यहाँ पर लय मार्ग, जीव का लय, भारत भारती लय मार्ग, भारत भारती योग, वेदांत मार्ग, पिण्ड ब्रह्माण्ड योग, ब्रह्माण्ड ही पिण्ड, पिण्ड ही ब्रह्माण्ड, सगुण साकार, सगुण साकार ब्रह्म, सगुण निराकार, सगुण निराकार ब्रह्म, ब्रह्म ही ब्रह्म रचना, ब्रह्म रचना ही ब्रह्म, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड ही ब्रह्म, सिद्ध शरीर, सिद्ध लोक, देव शरीर, देवलोक, मुमुक्षुता, मुमुक्षु आदि बिंदुओं पर बात होगी I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I
यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का पहला अध्याय है I
लय मार्ग क्या है, लय पथ क्या है, ब्रह्माण्ड त्याग का मार्ग, सिद्ध शरीर और सिद्ध लोक, सिद्ध शरीर, सिद्ध लोक, सिद्ध शरीर और मुक्तिमार्ग, सिद्ध लोक और मुक्तिमार्ग, सिद्ध शरीर क्या है, सिद्ध लोक क्या है, सिद्ध लोक में गति, देवलोक में गति, देवलोक क्या है, देव शरीर क्या है, पिण्ड ब्रह्माण्ड योग सिद्धि, ब्रह्माण्ड ही पिण्ड है, पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है, जीव ही जगत है, जगत ही जीव है, ब्रह्म सगुण साकार है, सगुण साकार ब्रह्म क्या है, ब्रह्म सगुण निराकार है, सगुण निराकार ब्रह्म क्या है, ब्रह्म ही ब्रह्म रचना हुआ है, ब्रह्म रचना ही ब्रह्म है, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड हुआ है, ब्रह्माण्ड ही ब्रह्म है, जीव जगत ही ब्रह्म, ब्रह्म ही जीव जगत, जीव जगत ही ब्रह्म है, ब्रह्म ही जीव जगत हुआ है, भारत भारती लय मार्ग और वेदांत मार्ग, भारत भारती योग ही लय मार्ग है, …
इस अध्याय श्रंखला के प्रारम्भ और इस अध्याय पर जाने से पूर्व, वह बिंदु पुनः बता रहा हूँ, जिनको पूर्व के अध्यायों में कहीं न कहीं कहा ही गया है I
यह पिण्ड ब्रह्माण्ड, निर्गुण की अभिव्यक्ति ही है I
निर्गुण ब्रह्म अपनी अभिव्यक्ति रूप में जीव जगत हुआ है I
निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सगुण निराकार और सगुण साकार हुआ है I
सगुण साकार और सगुण निराकार भी निर्गुण ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं I
न अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से… न ही अभिव्यक्ता अपनी अभिव्यक्ति से पृथक है I
ऐसा होने के कारण …
समस्त जीव जगत भी ब्रह्म ही है I
जीव जगत के प्रत्येक भाग भी वही ब्रह्म ही है I
अपनी जीव जगत रूपी अभिव्यक्ति में ही निर्गुण ब्रह्म लय हुआ है I
यह इस अध्याय श्रंखला में बताए जाने वाले लय मार्ग का एक मुख्य बिंदु है I
और इसके कारण…
पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है I
ब्रह्माण्ड ही पिण्ड हुआ है I
पिण्ड ब्रह्माण्ड भी ब्रह्म के स्वरूप ही हैं I
ब्रह्म ही पिण्ड ब्रह्माण्ड रूप में अभिव्यक्त है I
ब्रह्म इन पिण्ड ब्रह्माण्ड के समस्त रूपों में ही लय हुआ है I
यह भी लय मार्ग का एक अभिन्न बिंदु है I
और इसके अतिरिक्त…
स्थूल काया ब्रह्माण्ड के भीतर बसी हुई है I
काया के भीतर समस्त ब्रह्माण्ड भी बसा हुआ है I
काया के भीतर का ब्रह्माण्ड सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में है I
ब्रह्म की इच्छाशक्ति से प्रकट प्राथमिक ब्रह्माण्ड, सूक्ष्म सांस्कारिक है I
यदि आत्म-ब्रह्म को जानना है, तो अपने पिण्डत्व और ब्रह्माण्डत्व को जानो I
