इस अध्याय में पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा को बताया जाएगा, जो साधक योगमार्ग से संपन्न करता है, क्यूंकि इसका कोई और मार्ग है ही नहीं I जो साधक सद्योजात से परकाया प्रवेश प्रक्रिया के द्वारा शरीरी रूप में लौटाया गया था, उसकी चेतना अघोर, वामदेव, तत्पुरुष और सद्योजात का साक्षात्कार इसी क्रम में करती है और जहाँ इसी साक्षात्कार के क्रम में ही पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा भी हो जाती है I और क्यूँकि पञ्च मुखा गायत्री ही पञ्चब्रह्म की दिव्यता हैं, इसलिए जब साधक की चेतना इस अध्याय में बताया जा रहे क्रम में पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार परिक्रमा मार्ग से करती है, तो उसमें पञ्च मुखी गायत्री प्रदक्षिणा (पञ्च मुखी गायत्री प्रदक्षिणा) भी स्वतः ही हो जाती है I इसलिए उस पञ्चब्रह्म परिक्रमा को ही पञ्चमुखा गायत्री परिक्रमा, पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा (पञ्चब्रह्म गायत्री परिक्रमा) भी कहा जा सकता है I और क्यूंकि यहाँ बताया जा रहा गायत्री पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, पञ्च ब्रह्मोपनिषद के अंतर्गत ही आता है, इसलिए इसको पञ्च ब्रह्मोपनिषद प्रदक्षिणा (या पञ्च ब्रह्मोपनिषद परिक्रमा) भी कह सकते हैं I इस प्रदक्षिणा मार्ग की दिव्यता, माँ गायत्री ही हैं, इसलिए इस मार्ग पर करी गई प्रदक्षिणा को गायत्री परिक्रमा, गायत्री विद्या परिक्रमा, गायत्री सरस्वती विद्या परिक्रमा, गायत्री विद्या परिक्रमा, गायत्री सरस्वति परिक्रमा, गायत्री विद्या सरस्वती परिक्रमा और गायत्री सरस्वती विद्या परिक्रमा आदि भी कहा जा सकता है I इसी को ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, गायत्री ब्रह्म परिक्रमा, गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा, पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्च ब्रह्म परिक्रमा, पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, … गायत्री पञ्च ब्रह्म परिक्रमा, गायत्री पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा, चतुष्पाद गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा, चतुष्पाद गायत्री ब्रह्म परिक्रमा, चतुष्पाद पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, चतुष्पाद पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, आदि भी कहा जा सकता है I
क्यूंकि पञ्च ब्रह्म में ही पञ्च देव निवास करते हैं, इसलिए इसी पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा में पञ्चदेव प्रदक्षिणा (या पञ्च देव परिक्रमा) भी हो जाती है I पर इस अध्याय में इन पञ्च देवों को नहीं बतलाऊँगा, क्यूंकि इनपर बात आगे के अध्याय में ही होगी, जिसका नाता पञ्च मुखी सदाशिव से होगा I
इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 से लेकर 2011-2012 तक का है I
पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सत्ताईसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का तेरहवां अध्याय है।
पञ्च ब्रह्म भीतर की ओर देखते हैं, पञ्च मुखा सदाशिव बाहर की ओर देखते हैं, … पञ्च ब्रह्म अन्तर्मुखी हैं, पञ्च मुखा सदाशिव बाह्यमुखी हैं, …
जबतक इस बिन्दु को नहीं जानोगे, तबतक पञ्च ब्रह्म और पञ्चब्रह्म का सदाशिव से सनातन योग को समझ ही नहीं पाओगे I
और ऐसी दशा में, इन दोनों को एक दुसरे से पृथक ही मानोगे, जबकि वास्तविकता में यह दोनों एक ही हैं I
जिस योगी ने पञ्चब्रह्म और पञ्च मुखी सदाशिव साधनाओं का यह मूल बिन्दु जान लिया, वो यह भी जान जाएगा, कि …
ब्रह्म ही शिव हैं… और शिव भी ब्रह्म I
ऐसा योगी यह भी जान जाएगा, कि…
ब्रह्म ही विष्णु हैं… और विष्णु ही ब्रह्म I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि यहाँ बताए गए मार्ग में द्वितीय चरण में ही श्री विष्णु सनातन गुरु रूप में साक्षात्कार होंगे I
और इनके अतिरिक्त ऐसी साधना मार्ग में… और उस मार्ग के…
समस्त भागों के भीतर और जिसके भीतर वो भाग बसे होंगे, वह शक्ति हैं I
उन्ही शक्ति से होकर ही अनुग्रह कृत्य के धारक, गणपति देव को जाना जाएगा I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस ग्रंथ के मार्ग में, वो शक्तिपुत्र गणपति, अपनी माता, अर्थात माँ शक्ति की गोद में बैठकर ही अपना मोक्ष रूपी अनुग्रह प्रदान करते हैं I
इसलिए इस ग्रन्थ में बताए गए आंतरिक मार्ग में…
ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति हैं… और ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म I
शिव ही शक्ति है… और शक्ति ही शिव I
विष्णु ही शक्ति है, और शक्ति ही विष्णु I
और उन्ही ब्रह्मशक्ति ने अपने पुत्र, गणपति को अपनी गोद में ही बसाया हुआ है I
इसीलिए, इस ग्रंथ में जो मार्ग बताया गया है, वो अपनी …
सर्वत्रता से शिवत्व का है I
उत्कर्ष मार्ग से विष्णुत्व का है I
मूल से ब्रह्मत्व का है I
और गंतव्य रूपी गणपत्य से पूर्व वो मार्ग, भीतर से शाक्तत्व का ही है I
इसलिए इस ग्रंथ के मार्ग में बसे हुए योगी की मुक्ति से पूर्व, वो योगी…
पूर्व में तो शैव, वैष्णव और सौर्य रहा होगा, पर वो शाक्त होकर ही मुक्तात्मा होगा I
ऐसा होने के कारण भी वही है, कि इस ग्रंथ के मार्ग में, चाहे गणपति देव अनुग्रह कृत्य रूपी मोक्ष को ही क्यों न प्रदान करें, लेकिन वो गणपति देव…
अपनी माता की गोद में बैठकर ही मुमुक्षुओं को अनुग्रह (मोक्ष) प्रदान करते हैं I
इसलिए, इस मार्ग की अंतगति में, चाहे योगी सर्वसिद्ध ही क्यों न रहा हो, लेकिन तब भी इस मार्ग की अंतगति में वो योगी…
गणपति के समान, माँ शक्ति की गोद में बैठकर ही मुक्तात्मा हो पाएगा I
और ऐसी दशा में, वो पूर्व का सर्वसिद्ध भी स्वयं को बालक स्वरूप में ही पाएगा I
और इसीलिए, इस ग्रंथ के मार्ग में…
जो साधक ऐसा नहीं हो पाएगा, वो इस ग्रंथ की मुमुक्षुता को भी नहीं पाएगा I
और जो साधक मुमुक्षु ही नहीं होगा, वो कैवल्य मोक्ष को प्राप्त भी नहीं होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
ऐसा होने के कारण ही, इस ग्रन्थ के पथगामी योगी की अंतगति जैसी होगी, वो अब बताता हूँ …
भीतर से शाक्त I
बाहर से शैव I
मूल से सौर्य I
धरा पर वैष्णव I
और गंतव्य से गणपत्य I
और जब वो योगी इस अंतगति से, मूल के ब्रह्मत्व को पाएगा, तब उसकी जो दशा होगी, वो ऐसी ही होगी, …
भीतर से आत्मना I
बाहर से सर्वेसर्वा I
मूल से प्रज्ञान I
महाब्रह्माण्ड में ब्राह्मण I
और गंतव्य में मुक्तात्मा I
टिपण्णी: यहाँ कहा गया ब्राह्मण शब्द, ब्रह्मदृष्टा और आत्मद्रष्टा शब्दों को ही दर्शाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
ग्रंथ क्या है, ग्रंथ किसे कहते हैं, ग्रंथ और देवता का नाता, … पञ्च ब्रह्मोपनिषद की महिमा, पञ्च ब्रह्मोपनिषत की श्रेष्ठता, … देवता निर्गुण निराकार है, देवत्व सगुण निराकार है, देवत्व मार्ग सगुण साकार है, … देवता देवत्व और देवमार्ग का एकवाद, देवता देवत्व और देवमार्ग की योगावस्था, देवता देवत्व और मुक्तिमार्ग की योगावस्था ही साधक है, … पुराण और वैदिक इतिहास ग्रंथ सगुण साकार ब्रह्म को दर्शाते हैं, वेद चतुष्टय सगुण निराकार ब्रह्म को दर्शाते हैं, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र निर्गुण निराकार ब्रह्म को दर्शाते हैं, …
आगे बढ़ने से पूर्व, ग्रंथ को परिभाषित करता हूँ…
देवता का उनके ज्ञान रूपी देवत्व और मार्ग से योग ही ग्रंथ कहलाता है I
इसलिए, ग्रंथ ही उसका देवता, देवता का देवत्व और देवत्व मार्ग भी होता है I
देवता, उनके देवत्व और देव सिद्धि मार्ग की योगावस्था ही ग्रंथ कहलाता है I
किसी भी ग्रंथ में…
देवता को जो भी दर्शाया गया हो, वास्तविकता में वो निर्गुण निराकार ही होता है I
देवता के देवत्व को जैसा भी दर्शाया गया है, वो सगुण निराकार ही होता है I
देवत्व मार्ग को जैसा भी बताया गया हो, वो सगुण साकार ही होता है I
इसका कारण है कि…
किसी भी देवता की वास्तविकता वो ब्रह्म ही हैं, जो निर्गुण निराकार हैं I
किसी भी देवता का देवत्व, सगुण निराकार के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता I
देवत्व मार्गों में निराकारी देवता भी मन में सगुण साकार होकर ही रहते हैं I
टिप्पणियां:
- चाहे हम किसी सगुण निराकार देवता का ग्रंथ ही पड़ें, तब भी वो निराकारी देवता की जो सूक्ष्म प्रतिमा हमारे मन में बनेगी, और जो उस देवता के देवत्व की प्राप्ति का मार्ग ही होगी, वो सगुण साकार ही होगी I
- और इसी सूक्ष्म मानसिक प्रतिमा से ही उस देवता के देवत्व का मार्ग, साधक की काया के भीतर से ही प्रशस्त होता है I
- इसीलिए, चाहे निराकारी देवता को ही क्यों न मानो, लेकिन वास्तव में उनकी जो मानसिक प्रतिमा साधक (के मन) में बनेगी, और जो उस देवता के देवत्व की प्राप्ति का मार्ग ही होगी, वो सगुण साकार ही होगी I
- इसलिए, समस्त देवत्वादि मार्गों के दृष्टिकोण से, साधना मार्ग सगुण साकार ही होता है I
यह भी वो कारण है, कि वेद मनिषियों ने अर्चा विग्रह का मार्ग ख्यापित किया था I और इसका कारण भी वही है, कि किसी भी देवता और उनके देवत्व का मार्ग सगुण साकारी ही होता है I
- ऐसा होने का कारण है, कि ब्रह्म के तीनों प्रधान स्वरूपों में से किसी एक स्वरूप को किसी दुसरे स्वरूप से पृथक किया ही नहीं जा सकता है I
इसलिए ब्रह्म के तीनों प्रधान स्वरूप, जो निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार कहलाते हैं, वो एक साथ ही समस्त देवताओं, देवत्व बिंदुओं, देवताओं के ग्रंथ रूपी मार्गों में पाए जाएंगे I
जो साधनाएं ऐसी नहीं होती, वो देवत्वादि बिन्दुओं की प्राप्ति का मार्ग भी नहीं होती हैं I
और क्यूंकि आज की मानवजाति इस मूल बिंदु से ही अनभिज्ञ है, इसलिए वो अपने ही इष्ट, देवी या देवता को प्राप्त ही नहीं हो रही है I
- यही कारण है कि चाहे मूर्ति पूजन करो, या किसी निराकारी सत्ता पर साधना करो या निर्गुण अनंत पर ही ज्ञान मार्ग से जाओ, अंतगति में उन देवता और उनके देवत्व बिंदु के निर्गुण निराकार (अर्थात निर्गुण अनंत) स्वरूप का ही साक्षात्कार होगा I
- लेकिन यदि केवल (अर्थात सगुण निराकार) देवत्व को मानोगे, और इसके साथ साथ सगुण साकार को खंडित भी करोगे, तो तुम्हारा मार्ग ही कलह कलेश का कारण बन जाएगा I
- यही कारण है कि ऐसे मार्गों के इस धरा पर प्रकटिकरण के पश्चात ही कलियुग प्रबल होता है I
और इसका कारण भी वही है, कि समस्त ग्रंथों के दृष्टिकोण से, उनके मार्ग सगुण साकार ही होते हैं I
