अप्राप्त किया ही नहीं जा सकता I
जिसको प्राप्त या अप्राप्त ही न किया जा सके, उसको कैसे पाओगे?…, उसका तो होना पड़ेगा न? I
इसलिए, ॐ साक्षात्कार और इस साक्षात्कार से परे, योगी के साथ जो भी होगा या नहीं होगा, वो कृपा मार्ग ही होगा, और ऐसे योगी की गति, कृपा सिद्धि से ही होती है, जिसमें …
न वो योगी कोई कर्म करेगा, और ना ही नहीं करेगा…,
और जिसके कारण, उसका न तो कोई फल होगा, और ना ही नहीं होगा I
जो मार्ग ऐसा होता है, वो ही तो कृपा सिद्धि कहलाता है, और ऐसा योगी, कृपा सिद्ध या अनुग्रह सिद्ध ही कहलाएगा, क्यूंकि इस कृपा सिद्धि के पश्चात …
उसके मार्ग … न तो होंगे, और न ही नहीं होंगे I
वो कर्म करता हुआ भी…, अकर्मा ही रहेगा I
और इसलिए वो फलों को भोगता हुआ भी…, अभोक्ता ही रहेगा I
कृपा सिद्ध या अनुग्रह सिद्ध वो होता है, जिसने ब्रह्म का अनुग्रह पाया हो I
और यह ब्रह्म अनुग्रह भी ॐ प्रदक्षिणा के मार्ग की ओर ही लेके जाता है …, और कहीं भी नहीं I
ओम ब्रह्म एकाक्षर मंत्र है, … ब्रह्म एकाक्षर … एकाक्षर ब्रह्म … ॐ मूल शब्द है …
और ऐसी मूल, मध्य और अंत की परिवर्तनरहित समान दशा में, ॐ अपने पूर्ण अद्वैत स्वरूप में ही था, अर्थात ॐ अपने एकाक्षर स्वरूप में ही था I
ओम का एकाक्षर स्वरूप ही ब्रह्म एकाक्षर मंत्र कहलाया था I
ॐ का यह एकाक्षर स्वरूप ही ॐ का शब्द्लिंग और ॐ का लिपिलिंग स्वरूप कहलाया है I
तो अब ब्रह्म के ओउम् रूपी एकाक्षर के इन दोनों स्वरूपों को बताता हूँ …
- ओउम् का शब्द्लिंगात्मक एकाक्षर स्वरूप … इसमें, ओउम् महामंत्र के जो तीन बीजशब्द (अर्थात त्रिबीज) होते हैं, और जो आकार, उकार और मकार कहलाते हैं, अर्थात अ शब्द, ओ शब्द और म शब्द, वो तीनों बीज आपस में ऐसे घुले मिले होते हैं, कि कौनसा बीजशब्द कौनसा है, वो समझ ही नहीं आता I
ऐसी दशा में वो साधक, जो ॐ को श्रुति स्वरूप में साक्षात्कार कर रहा होता है, वो ॐ का ही निश्कलंक शब्द रूप होता है I
इस ॐ साक्षात्कार में, ॐ का अपने ही त्रिबीजों के भेद से रहित होने के कारण, ॐ की यह दशा समस्त भेदों से भी अतीत है I
जो दशा ऐसी होती है, वही तो शब्द रूप में, ब्रह्म एकाक्षर कहलाती है I
इसलिए इस अध्याय में बताए गए ॐ साक्षात्कार से भी अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है I
ऐसी ब्रह्म एकाक्षरी दशा में, जब न जीव था और न ही जगत था, और न ही कोई तत्त्व ही था, तब केवल ॐ ही था I
इस अवस्था में जो जीव जगत के प्रादुर्भाव से पूर्व की थी, ॐ ही प्रारम्भ था, ॐ ही मध्य की समस्त दिशाओं में था, और अंत भी ॐ ही था I
और ऐसा ही ॐ रह गया, जब ब्रह्म की रचना में, जीव और जगत का प्रादुर्भाव हुआ था I
वो शब्द जो ॐ के त्रिबीज, अकार, उकार और मकार की योगावस्था ही था, उसके अध्ययन से ही उस चेतना ने, ॐ के शब्द रूप, अर्थात शब्दात्मक स्वरूप को जाना I इसके पश्चात वो चेतना जान गई, कि सृष्टि में ॐ समस्त शब्दों का मूल शब्द ही है I यह भी एक कारण है, कि मंत्र उच्चारण के समय, ॐ को मंत्रो के साथ बोला ही जाता है I
और इस शब्द रूप में ॐ वेदबीज ही है I
- ॐ का लिपिलिंगात्मक एकाक्षर स्वरूप …
जैसा पूर्व में बताया था, कि जब साधक की चेतना, ॐ के सभी ओर घूमकर ॐ को देखती है, तब वो चेतना ॐ को अपनी ओर ही देखता हुआ पाती है I
यही ॐ का लिपिलिंगात्मक एकाक्षर स्वरूप को दर्शाता है, जिसमे वो ॐ का साक्षात्कार करती हुई साधक की चेतना, उस ॐ के चिन्ह को सर्वदिशा दर्शी और सर्वदशा व्याप्त, प्रकाश रूप में लिपिलिंग स्वरूप में ही पाती है I
ओम का शब्दात्मक स्वरूप और पञ्च विद्या सरस्वती …
जब ब्रह्माण्ड और उसके जीव नहीं थे, तो सर्वप्रथम वो शब्द ही था, जो ॐ था और जिसकी शब्दात्मक मूल दिव्यता शक्ति और विद्या, माँ सावित्री ही हैं I
उस शब्द से ही सबकुछ स्वयंउत्पन्न हुआ था I
तो अब उस शब्द के पञ्च विद्या स्वरूप को बतलाता हूँ …
- जब शब्द सर्वकल्याणकारी सर्वव्यापक ऊर्जा धारी होता है, तो उस शब्द की ब्रह्माण्डीय दिव्यता शक्ति और विद्या को माँ भारती सरस्वती कहते हैं I
- जब सर्वकल्याणकारी सर्वव्यापक ऊर्जा धारी शब्द, जगदगुरु स्वरूप में स्वयंप्रकट होता है, तो उस शब्द की दिव्यता शक्ति और विद्या को माँ शारदा सरस्वती कहते हैं I
- जब जगदगुरु स्वरूप शब्द, देवत्व धारण करके वेदज्ञान, ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान आदि मन्त्रात्मक स्वरूपों में स्वयंप्रकट होता है, तो उस शब्द की दिव्यता शक्ति और विद्या को माँ गायत्री सरस्वती कहते हैं I
- जब वही मन्त्रात्मक शब्द, अपने शब्दात्मक मूल रूप में ही, अपने ही ॐ रूपी सर्वव्यापक आत्मस्वरूप को धारण करके, ॐ के ब्रह्मरूप में स्वयंप्रकट होता है, तो उस शब्द की दिव्यता शक्ति और विद्या को माँ सावित्री सरस्वती कहते हैं I
- और वही ब्रह्मरूप शब्द, उसकी परमगति में मुक्तिकारक होके, गंतव्य रूपी मुक्ति ही हो जाता है, तो उस शब्द की दिव्यता शक्ति और विद्या को माँ ब्राह्मणी सरस्वती कहते हैं I
लेकिन ऐसे पञ्च विद्या स्वरूप में होने पर भी, वो शब्द, अपने मूल से शब्दात्मक ही होता है, इसलिए माँ सावित्री सरस्वती को ही दर्शाता है I
इसीलिए, अपने मूल से ॐ का शब्द भी माँ सावित्री विद्या का ही है I
आगे बढ़ता हूँ …
और वो शब्द जो माँ सावित्री विद्या सरस्वती का ही है, वो ही पञ्च तत्त्व का ब्रह्माण्ड हुआ था, जिसके कारण ब्रह्माण्ड भी शब्दात्मक ही है I
वैदिक वाङ्मय में, उस मूल ब्रह्माण्ड को ही शब्द कहा गया था, जो ॐ था और जिसकी दिव्यता, शक्ति और विद्या के पाँच स्वरूपों में, माँ पञ्च विद्या सरस्वती ही हैं I
और पञ्च विद्या सरस्वती के दृष्टिकोण से, ॐ शब्द का …
- ऊर्जात्मक स्वरूप, माँ भारती विद्या सरस्वती ही हैं I
- आत्मगुरु स्वरूप, माँ शारदा विद्या सरस्वती ही हैं I
- ज्ञानात्मक स्वरूप, माँ गायत्री विद्या सरस्वती ही हैं I
- प्रधान शब्दात्मक स्वरूप, माँ सावित्री विद्या सरस्वती ही हैं I
- और मुक्तात्मा स्वरूप, माँ ब्राह्मणी विद्या सरस्वती ही हैं I
ब्रह्मतत्त्व में निर्गुण निराकार ब्रह्म साक्षात्कार … निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार …
और इसके पश्चात, उसी सर्वदिशा दर्शी और सर्वदशा व्याप्त ॐ के लिपिलिंग (या ॐ के चिन्ह) को देखते हुए, वो चेतना जो इस सबका साक्षात्कार कर रही थी, उसने जो पाया…, वो अब बता रहा हूँ I
इसलिए इसपर ध्यान देना, क्यूँकि निरंग (या निर्गुण) को बहुत अधिक शब्दों में या वाक्यों में या प्रकार से बताया भी नहीं जा सकता … इसलिए जो मुझसे बताया जा सकता है, बस उतना ही बता रहा हूँ …