अपने भीतर के ब्रह्माण्ड को जाने बिना, न आत्मा को … न ही ब्रह्म को जान पाओगे I
आत्मा ही ब्रह्म है, जो जीव जगत के सभी भाग होकर, उन भागों के भीतर ही लय हुआ है I
यह इस अध्याय श्रृंखला के लय मार्ग का एक प्रमुख बिंदु है I
तो इनका अर्थ हुआ कि…
जीव ही जगत है I
जगत ही जीव रूप आया है I
जीवत्व से ही जगतत्व का मार्ग प्रशस्त है I
जीवत्व के भीतर ही जगतत्व का साक्षात्कार होगा I
जगत के भीतर जीव बसे हैं, और जगत भी जीवों के भीतर ही है I
जीव और जगत दोनों ही जीवत्व और जगतत्व में समान रूप में बसे हुए हैं I
जिसका जीवत्व ही जगतत्व और जगतत्व ही जीवत्व हुआ है, वही योगी लय हुआ है I
अब और भी आगे बढ़ता हूँ…
और जहाँ वह लय मार्ग भी तब प्रशस्त होगा, जब…
योगी ब्रह्माण्ड धारणा को पूर्णरूपेण पाएगा I
योगी की काया के भीतर का ब्रह्माण्ड जागृत हो जाएगा I
उस आंतरिक ब्रह्माण्ड की दशाएं योगी के सिद्ध शरीरों के स्वरूप में प्रकट होंगी I
ऐसी दशा में…
वह सिद्ध शरीर, योगी की काया के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाओं को दर्शाते होंगे I
वह सिद्ध शरीर योगी की काया के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाओं के स्वरूप ही होंगे I
काया में प्रकट होकर, वह सिद्ध शरीर अपने–अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होते जाएंगे I
यह भी इस अध्याय श्रंखला में बताए जा रहे लय मार्ग का अभिन्न अंग है I
और जहाँ…
वह लय मार्ग पाशुपत मार्ग से ही जाता है I
वह लय मार्ग भी पञ्च मुखा सदाशिव से होकर जाएगा I
अंततः उसी लय मार्ग में ही योगी अष्ट मुखी सदाशिव को पाएगा I
इस लय मार्ग में वह योगी, पञ्च और अष्ट मुखी सदाशिव की प्रदक्षिणा करेगा I
इस मार्ग का अष्टमुखा सदाशिव भी, पञ्च ब्रह्म और पञ्चमुखा सदाशिव का योग होगा I
इस मार्ग का अष्टमुखी सदाशिव भी शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा मार्ग से साक्षात्कार होगा I
इस अष्टमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग का सिद्ध भी आत्मब्रह्म के समान लय हुआ होगा I
यही पञ्च मुखी सदाशिव और अष्ट मुखी सदाशिव इस अध्याय श्रंखला में बताए जा रहे लय मार्ग के अभिन्न बिंदु हैं I
और जहाँ…
इस समस्त लय प्रक्रिया का नाता भारत भारती योग से ही होगा I
यह लय मार्ग, भारत ब्रह्मा और भारती सरस्वती की ओर ही लेकर जाएगा I
इस मार्ग में भरत ब्रह्म ही महाकारण हैं और भारती विद्या महाकारणीय शक्ति I
इस मार्ग में भरत ब्रह्म ही महाब्रह्माण्ड हैं… भारती विद्या महाब्रह्माण्डीय दिव्यता I
इन्ही भारत नामक ब्रह्मा और भारती नामक सरस्वति का योगमार्ग ही लयमार्ग है I
और जहाँ…
यह समस्त लय प्रक्रिया भी साधक के भीतर ही चल रही होगी I
यह लय प्रक्रिया स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य और सार में बसी हुई होगी I
इस लय प्रक्रिया में योगी ही लय हो रहा होगा और योगी ही लय क्षेत्र भी होगा I
और इस लय मार्ग की प्रक्रिया में योगी ही लयत्व के शिखर को दर्शाता हुआ होगा I
इसका अर्थ हुआ कि…
जो लय हो रहा होगा, वह योगी ही होगा I
और जिस–जिसमें यह लय हो रहा होगा, वह भी वही योगी होगा I
यह लयमार्ग भी वैसा ही होगा, जैसा ब्रह्म का अपने ब्रह्माण्ड रूप में लय का मार्ग था I
ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि…