इसलिए, …
ग्रंथों के देवत्व बिंदुओं में तारतम्य प्रतीत होने पर भी… वास्तव में नहीं होता है I
इसका कारण भी वही है, कि…
वैदिक ग्रंथों के मार्ग, ब्रह्म की अभिव्यक्ति हीं हैं, इसलिए ब्रह्म की ओर ही जाते है I
आगे बढ़ता हूँ…
लेकिन ऐसा होने पर भी, यदि कोई ग्रंथ उन ब्रह्म को पूर्णरूपेण दर्शाता है, तो वो पञ्च ब्रह्मोपनिषद ही है I
इसका कारण है, कि इस ग्रंथ के पूर्णरूपेण साक्षात्कार से समस्त देवी देवता और उनके देवत्व बिंदुओं का साक्षात्कार भी हो सकता है I
और यही वो कारण है, कि सनातन वैदिक आर्य धर्म की पीठ चतुष्टय, वेद चतुष्टय, धाम चतुष्टय, योग चतुष्टय, चेतन चतुष्टय आदि के मूल में भी यह पञ्च ब्रह्मोपनिषत ही है I
और जहाँ यह पञ्च ब्रह्मोपनिषद का मार्ग भी हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय नामक साक्षात्कार की ओर ही लेके जाता है I लेकिन आज के समयखण्ड में इसका ज्ञान और मार्ग, कलियुग की काली काया ने ढक लिया है I
इसी उपनिषद् के साक्षात्कार मार्ग में, समस्त वैदिक देवी देवता हैं I
देवत्व, जीवत्व, जगतत्व, बुद्धत्व और ब्रह्मत्व सहित, कोई बिन्दु है ही नहीं, जो इस उपनिषद् के साक्षात्कार मार्ग में नहीं मिलेगा, अर्थात इस ग्रंथ के सगुण साकार और सगुण निराकार रूपी साक्षात्कार मार्ग में नहीं मिलेगा I
लेकिन क्यूंकि मेरी साधनाएँ तत्त्वों पर ही रही हैं, इसलिए मैं सगुण निराकार का साधक ही हूँ I यही कारण है, कि मैंने इस ग्रंथ में बहुत सारे चित्र इस सगुण निराकारी अवस्था में ही दर्शाए हैं I
और उन सगुण निराकार देवत्व को दर्शाते हुए चित्रों के आधार पर, उन्ही दशाओं के सगुण साकार शरीर रूपों को दर्शाया है I
और जहाँ इन शरीरी स्वरूपों को, जो उन सगुण निराकारी देवत्व बिन्दुओं के सगुण साकारी स्वरूपों को दर्शाते हैं, मैंने सिद्ध शरीर कहा है I
वो सिद्ध शरीर जो सगुण निराकारी देवत्व बिंदुओं के सगुण साकार देवता ही हैं, वास्तविक साधना मार्ग ही हैं, क्यूंकि साधक के स्थूल शरीर में स्वयं प्रकटीकरण के पश्चात, यही सिद्ध शरीर उन सगुण निराकार देवत्व बिंदुओं के साक्षात्कार का मार्ग भी बन जाते हैं I
और अंततः, यह सगुण साकारी सिद्ध शरीर, अपने अपने सगुण निराकारी देवत्व बिंदुओं में (अर्थात देवलोकों में) ही विलीन होकर, उन्ही सगुण निराकारी देवलोकों के समान ही हो जाते हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि साधक की काया के भीतर स्वयं प्रकटीकरण के पश्चात, वो सिद्ध शरीर उनके अपने देवत्व बिंदुओं (अर्थात देवलोकों) में गमन करके ही साधक को उन लोकों (अर्थात देवत्व बिंदुओं) का साक्षात्कार करवाते हैं, और अंततः अपने अपने देवलोकों में ही लय होकर, अपने-अपने सगुण निराकार देवलोक ही हो जाते हैं I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि वो सिद्धादि शरीर जो इस ग्रंथ में दिखाए गए हैं, वो उन सगुण निराकारी देवत्व बिंदुओं (अर्थात देवलोकों) के ही सगुण साकार स्वरूप हैं, और जहाँ यह सगुण साकार स्वरूप भी साधक की काया के भीतर ही स्वयंप्रकट होके, साधक की चेतना को उन सगुण निराकार देवत्व बिंदुओं का साक्षात्कार करवाता हैं I
इसलिए, उन तत्त्वों पर करी हुई साधनाओं में, वो सगुण साकार सिद्ध शरीर जो साधक की काया के भीतर ही स्वयंप्रकट होते हैं, वही उन सगुण निराकारी देवत्व बिंदुओं का साक्षात्कार और उन बिंदुओं में साधक का लय मार्ग भी हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
और क्यूंकि माँ गायत्री, अपने पञ्च मुखी स्वरूप में पञ्च ब्रह्म की दिव्यता ही हैं, और क्यूंकि पञ्च ब्रह्म में ही वेद चतुष्टय बसे हुए हैं, इसलिए माँ गायत्री सरस्वती को ही वेद माता भी कहा गया है I
और क्यूंकि पञ्चब्रह्म जिनकी दिव्यता पञ्च मुखा गायत्री सरस्वती ही हैं, उनमें ही समस्त देवी देवता निवास करते हैं, इसलिए गायत्री विद्या सरस्वती को देवमाता कहा गया है I और जहाँ यह देवमाता का शब्द, समपूर्ण देवत्व को एक साथ ही दर्शाता है I
ऐसा होने का कारण है कि,…
शक्ति ही उनके अपने शक्तिमान का देवत्व होती है I
देवत्व को ही शक्ति, देवी और माता आदि कहा जाता है I
निर्गुण ब्रह्म का सगुण निराकारी स्वरूप ही उनका देवत्व है I
निर्गुण निराकार देवता की शक्ति ही उनका सगुण निराकारी देवत्व होता है I
इसलिए, देवता के देवत्व मार्ग को ही शाक्त मार्ग कहा जाता है I
अब कुछ और बिंदु बताकर, इस भाग को समाप्त करूंगा…
जैसे सूर्य देव को उनके प्रकाश और उनके प्रकट स्वरूप से पृथक नहीं किया जा सकता, वैसे ही देवता, देवत्व और उनके मार्ग को भी पृथक नहीं कर सकते I
निर्गुण निराकार देव का सगुण निराकार देवत्व मार्ग ही सगुण साकार कहलाता है I
इसलिए, जितने भी पिण्ड हैं, वो सभी देवता के सगुण साकार देवत्व मार्ग ही हैं I
यही कारण है कि देवता के देवत्व की साधनाओं में, साधक ही मार्ग होता है I
इसलिए, अंतगति में वो मार्ग रूपी साधक भी, स्वयं ही स्वयं में, होकर ही जाता है I
यही इस ग्रंथ के मार्ग की मूलावस्था है…, यही वास्तविक मुक्तिमार्ग भी है I
इसलिए अब ध्यान देना…
जब निर्गुण निराकार देवता, उनका सगुण निराकार देवत्व और उनके सगुण साकार मार्ग की अद्वैत योगवास्था रूपी साधना में साधक ही जो जाए… वो स्वयं ही स्वयं में के वाक्य से बताया गया… यही वास्तविक मुक्ति मार्ग है I
जिसके शरीर में ही ऐसा योग हुआ है, वही वास्तविक साधक है… और वही मुमुक्षु है I
आगे बढ़ता हूँ…
जिसका आत्मा ही उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र हो, भीतर की दिव्यताएं ही वेद चतुष्टय हों और जो स्वयं ही पुराण और इतिहास ग्रंथ हो गया हो… वही साधक मुमुक्षु है I
ऐसे मुमुक्षु साधक का मार्ग भी “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य से होकर ही जाएगा I
लेकिन…
ऐसा मार्ग तो भावों से ही पाया जाएगा… न कि किसी दीक्षा, शक्तिपात आदि से I
और जहाँ वो मुमुक्षुभाव भी, ब्रह्म भावापन नामक अवस्था के अंतर्गत ही होगा I
और इसी अद्वैत योगावस्था को ही पञ्च ब्रह्मोपनिषद में, चाहे सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही… लेकिन मेरे उस पूर्व जन्म के गुरुदेव, महादेव, जो शिव के अघोर मुख ही हैं, उन परमगुरु के द्वारा दर्शाया गया था I
उस पूर्व जन्म में, मैं ही वो पीपल के वृक्ष पर नाम वाला अघोर मार्गी लेकिन वैष्णव योगी था, जिसने उसके उस समय के गुरुदेव, महादेव से इस पञ्च ब्रह्मोपनिषद नामक ग्रंथ में बताया गया ज्ञान प्राप्त किया था, और उन्हीं गुरूदेव के आदेश पर इसका ज्ञान… कुछ ही पात्रों को सही… लेकिन बांटा था I
क्यूंकि इस ग्रंथ के पूर्णरूपेण साक्षात्कार से ही सबकुछ जाना जा सकता है, इसलिए उस जन्म से ही अघोरेश्वर महादेव मेरे गुरुपिता हुए थे…, आज भी है… और आगे भी रहेंगे I
पञ्च ब्रह्म का स्वयं उदय, … ईशान सद्योजात तत्पुरुष वामदेव अघोर, … वाम मार्ग ही उत्पत्ति मार्ग है, वाम मार्ग ही बंधन मार्ग है, …
पञ्च ब्रह्म हैं, जो ईशान, सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव और अघोर कहलाते हैं I
जब यह पञ्च ब्रह्म, इस जीव जगत में स्वयं उदय या स्वयंप्रकट हुए थे, तो उनका स्वयं उदय (या स्वयं प्रकटीकरण) क्रम ऐसा था…
- प्रथम ब्रह्म, … ईशान ब्रह्म, ईशान नामक ब्रह्म, …
पञ्च ब्रह्म में, ईशान मध्य के ब्रह्म हैं, और यह ईशान नामक ब्रह्म सदैव ही थे I
ईशान निरंग स्फटिक के समान होते है, या यह कहूँ कि स्वच्छ जल के समान निरंग होते हैं I
ईशान ऊपर की ओर, अर्थात आकाश की ओर देखते हैं I इसका अर्थ हुआ कि ईशान, गंतव्य या मुक्ति की ओर देखते हैं I
ईशान ब्रह्म, निरंग स्फटिक के समान होते हैं, और वो निराकार ही होते हैं, इसलिए ईशान ब्रह्म को ही निर्गुण निराकार ब्रह्म कहा जाता है I
यह ईशान ब्रह्म सर्ववेद हैं, इसलिए यह ब्रह्म ही उपनिषद् के निर्गुण ब्रह्म हैं I
ईशान, मोक्ष, कैवल्य, कैवल्य मोक्ष, सर्वातीत और तुरीयातीत आदि दशाओं को दर्शाते हैं I इसका अर्थ हुआ कि ईशान ब्रह्म ही कैवल्य मुक्ति हैं I
ईशान ब्रह्म ही वो तुरीयातीत हैं, जिनको आत्मा और ब्रह्म नामक शब्दों से पुकारा जाता है I
वेदांत (अर्थात ब्रह्मसूत्र) और उपनिषद् के गंतव्य में, जो वैदिक महावाक्य हैं, वो इन्ही ईशान को सूक्ष्म सांकेतिक रूप में दर्शाते हैं I
और ऐसा होने के कारण ही, ईशान का कोई वेद नहीं बताया गया है, क्यूंकि ईशान सभी वेदों की गंतव्य दशा को समानरूपेण और पूर्णरूपेण दर्शाते हैं I
यह ईशान ब्रह्म, समस्त युग चक्र में बसे होने साथ साथ, समस्त युग चक्र भी इन्ही ईशान नामक ब्रह्म में ही बसा हुआ है I
इसलिए ईशान का कोई एक युग नहीं होता है, क्यूंकि ईशान समस्त युगों में समान रूप में बसे हुए हैं I और इसके साथ साथ समस्त युग भी ईशान में पूर्ण और समान रूप से बसे हुए हैं I
ईशान से स्वयंप्रकट हुई दिव्यता और शक्ति को ही ब्रह्मशक्ति कहा जाता है I इन्ही ब्रह्मशक्ति को अदि पराशक्ति, मूल प्रकृति, दुर्गा आदि शब्दों से भी पुकारा गया है I
वेदों में जो स्व:प्रकाश, साक्षी, सर्वव्यापक, तुरीयातीत, आत्मा, ब्रह्म, सार्वभौम, सनातन, अनादि, अनंत आदि शब्द बताए गए है, वो सब ईशान के ही द्योतक हैं I समस्त वैदिक महावाक्य, अंततः ईशान को ही दर्शाते हैं I
- द्वितीय ब्रह्म… सद्योजात ब्रह्म, सद्योजात नामक ब्रह्म, …
ईशान से सद्योजात ब्रह्म का स्वयं उदय हुआ था, इसलिए सद्योजात ही द्वितीय ब्रह्म हैं I
सद्योजात नामक ब्रह्म, बहुत सूक्ष्म लेकिन प्रकाशमान हेमा वर्ण (या पीले वर्ण) के होते हैं I
पञ्च ब्रह्म में इन सद्योजात ब्रह्म का स्थान पूर्व दिशा में है I
लेकिन क्यूंकि यह सद्योजात ब्रह्म भीतर की ओर, अर्थात ईशान की ओर देखते हैं, इसलिए इनकी दृष्टि के अनुसार इनकी दिशा पश्चिम ही है I
इनका वेद ऋग्वेद है और इनका महावाक्य प्रज्ञान ब्रह्म कहलाया है I
सद्योजात में ही ॐ मार्ग प्रशस्त होता है, अर्थात सद्योजात के भीतर ही ॐ का साक्षात्कार होता है I
सद्योजात को ही वेद मनिषियों ने हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहा है I
सद्योजात (अर्थात हिरण्यगर्भ) से ही काल अपने चक्र रूप में उदय हुआ था, इसलिए कालचक्र के मूल में सद्योजात ब्रह्म (अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म) ही हैं I
यही वो हिरण्यगर्भ ब्रह्म भी हैं जिनकी रजोगुणी अभिव्यक्ति कार्य ब्रह्म या सृष्टिकर्ता कहलाई थी I इसलिए वेदों के ब्रह्म भी यही कार्य ब्रह्म ही हैं I
इन सद्योजात ब्रह्म की पीठ, गोवर्धन मठ है, और इनका धाम, जगन्नाथ पुरी कहलाता है I हिरण्यगर्भात्मक सद्योजात ब्रह्म ही भगवान् जगन्नाथ हैं I