- ॐ का लिपिलिंग जो उस पीले वर्ण के अतिसूक्ष्म और अति प्रकाशमान ब्रह्मतत्त्व में बसा हुआ था, उसी ब्रह्मतत्त्व (या शुद्ध चेतन तत्त्व) में एक और उससे भी सूक्ष्म, निर्गुण सा प्रकाश था, जो एक निरंग झिल्ली से समान था I
- यह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म निरंग प्रकाश उस ब्रह्मतत्व में पूर्ण व्याप्त था, जिसमें वो ॐ का चिन्ह (अर्थात ॐ का लिपिलिंगात्मक स्वरूप) बसा हुआ था I
- यह निरंग झिल्ली के समान प्रकाश भी ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे यह सर्वव्याप्त स्वच्छ जल के समान है, जिसमें यह ब्रह्मतत्त्व बसा हुआ है I
- यह स्वच्छ, निरंग झिल्ली के समान प्रकाश, सर्वव्यापक स्वच्छ जल रूप में था, और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म था I
- यह निर्गुण प्रकाश सबको प्रकाशित करता हुआ भी, अब तक स्वयं ही, इन सभी बतलाई गई दशाओं में, और इन सबसे परे भी था, लेकिन अबतक छिपा हुआ था I
- इसलिए, वो योगी सोचने लगा, की …
वाह रे भगवन्, सर्वव्यापक होता हुए भी, आप सबके भीतर और सबसे परे, कहाँ छुपे हुए हो I मैं आपको जहाँ-तहाँ ढूंढ़ता रहा…, और आप कहाँ मिले I
इसलिए वो योगी जान गया, कि इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड के इतिहास में, उस निर्गुण ब्रह्म को क्यूँ बहुत कम योगीजन जान पाए हैं I
- उस सूक्ष्म से भी सूक्ष्म प्रकाश में ही वो ब्रह्मतत्त्व भी बसा हुआ था, जिसके भीतर ही वो ॐ का लिपिलिंगात्मक स्वरूप, पूर्व में साक्षात्कार हुआ था I
- उसी ब्रह्मतत्त्व के भीतर और उससे परे भी वही “सूक्ष्म से भी सूक्ष्म निरंग प्रकाश” था I
इसका अर्थ हुआ, कि वो निर्गुण प्रकाश में ब्रह्मतत्त्व बसा हुआ, था, और वो निरंग प्रकाश भी उसी ब्रह्मतत्त्व में ही बसा हुआ था, जिसमे बैठी हुई उस योगी की चेतना यह सभी साक्षात्कार कर रही थी I
- इसके अतिरिक्त, उसी ब्रह्मतत्त्व में, समस्त जीव जगत भी बसा हुआ था, और उस जीव जगत में भी, वही ब्रह्मतत्त्व बसा हुआ था I इस दशा में, उस योगी की चेतना ने ऐसा साक्षात्कार भी किया I
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में बताए गए जल शब्द का साक्षात्कार …
इस सबके पश्चात, वो चेतना जान गई, कि वो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, निरंग प्रकाश वास्तव में निर्गुण निराकार ब्रह्म ही है, जो सर्वव्यापक स्वच्छ निरंग जल के समान है, और जिसका संकेत ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भी दिया हुआ है I
ॐ ही निर्गुण निराकार ब्रह्म है, ॐ ही निर्गुण ब्रह्म है, ॐ ही ब्रह्म एकाक्षर है …
इसके पश्चात, योगी की चेतना को जो साक्षात्कार हुआ, वो अब बताता हूँ …
वो चेतना ॐ के लिपिलिंग (या ॐ के चिन्ह) को देखती गई (अर्थात उस ॐ के चिंन्ह का अध्ययन किया) I
- इस अध्ययन में पाया, की चिंन्ह रूप में तो वो ॐ का लिपिलिंगात्मक स्वरूप है (जैसा इस अध्याय के चित्र में भी दिखाया गया है), लेकिन वास्तव में तो यह ॐ रूपी चिंन्ह भी निरंग और निराकार ही है I
- निरंग को ही तो निर्गुण कहते हैं I निर्गुण ही तो निरंग होता है I और वो निर्गुणा ही निर्गुण निराकार है I
इस अध्ययन में वो चेतना यह भी जान गई, कि जब निर्गुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है, तब वो निराकार ही तो अनंत होता है I
उस चेतना ने उस निर्गुण को ऐसा ही अनंत स्वरूप में पाया I
अनंत ही तो सर्वव्याप्त होता है I
- जो अनंत है और निर्गुण भी है, उसी को तो वेद मनिषियों में निर्गुण निराकार ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म कहा है I
ॐ का अतिप्रकाशमान लिपिलिंगात्मक चिन्ह, ऐसा निर्गुण कैसे है…, इस बिंदु को तो वो चेतना जान तो नहीं पाई I
लेकिन वो चिंन्ह था वैसा ही… जैसा यहाँ बताया गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसलिए इस साक्षात्कार में, वो चेतना यह भी जान गई, कि …
- ॐ ही निर्गुण निराकार ब्रह्म का एकाक्षर स्वरूप है I
- एकाक्षर ही तो अद्वैत होता है, इसलिए ॐ ही निर्गुण ब्रह्म का अद्वैत स्वरूप है I
- ॐ का लिपिलिंगात्मक स्वरूप ही ब्रह्म एकाक्षर है I ब्रह्म एकाक्षर स्वरूप ही ॐ का चिन्ह है I
- ॐ का शब्द्लिंगात्मक स्वरूप, अर्थात ॐ का शब्दात्मक स्वरूप ही ब्रह्म एकाक्षर मंत्र है I
इसलिए योगी की चेतना यह भी जान गई, की ॐ ही वो निर्गुण निराकार है, जो निर्गुण ब्रह्म कहलाता है I
ॐ और निर्विकल्प समाधि … ॐ में ही निर्विकल्प समाधि होती है …
जैसे ही उस ब्रह्मतत्त्व के भीतर बसी हुई चेतना को यहां बताया गया साक्षात्कार हुआ, वैसे ही वह चेतना, ॐ के चिंन्ह में ही प्रवेश कर गई I
यह प्रवेश ॐ के चिन्ह के नीचे की ओर से हुआ, और अंततः वो चेतना इस ॐ के चिंन्ह से ही होती हुई, ॐ के ऊपर के बिंदु में गयी I
ॐ के ऊपर की बिन्दु में जाने के पश्चात, वह चेतना उसी बिन्दु में विलीन हो गई I
और विलीन होने के पश्चात, वो चेतना स्वयं ही स्वयं को नहीं देख पायी, अर्थात वो चेतना …
ॐ में ही विलीन होके…, ॐ ही हो गई I
और इस दशा में वो चेतना ने जो पाया, वो अब बता रहा हूँ …
न वो किसी से पृथक थी, और न ही कोई उससे पृथक ही था I
और इसके साथ साथ …
न ही कोई उसमें लिप्त हुआ था.., और न ही वो किसी में लिप्त ही थी I
और इसके साथ साथ …
वो सबमें होती हुई भी … सबसे पृथक ही थी, और नहीं भी थी I
सब उसमें होते हुए थी,… सब उससे पृथक ही थे, और नहीं भी थे I
ऐसी दशा में, उस चेतना ने, जो स्वयं ही स्वयं को भी देख नहीं पा रही थी, जाना कि …
सब उसके साक्षी भाव में ही विराजमान हैं I
और वो भी स्वयं ही स्वयं को साक्षी स्वरूप में सबमे देख रही है I
और इसके अतिरिक्त…, वो स्वयं ही स्वयं को अपने ही साक्षी भाव में पा रही है I
इसके पश्चात, उस चेतना की जो दशा हुई, वो ऐसी थी …
ज्ञाता ही ज्ञेय और ज्ञान हो गया I
द्रष्टा, दृष्टि और दृश्य हो गया I
साक्षात्कारी ही साक्षात्कार और साक्षी हो गया I
चेतना ही चेतन और चेत सिद्धांत हो गया I
वो ॐ रूपी भूमि जिसमें यह साक्षात्कार हो रहा था, भूमा और भूमत्व हो गई I
और वो क्षेत्री (चेतना) जो यह साक्षात्कार कर रही थी, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ हो गई I
यह सब वाक्य, निर्विकल्प ब्रह्म को ही दर्शाते हैं I
और ऐसे साक्षात्कार का मार्ग, निर्विकल्प समाधि कहलाता है I
जब यह हुआ, तब …
वो साधक ही साधना और साध हो गया I
और जब ऐसा हुआ, तब …
वह पूर्व का करता जो इस सब का साक्षात्कार कर रहा था, वो कर्मातीत हो गया I