जो लय हो रहा होगा, वह योगी के पृथक पिण्ड स्वरूप होंगे I
जिसमें लय हो रहा होगा, वह योगी का महाब्रह्माण्ड स्वरूप होगा I
योगी के शरीर में ही वह पिण्ड रूपी सिद्ध शरीर प्रकट हो रहे होंगे I
योगी के शरीर में ही वह महाब्रह्माण्ड होगा, जिसमें सबकुछ लय होगा I
जो लय प्रक्रिया में इसका साक्षीमात्र होगा, वह योगी का आत्मस्वरूप होगा I
और योगी का आत्मस्वरूप ही उस योगी का वास्तविक स्वरूप, आत्मब्रह्म है I
जैसे ब्रह्म अपनी अभिव्यक्ति का साक्षी होकर उसमें लय हुआ है, वैसा ही वह योगी होगा I
यह भी इस लय मार्ग का एक प्रधान बिंदु है I
ऐसा भी इसलिए संभव होता है, क्यूंकि…
निर्गुण ब्रह्म स्वयं ही ब्रह्माण्ड और पिण्ड रूप में अभिव्यक्त हुआ है I
पिण्ड ब्रह्माण्ड ही निर्गुण निराकार ब्रह्म का सगुण साकार और सगुण निराकार रूप है I
निर्गुण निराकार भी अपने ही सगुण साकार और सगुण निराकार रूप में लय हुआ है I
जैसे ब्रह्म, पिण्ड ब्रह्माण्ड में समानरूपेण और पूर्णरूपेण लय हुआ है, वैसे ही लय वह योगी भी होगा जो इस मार्ग पर चलित हुआ होगा I
और इसके साथ साथ…
निर्गुण निराकार, सगुण साकार और सगुण निराकार की अद्वैत योगदशा महाब्रह्माण्ड है I
ऐसी अद्वैत योगदशा में ही भारत भारती योग साक्षात्कार और सिद्ध होता है I
इस लय प्रक्रिया के अंत में योगी इसी बिंदु का साक्षी होकर ही रह जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
जब साधक इस लय मार्ग पर जाने का पात्र बन जाता है, तब…
साधक की काया के भीतर समस्त प्रधान, प्रमुख और मूल ब्रह्माण्डीय दशाओं से संबद्ध सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होने लगते हैं I
और स्वयं प्रकट होकर वह सभी सिद्ध शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय भी होने लगते हैं I
और इस प्रक्रिया से जाकर जो होगा, वह ऐसा होगा I साधक के भीतर के…
ब्रह्माण्ड का सगुण साकार स्वरूप वह सिद्ध शरीर होंगे I
ब्रह्माण्ड का सगुण निराकार स्वरूप वह ब्रह्माण्डीय दशाएं होंगी I
ब्रह्माण्ड का सगुण साकार स्वरूप ही सगुण निराकार ब्रह्माण्ड में लय होगा I
और यह सब जो इस अध्याय श्रृंखला के लय मार्ग और प्रक्रिया के अंग ही हैं, वह…
उस योगी की काया के भीतर ही स्वयंचलित हो रहा होगा I
वह योगी भी वही होगा, जो इस लयमार्ग पर गमन का पात्र हुआ होगा I
स्वयंचलित होने के कारण, उस योगी का इसपर कोई नियंत्रण भी नहीं होगा I
नियंत्रण न होने के कारण, योगी न इस प्रक्रिया का चालक, न धारक, न कुछ और होगा I
ऐसा होने के कारण, योगी इस प्रक्रिया का और इसके मार्ग का भी साक्षीमात्र ही रह जाएगा I
जैसे ब्रह्म अपनी जीव जगत रूपी अभिव्यक्ति का साक्षीमात्र होकर ही उसमें लय हुआ था, वैसे ही यह लय प्रक्रिया योगी की काया के भीतर स्वयं चलित हो रही होगी I
और इस लय के मार्ग और इसके के अंत में जो दशा होगी, वह ऐसा ही होगी…
योगी की आंतरिक ब्रह्माण्डीय दशाएं, सिद्ध शरीरों के रूप में स्वयंप्रकट होकर, अपने–अपने सगुण निराकारी ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय होती जाती हैं I
इस लय प्रक्रिया के अंत में जो साधक के पास शेष रहेगा, वही साधक का वह आत्मस्वरूप होगा, जो सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार भी होगा I