सद्योजात एक अतिविशाकलाय दशा है I
सद्योजात ज्ञानमय बुद्धि को दर्शाते हैं, इसलिए ज्ञानयोग के देवत्व बिंदु में सद्योजात ही मिलेंगे I साधक के विज्ञानमय कोष के देवता भी सद्योजात ही हैं I बुद्धि के देवता सद्योजात हैं I
ब्रह्मण्डीय विज्ञानमय कोष को ही सद्योजात कहते हैं I
इन्द्रलोक भी सद्योजात से ही संबधित है I देवराज इंद्र, हिरण्यगर्भ ब्रह्म (अर्थात सद्योजात ब्रह्म) के रजोगुणी अभिव्यक्ति, अर्थात कार्य ब्रह्म (या ब्रह्मा) के शिष्य ही हैं I
ज्ञान ब्रह्म नामक वाक्य के मूल में सद्योजात ही मिलेंगे I
सद्योजात ब्रह्म की दिव्यता, माँ गायत्री का हेमा मुख ही है I
- तृतीय ब्रह्म… तत्पुरुष ब्रह्म, तत्पुरुष नामक ब्रह्म, …
सद्योजात के उदय के पश्चात ही तत्पुरुष ब्रह्म का स्वयं उदय हुआ था I
तत्पुरुष नामक ब्रह्म, रक्त वर्ण, या लाल वर्ण या विद्रुमा वर्ण के होते हैं I लेकिन यह भगवे वर्ण के भी साक्षात्कार हो सकते हैं I
पञ्च ब्रह्म में इन तत्पुरुष ब्रह्म का स्थान उत्तर दिशा में है I
लेकिन क्यूंकि यह तत्पुरुष ब्रह्म भीतर की ओर, अर्थात ईशान की ओर देखते हैं, इसलिए इनकी दृष्टि के अनुसार इनकी दिशा दक्षिण ही है I
इनका वेद अथर्ववेद है, और इनका महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म कहलाया है I
इन तत्पुरुष ब्रह्म की पीठ ज्योतिर्मठ है, और इनका धाम बदरीनाथ कहलाता है I
तत्पुरुष में ही सर्वप्रथम निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ था, और जहाँ वो निर्गुण ब्रह्म एक निरंग सर्वव्यापक झिल्ली के समान थे I
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में, इन्ही निर्गुण निराकार ब्रह्म को सर्वव्यापक जल शब्द से सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही… लेकिन दर्शाया गया है I
तत्पुरुष एक विशालकाय दशा है I
तत्पुरुष रजोगुण को दर्शाते हैं I ब्रह्मण्डीय रजोगुण के देवता भी तत्पुरुष ही हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
तत्पुरुष और सद्योजात के मध्य में, अर्थात तत्पुरुष और सद्योजात की योगावस्था को ही कार्य ब्रह्म कहा जाता है I
कार्य ब्रह्म ही योगेश्वर, महेश्वर, योग ऋषि, योग सम्राट, योग गुरु, योगी और योगतंत्र कहलाते हैं I
इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, कोई योगी हुआ ही नहीं जो महेश्वर (अर्थात योगेश्वर) का नहीं था I
साधक की पञ्च ब्रह्म परिक्रमा के मार्ग में, जब चेतना इन्ही तत्पुरुष से सद्योजात की ओर गति करती है, तो तत्पुरुष और सद्योजात के मध्य में ही पृथ्वी महाभूत साक्षात्कार होता है I
और पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में, जब चेतना इन्ही तत्पुरुष से सद्योजात की ओर गति करती है, तो इन दोनों ब्रह्म के मध्य में ही उस अथाह सागर रूपी महाब्रह्माण्ड के साक्षात्कार के साथ साथ, ॐ, राम नाद और पञ्च मुखी सदाशिव का भी साक्षात्कार होता है I
माँ गायत्री का रक्ता मुख (अर्थात माँ गायत्री का विद्रुमा मुख) ही सद्योजात ब्रह्म की दिव्यता है I
- चतुर्थ ब्रह्म… वामदेव ब्रह्म, वामदेव नामक ब्रह्म, …
तत्पुरुष के उदय के पश्चात ही वामदेव ब्रह्म का स्वयं उदय हुआ था I
वामदेव नामक ब्रह्म, श्वेत और काले वर्ण के होते हैं I
पञ्च ब्रह्म में इन वामदेव ब्रह्म का स्थान पश्चिम दिशा में है I
लेकिन क्यूंकि यह वामदेव ब्रह्म भीतर की ओर, अर्थात ईशान की ओर देखते हैं, इसलिए इनकी दृष्टि के अनुसार इनकी दिशा पूर्व ही है I
इनका वेद सामवेद है, और इनका महावाक्य तत् त्वम् असि कहलाया है I
इन वामदेव ब्रह्म की पीठ द्वारका शारदा मठ है, और इनका धाम द्वारका पुरी कहलाता है I
वेदों में इनको ही प्रजापति कहा गया है, जो तैंतीस कोटि देवी देवताओं में अंतिम (या गंतव्य के) देवता हैं I
प्रजापति ही चतुर्मुखा ब्रह्म हैं, और इनके लोक को ही ब्रह्मलोक कहा जाता है I
सत्त्वगुण के देवता वामदेव ही हैं I
शून्य के देवता भी वामदेव ही हैं I
समता और सर्वसमता के देवता भी वामदेव ही हैं I
सगुण निर्गुण के देवता भी यही वामदेव ही हैं I
सृष्टि और लय, दोनों के समता-स्वरूप के देवता भी वामदेव ही है I
इन्ही वामदेव के प्रजापति स्वरूप को, सर्वसम सगुण साकार चतुरमुखा पितामह प्रजापति भी कहा जा सकता है I
इन्ही प्रजापति का लोक ब्रह्मलोक कहलाता है, जो प्रजापति के सामान ही अति प्रकाशमान हीरे जैसा होता है, और जिसको ब्रह्मलोक के बीस नीचे के लोकों को पार करके ही जाया जाता है I
माँ गायत्री का धवला मुख (अर्थात माँ गायत्री का श्वेत मुख) ही वामदेव ब्रह्म की दिव्यता है I
- पञ्चम ब्रह्म… अघोर ब्रह्म, अघोर नामक ब्रह्म, …
वामदेव के उदय के पश्चात ही अघोर ब्रह्म का स्वयं उदय हुआ था I
अघोर नामक ब्रह्म, गाढ़े नीले वर्ण के होते हैं I
पञ्च ब्रह्म में इन अघोर ब्रह्म का स्थान दक्षिण दिशा में है I
लेकिन क्यूंकि यह अघोर ब्रह्म भीतर की ओर, अर्थात ईशान की ओर देखते हैं, इसलिए इनकी दृष्टि के अनुसार इनकी दिशा उत्तर ही है I
इनका वेद यजुर्वेद है और इनका महावाक्य अहम् अहं ब्रह्मास्मि कहलाया है I
इन अघोर ब्रह्म की पीठ शृंगेरी शारदा मठ है, और इनका धाम रामेश्वरम कहलाता है I
तमोगुण के देवता अघोर ही हैं I
अघोर से ही शून्य समाधि का मार्ग प्रशस्त होता है I
आज के समयखण्ड में, आकाश गंगा में जिन ब्रह्म में यह सूर्यलोक मूल रूप में स्थित है, वो अघोर ही हैं I
अघोर मेरे गुरुपिता भी हैं I
अब ध्यान देना…
ऊपर बताए गए भागों के अनुसार, पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय का क्रम वैसा ही था, जैसा नीचे बताया गया है…
ईशान सद्योजात तत्पुरुष वामदेव अघोर I
उत्कर्ष मार्ग में, इस क्रम से विपरीत क्रम में ही साधक को इन पञ्च ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I
यदि इनके दिशा संकेतों से इन पञ्च ब्रह्म को जाना जाएगा, तो दिशाओं का स्वयं उदय भी जाना जा सकता है I इस अध्यन में दिशाओं का स्वयं उदय भी ऐसा ही होगा …
मध्य (गंतव्य, अंतरव्यापी और सर्वव्यापी) पूर्व उत्तर पश्चिम दक्षिण I
टिपण्णी: लेकिन ऊपर जो बताया गया है, वह तो आकाशगंगा में सूर्य की गति को भी दर्शाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
और यदि इन पञ्च ब्रह्म से वेदों के स्वयं उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
सर्ववेद (वेदांत या उपनिषद) ऋग्वेद अथर्ववेद सामवेद यजुर्वेद I
टिपण्णी: इसलिए इस कलयुग में जो ग्रंथ या मनीषी कहते हैं, कि अथर्ववेद तो वेद है ही नहीं, वो सभी अनभिज्ञ हैं I और जो कहते हैं, कि वेद तीन ही होते हैं, उनको भी अनभिज्ञ ही मानना चाहिए I
यदि पीठों की प्राथमिक स्थापना से उनके क्रम को जाना जाएगा, तो ऐसा होगा…
पिण्डमठ गोवर्धनमठ ज्योतिर्मठ द्वारकामठ शृंगेरीमठ I
और यदि धाम चतुष्टय से इन पञ्च ब्रह्म के उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
आत्मपुरी, जगन्नाथ पुरी, बद्रीनाथ आश्रम, द्वारका पुरी, रामेश्वरम धाम
और यदि महावाक्यों के दृष्टिकोण से उनके ज्ञानोदय क्रम को को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
सोऽहं, प्रज्ञानं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, तत् त्वम् असि, अहं ब्रह्मास्मि
और यदि ब्रह्म बिन्दुओं के दृष्टिकोण से इन पञ्च ब्रह्म के उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
निर्गुण ब्रह्म, हिरण्यगर्भ ब्रह्म, कार्य ब्रह्म, चतुर्मुखा प्रजापति, अहम् ब्रह्म
टिपण्णी: यहाँ कहा गया अहम् ब्रह्म ही विश्वरूप ब्रह्म हैं, और प्रजापति ही सर्वसम ब्रह्म हैं I
और यदि आयाम के दृष्टिकोण से उनके स्वयं उदय को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
निराधार ब्रह्म, काल ब्रह्म, दिशा ब्रह्म, दशा ब्रह्म, आकाश ब्रह्म
यदि इन पञ्च ब्रह्म के गुणों से इनके स्वयं उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
निर्गुण ब्रह्म, ज्ञान ब्रह्म, रजोगुण ब्रह्म, सत्त्वगुण ब्रह्म, तमोगुण ब्रह्म
यदि इन पञ्च ब्रह्म के मूल तत्त्वों से इनके स्वयं उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
ब्रह्मत्व, बुद्धत्व, जगतत्व, जीवत्व, देवत्व
यदि सांख्य दर्शन के तत्त्वों से इन पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
अंतःकरण, प्राण, ज्ञानेंद्रिय, तन्मात्र, कर्मेन्द्रिय
टिप्पणियां: ऊपर बताए गए बिंदुओं में, …
- अंतःकरण चतुष्टय का प्रधान नाता आकाश महाभूत से है I
- पञ्च प्राण का प्रधान नाता वायु महाभूत से है I
- पञ्च ज्ञानेन्द्रियों का प्रधान नाता अग्नि महाभूत से है I
- पञ्च तन्मात्र का प्रधान नाता जल महाभूत से है I
- पञ्च कर्मेन्द्रियों का प्रधान नाता पृथ्वी महाभूत से है I
और अंत में यदि समाधी मार्ग से इन ब्रह्म के स्वयं उदय क्रम को जाना जाएगा, तो वो ऐसा होगा…
निर्विकल्प ब्रह्म, स्व:प्रकाश ब्रह्म, विराट ब्रह्म, सर्वसम ब्रह्म, विश्वरूप ब्रह्म
आगे बढ़ता हूँ…
इसका अर्थ हुआ, कि पञ्च ब्रह्म का स्वयं उदय अप्रदक्षिणा मार्ग से, (या अपरिक्रमा मार्ग से) होता है I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि घड़ी की सुई की उलटी दिशा में ही पञ्च ब्रह्म का स्वयं उदय एक के बाद एक, उसी क्रम में हुआ था जैसा ऊपर बताया गया है I
इन सभी में पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय के मार्गानुसार, जो मार्ग आता है, यही वाम मार्ग कहलाया जाता है I
उत्पत्ति मार्ग से विपरीत उत्कर्ष मार्ग होता है, उत्पत्ति मार्ग से विपरीत मुक्तिमार्ग होता है, … उत्पत्ति और मुक्ति का नाता, … प्रदक्षिणा का महत्त्व, परिक्रमा का महत्त्व, … प्रदक्षिणा मार्ग ही कैवल्य मार्ग है, परिक्रमा मार्ग ही मुक्तिमार्ग है, दक्षिण मार्ग ही ब्रह्मपथ है, दक्षिण मार्ग ही लयमार्ग है, दक्षिण मार्ग ही उत्कर्ष मार्ग है, दक्षिण मार्ग ही मुक्तिपथ है, प्रदक्षिणा मार्ग ही मुक्ति मार्ग है, …पञ्च ब्रह्मोपनिषद प्रदक्षिणा, पञ्च ब्रह्मोपनिषद परिक्रमा, गायत्री परिक्रमा, गायत्री विद्या परिक्रमा, गायत्री सरस्वती विद्या परिक्रमा, गायत्री विद्या परिक्रमा, गायत्री सरस्वति परिक्रमा, गायत्री विद्या सरस्वती परिक्रमा और गायत्री सरस्वती विद्या परिक्रमा, ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, गायत्री ब्रह्म परिक्रमा, गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा, पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्च ब्रह्म परिक्रमा, पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, गायत्री पञ्च ब्रह्म परिक्रमा, गायत्री पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा, चतुष्पाद गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा, चतुष्पाद गायत्री ब्रह्म परिक्रमा, चतुष्पाद पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, चतुष्पाद पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा, …