जो कर्मातीत होता है, वो ही तो कालातीत, गुणातीत, तन्मात्रातीत, इन्द्रियातीत, भूतातीत, इतियादी शब्दों से भी बतलाया जाता है I
ऐसे योगी को ही तो तुरीयातीत कहा जाता है I
लेकिन तुरीयातीत भी वो आत्मा होता है, जो निर्गुण ब्रह्म कहलाता है I
साधक के आत्मस्वरूप को तुरीयातीत कहा जाता है, और इस तुरीयातीत शब्द का गंतव्य भी, उस निर्गुण आत्मा का ही वाचक है, जो निर्गुण ब्रह्म कहलाता है I
यहाँ बताए हुए सभी शब्द आत्मा के वाचक हैं, इसीलिए, ब्रह्मरंध्र के विज्ञानमय कोश के भीतर बसे हुए ब्रह्मतत्त्व में लिखा हुआ ॐ, आत्मा का ही लिपिलिंग स्वरूप है…, अर्थात ॐ ही आत्मा है I
पर क्यूँकि आत्मा ही तो ब्रह्म है, इसलिए जो ॐ का चिंन्ह साधक के ब्रह्मरंध्र के विज्ञानमय कोश के भीतर बसे हुए ब्रह्मतत्त्व में लिखा हुआ है, वह ब्रह्म ही है…, अर्थात ॐ ही ब्रह्म है I
ऐसा ॐ साक्षात्कारी कर्मातीत योगी, कालात्मा, गुणात्मा, भूतात्मा, तन्मात्रात्मा, ज्ञानात्मा, चिदात्मा, बुद्धात्मा, अहमात्मा, मनात्मा, प्राणत्मा, जगतात्मा, सर्वात्मा, देवात्मादी शब्दों से भी दर्शाया जाता है I
यह सभी शब्द, जीवात्मा नामक शब्द की गंतव्य दशा को ही दर्शाते हैं I
यह सभी शब्द कर्मातीत मुक्ति के सूचक हैं, जिसके मूल में, ॐ साक्षात्कार ही होता है I
टिपण्णी: लेकिन निर्विकल्प समाधि का ज्ञान इस अध्याय में बताए गए ॐ मार्ग तक ही सीमित नहीं है I ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्यूंकि निर्विकल्प को तो कई और समाधियों से जाना जा सकता है, जिनके बारे में बाद के किसी अध्याय में बताऊँगा I
ॐ जीवात्मा का लय स्थान है … ॐ में जीवात्मा का लय …
जीवात्मा (अर्थात योगी या साधक की चेतना) का ॐ में लय तब साक्षात्कार होता है, जब वो योगी की चेतना जो ॐ के बिन्दु में विलीन होती है, स्वयं स्वयं को देख नहीं पाती है I
इसलिए वो योगी की चेतना (जीवात्मा) जान जाती है, कि उसका लय स्थान ॐ के ऊपर का बिंदु ही है…, अर्थात ॐ ही है I
और क्यूंकि ॐ की दिव्यता या देवी, माँ सावित्री सरस्वती ही हैं, तो इस साक्षात्कार का तो यह भी अर्थ हुआ, की प्रत्येक जीवात्मा की माता, माँ सावित्री सरस्वती ही हैं I
और इसका तो यह भी अर्थ हुआ, की प्रत्येक जीवात्मा का उद्धार भी सावित्री विद्या सरस्वती के अनुग्रह से ही होगा I
ब्रह्म अनाक्षर मंत्र … ॐ का ब्रह्म अनक्षर स्वरूप … ॐ ही अशब्द है …
जैसे पूर्व में बताया था, कि जब …
- जब वो चेतना ॐ के चिंन्ह के ऊपर के बिन्दु में विलीन हुई, तो इसके पश्चात, वो चेतना स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाई I
- ऐसी दशा में, वो चेतना ॐ के लिपीलिंग या अक्षर स्वरूप को भी पार कर गई I
- ऐसी दशा में, उस चेतना ने ॐ को सर्वव्याप्त स्व”प्रकाश ही पाया, जो सबमें बसा हुआ था, और सब उनमें बसे हुए थे…, लेकिन तब भी वो सबका साक्षी ही था I
और ऐसी ही वो ॐ में विलीन चेतना भी हो गई…, क्यूंकि जब बूँद सागर में जाती है, तो वो सागर होकर, सागर ही कहलाती है I
- वो ॐ का सर्वसाक्षी स्वरूप, निरंग अनंत था…, जो सबको भेदता और घेरता हुआ…, सबसे पृथक भी था I
और ऐसा ही उस चेतना ने स्वयं को भी पाया I
- वो जीव और जगत के समस्त भावों, रागों और उनके शब्दों, और उनकी तालों में बसा हुआ भी…, इन सबसे पृथक और अपृथक दोनों ही था, और जो इन सबका एकमात्र साक्षी भी था I
और ऐसा ही उस चेतना ने स्वयं को भी पाया I
ऐसी विलीन होने के बाद की दशा में, वो जो शब्द से पृथक था, उसमें ही उस चेतना ने ॐ के अशब्द स्वरूप को जाना…, जो ब्रह्म अनाक्षर ही था I
यही ॐ का अनाक्षर स्वरूप है, जिसको ॐ में बसकर, निर्विकल्प समाधि से ही जाना जाता है…, इस ब्रह्म अनक्षर का ज्ञान और कहीं नहीं मिलेगा I
इसी को ब्रह्म अनक्षर भी कहा गया है, क्यूंकि यह उस स्व:प्रकाश को दर्शाता है, जो भावातीत, रागातीत, शब्दातीत, तालातीत, और लिपितीत, अक्षरातीत ही होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
और क्यूँकि माँ प्रकृति के दृष्टिकोण से, भारत की परिभाषा, भारत शब्द के तीन बीजों में होती है, जो भ नामक भाव, र नामक राग, और त नामक ताल कहे गए थे (एक पूर्व के अध्याय में, जिसमे माँ भारती को बताया गया था), और जिसमे यह भी कहा गया था, कि भारत ही सर्वेश्वर का साम्राज्य और पीठ है और जो ब्रह्माण्ड कहलाता है, इसलिए जो योगी इस ब्रह्म अनक्षर को पाता है, वो भारतातीत, अर्थात ब्रह्माण्डातीत भी हो जाता है I
इसलिए, ब्रह्म एकाक्षर, वास्तव में ॐ के ऊपर के बिंदी का ही नाम है, जो योगी के इस भवसागर से तारण होने के भी आगे (या बाद) की दशा है और जिसका मार्ग ॐ के ऊपर के बिंदु से ही होकर जाता है I
और जिस योगी ने, इस ब्रह्म अनक्षर का साक्षात्कार किया है, वो उस रकार मार्ग पर भी जाता है, जिसके बारे में अगली अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा, और जिसका मार्ग निर्बीज समाधि की ओर लेके जाता है I
ॐ के विभिन्न नाम और उनकी सिद्धियाँ …
ॐ को बहुत प्रकारों से बतलाया गया है I
ॐ साक्षात्कार में बहुत-बहुत सारी सिद्धियां होती हैं I ॐ साक्षात्कार में इतनी प्रकार की सिद्धियाँ होती है, कि उनकी कोई सीमा ही नहीं है I
तो अब मैं ॐ के कुछ नामों को और उनकी प्रमुख सिद्धियों को बतलाता हूँ …
- ॐ ही कैवल्य मोक्ष है … जैसा पूर्व में बतलाया था, ॐ ही वो आत्मा है, जो ब्रह्म है, और जो उस पदरहित गंतव्य को ही दर्शाता है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाता है I
ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, किसी भी कालखंड में, चाहे ऐसा योगी किसी काया स्वरूप में ही लौट कर क्यों न आए, लेकिन काया में रहता हुआ भी, वो जीवन्मुक्त ही होता है I
जो योगी, जीवित होता हुआ ही ॐ के ऊपर दर्शाए हुए बिन्दु में विलीन हो गया, वो जीवन्मुक्त है I ऐसा योगी अपनी काया के रहते हुए भी, अर्थात जीवित सा प्रतीत होता हुआ भी, अपनी आंतरिक दशा से कैवल्य मोक्ष में ही बसा हुआ होता है I
- ॐ अद्वैत है … इसका कारण है, कि ॐ में वो मूल भेद, जो पुरुष और प्रकृति का होता है, वो भी नहीं होता I इसलिए ॐ ही वो अद्वैत है I
- ॐ साक्षात्कार निर्बीज ब्रह्म का मार्ग भी है … जो योगी ॐ के बिन्दु में विलीन हो गया, वह योगी ही निर्बीज समाधि को भी पा जाता है I इसलिए, ॐ साक्षात्कार निर्बीज समाधि को तो नहीं दर्शाता है, लेकिन उस निर्बीज समाधि का मार्ग अवश्य ही है I
निर्बीज समाधि के पश्चात, योगी संस्कार शून्य होता है, अर्थात उसके चित्त में कोई भी बीज रूपी संस्कार नहीं रहता I