जैसे निर्गुण निराकार ब्रह्म ही अपनी सगुण निराकार और सगुण साकार अभिव्यक्तियों में लय हुआ पिण्ड ब्रह्माण्ड है, वैसा ही साधक का आत्मस्वरूप होगा I
जैसे निर्गुण ब्रह्म, अपनी सगुण साकार और सगुण निराकार अभिव्यक्तियों में, पिण्ड ब्रह्माण्ड होता हुआ भी इनसे अतीत भी रहा है,वैसा ही साधक का आत्मस्वरूप भी होगा I
जैसे निर्गुण ब्रह्म अपनी सगुण साकार और सगुण निराकार अभिव्यक्तियां होता हुआ भी और उन्ही अभिव्यक्तियों में लय हुआ भी, उन सब अभिव्यक्तियों का साक्षीमात्र ही रहा है, वैसा ही उस लय हुए योगी का आत्मस्वरूप भी होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
ऐसी दशा में योगी जो पाएगा, वह ऐसा ही होगा…
योगी के सगुण साकार सिद्ध शरीर जो ब्रह्माण्डीय दशाओं को ही दर्शाते हैं, वह अपने-अपने सगुण निराकारी ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होकर, सगुण निराकार ही हो जाएंगे I
ऐसा लय होने से योगी, सगुण साकारी काया का धारक होता हुआ भी, सगुण निराकार ही हो जाएगा I
और जहाँ वह सगुण निराकार भी सगुण साकार के भीतर भी बसा हुआ होगा और इसके साथ साथ, उस सगुण निराकार ने ही सगुण साकार को घेरा हुआ भी होगा I
जब साधक के सगुण साकार स्वरूप में स्वयंप्रकट हुए सिद्ध शरीर जो साधक की काया के भीतर विराजे हुए सगुण साकार ब्रह्म का ही द्योतक होते हैं, अपने-अपने सगुण निराकारी ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाएंगे, तब वह सिद्ध शरीर अपने ब्रह्माण्डीय कारणों के समान सगुण निराकार ही हो जाएंगे I
और सगुण निराकार होते हुए भी, समय-समय पर वह सिद्ध शरीर अपने नि:सतृत पदार्थ स्वरूपों में आकर, पुनः अपने पूर्व के सगुण साकार स्वरूप को पाएँगे I
लेकिन ऐसा भी तब ही होगा, जब ऐसा योगी आएगा, जो पूर्व के योगीजनों के समान, उसी ब्रह्माण्डीय दशा में लय होने का पात्र हुआ होगा I
जैसे ही ऐसा योगी किसी ऐसी ब्रह्माण्डीय दशा में पहुंचता है जो ब्रह्म के सगुण निराकार स्वरूप की प्रधान दशा ही है, तब उसी ब्रह्माण्डीय दशा में जो पूर्व कालों के सिद्ध मनीषि लय हुए हैं, वह अपना तब का सगुण निराकार स्वरूप (अर्थात लय स्वरूप) त्यागकर, पुनः अपने सिद्ध शरीरी (अर्थात सगुण साकार) स्वरूप में उस योगी के समक्ष प्रकट हो जाते हैं, जिसका सिद्ध शरीर उसी ब्रह्माण्डीय दशा में पहुंचकर, उस दशा का साक्षात्कार और अध्ययन कर रहा होता है I
इसलिए जब कोई योगी समस्त ब्रह्माण्डीय दशाओं में लय होने का पात्र बनता है, तब उस योगी की काया के भीतर उन पृथक ब्रह्माण्डीय दशाओं से संबद्ध पृथक सिद्ध शरीर अपने सगुण साकार स्वरूपों में स्वयं प्रकट होते हैं I और प्रकट होने के पश्चात वह सिद्ध शरीर अपने-अपने सगुण निराकारी ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः गमन कर जाते हैं I
अपने-अपने सगुण निराकारी ब्रह्माण्डीय कारणों में पहुंचकर, वह सिद्ध शरीर उन सगुण निराकारी ब्रह्माण्डीय दशाओं (अर्थात ब्रह्माण्डीय कारणों) में उन योगीजनों के सगुण साकार सिद्ध शरीरों को देखते भी हैं, जो पूर्व कालों में उन्ही ब्रह्माण्डीय दशाओं में लय हुए थे, और जो अब उस योगी को प्रमाण देने हेतु उन्ही लय हुई ब्रह्माण्डीय दशाओं से सम्बद्ध नि:सतृत पदार्थ स्वरूपों में, उस अभी-अभी पहुँचे हुए योगी के समक्ष प्रकट होते हैं I