उत्पत्ति मार्ग से विपरीत दिशा में ही उत्कर्ष मार्ग जाता है, और वो उत्कर्ष मार्ग ही ब्रह्मपथ कहलाता है I
उत्कर्ष मार्ग की गंतव्य गति को मुक्तिमार्ग भी कहा जा सकता है, इसलिए मुक्तिमार्ग (या कैवल्य मार्ग) उत्पत्ति मार्ग से विपरीत दिशा में ही होता है I
पूर्व में बताया गया था, कि उत्पत्ति का मार्ग वाम हस्त की दिशा पर होता है, अर्थात वाम दिशा (या बाएं हस्त) की दिशा में उत्पत्ति होता है, इसलिए जो उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग (या कैवल्यमार्ग या ब्रह्मपथ) होगा, वो उत्पत्ति मार्ग से विपरीत दिशा, अर्थात दक्षिण हस्त की ओर ही जायेगा I
यही कारण है, कि दाहिने हस्त का मार्ग ही उत्कर्षमार्ग स्वरूप में आया था, और यही मार्ग, प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहलाया था I
इसका अर्थ हुआ, कि प्रदक्षिणा पथ (या परिक्रमा पथ) उत्कर्ष मार्ग के गंतव्य स्वरूप, मुक्तिमार्ग को ही दर्शाता है I
और यही बिंदु, प्रदक्षिणा (या परिक्रमा) की महती का भी द्योतक है, क्यूंकि प्रदक्षिणा पथ (या परिक्रमा पथ) मुक्तिमार्ग ही है I
इसीलिए, प्रदक्षिणा मार्ग ही कैवल्य मार्ग है, अर्थात परिक्रमा मार्ग ही मुक्तिमार्ग है, जिसका दक्षिण दिशा से संबंध होने के कारण, यह दक्षिण मार्ग भी कहलाता है I
और क्यूंकि इसी मार्ग से साधक की चेतना देवत्व बिंदुओं में ही लय हो जाती है, इसलिए साधक की चेतना की गति के अनुसार, यह दक्षिण मार्ग ही मुक्तिमार्ग कहलाता है I
और यही प्रदक्षिणा की महिमा भी है I
पञ्च मुखा गायत्री और पञ्च ब्रह्म का नाता, पञ्च मुखी गायत्री और पञ्च ब्रह्म का नाता, … पञ्च मुखी गायत्री और पञ्च ब्रह्मोपनिषद का नाता, पञ्च मुखा गायत्री और पञ्च ब्रह्मोपनिषद का नाता, … गायत्री के पाँच मुख, … माँ गायत्री के मुक्ता हेमा रक्ता धवला नीला मुख, … माँ गायत्री के निरंग पीला लाल श्वेत नीला मुख, मुक्ता हेमा रक्ता धवला नीला मुख, निरंग पीला लाल श्वेत नीला मुख, माँ गायत्री के मुक्ता हेमा विद्रुमा धवला नीला मुख, मुक्ता हेमा विद्रुमा धवला नीला मुख, माँ गायत्री के निरंग पीला लाल श्वेत नील मुख, …
वेदों में दर्शाई गई माँ गायत्री को पञ्च मुखा गायत्री भी कहा गया है I
ऐसा इसलिए कहा गया है क्यूंकि माँ गायत्री के पाँच मुख होते हैं, जिनको वेद मनीषियों ने ऐसे बताया है…
- माँ गायत्री का मुक्ता मुख, मुक्ता मुख, माँ गायत्री का निरंग मुख, निरंग मुख, माँ गायत्री का निर्गुण मुख, निर्गुण मुख, माँ गायत्री का आकाश की ओर देखने वाला मुख, माँ गायत्री का मुक्ति की ओर देखने वाला मुख, … माँ गायत्री का मुक्ता मुख और ईशान ब्रह्म, …
यह मुख निरंग होता है, इसीलिए निर्गुण ब्रह्म से ही संबंधित होता है I
और क्यूँकि निर्गुण ब्रह्म ही ईशान नामक ब्रह्म हैं, इसलिए माँ गायत्री का मुक्ता मुख, ईशान ब्राम से ही संबंध रखता है I
क्यूंकि निर्गुण ब्रह्म कैवल्य मोक्ष के ही द्योतक है, इसलिए इस मुख को मुक्ता कहा गया है I
पञ्च ब्रह्म में, इस मुख का संबंध ईशान ब्रह्म से ही होता है, इसीलिए माँ गायत्री के पाँच मुखों में से, और ईशान ब्रह्म के समान यह मुख अनादि अनंत और सनातन ही है I ईशान ही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं, और माँ गायत्री का मुक्ता मुख, उन ईशान ब्रह्म की दिव्यता, अदि पराशक्ति I
और क्यूँकि देवी ही देवता की वो दिव्यता होती हैं, जो उन देवता से सनातन योग में रहती हैं, इसलिए माँ गायत्री का मुक्ता मुख, ईशान ब्रह्म की दिव्यता का भी द्योतक है I
और क्यूंकि ईशान ब्रह्म, जो निर्गुण ब्रह्म ही हैं, उनकी दिव्यता को ही ब्रह्मशक्ति कहा जाता है, इसलिए माँ गायत्री का यह निरंग मुख (अर्थात मुक्ता मुख) उन्ही ब्रह्मशक्ति का द्योतक भी है I
- माँ गायत्री का हेमा मुख, माँ गायत्री का पीला मुख, हेमा मुख, पीला मुख, माँ गायत्री का हेमा मुख और सद्योजात ब्रह्म, …
यह मुख पीले वर्ण होता है, अतिसूक्ष्म होता है, और ज्ञान का द्योतक भी है I
पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा में, माँ गायत्री का हेमा मुख सद्योजात ब्रह्म से ही संबंधित है I
और क्यूँकि देवी ही देवता की वो दिव्यता होती हैं, जो उन देवता से सनातन योग में रहती हैं, इसलिए माँ गायत्री का हेमा मुख, सद्योजात ब्रह्म की दिव्यता का भी द्योतक है I
क्यूँकि पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय के समय, सद्योजात के स्वयं उदय का क्रम दूसरा था, इसलिए स्वयं उदय के दृष्टिकोण से, माँ गायत्री का पीला मुख भी दूसरा ही है I
- माँ गायत्री का रक्ता मुख, माँ गायत्री का लाल मुख, रक्ता मुख, लाल मुख, विद्रुमा मुख, माँ गायत्री का रक्ता मुख और तत्पुरुष ब्रह्म, माँ गायत्री का विद्रुमा मुख और तत्पुरुष ब्रह्म, माँ गायत्री का विद्रुमा मुख, …
यह मुख लाल वर्ण होता है, और रजोगुण का द्योतक है I
गायत्री पञ्च ब्रह्म परिक्रमा में, माँ गायत्री का रक्ता मुख, तत्पुरुष ब्रह्म से संबंधित है I
और क्यूँकि देवी ही देवता की वो दिव्यता होती हैं, जो उन देवता से सनातन योग में रहती हैं, इसलिए माँ गायत्री का रक्ता मुख, तत्पुरुष ब्रह्म की दिव्यता का भी द्योतक है I
क्यूँकि पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय के समय, तत्पुरुष के स्वयं उदय का क्रम तीसरा था, इसलिए स्वयं उदय के दृष्टिकोण से, माँ गायत्री का लाल मुख भी तीसरा ही है I यही मुख से माँ गायत्री उग्र कहलाती है I
और पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में, यही वो मुख है जिसमें निर्गुण ब्रह्म का प्रथम साक्षात्कार भी होता है I
- माँ गायत्री का धवला मुख, माँ गायत्री का श्वेत मुख, धवला मुख, श्वेत मुख, माँ गायत्री का काला श्वेत मुख, माँ गायत्री का श्वेत काला मुख, माँ गायत्री का धवला मुख और वामदेव ब्रह्म, माँ गायत्री का श्वेत मुख और वामदेव ब्रह्म, …
यह मुख श्वेत वर्ण होता है, और सत्त्वगुण का द्योतक भी है I
इस मुख को रात्रि के समान एक दशा ने घेरा भी होता है और वो दशा ही शून्य कहलाई थी I इसलिए इस मुख को माँ गायत्री का श्वेत काला मुख भी कहा जा सकता है I
गायत्री पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा में, माँ गायत्री का धवला मुख वामदेव ब्रह्म से संबंधित है I
और क्यूँकि देवी ही देवता की वो दिव्यता होती हैं, जो उन देवता से सनातन योग में रहती हैं, इसलिए माँ गायत्री का धवला मुख, वामदेव ब्रह्म की दिव्यता का भी द्योतक है I
क्यूँकि पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय के समय, वामदेव के स्वयं उदय का क्रम चौथा था, इसलिए स्वयं उदय के दृष्टिकोण से, माँ गायत्री का धवला मुख भी चौथा ही है I
- माँ गायत्री का नीला मुख, नीला मुख, नील मुख, माँ गायत्री का नीला मुख और अघोर ब्रह्म, माँ गायत्री का नील मुख और अघोर ब्रह्म, माँ गायत्री का नील मुख, …
यह मुख गाढ़े नीले वर्ण होता है, और तमोगुण का द्योतक भी है I
इस मुख को भी रात्रि के समान एक दशा ने घेरा भी होता है, और वो दशा ही शून्य कहलाई थी I
पञ्च ब्रह्म में, इस मुख का संबंध अघोर ब्रह्म से ही होता है I
और क्यूँकि देवी ही देवता की वो दिव्यता होती हैं, जो उन देवता से सनातन योग में रहती हैं, इसलिए माँ गायत्री का नील मुख, अघोर ब्रह्म की दिव्यता का भी द्योतक है I
क्यूँकि पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय के समय, अघोर के स्वयं उदय का क्रम अंतिम (या पांचवा) था, इसलिए स्वयं उदय के दृष्टिकोण से, माँ गायत्री का लाल मुख भी पाँचवाँ ही है I
आगे बढ़ता हूँ…
इसलिए माँ गायत्री के पाँच मुखों के स्वयं उदय (या स्वयं प्रकटीकरण) के दृष्टिकोण से, इनका क्रम ऐसा है …
मुक्ता हेमा रक्ता धवला नीला I
मुक्ता हेमा विद्रुमा धवला नीला I
और उत्कर्ष मार्ग में, इस बताए गए क्रम से विपरीत क्रम में ही साधक को इन मुखों का साक्षात्कार होता है I
पञ्च मुखा गायत्री सिद्धि, गायत्री और गंतव्य सिद्धि, गुणात्मक सिद्धि, सर्वात्मक सिद्धि,ज्ञानात्मक सिद्धि, रचनात्मक, सिद्धि, समतात्मक सिद्धि, शून्यात्मक सिद्धि, अरचनात्मक सिद्धि, …
माँ गायत्री के इन पाँच मुख में से…
- मुक्ता मुख, … सर्वात्मक है I और इस मुख की गंतव्य दशा को ही सर्वातीत मुक्ति कहते हैं, और इसके सिद्ध का आत्मा ही सर्वात्मा कहलाता है I
- हेमा मुख, … हेमा मुख ज्ञानात्मक है I और इस मुख की गंतव्य सिद्धि को ही ज्ञानात्मा कहते हैं I और इसके अंतर्गत ही बुद्धत्व का सिद्धांत भी आता है जिसमें योगी ब्रह्म की समस्त रचना को ऐसे देखता है, जैसे वो उस समस्त रचना को अपने ही भीतर बसे हुए किसी ज्ञानदर्पण में देख रहा हो I
- रक्ता मुख, … रक्ता मुख रजोगुणी है, इसलिए यह मुख रचनात्मक है I और इस मुख की गंतव्य सिद्धि को ही कार्य ब्रह्म (या योगेश्वर) कहते हैं I इसकी सिद्धि के धारक साधक का चित्त भी रजोगुणी हो जाता है, अर्थात लाल वर्ण का हो जाता है I और इस सिद्धि के गंतव्य को चिदात्मा भी कहा जाता है I
- धवला मुख, … धवला मुख सत्त्व गुणी है, इसलिए समतात्मक है I और इस मुख की गंतव्य सिद्धि को ही सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति कहते हैं I इसकी सिद्धि ही मनात्मा को दर्शाती है I
- नीला मुख, … नीला मुख तमोगुणी है, इसलिए अरचनात्मक है I और इस मुख की गंतव्य सिद्धि को ही आत्यंतिक प्रलय कहते हैं I इसकी सिद्धि ही अहमात्मा को दर्शाती है और जहाँ यह अहम् शब्द विशुद्ध होने के कारण, ब्रह्म का ही वाचक है I
इसलिए, माँ पञ्च मुखी गायत्री के मुखों में से, चार मुख ब्रह्म की रचना से संबंधित होते हैं, और एक मुख जिसको मुक्ता कहा जाता है, वो उस कैवल्य मुक्ति का द्योतक होता है, जिसका संबंध निर्गुण ब्रह्म से है I
इन पांच मुखों में से मुक्ता मुख ही सर्वसाक्षी ब्रह्म है I
प्रदक्षिणा के प्रभेद, प्रदक्षिणा के प्रकार, परिक्रमा के प्रभेद, परिक्रमा के प्रकार, …
प्रदक्षिणा या परिक्रमा कई प्रकार से करी जा सकती है, इसलिए अब उन मार्गों में से मुख्य मार्गों को बताता हूँ …