जब संस्कार ही नहीं रहते, तो कर्म कैसे रहेंगे, इसलिए जो योगी निर्बीज समाधि को पाया होता है, वो ही कर्मातीत मुक्ति को पाता है, और कर्ममुक्ता कहलाता है I
लेकिन क्यूंकि ॐ साक्षात्कार से भी तो यही कर्मातीत मुक्ति नामक सिद्धि होती है, इसलिए, जबकि ॐ में वो निर्बीज समाधि नहीं होती, लेकिन तब भी ॐ उस निर्बीज ब्रह्म को ही दर्शाता है I
इस निर्बीज समाधि का मार्ग, राम नाद से जाता है, और यह मार्ग अंततः अथर्ववेद के दसवें खण्ड के दूसरे सूक्त के एकत्तीसवें, बत्तीसवें और तैंतीसवें मंत्रों से होकर जाता है, जिसके बारे में तब बतलाऊँगा, जब रकार और खकार मार्गों पर बात होगी I
- ॐ ही ब्रह्म है … क्यूँकि ॐ ही गंतव्य, अद्वैत है, और अद्वैत शब्द ब्रह्म को ही दर्शाता है, इसीलिए, वैदिक वाङ्मय में ॐ को ब्रह्म भी कहा गया है I
- ॐ ही जगतात्मा है … समस्त जगत की एक ही आत्मा है, जो समस्त जगत में समान रूप में बसा हुआ है, और जिसमे जगत भी बसा हुआ है I यह आत्मा भी ॐ ही है, इसलिए ॐ ही जगतात्मा है I
- ॐ ही आत्मा है … क्यूंकि आत्मा ही ब्रह्म है, इसलिए ॐ जो ब्रह्म है, वह आत्मा भी है I समस्त शरीरों या पिण्डों की आत्मा को ही ॐ कहते हैं I
समस्त पिण्डों में, यही ॐ रूपी आत्मा, शब्द, लिपि और प्रकाश स्वरूपों में होता है I लेकिन इसका प्रकाश स्वरूप, स्वयंप्रकाश ही है, जिसके बारे में इसी अध्याय के, थोड़ा आगे के भाग में बताया जाएगा I
- ॐ ही सर्वात्मा है … क्यूंकि ब्रह्माण्ड और पिण्डों के भेद से, आत्मा में भेद नहीं होता, इसलिए जो पिण्डात्मा है, वो ही सर्वात्मा है I
- ॐ ही महामंत्र है … ॐ ही परममंत्र है … ॐ का शब्दात्मक और प्रकाशात्मक स्वरूप समस्त ब्रह्माण्ड और पिंडों में व्याप्त है, इसलिए ॐ वो महामंत्र है, जो सर्वव्यापक सर्भौम मंत्रात्मक सत्ता ही है I
जब भी वैदिक वाङ्मय में महा शब्द का प्रयोग होता है, तब वह महा ही परम को दर्शाता है I इसका कारण है, कि वेदों में कभी भी दो महा नहीं होते I जो महा होता है, वो ही परम होता है I
इस कारण से, वो महामंत्र जो ॐ है, वह ही परममंत्र भी है I
- ॐ ही स्वयंप्रकाश है … ॐ ही स्व:प्रकाश है … समस्त जीव जगत में ॐ बसा हुआ है, और समस्त जीव जगत भी ॐ में ही बसा हुआ है, लेकिन तब भी ॐ गुप्त ही रहता है I
और ऐसी अवस्था में भी ॐ शब्दात्मक, लिपिलिंगात्मक और प्रकाशात्मक स्वरूप में ही है I
प्रकाशात्मक स्वरूप को ही स्वयंप्रकाश और स्वप्रकाश कहा जाता है I
स्वयंप्रकाश या स्व:प्रकाश वो होता है, को सबको प्रकाशित करता हुआ भी, स्वयं गुप्त रहता है I
वह स्वयंप्रकाश या स्व:प्रकाश समस्त जीव जगत में बसा हुआ है और समस्त जीव जगत भी उसमें ही बसा हुआ है, लेकिन तब भी वो गुप्त में ही रहता है I
जो समस्त जीव जगत को प्रकाशित करता हुआ भी, स्वयं गुप्त में रहता है, वो स्वप्रकाश या स्वयंप्रकाश कहलाता है I
जीव जगत का स्वप्रकाश या स्वयं प्रकाश, ॐ ही है I
और यह स्वप्रकाशित ॐ, जीव जगत से परे होता हुआ भी, जीव जगत के समस्त भागों के भीतर भी समान रूप में बसा हुआ है I
जिससे सब कुछ प्रकाशित होता हुआ भी, और जो सबकुछ के भीतर और परे, दोनों दशाओं में ही समान रूप में होता हुआ भी, छुपा हुआ रहता है, वो ही स्वप्रकाश या स्वयंप्रकाश ब्रह्म है I वो स्वप्रकाश या स्वयं प्रकाश, ॐ ही है I
लेकिन विरले योगी ही उस स्वप्रकाश (या स्वयंप्रकाश) ॐ रूपी ब्रह्म का साक्षात्कार कर पाते हैं I
- निर्गुण निराकार का साक्षात्कार भी ॐ में ही होता है … ॐ ही निर्गुण निराकार का द्योतक, चिन्ह या लिंग है … जो निर्गुण होता है, वह निरंग भी होता है, और वह निरंग, स्वच्छ जल जैसा होता है I लेकिन विरले योगी ही उस निरंग प्रकाश का साक्षात्कार करते हैं…, सब नहीं I
इसी निरंग प्रकाश में ही समस्त ब्रह्माण्ड बसा हुआ है, और इसीलिए वेदों में कहा गया है, कि सृष्टि के प्रारम्भ में, केवल वो विश्वव्यापी जल ही था I वह जल जो बतलाया गया है, उस निरंग जल के समान जो प्रकाश है, उसको ही कहा गया है I
ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव से भी पूर्व के जल स्वरूप का वर्णन, वेदों मे कई स्थानों पर किया गया है I
इसीलिए वेदों में, ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव से पूर्व की दशा में, जिस जल का वर्णन किया गया है, वह जल महाभूत या आप महाभूत नहीं था, बल्कि वो ही निरंग प्रकाश था, जो स्वच्छ जल के समान था, इसलिए वेद मनीषियों द्वारा उसको सांकेतिक रूप में, जल शब्द से सम्बोधित किया गया था I
लेकिन क्यूंकि मैं काया में हूँ, इसलिए सुनता हूँ, कि आज के कुछ वेद मनीषी उस कहे गए जल को जो ब्रह्माण्ड से पूर्व में भी था, जल महाभूत ही मान बैठे हैं I
यह उचित परिभाषा नहीं है उस जल की, जो सृष्टि के प्रारम्भ से भी पूर्व में था, और जिसके बारे में वेदों में बतलाया गया है I
वो जो जल कहा गया है, वो निर्गुण ब्रह्म का ही वाचक है, न कि जल महाभूत का I
और एक बात पर ध्यान दो …
जब निर्गुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है, तब वह निराकार ही अनंत होता है I इसलिए निर्गुण निराकार शब्द को, वास्तव में, निर्गुण अनंत ही मानना चाहिए I
इस बात का वर्णन भी वेदों में कई स्थानों पर संकेत में किया गया है, जैसे कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत का तैत्तिरीयोपनिषद का वाक्य, “सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म”, इत्यादि I
- ॐ ही अजा (अज) है … ॐ ही सनातन है … अज का अर्थ होता है, अजन्मा … जिसका जन्म ही नहीं हुआ, उसका अंत कैसे होगा I
जो प्रारम्भ से रहित होता है, वो ही तो अंतहीन होता है I ऐसा तत्त्व ही सनातन कहलाता है I
इसलिए अज शब्द का अर्थ, सनातन भी होता है I
ॐ भी प्रारंभ और अंत, दोनों से परे है, मुक्त है, इसलिए ॐ साक्षात्कार कालमुक्ति का भी मार्ग है I
- ॐ वेद बीज है … ॐ वेद गंतव्य है … वेदों के मूल और गंतव्य, दोनों में ॐ ही मिलेगा I इसलिए ॐ वेदों का बीज और गंतव्य, दोनों ही है I
वेदों का बीज, ब्रह्माण्ड का भी बीज है I एकमात्र ॐ ही ऐसा है जो दोनों है I
- ॐ सभी उत्कर्ष मार्गों का मूल और गंतव्य है … समस्त उत्कर्ष मार्गों के मूल और गंतव्य, दोनों में ॐ ही मिलेगा I
- ॐ ही तुरीयातीत है … चार दिशाएँ होती हैं चेतना की, जो इस प्रकार हैं…, जागृत, सुषुप्ति, स्वप्न और तुरीय या समाधि I