उन ब्रह्माण्डीय दशाओं में, उन पूर्व कालों के लय हुए सिद्धों और योगीजनों के ऐसे सिद्ध शरीरों को देखकर वह योगी जान जाता है, कि अब उसके भी लय होने का समय आ गया है I
और वह योगी यह भी जानता है, कि उसको इस लय मार्ग में लेकर जाने हेतु ही वह पूर्व कालों के लय हुए सिद्ध और योगीजन अपने नि:सतृत पदार्थ स्वरूपों से युक्त सिद्ध शरीरों में उसके समक्ष प्रकट हुए हैं I
यही प्रत्येक ब्रह्माण्डीय दशा से जाते हुए लय मार्ग का अंतिम चरण है I और यही चरण प्रत्येक ब्रह्माण्डीय दशा में योगी के लय होने से पूर्व पाया जाएगा I
अब आगे बढ़ता हूँ…
यह अध्याय श्रृंखला उस दशा की है, जब साधक की चेतना…
- हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग पर जाकर, उससे आगे जाने लगती है I
- ऐसी दशा में वह चेतना सूर्य लोक को जाती है I
- और सूर्य लोक से वह चेतना, आगे को जाती है और अन्य देवताओं के लोकों में भी गमन करती है I
- और इस मार्ग में साधक की काया के भीतर बहुत सारे सिद्ध शरीर स्वयं प्रकट होते ही जाते हैं I
- यह सभी सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्ड की प्रमुख सगुण निराकारी दशाओं के ही सगुण साकार स्वरूप होते हैं I
- इसका अर्थ हुआ, कि यह सिद्ध शरीर साधक की काया के भीतर बसी हुई ब्रह्माण्डीय दशाओं के होते हैं I और ऐसे इसलिए होते हैं, क्यूंकि साधक की काया में ही ब्रह्माण्ड बसा हुआ है I
- यह सिद्ध शरीर सगुण साकार स्वरूप में साधक की काया के भीतर अकस्मात् ही प्रकट होते हैं I और यह सिद्ध शरीर साधक की काया के भीतर बसी हुई अपनी-अपनी सगुण निराकार ब्रह्माण्डीय दशाओं के द्योतक भी होते हैं I
- जैसे-जैसे यह सिद्ध स्वयं प्रकट होते जाते हैं, वैसे-वैसे यह सभी सिद्ध शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय किरणों में लय भी होते चले जाते हैं I
- और अंततः जब यह सभी सिद्ध शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय किरणों में लय हो जाते हैं, तब वह साधक ब्रह्माण्ड की पकड़ से भी परे ही चला जाता है I
- और अंततः यह ब्रह्माण्डीय कारण जिनमें साधक के सिद्ध शरीर लय होते हैं, वह साधक की काया के भीतर होते हुए भी, उस ब्रह्माण्ड में भी पाए जाते हैं जिसके भीतर साधक की काया निवास कर रही होती है I
- इसलिए जब यह सिद्ध शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों मे लय होते हैं, तब वह ब्रह्माण्ड साधक की काया के भीतर भी पाया जाएगा, और इसके साथ-साथ साधक जिस ब्रह्माण्ड में बसा हुआ है, वह भी होगा I
इसलिए अब ध्यान देना…
जब जो कुछ भी ब्रह्माण्ड का था, वह ब्रह्माण्ड में पुनः लौट गया, तब साधक ब्रह्माण्ड के भीतर जीव रूप में बसा हुआ भी, ब्रह्माण्डीय नहीं रहता I
जब जो कुछ भी इस जीव जगत का था, उसे साधक ने उनके अपने–अपने मूलादि कारणों में लौटा ही दिया, तब साधक जीव रूप में और जगत के भीतर निवास करता हुआ भी, जीवातीत और जगतातीत ही रहता है I
यही वह लय मार्ग है, जिसमें साधक की काया के भीतर बसी हुई ब्रह्माण्डीय दशाएं, सिद्धि शरीरों के स्वरूप में साधक की काया के भीतर ही स्वयं प्रकट होती हैं और अंततः यह सभी सिद्धि शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय हो जाते हैं I
इसलिए इस अध्याय श्रंखला का गंतव्य लय है I