- स्थूल शरीर से प्रदक्षिणा, … इसमें साधक किसी भी देवत्व बिंदु के स्थान पर (या की) परिक्रमा करता है, जैसे कोई मंदिर या देव दुर्ग, कोई देव स्थान, भूधर, कोई देवत्व धारण करी हुई या देवत्व को दर्शाती वनस्पति, कोई गुरु या सिद्ध या माता पिता या साक्षात् भगवान् ही (जैसे भगवत स्वरूप योगी या कोई अवतार) I
- मानसिक प्रदक्षिणा, सांकेतिक प्रदक्षिणा, … इसमें साधक मन से ही वो प्रदक्षिणा सांकेतिक रूप में कर लेता है, इसलिए यह सांकेतिक परिक्रमा भी कहलाती है I इसमें साधक अपनी इच्छा शक्ति का आलंबन लेके वो प्रदक्षिणा पूर्ण करता है I
तो यह थी काया और मन का आलंबन लेके करी गई प्रदक्षिणा I
अब योग मार्ग से करी गई प्रदक्षिणा के बारे में बताता हूँ…
- सूक्ष्म शरीर से प्रदक्षिणा, … इसमें साधक सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही यह प्रदक्षिणा करता है I लेकिन इसके लिए सूक्ष्म शरीर गमन नामक सिद्धि और किसी उच्च सत्ता का अनुग्रह चाहिए होगा I
- कारण शरीर से प्रदक्षिणा, … इसमें साधक अपने कारण शरीर के माध्यम से ही यह प्रदक्षिणा करता है I लेकिन इसके लिए कारण शरीर गमन नामक सिद्धि और किसी उच्च सत्ता का अनुग्रह चाहिए होगा I
- सिद्ध शरीर प्रदक्षिणा, … इसमें साधक अपनी वो सिद्धियां जो किसी न किसी सिद्धलोक (या देवादि लोकों) से संबंधित होती है, उन सिद्धियों के ही शरीरी रूप का आलंबन लेके यह प्रदक्षिणा पूर्ण कर लेता है I लेकिन इसके लिए वो सिद्ध शरीर भी चाहिए होंगे, और जिनके धारक, विरले ही होते हैं I
- परमाणु प्रदक्षिणा, … यह भी एक मार्ग है, जिसमें साधक अपने ही परमाणुओं से वो प्रदक्षिणा करवाता है I लेकिन इससे आगे मैं इसको नहीं बताना चाहता हूँ I
तो अब उस प्रदक्षिणा को बताता हूँ, जो आंतरिक या आत्ममार्ग से होती है, अर्थात स्वयं ही स्वयं के मार्ग से जाकर करी जाती है I
- आंतरिक प्रदक्षिणा, … यह वो प्रदक्षिणा है, जिसमें साधक अपनी काया के भीतर बसे हुए प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करके, सिद्ध करेगा I
ऐसी प्रदक्षिणा में साधक उसके भीतर के ब्रह्माण्ड और उस ब्रह्माण्ड के देवत्व बिंदुओं का साक्षात्कार करने के पश्चात, इस परिक्रमा को आत्ममार्ग से ही सम्पन्न करता है I
ऐसा इसलिए संभव है, क्यूंकि निर्गुण ब्रह्म सहित, जो कुछ भी उन ब्रह्म की रचना में है, वो सब साधक की काया में भी होता है I
लेकिन इसको तो अधिकांश योगीजन भी नहीं कर पाते हैं, तो आम साधकगणों के लिए क्या कहूँ I
प्रदक्षिणा मार्ग साधक के दृष्टिकोण से होता है, प्रदक्षिणा मार्ग में साधक दक्षिण मार्गी होता है, … प्रदक्षिणा की परिभाषा, परिक्रमा की परिभाषा, प्रदक्षिणा क्या है?, परिक्रमा क्या है?, … दक्षिण मार्ग ही प्रदक्षिणा मार्ग है, साधक का दक्षिण मार्ग ही प्रदक्षिणा मार्ग है, दक्षिण मार्ग ही परिक्रमा मार्ग है, साधक का दक्षिण मार्ग ही परिक्रमा मार्ग है, … वाम और दक्षिण मार्ग का योग, वाम मार्ग और दक्षिण मार्ग, वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग, वाम पथ, दक्षिण पथ, वाम पथ और दक्षिण पथ का योग, …
अब ध्यान देना…
साधक का दक्षिण मार्ग ही प्रदक्षिणा मार्ग कहलाता है I
जब साधक दक्षिण मार्गी होता है, वह परिक्रमा मार्ग है I
पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा मार्ग में भी साधक दक्षिण मार्गी ही होता है I
इसका अर्थ हुआ, कि साधक के प्रदक्षिणा मार्ग में देवी देवता किस ओर देख रहे हैं, उससे कुछ भी लेना देना नहीं है I देवत्व बिंदुओं के चारों ओर घूमती हुई साधक की दाहिने ओर की गति को ही प्रदक्षिणा कहते हैं I
अब थोड़ा और ध्यान देना …
आगे के चित्र में बाहर की और दिखाए गए चार ब्रह्म, जो सद्योजात, अघोर, वामदेव और तत्पुरुष है, वो अंतर्मुखी होकर उनके अपने भीतर की ओर, अर्थात ईशान ब्रह्म की ओर देख रहे हैं I पाँच ब्रह्म और पञ्च मुखी गायत्री के साक्षात्कार में ऐसा ही पाया जाता है I
और जो साधक की प्रदक्षिणा करता है, वो ईशान की ओर खड़ा हुआ है (अर्थात इन चार ब्रह्म के मध्य में खड़ा हुआ), और इन चार ब्रह्म की ओर देखकर, इनकी प्रदक्षिणा कर रहा है I
इसका अर्थ हुआ, कि इस अध्याय के सभी चित्रों में, वो साधक उस दशा में खड़ा हुआ है, जहाँ ईशान हैं, अर्थात वो साधक, ईशान की ओर खड़ा होकर, इन चार ब्रह्म को देखते हुए ही प्रदक्षिणा करता है I इसलिए, इस चित्र के मार्ग में, वो साधक इन चार ब्रह्म के मध्य की ओर स्थित होकर ही, मध्य के ईशान से बाहर को ओर देखता हुआ इस प्रदक्षिणा को करता है I
और जहाँ वो मार्ग, सद्योजात से अघोर, अघोर से वामदेव और वामदेव से तत्पुरुष और तत्पुरुष से सद्योजात की ओर जाता है I
अब थोड़ा और ध्यान देना …
इसलिए, जबकि साधक के दृष्टिकोण से यह दक्षिण मार्ग ही है, अर्थात प्रदक्षिणा मार्ग ही है, लेकिन इन चारों ब्रह्म के दृष्टिकोण से यह वाम मार्ग ही कहलायेगा I
इसलिए, साधक के दृष्टिकोण से यह उत्कर्ष मार्ग और मुक्तिपथ है I लेकिन इन चार ब्रह्म के दृष्टिकोण से यह उत्पत्ति का मार्ग है I वो उत्पत्ति भी, इन्ही पञ्च ब्रह्म से होती है और साधक के लिए मुक्तिपथ नामक स्वरूप में होती है I
इसलिए, इन चार ब्रह्म के दृष्टिकोण से ऐसी, वाम दिशा के मार्ग पर गमन करने के कुछ समय के पश्चात, साधक की काया में ही समस्त देवत्व आदि बिंदु (जैसे इन ब्रह्म की सिद्धियां और सिद्ध शरीर) आदि प्रकट होने लगेंगे I
और क्यूंकि ऐसा होने पर भी साधक दक्षिण मार्गी ही था, इसलिए वो सिद्ध शरीर आदि देवत्व बिंदु, जो वाम मार्ग से स्वयं प्रकट हुए थे, वो उन्ही देवत्व मूल (अर्थात देवी देवता इत्यादि) में ही विलीन हो जाते हैं I
अब ध्यान देना …
जब साधक की काया के भीतर, जो कुछ भी ब्रह्माण्ड और उसकी दिव्यताओं का था, वो उसके मूल कारणों में विलीन हो गया, वह मुक्तिपथ है I
जब साधक के भीतर का ब्रह्माण्ड ही उसके कारण में विलीन हो जाएगा, वही मुक्तिपथ है, जो प्रदक्षिणा मार्ग कहलाता है I
जब ऐसा होने का उचित समय और दशा आएगी, तब ही वो साधक दक्षिण मार्गी होकर, इस प्रदक्षिणा पर पुनः जाएगा I और इस प्रदक्षिणा मार्ग पर ही वो साधक, पञ्च मुखी सदाशिव प्रदक्षिणा को पूर्ण भी पड़ेगा, जिसको एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
आज मानव समाक द्वारा करि जा रही प्रदक्षिणा की विडम्बना को बताता हूँ …
जबतक तुम कुछ पाओगे ही नहीं, उसको त्यागोगे कैसे? I
जबतक तुम कुछ सिद्धि पाओगे ही नहीं, उसका त्याग करके, उस सिद्धि के देवत्व बिंदु से आगे कैसे जाओगे? I
जबतक तुम समस्त ब्रह्माण्ड उसके समस्त देवत्व बिंदुओं को ही अपनी काया के भीतर नहीं पाओगे, तबतक तुम ब्रह्माण्ड और उसके समस्त देवत्व बिंदुओं को त्यागोगे कैसे? I
जबतब तुम त्यागोगे नहीं, तबतक ब्राह्मणदातीत कैसे हो पाओगे? I
जबतक तुम ब्राह्मणदातीत ही नहीं होंगे, तबतक मुक्ति को प्राप्त कैसे होगे? I
सर्वातीत दशा ही तो मुक्ति कहलाती है, और वो सर्वातीत ही तो सर्वाधार भी है I
क्यूंकि आजकल साधकगण, देवी देवता की प्रदक्षिणा उन देवी देवताओं के बाहर से करते हैं, इसलिए उनके शरीरों में उन देवी देवताओं के देवत्व बिंदु, जैसे उन देवी देवताओं की सिद्धियां और उनके सिद्ध शरीर आदि प्रकट ही नहीं होते हैं I
इसका कारण है, कि वो प्रदक्षिणा मार्ग देवी देवता और साधक, सभी के दृष्टिकोण से दक्षिण पथ ही है I
लेकिन साधकगण के शरीरों में सिद्धियाँ तो उत्पत्ती मार्ग से, अर्थात वाम मार्ग से ही प्रकट होती हैं I
और ऐसे प्रकटीकरण के पश्चात, यदि साधक उसकी अन्तर्दशा से त्यागी होगा, वो वो सिद्धियाँ, उन सिद्धियों के देवत्व आदि बिंदुओं (देवी देवता) में दक्षिण पथ से विलीन हो जाती हैं I
इसी विलीन प्रक्रिया के पश्चात ही साधक मुक्ति को पाता है I
इसलिए…
दक्षिण पथ (प्रदक्षिणा पथ) मुक्ति पथ है, … वाम पथ ही उत्पत्ति पथ है I
तो अब मैंने कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक रूप से, वो कह दिया जो मैं कहना चाहता था I
इसलिए, इस अध्याय में अब पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा पर बात करता हूँ I
पञ्च ब्रह्मोपनिषद प्रदक्षिणा, पञ्च ब्रह्मोपनिषत प्रदक्षिणा, … पञ्च ब्रह्मोपनिषद परिक्रमा, पञ्च ब्रह्मोपनिषत परिक्रमा, … चतुष्पाद ब्रह्म प्रदक्षिणा, चतुष्पाद ब्रह्म परिक्रमा, …
तो अब ऊपर बताए गए बिंदुओं का आधार बनाकर, इस अध्याय के मुख्य बिंदु पर आता हूँ, जो पञ्च ब्रह्मोपनिषद प्रदक्षिणा (या पञ्च ब्रह्मोपनिषद परिक्रमा) का है I
क्यूंकि परिक्रमा या प्रदक्षिणा मार्ग, उत्पत्ति के मार्ग से विपरीत होता है, इसलिए ऐसा ही इस चित्र में भी दिखाया गया है I
इस भाग का चित्र पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा का मार्ग ही दिखा रहा है I और इस चित्र में जो चार अंक दिखाए गए हैं, वो इस प्रदक्षिणा के चार पाद हैं, इसलिए इस प्रदक्षिणा को चतुष्पाद ब्रह्म प्रदक्षिणा भी कहा जा सकता है I
टिप्पणियां:
- इस चित्र में बाहर के चार ब्रह्म, भीतर की ओर अर्थात ईशान की ओर देख रहे हैं I इसलिए यह चित्र भी ब्रह्म की अन्तर्मुखी दशा को ही दर्शा रहा है I
- चौथे चरण में, तत्पुरुष से सद्योजात में कई सारी दशाएं आती हैं, जैसा इस चित्र में दिखाया गया है I लेकिन इन दशाओं के बारे में एक बाद के अध्याय श्रंखलाओं में ही बात होगी I
आगे बढ़ता हूँ…
यह प्रदक्षिणा मार्ग मेरा मार्ग है, और इसी जन्म में जैसे हुआ, वैसे ही दिखाया गया है I
और इस चित्र के मार्ग में, जो प्रथम पाद दिखाया गया है, वो सद्योजात ब्रह्म से प्रारम्भ होता है I ऐसा होने का कारण है, कि मेरा इस शरीर में परकाया प्रवेश प्रक्रिया से आगमन, सद्योजात से ही हुआ है I
लेकिन इस चित्र में दिखाया हुआ प्रथम पाद, उस साधक के लिए ही लागू होगा, जिसको सद्योजात ब्रह्म से (या सद्योजात ब्रह्म से संबंधित किसी लोक से) किसी स्थूल देह में लौटाया गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
इसलिए यदि कोई जीव, इन पञ्चब्रह्म में से किसी और ब्रह्म से (या उन ब्रह्म से संबंधित लोक से) लौटेगा, तो उस जन्म में उस जीव के प्रदक्षिणा का प्रथम पाद भी, उन्ही ब्रह्म से प्रारम्भ होगा (जिनसे वो जीव किसी काया रूप में लौटा है) I
इसका अर्थ हुआ, कि किसी भी जन्म में और किसी भी जीव का ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, उन्ही ब्रह्म से प्रारम्भ होता है, जिनसे उस जीव की चेतना उसके शरीरी रूप में आई थी I
इसलिए यदि पञ्चब्रह्म में से, जिस भी ब्रह्म से संबंधित लोकों से उस जीव की चेतना शरीरी रूप में आई थी, उन्ही ब्रह्म से उस जीव की प्रदक्षिणा का मार्ग प्रारंभ होता है I