लेकिन जब योगी की चेतना, ॐ के बिंदु में विलीन हो जाती है, और इसके पश्चात वह योगी स्वयं ही स्वयं को नहीं देख पाता, तो यह अवस्था समाधितीत या तुरीयातीत होती है…, अर्थात तुरीय या समाधि से भी परे होती है I
ॐ का वास्तविक स्वरूप, निर्गुण निराकार है, जो आत्मा है, ब्रह्म है, और जो समाधितीत या तुरीयातीत ही है I
इसीलिए, जिस योगी की चेतना, ॐ के बिंदु में ही विलीन हो गयी, वह तुरीयातीत या समाधितीत ही होता है I तुरीयातीत या समाधितीत, यह दोनों शब्द आत्मा को ही दर्शाते हैं I
ऐसे योगी के लिए, समाधि या तुरिय का कोई भी अर्थ नहीं होता, क्यूंकि वह योगी इस समाधि या तुरिय की अवस्था से भी परे, तुरीयातीत एकात्मा होता है…, जो ब्रह्म ही है I वह योगी सभी में उस एकात्मा (ब्रह्म) को ही देखता है I
क्यूंकि वो योगी, यहाँ बतलाए गए भाव में ही बसा होता है, इसलिए उसके लिए चेतना की चारों दशाओं का कोई महत्व ही नहीं होता I
- वैदिक महावाक्य भी ॐ रूपी ब्रह्म को ही दर्शाते हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
ॐ ही काल है … अब ॐ के काल रूप में साक्षात्कार की दो प्रमुख दशाओं को बतलाता हूँ …
ॐ साक्षात्कार दो स्थानों में होता है, एक त्रिनेत्र में और दूसरा ब्रह्मरंध्र में I
ॐ के काल रूप के साक्षात्कार की प्रथम दशा … काल का चक्र स्वरूप …
त्रिनेत्र में ॐ लाल वर्ण का होता है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म के कार्य ब्रह्म या सृष्टिकर्ता स्वरूप को दर्शाता है I
जो योगी ॐ को अपने त्रिनेत्र कमल (या आज्ञा चक्र) में साक्षात्कार करेगा, वह योगी ॐ के काल रूप को, सदैव चलायमान, कालचक्र स्वरूप में ही साक्षात्कार करेगा I
कालचक्र सदैव ही चलित होता है, इसलिए ऐसा योगी, काल को चलित ही बोलेगा I
आगे बढ़ता हूँ …
और यही अवस्था उस योगी की भी होती है, जो काल को अपनी काया से बहार की ओर देखता है I
इसका अर्थ हुआ कि जब कोई योगी, काल को अपनी काया से बाहर की ओर देखता है, तब वो काल, उसके कालचक्र स्वरूप में ही साक्षात्कार होता है I
जब योगी, उस काल को अपनी काया से बाहर की ओर देखता है तो वह योगी, स्वयं को उस काल के चक्र रूप में ही बसा हुआ पाता है I
ऐसी दशा में, वह योगी उस काल को सदैव ही गतिशील और परिवर्तनशील रूप में देखता है, अर्थात वह योगी काल को कालचक्र स्वरूप में ही पाता है I
ऐसा योगी प्रकृति के मूल स्वरूप को पायेगा I और जहाँ अपने मूल में, प्रकृति ऊर्जा ही होती है, जो ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, सनातन अर्धांगनी, पूर्ण दिव्यता और प्रमुख दूती होती है I
ऐसे योगी का गंतव्य पथ, शाक्त मार्ग से होकर जाता है I
ॐ के काल रूप के साक्षात्कार की दूसरी दशा … काल का अखंड सनातन स्वरूप …
और ब्रह्मरंध्र में ॐ चमकदार पीले (या सुनहरे) वर्ण का होता है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म स्वरूप को दर्शाता है I
जो योगी उसी काल को काया के भीतर, अपने ब्रह्मरंध्र में साक्षात्कार करेगा, तब वह योगी, उसी काल को अखंड सनातन, अनादि अनंत स्वरूप में, अपने ही आत्मस्वरूप में पाएगा I
इसीलिए, जब हम काल को अपने भीतर, अपने ही ब्रह्मरंध्र में साक्षात्कार करते हैं, तब हम काल के महाकालात्मक ब्रह्म स्वरूप को, अपनी आत्मा में ही पा जाते हैं, और जहाँ वो आत्मा भी ॐ ही होती है I
इसीलिए, जब योगी ॐ को अपने भीतर, अपने ब्रह्मरंध्र में साक्षात्कार करता है, तो उस योगी को उसके आत्मस्वरूप में ही ॐ सिद्धि होती है, जिसके कारण उस योगी की चेतना, ॐ के बिंदु में ही विलीन होकर, ॐ ही हो जाती है I
और ऐसी दशा के पश्चात, वो योगी, स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाता I इस अध्याय में, इसी बिंदु को पूर्व में भी बतलाया गया था I
ऐसा योगी अवश्य बोलेगा, कि उसकी आत्मा का नाम ही ॐ है, जो अखंड सनातन काल स्वरूप है I
उस अखंड सनातन काल में ही यह जीव जगत बसा हुआ है I इसीलिए सबकुछ कालगर्भित ही है, जिसके कारण इस सिद्धि को सर्वगर्भ सिद्धी भी कहा जा सकता है I
कालचक्र और अखंड काल की सनातन योगावसथा … महाकाली महाकाल योग …
यह चित्र, त्रिनेत्र से थोड़ा ऊपर की ओर का है, और महाकाली महाकाल योग को दर्शाता है I
यह सिद्धि कालकृष्ण नामक सिद्धि से होकर ही जाती है, जो ग्रहस्त आश्रम की गंतव्य सिद्धि कहलाती है, और जिसके बारे में किसी बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
इस चित्र में, जो रात्रि के समान दशा है, वो ही काल का गंतव्य, महाकाल स्वरूप है I और इस चित्र में जो प्रकाश है, वो महाकाली ही हैं I लेकिन यह चित्र सांकेतिक है, न की वास्तविक, क्यूंकि इसके कुछ बिंदु मैंने दर्शाए ही नहीं हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
क्यूंकि शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव हैं, इसलिए जब वह योगी, उस शिव के महाकाल स्वरूप का साक्षात्कार, अपनी आत्मा में करता है, तो उसी समय पर, उसकी आत्मशक्ति महाकाली होके उसके समक्ष प्रकट हो जाती हैं I
यही महाकाल महाकाली योग, जो उस योगी के भीतर होता है, और जो भीतर के योगमार्ग का, अर्थात आत्मिक योगमार्ग का एक प्रमुख बिंदु है I
महाकाल महाकाली योग के पश्चात, जो उस योगी की आत्मा और आत्मशक्ति की योगावस्था में ही साक्षात्कार होता है, वह योगी उसी योग में बस जाता है I
और इस दशा के पश्चात, वो योगी पुनः कभी भी किसी भी काया रूप में लौट नहीं सकता, चाहे वह काया स्थूल देह के स्वरूप में हो, या सूक्ष्म देह के स्वरूप में हो या दैविक ही क्यों न हो I
वह योगी अपने ही आत्मस्वरूप में, कालतमा होके शेष रह जाता है, और उसकी आत्मशक्ति, समस्त कालचक्र में व्याप्त होके, उस कालचक्र की दिव्यता कहलाती है I
ऐसे महाकाली महाकाल योग में, महाकाल वो अखंड सनातन, अनादि अनंत निर्भेद सर्वव्याप्त काल रूप में होते हैं…, और महाकाली, कालचक्र की ऊर्जा स्वरूप में, अर्थात महाकाल की शक्ति और दिव्यता स्वरूप में I
और इस योग में, शक्ति से ही शक्तिमान को, और शक्तिमान से ही शक्ति को जाना जाता है I
इस योग में, शक्ति और शक्तिमान, अर्थात महाकाली और महाकाल, दोनों एक दुसरे के पूरक होते हैं I
इसलिए इस योग में, यदि शक्तिमान को जान लिया और उसकी शक्ति को नहीं जाना, या शक्ति को जान लिया लेकिन शक्तिमान को नहीं जाना … तो इन दोनों में से किसी को नहीं जाना I
इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में, इससे उच्च कोटि का योग, न कभी था, न ही कभी होगा I
यही महाकाल महाकाली योग, योग सुमेरु होता है…, लेकिन केवल ब्रह्माण्ड में…, ब्रह्माण्ड से परे की अवस्थाओं में नहीं I
.