इस श्रंखला में साधक की काया के भीतर का ब्रह्माण्ड, उसके अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होता है I
और लय होने के पश्चात, साधक के पास जो शेष रह जाएगा, वह उस साधक का वह निर्गुण आत्मा स्वरूप ही होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
अब इस लय मार्ग को कुछ सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताता हूँ…
जब साधक की स्थूल काया के भीतर का ब्रह्माण्ड, उस ब्रह्माण्ड में लय हो जाता है जिसके भीतर साधक की स्थूल काया बसी हुई है, तब वह साधक संपूर्ण ब्रह्म रचना से ही केवल होकर, स्वयं ही स्वयं में रमण करता हुआ, पूर्ण स्वतंत्र होता है I
जब साधक की स्थूल काया के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाएं, अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाती हैं, तब साधक का नाता ब्रह्म रचना से ही टूट जाता है और ऐसा साधक केवल होकर, संपूर्ण ब्रह्म रचना का ही साक्षीमात्र रह जाता है I
यही वह लय मार्ग है जिसकी अंतिम दशा में साधक उस महाकारण जगत का साक्षात्कार करेगा, जो अनंत कोटि ब्रह्माण्डों को धारण किया हुआ महाब्रह्माण्ड ही है, और जिसका साक्षात्कार उस लय मार्ग से होता है, जो इस अध्याय श्रृंखला में भारत भारती मार्ग कहा गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ…
मुमुक्षुता और मुमुक्षु, मुमुक्षु और मुमुक्षुता, त्याग ही मुक्तिमार्ग है, सर्वसिद्धि के पश्चात सर्वत्याग है, त्याग और मुक्ति, मुमुक्षु की मुमुक्षुता , मुमुक्षुता और त्याग, त्याग और मुमुक्षुता, मुमुक्षु ही त्यागी होता है, मुमुक्षुता और त्याग मार्ग, सर्वस्व सिद्धि और सर्वस्व त्याग, सिद्ध ही त्यागी है, पूर्ण सिद्ध ही पूर्ण त्यागि है, पूर्ण ब्रह्म ही पूर्ण संन्यासी हैं, …
इस भाग को भी बिंदु रूपों में ही बताया जाएगा…
सिद्धि के पश्चात ही त्याग होता है I
जब कुछ पाया ही नहीं, तो त्यागोगे किसको? I
त्याग से पूर्व उस त्यागी गई वस्तु की प्राप्ति होनी होगी I
योगमार्गों में वह प्राप्ति भी सिद्धि के स्वरूप में ही हो पाती है I
जबतक सर्वस्व ही नहीं पाओगे, सर्वस्व त्यागी भी नहीं हो पाओगे I
जबतक सर्वस्व का त्याग नहीं करोगे, तबतक सर्वातीत भी नहीं हो पाओगे I
सर्वातीत ही ब्रह्म है, जो आत्मा है और जिसकी अभिव्यक्ति ही सर्वस्व रूप में है I
वह सर्वातीत ब्रह्म भी, अपनी सर्वस्व सिद्धि रूपी ब्रह्म रचना में ही लय हुआ है I
वह सर्वातीत अपनी सर्वस्व सिद्धि रूपी अभिव्यक्ति का साक्षी मात्र ही है I
वह सर्वातीत ही सर्वमूल, सर्वस्व और सर्वस्व का गंतव्य भी वही हुआ है I
सर्वातीत जो ऐसा ही है, वही अद्वैत है, और वह ही पूर्ण कहलाता है I
वह अपनी रचना रूपी अभिव्यक्ति में लय हुआ पूर्ण संन्यासी है I
ऐसा ही इस अध्याय श्रंखला का साक्षात्कारी योगी भी होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
वह ब्रह्म, सर्वस्व अर्थात ब्रह्म रचना होता हुआ भी, उसका साक्षी मात्र ही रहा है I
जो सर्वस्व के भीतर ही उसका एकमात्र साक्षी है, वही सर्वसाक्षी है I
जो सर्वसाक्षी है, वही पूर्व त्यागी है, वही पूर्ण स्वतंत्र भी है I
वह पूर्ण स्वतंत्र ब्रह्म ही पूर्ण त्यागी, कैवल्य मोक्ष है I
ऐसा ही इस त्याग मार्ग का योगी भी होगा I
इस सर्वस्व त्याग मार्ग का योगी…
पूर्व कालों का सर्वसिद्ध रहा ही होगा I