और ऐसा तब भी होता है, जब उस जीव को इस बिंदु का पता भी नहीं होगा I
लेकिन, इस जन्म में मेरे लिए तो इस प्रदक्षिणा का प्रारम्भ, सद्योजात ही हुआ था, क्यूंकि उन सद्योजात से संबंधित कार्य ब्रह्म या सृष्टिकर्ता (अर्थात योगेश्वर या महेश्वर) के लोक से ही लौटा हूँ I
तो अब इस प्रदक्षिणा पथ को थोड़ा विस्तार से बताता हूँ, लेकिन मेरे इस जन्म के मार्गानुसार …
- मेरी ब्रह्म प्रदक्षिणा का प्रथम पाद, … यह उस स्थान का है, जिससे साधक का इस मृत्युलोक में आगमन होता है I अर्थात जिस ब्रह्म से संबंधित लोक से साधक की चेतना, काया रूप में लौटी है, वही प्रथम पाद होता है I
क्यूंकि मेरी चेतना सद्योजात ब्रह्म से संबंधित कार्य ब्रह्म से ही लौटाई गई थी, इसलिए इस चित्र में सद्योजात ब्रह्म को ही प्रथम पाद के आरम्भ में दिखाया गया है I
और यही कारण है कि इस चित्र में, पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा का प्रारम्भ सद्योजात से ही किया गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
मेरे इस जन्म में प्रदक्षिणा का यह पहला पद, सद्योजात ब्रह्म से अघोर ब्रह्म को गया था, जिनके बारे में पूर्व के अध्यायों में बताया जा चुका है I
अब ध्यान देना…
जब किसी जीव का जन्म, मुक्ति हेतु होता है, अर्थात यदि उस जीव की योनि उसको मुक्ति में स्थापित कर सकती है, तो उस जीव की चेतना (आत्मा) दक्षिण मार्गी होकर ही काया में प्रवेश करेगी I और ऐसे काया में प्रवेश के पश्चात ही वो चेतना काया धारी कहलाएगी I
इसका अर्थ हुआ, कि यदि कोई भी जीव योनि, मुक्ति पद को प्रदान करने की क्षमता रखती है, तो जब जीव उस योनि के शरीरी रूप में जन्म लेगा, तो वो जीव दक्षिण मार्गी होकर ही जन्म लेगा I
और क्यूँकि मानव शरीर से मुक्ति संभव होती है, इसलिए मानव आत्मा दक्षिण मार्गी होकर ही शरीर में प्रवेश करती है I
और ऐसा उन मनीषियों के साथ होगा ही, जिनका प्रारब्ध या तो उनको मुक्तिमार्ग पर लेके जाएगा या उनकी मुक्ति उस जन्म में होनी ही है I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि यदि कोई मानव जन्म में मुक्ति निश्चित है या मुक्तिमार्ग पर गमन निश्चित है, तब जब जीवात्मा शरीर में आएगी, तो वो जीवात्मा जन्म के समय दक्षिण मार्गी होकर ही शरीर में प्रवेश करेगी I
लेकिन जिस मानव की उसके आगामी जन्म से मुक्ति नहीं होनी है, उसकी आत्मा दक्षिण मार्गी होकर ही आएगी…, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है I
और इसके विपरीत यदि कोई जीव योनि से मुक्ति संभव ही नहीं है, जैसे कोई पशु, पक्षी आदि योनियां, तब उस जीव की आत्मा उस योनि के स्थूल शरीर में वाम मार्ग से ही प्रवेश करती है I
क्यूंकि मानव शरीर मुक्ति करक हो सकता है, इसलिए यहां बताई गई महिमा मानव शरीर की है I और वैदिक वाङ्मय में भी यह बिंदु पृथक प्रकार से बताया गया है I
इसका अर्थ हुआ कि…
यदि किसी जीव योनि से मुक्ति संभव है (जैसे मानव), तो उस योनि के शरीरी रूप में वो जीवात्मा दक्षिण मार्ग से ही प्रवेश करती है I
और यदि किसी जीव योनि से मुक्ति असम्भव है, तो उस योनि के शरीरी रूप में वो जीवात्मा वाम मार्ग से ही प्रवेश करती है I
इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि…
जिस जन्म में जीव मुक्ति को पाएगा, उस जन्म में वो जीवात्मा दक्षिण मार्गी होकर ही उस जीव की काया में प्रवेश करेगी I
और उसी जन्म में वो जीव, किसी भी देवत्व बिंदु के दक्षिण पथ, अर्थात प्रदक्षिणा मार्ग पर भी जाएगा ही I
और उस मुक्तिमार्ग की प्रदक्षिणा का प्रारम्भ भी वैसे ही होगा, जैसे ऊपर बताया गया है I और इसी प्रारम्भ को जानकार, वो जीव जान भी जाएगा कि उसका आगमन किस ब्रह्म से, या उन ब्रह्म से संबंधित किस लोक से हुआ था I
टिपण्णी 1: आगे के एक अध्याय, जिसका नाम परकाया प्रवेष प्रक्रिया है, उसमे इसी बिंदु को चित्र से भी दर्शाया गया है, जहाँ एक योगी का सुनेहरा शरीर, उस योगी की दैविक माता (अर्थात सावित्री सरस्वती) के सुनहरे गर्भ से, उन सावित्री विद्या सरस्वती की दायीं ओर से जन्म लेगा (और उस बाद के अध्याय के चित्र में भी ऐसा ही दिखाया जाएगा) I
अपनी माता के दाएं ओर से जन्म लेने के कारण, उस सुनहरे शरीर धारी योगी का प्रादुर्भाव मार्ग भी दक्षिण मार्ग ही कहलाया जाएगा I इसलिए वो उसके शरीरी रूप में मुक्तात्मा होने हेतु ही लौटाया गया होगा I
क्यूंकि सुनेहरा शरीर, सद्योजात ब्रह्म से संबद्ध कार्य ब्रह्म सिद्धि को ही दर्शाता है, इसलिए वो योगी सद्योजात से, या सद्योजात से संबद्ध किसी लोक से ही लौटाया गया होगा I
और क्यूंकि ऊपर दिखाए गए चित्र में, दक्षिण मार्ग से (अर्थात प्रदक्षिणा मार्ग में) सद्योजात के पश्चात, अघोर ब्रह्म ही साक्षात्कार होते हैं, इसलिए उस योगी के उसी जन्म में, उसके पञ्च ब्रह्म मार्ग में, उसने सर्वप्रथम अघोर ब्रह्म का ही साक्षात्कार किया होगा I
इस टिप्पणी के अनुसार, जब भी किसी साधक को किसी भी देवत्व बिंदु का साक्षात्कार होता है, तो साधक उस देवत्व बिन्दु के पञ्च ब्रह्म (या पाँच मुखा सदाशिव के मुख) को जानकार, यह भी जान सकता है, कि वो किस पञ्च ब्रह्म (या पञ्च मुखा सदाशिव के मुख) से संबंधित लोकादि से लौटा है I
टिपण्णी 2: वैसे भी कालचक्र के अनुसार, आज की दशा में, इस आकाश गंगा में हमारे सूर्य के प्रकटीकरण और सूर्य की आज की गति और स्थिति के अनुसार, सूर्य अपने उदय स्थान से 179 डिग्री पर है I
सूर्य का उदय, पूर्व दिशा के सद्योजात से हुआ था, और इस उदय के पश्चात भी सूर्य आकाश गंगा में दिखाई नहीं दिया था, क्यूंकि वो सूर्य उदय होने के पश्चात भी आकाश गंगा के भीतर छुपा हुआ चलता रहा था I सूर्य की यह गति उत्तर के तत्पुरुष ब्रह्म की ओर थी और जब वो सूर्य तत्पुरुष पर पहुंचा था, तभी वो आकाश गंगा में सर्वप्रथम दिखाई दिया था I
इसका अर्थ हुआ कि आकाश गंगा के मध्य भाग के सद्योजात ब्रह्म से (अर्थात आकाश गंगा में मध्य भाग की पूर्वी दिशा से) से उदय होने के पश्चात, जबतक सूर्य वाम मार्गी होकर तत्पुरुष तक नहीं पहुँच गया था, तबतक सूर्य आकाश गंगा में दिखाई भी नहीं दिया था I
यही कारण है, कि जबकि सूर्य का स्वयं उदय सद्योजात से ही हुआ था, लेकिन सूर्य के आकाश गंगा में प्रकटीकरण को तत्पुरुष ब्रह्म से भी जोड़ा जाता है I
और क्यूंकि तत्पुरुष से 179 डिग्री अघोर का ही होता है, और क्यूंकि सूर्य की आकाश गंगा में स्थिति ही पञ्च ब्रह्म में प्रमुख ब्रह्म को दर्शाती है, इसलिए इस पृथ्वी लोक के लिए, आज के समयखण्ड में और आगे के कोई 2.7 करोड वर्षों तक, पञ्च ब्रह्म में से अघोर ब्रह्म ही प्रमुख होंगे I
इसलिए आज के कालखंड की सूर्य की आकाश गंगा में स्थिति को जानकार कहा जा सकता है, कि अघोर मुख ही प्रधान मुख है I
टिपण्णी 3 : अब ऊपर कहे गए प्रधान शब्द को बताता हूँ I
जब साधक पञ्च ब्रह्म (या पञ्च मुखी सदाशिव) के किसी भी मुख को सर्वप्रथम सिद्ध करता है, तो वो सिद्धि सूर्य की गति के अनुसार उस मुख की होती है, जिसपर सूर्य उस समय खड़ा हुआ है I
और क्यूंकि आज के समय में सूर्य, अघोर ब्रह्म पर ही खड़ा है, इसलिए आज के समय में साधक का पहला मुक्ति पड़ाव अघोर ब्रह्म ही होगा I
इसका अर्थ हुआ, कि आज के समय में यदि साधक पञ्च ब्रह्म (या पञ्च मुखी सदाशिव) में से किसी को भी पाएगा, तो वो पहला ब्रह्म, अघोर ही होगा I
इसका अर्थ हुआ, कि जिस भी साधक ने पञ्च ब्रह्म सिद्धि को जाना होगा, उसको सर्वप्रथम अघोर को ही सिद्ध करना होगा I
और इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि आज के समयखण्ड में आकाश गंगा में हमारे सूर्य की स्थिति और गति के अनुसार, अघोर ही मूल ब्रह्म हैं I
इसलिए यदि आज कोई भी नया-नवेला साधक पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार को प्रारम्भ करेगा, तो उसको दक्षिण मार्गी होकर, अघोर पर ही जाना पड़ेगा I
और ऐसा तब भी होगा, जब वो अघोर मार्गी, वैष्णव होकर जाए (अर्थात जब अघोर मार्ग में होने पर भी, योगी वैष्णव रहता है) I
अघोर मार्ग में भी वैष्णव होकर जाया जा सकता है और वैष्णव मार्ग में अघोरी होकर भी जाया जा सकता है I इसलिए वैष्णव मार्गी भी अघोरी हो सकते हैं, और अघोर मार्गी, वैष्णव I वैदिक इतिहास में ऐसा कई प्रमाण मिलेंगे, जिनमे से एक तो मैं ही हूँ I
और ऐसी दशा में, जब वो साधक अघोर सिद्ध हो जाएगा, और इसके पश्चात, जब वो इस पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग पर पुनः जाएगा, तब उसका पहला पड़ाव भी वामदेव ब्रह्म ही होंगे I
और अघोर सिद्धि के पश्चात यदि उस साधक का देहावसान ही हो जाए, और मृत्यु के पश्चात वो साधक अघोर ब्रह्म में ही निवास करने लगेगा, और इसके पश्चात जब वो पुनः शरीरी होकर लौटेगा, तब भी उस साधक की प्रदक्षिणा का पहला पड़ाव, वामदेव ब्रह्म ही होंगे I
और इस सिद्धि के पश्चात, जब वो साधक अपने उत्कर्ष मार्ग में पुनः लौटाया जाएगा, तो ही वो अघोर से अगले ब्रह्म, वामदेव की सिद्धि पाएगा I इस सिद्ध के पश्चात, वो साधक वामदेव ब्रह्म में (या वामदेव से संबंधोत किसी लोक में) ही निवास करने लगेगा I
और ऐसी दशा के पश्चात, यदि वो साधक उसके किसी आगे के जन्म में पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा में पुनः जाएगा, तब उस साधक की प्रदक्षिणा का पहला पड़ाव, तत्पुरुष ब्रह्म ही होंगे I
और ऐसा चलता चला जाएगा, जबतक वो साधक तत्पुरुष और फिर सद्योजात को सिद्ध करके उन्ही सद्योजात ब्रह्म में स्थापित नहीं हो जाता है I
अब ध्यान देना …
और जब पञ्चब्रह्म में से किसी से भी साधक आगे (या अगले मुख को) जाएगा, तो भी साधक की चेतना किसी न किसी रूप में, यही प्रदक्षिणा करके ही जाती है I और जहाँ यह एक नियम ही है I
तो इसका यह भी अर्थ हुआ कि उत्कर्ष मार्ग में, एक ब्रह्म से अगले ब्रह्म पर जाने के समय भी, साधक की चेतना एक पूरी प्रदक्षिणा करती है I
और इस प्रदक्षिणा को पूर्ण करके ही वो चेतना उसी प्रदक्षिणा मार्ग में रहकर, पूर्व के सिद्ध हुए ब्रह्म से अगले ब्रह्म को सिद्ध करके ही, उन अगले ब्रह्म में स्थापित होती है I
टिपण्णी 4: ब्रह्माण्ड के इस भाग में जहाँ यह पृथ्वीलोक है, सूर्य ही योगकारक, राजकारक, आत्मकारक और देवत्वकारक हैं, इसलिए जिस भी ब्रह्म (या सदाशिव के मुख) पर सूर्य खड़े होते हैं, वही मुख उस समय का प्रधान मुख भी होता है I
और क्यूंकि आज सूर्य अघोर ब्रह्म पर ही आ चुके हैंm और अगले कोई 2.7 करोड़ से भी अधिक वर्षों तक (यह अंक वैदिक इकाई में बताया गया है, न कि आज की समय इकाई में) सूर्य पर अघोर ब्रह्म का कुछ न कुछ प्रभाव रहेगा ही, इसलिए इस समय अंतराल में अघोर ब्रह्म ही प्रधान ब्रह्म होंगे I