- ॐ, प्रणव और प्राणत्मा …
प्रणव का अर्थ होता है, ब्रह्माण्ड के सर्वव्यापी प्राण शक्ति के देवता, और उस प्राण दिव्यता या शक्ति और उसका देवत्व तत्त्व I
जिसने ॐ के प्रणव स्वरूप को पा लिया, वह योगी के प्राण, ब्रह्माण्ड के प्राण में विलीन हो जाते हैं I ऐसे योगी को प्राणत्मा कहते हैं, और उसकी योग सिद्धि को प्रणव योग, ब्रह्मतत्त्व योग और सगुण शिव योग भी कह सकते हैं I
लेकिन क्यूंकि, ॐ प्रणव में बसा हुआ है और प्रणव ॐ में, इसीलिए, ॐ को प्रणव भी कहा जाता है I प्रणव को ही ब्रह्मतत्त्व, सगुण शिव और शुद्ध चेतन तत्त्व भी कह सकते हैं I
सांख्य मार्ग का चौबीसवाँ तत्त्व, जिसे प्रकृति कहा गया है, उसका दूसरा नाम प्रणव ही है I जीवात्मा के अंतिम (या गंतव्य) लय का मार्ग भी प्रणव से ही होकर जाता है I
इसलिए जिस योगी ने प्रणव का साक्षात्कार करके, प्रणव योग सिद्ध किया होता है, वह योगी, जगत जननी, जगत उत्पादक मूल प्रकृति अर्थात, दुर्गा का स्वरूप भी पा जाता है I
अपने जगत जननी, सर्वमाता स्वरूप में, प्रणव ही ब्रह्माण्ड की मूल ऊर्जा, मूल शक्ति, मूल दिव्यता, मूल प्राण है, जिसे योगीजनों ने, मूल प्रकृति भी कहा है I और उसी प्रणव के शक्ति स्वरूप को दुर्गा कहते हैं I
मूल का कोई मोल नहीं होता…, मूल ही सबका मूल होता है I
वह मूल जो ऐसा नहीं होता, वो वास्तव में तो मूल ही नहीं होता I
जिसका ही मूल नहीं है, और जो सबका मूल है, वह ही अविनाशी, सनातन, अपराजित, सर्वविजयी होता है I
इन सब शब्दों का अर्थ भी दुर्गा ही होता है I और क्यूंकि यह सभी नाम प्रणव को ही दर्शाते हैं, इसलिए जो प्रणव है, वो दुर्गा भी है I
प्रणव ही सगुण शिव है, और उसी प्रणव को दुर्गा भी कहा जाता है I
अब मैं प्रणव को बतलाता हूँ …
यह प्रणव शब्द, ॐ और ॐ शक्ति, दोनों को दर्शाता है I
यह प्रणव शब्द, सगुण शिव और उनकी शक्ति जो दुर्गा कहलाती हैं, उन दोनों को दर्शाता है I
पुरुष और प्रकृति की अभिव्यक्ति भी उन्हीं सगुण शिव से हुई थी, जो प्रणव ही हैं I इसलिए अपनी वास्तविकता में प्रणव, पुरुष भी है, और प्रकृति भी है I
पुरुष और प्रकृति रूप में, प्रणव ही ब्रह्म की सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों ही स्वरूपों में अभिव्यक्ति कहलाता है I
हिरण्यगर्भ ब्रह्म, सहित समस्त देवी देवताओं की मूल दिव्यता (या मूल शक्ति) का नाम प्रणव है I
इस जीव जगत को जो प्राण चला रहा है, उसके मूल सनातनी अविनाशी स्वरूप को ही प्रणव कहते हैं I
और प्रणव ॐ की शक्ति ही है, जो ॐ को घेरे होती है, ताकि ॐ का साक्षात्कार वह मनीषी न कर सके, जो उस साक्षात्कार का पात्र ही नहीं है I
इसीलिए अपने प्रकृति स्वरूप में, प्रणव ही माया देवी, अर्थात ब्रह्म शक्ति का वो स्वरूप है, जिसने ॐ को ढका हुआ है I लेकिन ऐसा होने पर भी, प्रणव वो अव्यक्त नहीं है, जिसके बारे में वैदिक वाङ्मय में बताया गया है I
जिस साधक ने, सर्वत्र को, स्वयं ही स्वयं से त्याग दिया, वो साधक ही पात्र होता है प्रणव के साक्षात्कार का I
अब कुछ और भी बतलाता हूँ, इसलिए इस पर भी ध्यान देना …
ॐ के प्रणव रूपी साक्षात्कार में, प्रकृति ही ब्रह्म होती है I यही कारण है, कि वैदिक वाङ्मय में, प्रकृति को ब्रह्म भी कहा गया है I
वास्तव में, प्रकृति का ब्रह्म स्वरूप ही प्रणव कहलाता है I और अपने ही मूल ऊर्जा स्वरूप में, प्रणव ही प्रकृति कहलाता है I
प्रकृति, शक्ति, देवी आदि शब्दों के गंतव्य भी प्रणव को ही दर्शाते हैं I
मूल शक्ति का नाम भी प्रणव ही है I प्रकृति के गंतव्य स्वरूप को भी प्रणव ही कहते हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब प्रकृति शिवात्मिका होती है, तो वो प्रणव कहलाती है I
इसलिए, जिस योगी ने प्रणव सिद्धि पा ली, वह योगी ही शिवत्व को पाता है I शिवत्व का मार्ग भी प्रणव से ही होकर जाता है I
जब प्रकृति ब्रह्मात्मिका होती है, तो भी वो प्रणव ही कहलाती है I
इसलिए, जिस योगी ने प्रणव सिद्धि पा ली, वह योगी ही ब्रह्मत्व को पाता है I ब्रह्मत्व का मार्ग भी प्रणव से ही होकर जाता है I
जब प्रकृति विष्णुअत्मिका होती है, तो भी वो प्रणव ही कहलाती है I
इसलिए, जिस योगी ने प्रणव सिद्धि पा ली, वह योगी ही विष्णुत्व को पाता है I विष्णुत्व का मार्ग भी प्रणव से ही होकर जाता है I
इसलिए त्रिदेवों के स्वरूपों, उनके मार्गों और उनके कृत्यों में तारतम्य होने पर भी, उन त्रिदेवों के वो बिन्दु जो प्रणव से जुड़े होते हैं…, उनमें तारतम्य नहीं होता I
प्रणव साक्षात्कार के दृष्टिकोण से, त्रिदेव और त्रिदेवी के मूल और गंतव्य, दोनों में वो प्रणव ही हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और उसी प्रणव साक्षात्कार के दृष्टिकोण से, प्रणव ही पञ्च देवों में स्वयंअभिव्यक्त हुआ है I इसलिए प्रणव योग से पञ्च देवों और उनके पञ्च कृत्यों की सिद्धि भी होती है I
जिस योगी ने पञ्च देवों के सभी (या पांचो) कृत्यों को सिद्ध किया है, वो ही अतिमानव कहलाता है I यह अतिमानव सिद्धि पञ्च ब्रह्म और माँ गायत्री के पाँच मुखों के योग रूपी साक्षात्कार से प्राप्त होती है I
और जिस योगी ने इन पञ्च कृत्यों में से, एक या एक से अधिक, लेकिन पांच से कम कृत्यों को सिद्ध किया है, वो योगी महामानव कहलाता है I यह सिद्धि भी उन्हीं पञ्च ब्रह्म के एक या एक से अधिक, लेकिन पांच से कम मुखों के साक्षात्कार से प्राप्त होती है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और इन सबके अतिरिक्त, अपनी वास्तविकता में, प्रणव ही ॐ रूपी ब्रह्म की वो अभिव्यक्ति है, जिसमें वो ॐ रूपी ब्रह्म ही अपने मूल तात्त्विक स्वरूप में अभिव्यक्त हुए हैं I
और क्यूँकि मूल अभिव्यक्ति ही उसका अपना अभिव्यक्ता होती है, इसलिए वैदिक वाङ्मय में प्रणव (या ब्रह्मतत्त्व) को ॐ (और ब्रह्म) भी कहा गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और क्यूंकि शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव, इसीलिए ऐसा योगी, शिव और शक्ति दोनों के स्वरूप में स्वयं को पाता है I
प्रणव के ऐसे स्वरूप के साक्षात्कार से, वह योगी, शाक्त मार्ग के गंतव्य, मूल प्रकृति या दुर्गा के स्वरूप को भी पा सकता है I ऐसा योगी साक्षात् दुर्गा का सगुण सकार मानव देहि स्वरूप भी हो सकता है I
और इसके साथ साथ, ऐसा शिवत्व प्राप्त योगी, शिव का भी स्वरूप हो सकता है I
विरले योगी ही ऐसे होते हैं, जो शिवत्व के पुरुष और प्रकृति, दोनों स्वरूपों के धारक होते हैं I ऐसा योगी ही उन सगुण आत्मा, अर्धनारीश्वर का स्वरूप होता है I