सर्वसिद्धि के पश्चात ही वह सर्वस्व का त्यागि हुआ होगा I
और सर्वसिद्ध होने पर भी, वह अधिकांशतः गुप्त में ही रहा होगा I
सर्वसिद्धि की पश्चात के पूर्णत्याग मार्ग पर भी वह गुप्त होकर ही गया होगा I
जबतक ऐसा योगी स्वयं ही स्वयं के मार्ग के बारे में नहीं बताएगा, तबतक उसको अथवा उसके मार्ग को कोई भी जान नहीं पाएगा I
यही भारत भारती योग से संबद्ध त्यागमार्ग का एक प्रमुख बिंदु भी है I
आगे बढ़ता हूँ…
और त्याग और मुमुक्षु का नाता बताता हूँ I
किसी भी मुमुक्षु के लिए…
सर्वस्व त्यागी ही मुमुक्षु है I
सर्वस्व त्याग ही मुमुक्षु का एकमात्र मार्ग होता है I
किन्तु ऐसे मार्ग पर जाने के लिए, उस मुमुक्षु को पूर्व का सिद्ध ही होना होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
और मुमुक्षुता के वह मूल बिंदु बताता हूँ, जो अब लुप्त हो चुका है…
पूर्ण संन्यासी ही पूर्ण ब्रह्म होता है I
मुमुक्षु की मुमुक्षुता में वह पूर्ण ब्रह्म ही होगा I
वह पूर्ण ब्रह्म, सर्वस्व त्यागी होता हुआ भी, सर्वस्व योग में प्रतीत होगा I
पूर्ण ब्रह्म ही निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार भी होगा I
इन्हीं तीनों के अद्वैत योग से उस मुमुक्षु का मुमुक्षुता नामक पथ भी जाता होगा I
इसका मार्ग भी इस अध्याय श्रंखला में बताया जा रहा भारत भारती मार्ग ही है I
और इस अध्याय श्रृंखला की अंतगति में…
समस्त जीव जगत के इस अंतिम लय मार्ग में…
समस्त देव शरीरों को वह मुमुक्षु पाएगा I
समस्त सिद्धि शरीरों को वह मुमुक्षु पाएगा I
समस्त देवलोकों से उस मुमुक्षु की चेतना गमन करेगी I
समस्त सिद्धलोकों से भी उस मुमुक्षु की चेतना गमन करेगी I
गमन करते समय वह मुमुक्षु, उन–उन लोकों के शरीरों को उनमें ही त्यागता जाएगा I
और इस त्याग मार्ग के अंत में…
जब यह त्याग मार्ग पूर्ण होगा, तो वह मुमुक्षु स्वयं को रचना शून्य ही पाएगा I
ऐसा योगी जीवरूप में जगत के भीतर होता हुआ भी, सर्वातीत कैवल्य मोक्ष ही है I
ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में वह सर्वत्यागी मुमुक्षु योगी, पूर्ण संन्यासी ही कहलाएगा I
पूर्ण ब्रह्म ही पूर्व संन्यासी हैं, जिसमें वह योगी की चेतना पूर्णतः लय हो जाएगी I
और जहाँ यह योगमार्ग का अंतिम चरण और उसका लय होने का मार्ग भी भारत भारती योग की साक्षात्कारी दशा, जो महाब्रह्माण्ड है, जिसको महाकारण भी कहा जाता है, उससे होकर जाएगा I
और ऐसा होने के कारण, उस पूर्ण संन्यास से पूर्व, वह योगी अपने पिण्ड रूप में होता हुआ भी, महाब्रह्माण्ड ही होगा I ऐसी दशा में वह योगी महाब्रह्माण्ड का ही सगुण साकार स्वरूप होकर रहेगा I
और इसी महाब्रह्माण्ड के सगुण साकार स्वरूप को प्राप्त करके ही वह योगी, अंततः उन पूर्ण संन्यासी, कैवल्य मोक्ष को दर्शाते हुए पूर्ण ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप सहित, अन्य सभी स्वरूपों में लय हो जाएगा I
टिप्पणियाँ:
- आज जो निर्गुण निराकार ब्रह्म को कैवल्य मोक्ष से जोड़कर बोलते हैं, वह न तो कैवल्य (मोक्ष) के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं, और न ही मुक्त ही हुए हैं I
- कैवल्य तब ही कहलाया जाएगा, जब वह उस सब में जो उसके जैसा नहीं है, समानरूपेण और पूर्णरूपेण बसा हुआ होगा, और सबकुछ भी उसी में बसा हुआ होगा… और ऐसा होने पर भी वह उस सब का केवल साक्षी मात्र ही रह जाएगा I