और क्यूंकि जो प्रधान होता है, वो ही उत्कर्ष मार्ग का प्रथम बिन्दु भी होता है, इसलिए ऊपर बताए गए समय अंतराल में, साधकगण जब भी किसी भी पञ्च ब्रह्म को सिद्ध करेंगे, तो वो प्रथम ब्रह्म भी अघोर ही होंगे I
इसका अर्थ हुआ, कि यदि ऊपर बताए गए समय अंतराल में, साधकगण पञ्चब्रह्म (या पञ्चमुखा सदाशिव) नामक सिद्धियों के मार्ग पर जाएंगे, तो सबसे पहले जो सिद्ध होंगे, वो अघोर ब्रह्म ही होंगे I
और इस सिद्धि के पश्चात, साधक अन्य ब्रह्म को सिद्ध करेगा, जिसने क्रम भी वैसा ही होगा, जो पञ्च ब्रह्म की स्वयं उत्पत्ति मार्ग से विपरीत ही होगा, और जिसके बारे में इस अध्याय में, पूर्व में ही बताया जा चुका है I
और इस ब्रह्म प्रदक्षिणा में, यह सिद्धि मार्ग भी ऐसा ही होगा…
अघोर से वामदेव, से तत्पुरुष, से सद्योजात…, से पुनः अघोर
और इस प्रथम प्रदक्षिणा के पश्चात, वो साधक अगले ब्रह्म, अर्थात वामदेव पर जाएगा, जिनमें पहुँच कर और आगे के ब्रह्म की सिद्धि का पात्र बनेगा I
और ऐसा पात्र बनने पर वो साधक पुनः यह प्रदक्षिणा मार्ग वामदेव से ही प्रारम्भ करेगा, और उन वामदेव से अगले ब्रह्म, अर्थात तत्पुरुष को इसी परिक्रमा मार्ग से ही जाएगा I
तत्पुरुष में स्थापित होने के पश्चात, जब वो साधक आगे जाने का पात्र बनेगा, तब भी वो साधक पुनः प्रदक्षिणा को पूर्ण करके, तत्पुरुष से अगले ब्रह्म सद्योजात में जाएगा I
अब थोड़ा और ध्यान देना …
तो इसका अर्थ यह भी हुआ, कि इस मार्ग में सिद्धि के प्रत्येक पड़ाव के पश्चात, साधक पुनः प्रदक्षिणा प्रारम्भ करेगा, और उस प्रदक्षिणा को पुनः पूर्ण भी करेगा I
और उस प्रदक्षिणा के पूर्ण होने पर, उसी परिक्रमा मार्ग से वो साधक पूर्व के ब्रह्म से, दक्षिण मार्गी होकर जो अगले ब्रह्म होंगे, उन अगले ब्रह्म को सिद्ध भी करेगा I
इस सिद्धि के पश्चात ही वो साधक, उन अगले दक्षिण दिशा के ब्रह्म में स्थापित ही पाएगा I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि इस प्रदक्षिणा मार्ग में, साधक सर्वप्रथम अघोर को की सिद्ध करके, अघोर में स्थापित होगा I और इसके पश्चात वो साधक जब भी अगले ब्रह्म पर जाने के पात्र होगा, तब वो पुनः जन्म लेगा और इसी प्रदक्षिणा मार्ग को पूर्ण करके, अघोर से अगले ब्रह्म वामदेव पर जाएगा I और ऐसा तबतक चलता रहेगा, जबतक वो साधक वामदेव से तत्पुरुष और तत्पुरुष से सद्योजात में ही स्थापित नहीं हो जाएगा I
और यही चतुष्पाद ब्रह्म प्रदक्षिणा है, जिसमें वो चार पाद अघोर, वामदेव, तत्पुरुष और सद्योजात नामक ब्रह्म ही हैं I
क्यूंकि इस मार्ग में, इसके प्रत्येक पाद की सिद्धि को बहुत समय लग जाता है, इसलिए इस प्रदक्षिणा को पूर्ण करने के लिए कुछ साधकगण तो कई सौ करोड़ वर्ष तक लगा देते हैं I
यही कारण है, कि जो योगी सद्योजात से लौटा होगा, वो कम से कम कई ब्रह्मवर्षों से यही प्रदक्षिणा मार्ग पर रहा होगा I
कई बार तो वो विफल भी हुआ होगा I
ऐसा योगी कई बार उन अगले दक्षिण की ओर जो ब्रह्म हैं, उनमें न पहुँच कर, उन ब्रह्म से संबद्ध किसी महाभूत या देवत्व बिंदू आदि में भी रहा होगा I
और कई बार वो योगी उन देवताओं के लोकों में भी रहा होगा जो पञ्च ब्रह्म से संबद्ध हैं I
और ऐसी सब सिद्धियों के पश्चात ही उसने एक एक करके इन पञ्च ब्रह्म को सिद्ध करा होगा, जिसमें उसको ढेर सारे जन्म भी लगे होंगे I
और अंततः उस योगी ने सद्योजात ब्रह्म, अर्थात योगेश्वर को सिद्ध करके, उन योगेष्वर या महेश्वर के लोक को पाया होगा I
और इस टिपण्णी के अंत में …
मेरे अपने अनुभवों से, यह एक बहुत लम्बा, कठिन और कष्टदायक मार्ग है, इसलिए साधकगणों को इस बात को जानकर ही इस पर जाने का मन और मत बनाना चाहिए I
और इसी ब्रह्माण्ड के इतिहास में, ऐसे ब्रह्मकल्प भी हुए हैं, जिनमें किसी भी योगी ने इस चतुष्पाद ब्रह्म प्रदक्षिणा के अंतिम ब्रह्म, सद्योजात ब्रह्म को पाया ही नहीं था I
और सद्योजात को पाने से पूर्व, जो कार्य ब्रह्म हैं, और जो योगेश्वर भी कहलाते हैं, उनको पाए हुए योगी भी दुर्लभ ही होते हैं I
ऐसा कहने का कारण है कि इस चतुष्पाद प्रदक्षिणा में अधिकाँश योगीजन कार्य ब्रह्म को पाए बिना ही, सद्योजात में चले जाते हैं I लेकिन ऐसा मार्ग पूर्ण प्रदक्षिणा नहीं कहलाता है I
इसलिए, जिस योगी ने कार्यब्रह्म को पाकर (और जहाँ जो कार्य ब्रह्म हैं, वो तत्पुरुष और सद्योजात के मध्य में ही होते हैं), सद्योजात ब्रह्म को भी पाया होगा, वो इतना दुर्लभ होते हैं, कि उनकी गणना यदि हस्त की उँगलियों पर की जाएगी, तो भी उंगलियां अधिक होंगी और ऐसे योगीजनों की संख्या न्यून I
इसलिए जो योगी सद्योजात को पाया है, वो एक अतिदुर्लभ योगी ही होगा I और इसके अरिरिक्त, जो योगी सद्योजात को कार्य ब्रह्म के मार्ग से पाए हैं, उनकी संख्या तो न्यून से भी न्यून ही होगी I
ऐसे योगी ही ब्रह्मस्वरूप कहलाते हैं, और जहाँ वो ब्रह्मस्वरूप उस योगी का आत्मस्वरूप ही होता है, न की वो स्थूल देही योगी I
ऐसे योगी के शरीर में ही, इस महाब्रह्माण्ड के सृष्टिकर्ता, उन सृष्टिकर्ता के अपने पूर्ण रूप में स्थापित होते हैं I
ऐसे योगी, चतुष्पाद ब्रह्म प्रदक्षिणा के पूर्ण होने से पूर्व, चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा भी पूर्ण करते हैं I
और जिन योगीजनों ने यह दोनों प्रदक्षिणा एक ही जन्म में पूर्ण करी हुई होती है, उनकी संख्या न्यून से भी न्यून, और इससे भी न्यून ही होती है I
ऐसे योगीजन विराट महाब्रह्म प्रजापति के साथ साथ, महाब्रह्माण्ड (अर्थात वैदिक भारत) का ही स्वरूप होते हैं I
टिपण्णी 5 : और यदि उस मुक्ति पद को जाने वाले साधक का प्रथम साक्षात्कार, अघोर ब्रह्म से है, तो इसका अर्थ हुआ कि वो साधक उसके उस समय के स्थूल शरीरी रूप में, सद्योजात नामक ब्रह्म या सद्योजात ब्रह्म से संबद्ध किसी लोक से ही लौटाया गया है I
और क्यूंकि सद्योजात ही ब्रह्म का प्रथम सगुण साकार मुख है, और सद्योजात से पूर्व केवल वो निर्गुण ईशान ही थे, जो कैवल्य मोक्ष भी कहलाते हैं, इसलिए ऐसा साधक कैवल्य को प्राप्त होने हेतु ही जन्म लिया है…, ऐसा ही मानना चाहिए I
टिपण्णी 6 : इसलिए इस पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा रूपी मुक्तिमार्ग में जाकर जब किसी भी मुख की सिद्धि और बाद में उस मुख से वापसी होती है, तब उनके पड़ाव का जो क्रम होता है, वो ऐसा ही होता है I
अघोर से वामदेव से तत्पुरुष से सद्योजात और अंततः ईशान I
और जहाँ चौथा पाद, अर्थात सद्योजात ही मुक्तिपथ का अंतिम पड़ाव होता है, क्यूंकि उन सद्योजात के पश्चात जो ईशान ब्रह्म हैं, जो निर्गुण निराकार ब्रह्म कहलाते हैं I
वो ईशान ब्रह्म जो निर्गुण निराकार हैं, वही सर्वव्यापक, सर्वभद्र, सर्वातीत अनंत होते हैं, इसलिए इस ब्रह्म प्रदक्षिणा में उनका कोई भी प्रदक्षिणा पद नहीं होता है I
और जब सद्योजात को पाए हुए योगी की चेतना, अंततः ईशान में ही चली जाती है, तो वो योगी (चेतना) किसी सुदूर भविष्य के किसी किया स्वरूप में लौटेगा या नहीं…, यह तो केवल वो योगी ही जानता होगा I
ईशान ब्रह्म से ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में लौटना असंभव सा ही है, क्यूंकि ऐसे योगी के लौटने के समय की कोई गणना और गणना मार्ग ही नहीं होता है…, और यदि होता भी होगा, तो भी वो समय और मार्ग, वो ईशान में बसा हुआ, निर्गुण निराकार ब्रह्मरूप योगी ही जानता होगा I
यही कारण था, कि वेद मनीषियों ने निर्गुण निराकार, जो पञ्च ब्रह्म के ईशान ही हैं, उनको अंत और अनंत, गंतव्य कहा था I और उन्ही निर्गुण निराकार का एक नाम, कैवल्य मोक्ष भी है I
अब आगे बढ़ता हूँ और इसी परिक्रमा के अन्य तीन पादों को बताता हूँ …
- मेरी ब्रह्म प्रदक्षिणा का द्वितीय पाद, … मेरे इस जन्म में प्रदक्षिणा का दूसरा पाद अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म को गया था, जिनके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- मेरी ब्रह्म प्रदक्षिणा का तृतीय पाद, … मेरे इस जन्म में प्रदक्षिणा का तीसरा पाद वामदेव ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म को गया था, जिनके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- मेरी ब्रह्म प्रदक्षिणा का चतुर्थ पाद, … मेरे इस जन्म में प्रदक्षिणा के यह चौथा पाद तत्पुरुष ब्रह्म से सद्योजात ब्रह्म को गया था, जिनके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I लेकिन इस तत्पुरुष से सद्योजात के मार्ग पर कई सारे बिंदु भी आए थे, जो ऊपर के चित्र में दिखाए गए हैं और जिनके बारे में बाद की अध्यय श्रंखलाओं में बात होगी I
और क्यूंकि इस चौथे पाद के पश्चात, वो ईशान नामक ब्रह्म ही आते हैं, जो सर्वव्यापक और अद्वैत, निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हैं, इसलिए सद्योजात ब्रह्म के चौथे पाद के पश्चात, इस पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा में कोई और पाद (अर्थात पाँचवाँ पाद) होता भी नहीं है I
और क्यूंकि सर्वव्यापक का कोई पाद होता ही नहीं है, इसलिए इस पञ्च ब्रह्म परिक्रमा को चतुष्पाद शब्द से कहा गया है I
गायत्री प्रदक्षिणा, गायत्री परिक्रमा, … पञ्च मुखा गायत्री प्रदक्षिणा, पञ्च मुखी गायत्री प्रदक्षिणा, … पञ्चमुखा गायत्री परिक्रमा, पञ्चमुखी गायत्री परिक्रमा, … चतुष्पाद गायत्री प्रदक्षिणा, चतुष्पाद गायत्री परिक्रमा, … माँ गायत्री परिक्रमा, माँ गायत्री प्रदक्षिणा, गायत्री विद्या प्रदक्षिणा, गायत्री विद्या परिक्रमा, गायत्री सरस्वति प्रदक्षिणा, गायत्री सरस्वति परिक्रमा, गायत्री विद्या सरस्वती प्रदक्षिणा, गायत्री विद्या सरस्वती परिक्रमा, गायत्री सरस्वती विद्या प्रदक्षिणा, गायत्री सरस्वती विद्या परिक्रमा, …
टिप्पणियां:
- इस चित्र में माँ गायत्री के बाहर के चार मुख, भीतर की ओर अर्थात मुक्ता मुख की ओर देख रहे हैं I इसलिए यह चित्र भी माँ गायत्री के बाहर के चार मुख की अन्तर्मुखी दशा को ही दर्शा रहा है I
- चौथे चरण में, तत्पुरुष से सद्योजात (अर्थात रक्ता मुख से हेमा मुख) के मार्ग में कई सारी दशाएं आती हैं, जैसा इस चित्र में दिखाया गया है I लेकिन इन दशाओं के बारे में बाद के अध्याय श्रंखलाओं में ही बात होगी I
पञ्च मुखी गायत्री ही पञ्च ब्रह्म की दिव्यता हैं I और क्यूँकि दिव्यता उसके अपने देव से पृथक नहीं होती, इसलिए जब पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा होती है, तब गायत्री प्रदक्षिणा भी हो जाती है I