कई महायुग बीतने पर, काल की प्रेरणा से और काल की शक्ति के आलम्बन से, ऐसा कोई योगी किसी स्थूल धरा पर लौटाया जाता है I
यहाँ शब्द लौटाया जाता है, ऐसा कहा है…, न कि लौटता है, ऐसा कहा है I इसलिए इस बिंदु पर ध्यान देना I
अब इसी प्रणव सिद्धि के विज्ञान में, आगे बढ़ता हूँ …
इस शरीर रूपी काया को चलाने वाले के स्वरूप में, प्रणव ही दस प्राणों के रूप में है I
दस प्राण ही पहले के दस रुद्र होते हैं I और आत्म शक्ति के स्वरूप में, प्रणव ही ग्यारहवें रुद्र हैं I
जब कोई बहुत विरला योगी, अपने ही शरीर में, ग्यारहवें रुद्र को अपनी आत्मशक्ति के रूप में पाता है, तब उसके दस प्राण आपस में योग करके, उस सर्वसमता को चले जाते हैं, जिसका रंग हीरे के प्रकाश जैसा होता है I
यह दस प्राणों का योग, उस योगी के शरीर में, एक हीरे जैसे प्रकाश के समान दिखाई देता है I इसको ही योगीजनों ने, रौद्री (या रुद्र की शक्ति) कहा था I
और इस दशा के पश्चात, वह योगी रुद्र रौद्री योग सिद्धि, अपने पिण्ड रूपी शरीर के भीतर ही पाता है I लेकिन इस सिद्धि के बारे में किसी बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
अपने चलित अभिव्यक्त स्वरूप में, प्रणव ही प्राण कहलाता है I
और अपने मूल अभिव्यक्ता स्वरूप में, प्राण को ही प्रणव कहते है I
इसलिए, अभिव्यक्ति में प्राण है, और मूल में प्रणव I
यही कारण है, कि ज्ञानी योगीजन, प्रणव और प्राण में कोई भेद नहीं करते I
प्रणव के ऐसे स्वरूप का ज्ञानी और धारक, प्राणत्मा सिद्धि को भी पा सकता है I
यह प्राणत्मा की दशा, प्रणव के प्रकाश रूप की होती है, इसीलिए यह सिद्धि भी सम्प्रज्ञात समाधि का ही भाग है I
अब और आगे बढ़ता हूँ …
अपने अन्धकारमय (या प्रकाश रहित) स्वरूप में, प्रणव ही शून्य कहलाता है I
सारे ब्रह्माण्ड की ऊर्जा, शून्य से ही उदय होती है और शून्य में ही विलीन होती है I इसलिए, इस समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का केंद्र, शून्य में ही होती है I
इस स्वरूप का साक्षात्कार और ज्ञान, शून्य समाधि से होता है I यह प्रकाश रहित समाधि होती है, जो प्रणव के ही उस अचलित स्वरूप को दर्शाती है, जिसके भीतर समस्त जीव जगत चलायमान है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और वो ही प्रणव, अपने ही चलित और अचलित, दोनों से रहित स्वरूप में, शून्य ब्रह्म कहलाता है I वो शून्य ब्रह्म ही नारायण है I प्रणव के इस स्वरूप का ज्ञान, असम्प्रज्ञात समाधि से होता है I
और वही प्रणव, अपने ही संस्कार रहित स्वरूप में, अर्थात समस्त संस्कारों से परे स्वरूप में, निर्बीज कहलाता है I इसीलिए, ॐ साक्षात्कार से, निर्बीज समाधि का मार्ग प्रशस्त होता है I
और उसी प्रणव को उसके वास्तविक स्वरूप में, निर्गुण निराकार कहते हैं, जिसका शब्दात्मक स्वरूप ओ३म् है, और जिसका लिपिलिंगात्मक स्वरूप ॐ का चिंन्ह है I
- ॐ ब्रह्मलिंग है … लिंग शब्द का अर्थ होता है, चिन्ह, सूचक, द्योतक इतियादी … ॐ ही ब्रह्म है, और अपने ही लिपि रूपी चिंन्ह में, ॐ ब्रह्मलिंग ही है I
- ॐ पूर्ण है … पूर्ण का शब्द ॐ को दर्शाता है … यह जो पूर्ण शब्द है, यह ॐ को ही दर्शाता है I जो पूर्ण होता है, उसे ही वेदों में ब्रह्म कहा गया है I
तो अब इस बिंदु को बतलाता हूँ …
ब्रह्म के तीन प्रधान स्वरूप होते हैं I
ब्रह्म के जो तीन प्रधान स्वरूप हैं, वो इस प्रकार हैं…, निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार I
ॐ में इन तीनों स्वरूपों का दर्शन एक साथ ही होता है I
और कोई भी दशा नहीं है, जिसमें ब्रह्म के इन तीनों स्वरूपों का साक्षात्कार, एक साथ और अकस्मात् होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन ब्रह्म के अभी बतलाए गए प्रधान स्वरूपों के अंतर्गत, कुछ उप प्रधान स्वरूप भी होते हैं, जिनका ज्ञान भी ॐ मार्ग या ब्रह्मपथ में ही होता है I इन स्वरूपों का ज्ञान, ॐ के प्रणव रूपी अभिव्यक्ति में होता है I
यह स्वरूप इस प्रकार हैं …
- निर्गुण निराकार स्वरूप के अंतर्गत, शून्य ब्रह्म होता है I
- सगुण निराकार स्वरूप के अंतर्गत, सगुण-निर्गुण निराकार होता है I इसके अतिरिक्त, इसमें शून्य का निराकारी रूप भी होता है, जिसमें ब्रह्माण्ड भी बसाया गया है I
- सगुण साकार स्वरूप के अंतर्गत, सगुण-निर्गुण साकार होता है I और इसके अतिरिक्त, इसमें शून्य का बिंदु स्वरूप होता है, जिसमे समस्त योग दशाओं को बसाया गया है, और जिसकी शक्ति को माँ महाकाली कहते हैं I बिन्दु शून्य की माँ महाकाली, दस हाथ वाली होती हैं I
और इन सबके अतिरिक्त …
- ॐ ही ब्रह्म का प्रथम शब्द है, इसलिए ॐ शब्दात्मक स्वरूप में भी है I
- ॐ ही ब्रह्म का प्रथम लिंग है, इसलिए ॐ ही ब्रह्मलिंगात्मक स्वरूप में भी है I
- ॐ ही अक्षर है, जो ब्रह्म की रचना में प्रथम है, इसलिए ॐ ब्रह्म का अक्षरात्मक स्वरूप भी है I
और क्यूंकि इस स्वरूपों के अतिरिक्त, ब्रह्म की रचना में और कुछ है ही नहीं, इसलिए, ब्रह्म अर्थात, ॐ को पूर्ण भी कहा गया है I
- ॐ अक्षर है … अक्षर शब्द ॐ के ही अनश्वर ब्रह्म स्वरूप को दर्शाता है I और यही अक्षर शब्द, अपने प्रणव स्वरूप में, शक्ति, प्राण और प्रकृति के अनश्वर स्वरूप को भी दर्शाता है I
इसीलिए, अक्षर शब्द, ॐ के ब्रह्म और प्रकृति, दोनों स्वरूपों का द्योतक और सूचक भी है I
- आयाम चतुष्टय के गंतव्य में भी ॐ ही है …
आयाम चतुष्टय का अर्थ है, चार आयाम, जो काल, आकाश, दिशा और दशा कहलाते हैं I
इन्ही चार आयामों में, ब्रह्मा की समस्त रचना रखी जा सकती है Iतो अब इस तथ्य को बताता हूँ …
- काल का गंतव्य, अज या सनातन होता है, जो ॐ का ही द्योतक है I
- आकाश का गंतव्य, अनंत होता है, जो ॐ के ही ब्रह्म स्वरूप का सूचक है I
- दिशा का अर्थ होता है, उत्कर्ष मार्ग … मार्ग का गंतव्य, सर्वदिशा व्याप्त, प्रणव ही होता है, जो ॐ के प्रकृति और पुरुष, दोनों अवस्थाओं का सूचक है और जहाँ प्रकृति और पुरुष, दोनों ही ब्रह्म होते हैं I
- दशा का गंतव्य, सर्वव्याप्त होता है, जो ॐ के ब्रह्म स्वरूप को दर्शाता है, और जो मूल प्रकृति की ऊर्जा के सर्वव्याप्त स्वरूप का भी द्योतक है I
महावाक्य और ॐ …
अब मैं वैदिक महावाक्य में सूक्ष्म रूप में कही गई ब्रह्म की प्रधान अवस्थाओं को बतलाता हूँ I
लेकिन इस भाग में, मैं कुछ संकेतिक भी बतलाऊँगा, तो इस भाग का अर्थ साधकगण थोड़ा ध्यान देकर ही जान पाएंगे …
- ऋग्वेद के महावाक्य, प्रज्ञानं ब्रह्म में, जो प्रज्ञानं शब्द है, वह ब्रह्म की स्व:प्रकाश अवस्था को दर्शाता है I स्वप्रकाश अवस्था को ही निर्गुण निराकार कहते हैं I