- और जहाँ वह सब जो उसके जैसा नहीं पाया जाएगा, वह सब भी उसी कैवल्य मोक्ष की कोई न कोई अभिव्यक्ति ही होगी I
- और उसी अभिव्यक्ति के भीतर बसा हुआ वह निर्गुण निराकार साक्षात्कार जो पाएगा I इस मार्ग के सिवा उस निर्गुण निराकार का, जो एक व्यापक निरंग प्रकाश के समान ही होता है, कोई और साक्षात्कारमार्ग है भी नहीं I
- जिसने इस बिंदु के मार्ग आदि को नहीं जाना है, वही कहेगा कि निर्गुण को कौन जान पाया है? … आत्मा को कौन साक्षात्कारी है”… ब्रह्म को कौन साक्षात्कार कर पाया है? I
- लेकिन ऐसे साक्षात्कार में जो सीधा-सीधा ही होता है, साधक रचना का आलम्बन लेकर ही, रचना में ही बसकर और रचना ही होकर उस निरंग व्यापक स्व:प्रकाश का साक्षात्कार करता है, जो सबको प्रकाशित करता हुआ भी, इस साक्षात्कार के समय तक सबके भीतर और बाहर समानरूप में गुप्त होकर ही बैठा हुआ था I
- और जब उस अभिव्यक्ता को उसकी अभिव्यक्ति के भीतर और बाहर समानरूपेण जाना जाएगा, तब ही वह योगी उस अभिव्यक्ता के पूर्ण संन्यासी स्वरूप जो जानकर, उसी में पूर्ण ब्रह्म स्वरूप होकर, लय हो जाएगा I
- और ऐसा योगी, उन्ही पूर्ण ब्रह्म के समान हो जाएगा जो सर्वमूल, सर्वस्व और सर्व गंतव्य भी हैं I
- और ऐसा होता हुआ भी वह पूर्ण ब्रह्म (अर्थात सर्वस्व के अभिव्यक्ता) अपनी ही अभिव्यक्ति, उस सर्वस्व को दर्शाते हुए और सर्वस्व में ही बसे हुए समस्त स्वरूपों का साक्षीमात्र ही रह गया है I
- जो अपनी ही अभिव्यक्ति रूप में पिण्ड ब्रह्माण्ड हुआ है, और जो अपनी अभिव्यक्ति में लय भी हुआ है, और जिसकी अभिव्यक्तियां भी उसी के समान, उसी में ही लय होना चाहती रही हैं, वही पूर्ण ब्रह्म हैं, जो सनातन कालों से पूर्ण संन्यासी ही रहा है I
- और पूर्ण संन्यासी होने के कारण, वह न तो कर्ता, न अकर्ता, न ही भोगता, न ही अभोगता, और न ही कुछ और रहा है I वह तो बस अपनी सर्वस्व नामक अभिव्यक्ति का ही साक्षीमात्र रहा है I और आगामी सनातन कालों तक भी वह ऐसा ही रहेगा I
- और ऐसा तब भी है जब उसकी वह समस्त अभिव्यक्तियाँ उसी अभिव्यक्ता से अनादि कालों से एक ऐसा अद्वैत योग भी लगाई हुई हैं, जिसका उन अभिव्यक्तियों को ज्ञान भी नहीं है I
- वह सर्व अभिव्यक्ता भी ऐसा इसलिए रह पाया है, क्यूंकि उसकी अभिव्यक्ति, उसके समान उनकी अपनी-अपनी आंतरिक दशा से पूर्ण संन्यासी भी नहीं हुई है I
- जिस समय अभिव्यक्ति उसकी अपनी आंतरिक दशा से उन पूर्ण ब्रह्म से संबद्ध साक्षी भाव को पाएगी, उसी समय वह अभिव्यक्ति उन्ही पूर्ण संन्यासी (पूर्ण ब्रह्म) से अनादी कालों से चले आ रहे अपने उस गुप्तयोग को जानकर, उन्ही पूर्ण ब्रह्म के समान उनकी सर्वस्व नामक अभिव्यक्ति की सर्वसाक्षी मात्र ही होकर, उन्ही पूर्ण संन्यासी के स्वरूप को पाकर, पूर्ण संन्यासी ही होकर, इस लय मार्ग को पूर्ण कर पाएगी… इससे पूर्व नहीं I
इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करता हूँ और इस श्रंखला के अगले अध्याय पर जाता हूँ, जो वेदान्तियों के पथ से संबद्ध और वेदान्तियों द्वारा बताए मुक्तिमार्ग के प्रारम्भ का द्योतक भी है, और जो सूर्य लोक और सूर्य देव से ब्रह्मादि लोकों से जाते हुए मुक्तिमार्ग को बताएगा I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।