इसीलिए, उसी पञ्च ब्रह्म परिक्रमा को, गायत्री परिक्रमा, पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा और गायत्री ब्रह्म परिक्रमा भी कहा जा सकता है I
जैसे पञ्च ब्रह्म ब्रह्म प्रदक्षिणा में चतुष्पाद होते हैं, वैसे ही गायत्री परिक्रमा में भी चतुष्पाद ही होते हैं I इसलिए इस प्रदक्षिणा को चतुष्पाद गायत्री प्रदक्षिणा और चतुष्पाद गायत्री परिक्रमा भी कहा सकता हैं I
तो अब इस ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा को बताता हूँ …
पञ्चब्रह्म की दिव्यता को ही पञ्चमुखी गायत्री कहा जाता है I
गायत्री प्रदक्षिणा में जो चार पद आते हैं, अब उनको बताता हूँ I
लेकिन यह मार्ग मैंने अपने इस जन्म के मार्ग के अनुसार ही बताया है, और जो ऊपर के चित्र में दिखाए गए माँ गायत्री के हेमा मुख से ही प्रारम्भ हुआ था I
- प्रथम पाद, … माँ गायत्री के हेमा मुख से माँ गायत्री के नीले मुख की योग यात्रा, गायत्री सरस्वती के हेमा मुख से गायत्री सरस्वती के नीले मुख की योग यात्रा, …
इस प्रथम पाद में, साधक की चेतना इस परिक्रमा के प्रारम्भ स्थान से (अर्थात जिस भी ब्रह्म या ब्रह्म से संबंधित लोक से लौटके वो चेतना काया धारी हुई थी), अगले ब्रह्म में दक्षिण मार्ग से जाती है I
और इस चित्र के अनुसार, जो मेरे इस जन्म के प्रदक्षिणा मार्ग को ही दर्शाता रहा है, वो चेतना सद्योजात ब्रह्म से अघोर ब्रह्म में जाती है I
और क्यूंकि सद्योजात में पञ्च मुखा गायत्री सरस्वती के हेमा मुख की दिव्यता होती है, और अघोर में उन्ही पञ्च मुखा गायत्री विद्या सरस्वती के नील मुख की दिव्यता होती है, इसलिए इस पाद का प्रदक्षिणा मार्ग, माँ गायत्री सरस्वती विद्या के हेमा मुख से उन्ही माँ गायत्री विद्या के नीले मुख की ओर लेके जाता है I
- दूसरा पाद, … माँ गायत्री सरस्वती विद्या के नील मुख से माँ गायत्री के धवला मुख की योग यात्रा, गायत्री विद्या सरस्वती के नील मुख से माँ गायत्री सरस्वती के धवला मुख की योग यात्रा, …
इस द्वितीय पाद में, साधक की चेतना इस प्ररिक्रमा के दुसरे पाद पर दक्षिण मार्ग से जाती है I
और इस चित्र के अनुसार, जो मेरे इस जन्म के प्रदक्षिणा मार्ग को ही दर्शाता रहा है, वो चेतना अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म में जाती है I
और क्यूंकि अघोर में देवी गायत्री के नीला मुख की दिव्यता होती है, और वामदेव ब्रह्म में उन्ही पञ्चमुखा गायत्री विद्या के धवला मुख की दिव्यता होती है, इसलिए यह जो प्रदक्षिणा का दूसरा पाद है, वो माँ गायत्री के नील मुख से उन्ही माँ गायत्री के धवला मुख की ओर लेके जाता है I
- तीसरा पाद, … गायत्री विद्या के धवला मुख से माँ गायत्री के विद्रुमा मुख की योग यात्रा, गायत्री सरस्वती के धवला मुख से माँ गायत्री के रक्ता मुख की योग यात्रा, …
इस तृतीय पाद में, साधक की चेतना इस प्ररिक्रमा के तीसरे पद को, दक्षिण मार्ग से जाती है I
इस चित्र के अनुसार, वो चेतना वामदेव ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म में जाती है I
और क्यूँकि वामदेव में पञ्चमुखा गायत्री के धवला मुख की दिव्यता होती है, और तत्पुरुष में उन्ही पञ्चमुखा गायत्री के रक्ता मुख की दिव्यता होती है, इसलिए इस पाद में यह प्रदक्षिणा मार्ग, माँ गायत्री के धवला मुख से उन्ही माँ गायत्री के रक्ता मुख की ओर लेके जाता है I
- चतुर्थ पाद, … पञ्च मुखा गायत्री के रक्ता मुख से पञ्च मुखा गायत्री सरस्वती के हेमा मुख की योग यात्रा, पञ्च मुखी गायत्री सरस्वती के रक्ता मुख से पञ्चमुखी गायत्री विद्या सरस्वती के हेमा मुख की योग यात्रा, … पञ्चमुखा गायत्री विद्या के विद्रुमामुख से माँ गायत्री के हेमा मुख की योग यात्रा, …
इस चतुर्थ पाद में, साधक की चेतना इस प्ररिक्रमा के चतुर्थ पाद को, दक्षिण मार्ग से जाती है I
इस चित्र के अनुसार, वो चेतना तत्पुरुष ब्रह्म से सद्योजात ब्रह्म में जाती है I और इस मार्ग में कई सारे पड़ाव भी आते हैं, जैसा कि ऊपर के चित्र में दिखाया गया था और जिसके बारे में कुछ बाद के अध्याय श्रंखलाओं में बात होगी I
और क्यूंकि तत्पुरुष में पञ्चमुखा गायत्री के रक्ता मुख की दिव्यता होती है, और सद्योजात में उन्ही पञ्चमुखा गायत्री के पीले मुख की दिव्यता होती है, इसलिए इस पाद का प्रदक्षिणा मार्ग, माँ गायत्री के रक्ता वर्ण के मुख से उन्ही माँ गायत्री के हेमा वर्ण के मुख की ओर लेके जाता है I
ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, गायत्री ब्रह्म परिक्रमा, गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा, पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, गायत्री पञ्च ब्रह्म परिक्रमा, पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, … चतुष्पाद गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा, चतुष्पाद गायत्री ब्रह्म परिक्रमा, चतुष्पाद पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा, चतुष्पाद पञ्च ब्रह्म गायत्री परिक्रमा, … गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा और अतिमानव, ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा और अतिमानव, गायत्री प्रदक्षिणा और अतिमानव, ब्रह्म प्रदक्षिणा और अतिमानव, …
ऊपर बताए गए भागों से यह स्पष्ट होता है, कि जब पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा होती है, तब पञ्च मुखी गायत्री की प्रदक्षिणा भी स्वतः ही हो जाती है I
और ऊपर बताए गए भागों से यह भी स्पष्ट होता है, कि पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा के समय पर ही पञ्च मुखा गायत्री प्रदक्षिणा भी हो जाती है I
इसलिए चाहे पञ्चब्रह्म परिक्रमा कहो, या पञ्चमुखी गायत्री परिक्रमा, बात एक ही है I
और ऊपर बताए गए भागों से यह भी स्पष्ट होता है, कि जैसे पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा के चतुष्पाद होते हैं, वैसे ही पञ्च मुखी गायत्री प्रदक्षिणा के भी होते हैं I इसलिए चाहे इस प्रदक्षिणा को चतुष्पाद ब्रह्म प्रदक्षिणा कहो या चतुष्पाद गायत्री प्रदक्षिणा, बात एक ही है I
और इनके अतिरिक्त, ऊपर बताए गए भागों से यह भी स्पष्ट है, कि योगमार्ग से संपन्न हुई गायत्री परिक्रमा को ही ब्रह्म परिक्रमा कहते हैं, और पञ्चब्रह्म परिक्रमा ही पञ्चमुखी गायत्री परिक्रमा है I
इन सबका ऐसा होने का कारण है कि …
देव ही उसकी दिव्यता, अर्थात देवी होते हैं… और देवी ही देव I
जैसे पृथ्वी से गंध, जल से रस, अग्नि से रूप, वायु से स्पर्श और आकाश से शब्द को पृथक नहीं किया जा सकता, वैसे ही देव और उनकी दिव्यता का नाता है I
जैसे पृथ्वी में गंध, जल में रस, अग्नि में रूप, वायु में स्पर्श और आकाश में शब्द सनातन संहित होते हैं, वैसे ही देव और उनकी दिव्यता का नाता है I
जैसे गंध ही पृथिवी, रस ही जल, रूप ही अग्नि, स्पर्श ही वायु और शब्द ही आकाश का द्योतक होता है, वैसे ही देवी और देव का अनादि अनंत नाता है I
जैसे पृथ्वी में गंध और गंध में पृथ्वी, जल में रस और रस में जल, अग्नि में रूप और रूप में अग्नि, वायु में स्पर्श और स्पर्श में वायु, आकाश में शब्द और शब्द में ही आकाश संहित होता है, वैसा ही देवी और उनकी दिव्यता, देवी का नाता है I
और जैसे …
अभिव्यक्ति ही उसका अभिव्यक्ता, और अभिव्यक्ता ही उसकी अभिव्यक्ति होता है, वैसे ही देवी और देव का अनादि अनंत, सर्वव्यापक और सनातन नाता है I
आकाश ही ब्रह्म, वायु ही ब्रह्म, अग्नि ही ब्रह्म, जल ही ब्रह्म और माँ पृथ्वी भी अपने तत्त्व स्वरूप में ब्रह्म ही हैं, वैसा ही देवी और देव का ब्रह्म से नाता है I
प्रकृति और पुरुष पृथक नहीं होते हैं, वैसे ही देवी और देव का नाता है I
ब्रह्म ही प्रकृति और प्रकृति ही ब्रह्म है, वैसे ही देवी और देव का नाता है I
रचना और रचना का तंत्र भी रचैता ही है, वैसा ही देवी और देव का नाता है I
इसलिए, यहां बताए जा रहे …
पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा में, पञ्चमुखा गायत्री प्रदक्षिणा भी होती है I
और पञ्च मुखा गायत्री परिक्रमा में, पञ्चब्रह्म परिक्रमा भी होती है I
और इस भाग के अंत में… जैसे…
भूमा ही भूमि, भूधर और इन सबका भूमत्व होता है, वैसा ही ब्रह्म और प्रकृति का उत्कृष्टम साधक, अवधूत होता है I
पञ्च देव में गणेश ही अनुग्रह, देवी ही निग्रह, विष्णु की स्थिति, रुद्र ही संघार और ब्रह्मा ही उत्पत्ति होते हैं, वैसा ही ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा पूर्ण किया हुआ उत्कृष्टम योगी, महाब्रह्माण्ड का अतिमानव होता है I
पञ्च ब्रह्म ही पञ्चमुखा गायत्री हैं, और गायत्री ही ब्रह्म हैं, वैसा ही उनकी प्रदक्षिणा पूर्ण किए हुए अतिमानव योगी का आत्मस्वरूप होता है I
तो अब चाहे मैंने सांकेतिक उदाहरणों से ही सही, लेकिन वो बता दिया जो बताना था, इसलिए अब मैं इस अध्याय के समापन की ओर बढ़ता हूँ…
पञ्च देव प्रदक्षिणा, पञ्च देव परिक्रमा, पञ्च देवी प्रदक्षिणा, पञ्च देवी परिक्रमा, …
इस पञ्चदेव प्रदक्षिणा को एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा, जिसका नाम सदाशिव प्रदक्षिणा या पञ्च मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा या चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा, ऐसा ही कुछ होगा I
और ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस परकाया प्रवेश के मार्ग से प्राप्त हुए जन्म में, मैंने पञ्च देव साक्षात्कार पञ्चमुखी सदाशिव में ही किया था, … न कि यहां बताए जा रहे पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग से I
इस परकाया प्रवेश मार्ग से प्राप्त हुए जन्म में, कुछ पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग से साक्षात्कार हुआ, और कुछ पञ्चमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग से, इसीलिए इस ग्रंथ में भी, ऐसा ही बताया गया है I
और अंतिम बात …
इस अध्याय में पञ्चब्रह्म के तत्त्व, तन्मात्र, आदि को नहीं बताया गया है, क्यूंकि इस जन्म के प्रदक्षिणा मार्ग पर, इनका साक्षात्कार भी पञ्च मुखा सदाशिव में ही हुआ था I इसलिए, जबकि यह बिंदु पञ्चब्रह्म से ही संबद्ध हैं, लेकिन इनको भी पञ्चमुखा सदाशिव के अध्याय में, लेकिन पञ्च ब्रह्म से जोड़कर ही बताया जाएगा I
तो अब यह अध्याय समाप्त होता है, और मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम पञ्च ब्रह्म गायत्री सिद्धांत है I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaal Chakra