- सामवेद के महावाक्य, तत्त्वमसि में, जो तत शब्द है, वह ब्रह्म या ॐ के सगुण स्वरूप को, अर्थात ब्रह्म के सगुणत्मक स्वरूप को दर्शाता है I तत शब्द का अर्थ सगुण ब्रह्म होता है, क्यूंकि निर्गुण को कभी भी तत शब्द से पुकार नहीं सकते I
- अथर्ववेद के महावाक्य, अयम् आत्मा ब्रह्म में, जो आत्मा शब्द है, वह ब्रह्म के तीनों प्रधान स्वरूपों को दर्शाता है I
इसलिए, मेरे एक पूर्व जन्म में, मेरे पिता जो मेरे गुरु भी थे, और प्रजापति स्वरूप ब्रह्मऋषि थे, ब्रह्म स्थित आयुर्वेदाचार्य भी थे, उन्होंने मेरे सहित, अपने सभी मनस पुत्रों को अथर्ववेद में जाने का आदेश दिया था I
और तब से, हम सभी मनस पुत्रों का मूल मार्ग अथर्ववेद ही रहा है I चाहे हम किसी भी वेद को जाएँ, लेकिन भाव साम्राज्य में मूल, अथर्ववेद का ही रहता है I
इसी बिंदु में एक और बात …
सूर्य, जो हिरण्यगर्भ की अभिव्यक्ति है, उससे बड़ा न कोई आयुर्वेदाचार्य हुआ है, न ही कोई कभी हो सकता है I इसीलिए, सूर्य भी हिरण्यगर्भ का आयुर्वेदाचार्य स्वरूप भी है I मेरे उस पहले बतलाये गए जन्म में, मेरे मनस पिता और गुरु, ऐसे ही थे I
- यजुर्वेद के महावाक्य, अहं ब्रह्मास्मि में, अस्मि शब्द ब्रह्म की वृत्तिहीन अस्मिता को दर्शाता है I और इसके अतिरिक्त, यही अहम् शब्द उस ब्रह्म की विशुद्ध अहंता को दर्शाता है I
अब इसको बतलाता हूँ …
विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं I जिस योगी का अहम् ही विशुद्ध हो गया, वो योगी ब्रह्म को चला गया I
और वृत्तिहीन अस्मिता को रुद्र कहते हैं I जो रुद्र को चला गया, वो स्वयं को, अर्थात, अपनी आत्मा को ही चला गया I
अहम् नीले वर्ण का होता है, तमोगुणी होता है I और अस्मिता, पिंगल वर्ण की होती है, रजोगुणी होती है I
जब नील वर्ण के अहम् का, पिंगल वर्ण की अस्मिता से योग होता है, तो इसी योगावस्था को वेद मनिषियों ने कृष्ण पिंगल रुद्र कहा है I
नीला वर्ण अघोर का होता है, जिसका शब्द अअअअअहम … अअअअअहम, ऐसा होता है I और यहाँ बतलाए गए, पिंगल वर्ण का शब्द आआआआला … आआआआला, ऐसा होता है I
जब योगी के शरीर में ही, विशुद्ध अहम् नाद का वृत्तिहीन अला नाद से योग होता है, तो ऐसा योगी कृष्ण पिंगल सिद्धि का धारक होता है I और इसके पश्चात, वह योगी कृष्ण पिंगल रुद्र का ही सगुण साकार स्वरूप हो जाता है I
जो अहम् शब्द है, वो ही बौद्ध धर्म में, प्राथमिक बुद्ध समन्तभद्र कहलाता है I और जो आला शब्द बतलाया गया है, वो ही इस्लाम में अल्लाह ताला के नाम से पुकारा गया है, और उसी को बौद्ध धर्म में, प्राथमिक बुद्ध आला भी कहते हैं I
ऊपर बताए गए महावाक्यों का ज्ञान भी ॐ मार्ग के अंतर्गत ही आता है, इसलिए इनको यहाँ डाला गया है I लेकिन इन सब दशाओं के बारे में, कभी और बतलाऊँगा नहीं तो यह अध्याय बहुत ही लम्बा हो जाएगा I
ॐ और आत्मस्थिति …
योगी की चेतना जब ॐ के ऊपर के बिन्दु में विलीन होती है, और इसके पश्चात वो स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती, तो इस स्थति के बाद, उस चेतना के लिए ऐसा कहा जा सकता है …
- वो है, लेकिन तब भी नहीं है I
- वो नहीं है, लेकिन तब भी है I
- जो दशा ऐसी होती है, उसको ही आत्मस्थिति कहते हैं I
- और ऐसी आत्मस्थिति, को ही ब्रह्म कहा जाता है I
यह आत्मस्थिति निर्गुण ब्रह्म को दर्शाती है I और इसके साथ साथ, यह आत्मस्थिति, निर्गुण ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों को भी दर्शाती है I
इस स्थति में, ऐसा होता है …
- अहम् विशुद्ध होता है, इसीलिये ब्रह्म के समान सर्वव्यापत होता है I ऐसे योगी का अहम् ही अहमाकाश हो जाता है I
- मन विकार रहित होता है, इसलिए ब्रह्म के समान ब्रह्म में ही पूर्ण स्थिर, परिवर्तन रहित हो जाता है I ऐसे योगी का मन ही मनाकाश हो जाता है I
- चित्त संस्कार रहित होता है, इसलिए ब्रह्म के समान, चिदात्मक होता है, और ब्रह्म रूपी चिदाकाश के समान हो जाता है I
- बुद्धि वृत्तिहीन होती है, इसलिए ब्रह्म के समान प्रज्ञानात्मक होती है, और ब्रह्म रूपी ज्ञानाकाश के समान हो जाता है I
- प्राण हीरे के प्रकाश से समान होते हैं, और ऊपर की ओर उठते रहते हैं, और अपने गंतव्य ब्रह्मरंध्र में स्थित, प्रणव में विलीन होते ही रहते हैं I इसलिए, प्राण ही प्रणव हो जाता है I
- ऐसे योगी अपने माया जनित घट या पिंड स्वरूप में रहता हुए भी, अपने ही पिण्ड रूपी शरीर से वास्ता नहीं रखता, इसलिए उसका घट रूपी प्रपंच टूट जाता है और उसका घटाकाश ही महाकाश हो जाता है I
- ऐसे ही अवस्था को योगी जनों ने आत्मस्थिति कहा है, जो ॐ साक्षात्कार से ही प्राप्त होती है I
और जो योगी आत्मस्थिति को प्राप्त होता है, वह स्वयं ही स्वयं में रमण करता है, क्यूंकि आत्मस्थिति का और कोई मार्ग या दशा (अवस्था) है ही नहीं I
ऐसा योगी, सब में अपनी ही आत्मा को, और अपने में, सबकी आत्मा को देखता है I इसलिए, ऐसे योगी का आत्मस्वरूप ही सर्वात्मा कहलाता है I
उसके लिए न बंधन होता है न ही मुक्ति होती है I वो इन दोनों दशाओं को त्यागता है I
और इन दोनों से, अर्थात बंधन और मुक्ति से, स्वतंत्र होकर ही रह जाता है I वास्तव में तो ऐसा योगी ही मुक्तात्मा है I
वो रचना में प्रतीत होता हुआ है, वास्तव में ब्रह्म की समस्त रचना से परे ही होता है I और इसके साथ साथ, वो रचना से अतीत होता हुआ भी, समस्त रचना में समान रूप में ही बसा होता है I
ऐसा पूर्ण स्वतंत्र योगी, उस कैवल्य को दर्शाता है, जिसको वेद मनिषियों ने, आत्मा और ब्रह्म, केवल और कैवल्य, मुक्ति और मोक्ष, और निर्वाण आदि शब्दों से कहा था I
यह सब भी ॐ मार्ग के अंतर्गत ही है I
और इस अध्याय के अंत में …
जो केवल ही हो गया, उसको सिद्धियों से क्या लेना देना I
इसलिए, जब योगी की चेतना उस निर्गुण निराकार स्वयंप्रकाश में विलीन हो जाती है, तो वो योगी पूर्व की सारी सिद्धियों को त्याग देता है I
ॐ साक्षात्कार के पश्चात, पूर्व की कोई भी सिद्धि नहीं रहती I
सभी पूर्व की सिद्धियां, अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में, विलीन हो जाती है, और वो योगी पूर्ण स्वतंत्र हो जाता है I
इसलिए, अपने गंतव्य स्वरूप में, ॐ साक्षात्कार सिद्धितीत अवस्था का ही मार्ग है I
और भीतर की अवस्था से वो योगी, पूर्ण सन्यासी होकर, उसके आत्मा रूपी निर्गुण ब्रह्म के समान, तुरीयातीत और सर्वातीत होकर ही शेष रह जाता है I
और अब इस बात पर यह अध्याय पूर्ण भी हुआ I
तमसो मा ज्योतिर्गमय I
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra