यहाँ पर सूर्य, सिंदूरी लाल शरीर, सूर्य शरीर, तैजस शरीर, सूर्य लोक, तैजस लोक, सूर्य देव, सूर्य देवता, सूर्य लोक के जीव, सूर्य सिद्धि, सूर्य लोक में लय, सूर्य देवता का स्वरूप, गुरु शिष्य परंपरा की महिमा, गुरुदक्षिणा का अखण्ड सनातन स्वरूप, आदि बिंदुओं पर बात होगी I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I
यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तिहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का दूसरा अध्याय है I
सिंदूरी लाल शरीर क्या है, सूर्य शरीर क्या है, तैजस शरीर क्या है, सूर्य लोक का शरीर क्या है, सूर्य लोक के जीव कैसे होते हैं, सूर्य शरीर की विशेषताएं, … वेदान्त का मुक्तिपथ, वेदान्त का मुक्तिमार्ग, वेदान्त पथ का प्रारंभ, वेदान्त मार्ग का प्रारंभ, वेदान्तियों का मुक्तिमार्ग, …
हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग से जाने के बाद, साधक की स्थूल काया के भीतर सर्वप्रथम जो सिद्ध शरीर प्रकट होता है, वह यही सिंदूरी लाल शरीर है I यह वह सिद्ध शरीर है जो सूर्य लोक से संबंधित होता है I इसी शरीर को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
साधक की क्या के भीतर प्रकट हुए इस सिद्ध शरीर का नाता मूलाधार चक्र से है I ऐसा इसलिए है क्योंकि यह शरीर मूलाधार चक्र के भीतर जो रक्त वर्ण का बिंदु होता है, उसी बिन्दु से संबंधित होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
और इस शरीर की कुछ विशेषताएं बताता हूँ…
यह शरीर बहुत ऊष्मा को धारण किया हुआ है और इसका तैजस इतना प्रबल होता है कि इसके प्रकट होने के पश्चात, कुछ समय के लिए तो साधक इसके ताप के कारण अधमरा सा ही हो जाएगा I
इसकी ऊर्जाएँ पिङ्गला नाड़ी से संबंधित होती हैं I इसके प्रकट होने के पश्चात पिङ्गला नाड़ी की ऊर्जाएं कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन साधक की काया में विप्लव सा ही मचा देंगी I इसकी ऊर्जाएँ इतनी उष्ण होती है कि साधक को ऐसा अवश्य लगेगा जैसे उसकी काया के भीतर एक अतिप्रबल अग्नि प्रवाह बहने लग गया है और जहाँ वह अग्नि का प्रवाह मेरुदण्ड के नीचे से लेकर मस्तिष्क तक स्वतः ही होने लग गया है I और इस तीव्र अग्नि प्रवाह के कारण वह साधक कुछ समय तक तो अवश्य ही निष्क्रिय सा हो जाएगा I
और जब यह अग्निमय ऊर्जाओं का प्रवाह, मेरुदण्ड और मस्तिष्क की नाड़ियों में प्रवेश करेगा, तो साधक को ऐसा लगेगा कि उसकी काया के भीतर बहुत सारी तारें हैं और उन तारों के भीतर एक प्रचण्ड अग्नि ने प्रवेश करके, ताण्डव सा ही मचा दिया है I और ऐसी दशा में यह भी लगता है जैसे मेरुदंड के नीचे के भाग से लेकर मस्तिष्क तक की नाड़ियाँ जल रही हैं I
और जब यह प्रवाह मेरुदण्ड और मस्तिष्क तक के क्षेत्र में प्रबल हो जाता है तब साधक के अंगों में कंपन सी भी आ जाती है I
लेकिन यह सब विप्लव जैसी अवस्थाएं होने के बाद भी इस शरीर से बाहर निकलता हुआ वह अग्नि प्रवाह, अंततः साधक की काया के भीतर जितने भी स्थूल और सूक्ष्मादि विकार रहे होंगे, उनको ध्वस्त ही कर देता है I
और जैसे-जैसे यह विकार ध्वस्त होते चले जाएंगे, वैसे-वैसे साधक को ऐसा अनुभव भी होगा कि अब उसका इस स्थूल और सूक्ष्मादि जगत से नाता पूरा न सही, लेकिन कुछ अधिक मात्रा में तो कट सा ही गया है I
और इस सिद्ध शरीर के प्रभाव से एक ऐसी दशा भी आएगी जिसमें साधक अपनी काया के भीतर ही कई सारे प्रकाश को उदय होता हुआ पाएगा I
और इसी प्रक्रिया में, जब साधक की काया के भीतर के विकार नष्ट होते हैं, तो उस साधक को अपना स्थूल शरीर भी हल्का सा लगने लगता है I
लेकिन इस शरीर की अग्निमय ऊर्जाओं के प्रभाव से तो ऐसा भी लगता है जैसे पूरे शरीर में ही आग लग गई है I
आगे बढ़ता हूँ…
यह सिद्ध शारीर साधक के उस पथ पर जाने की प्रारंभिक दशा है जिसपर वेदान्ती गमन किया करते हैं I इसी सिद्ध शरीर से प्राप्त हुई आंतरिक शुद्धिकरण के पश्चात, साधक उस वेदान्त मार्ग से संबद्ध देवादि लोकों में गमन कर पाता है I इसलिए यह सिद्ध शरीर वेदान्त मार्ग से साक्षात्कार मार्ग के वास्तविक प्रारंभ को भी दर्शाता है I यह सिद्ध शरीर वेदान्तियों के मुक्तिमार्ग के प्रारंभ का ही द्योतक है I
और इसी मार्ग से जाता हुआ साधक ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है I लेकिन इस मार्ग का प्रारंभ इसी सूर्य सिद्धि को दर्शाते हुए शरीर से ही होता है I और इसी सिद्ध शरीर से वह साधक सूर्य लोक में जाता है, जिसको पार करके वह साधक अव्यक्त प्रकृति से होता हुआ, उन सर्वसम चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म के लोक (अर्थात ब्रह्मलोक) में ही पहुँच जाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
इस सिद्ध शरीर की ऊर्जा इतनी प्रबल है कि मन बुद्धि चित्त अहम् के जितने भी विकार, वृत्ति आदि हैं, उनको विशुद्ध ही कर देती है, और साधक को उन वृत्तियों और विकारों से अतीत भी कर देती है I
और जैसे-जैसे इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति के पश्चात, समय बीतेगा, यह शरीर पञ्च कोष का शुद्धिकरण भी कर देता है I लेकिन यह शुद्धिकरण प्रक्रिया कष्टकारी ही होती है क्योंकि प्रकृति से संबद्ध यह पञ्च कोष अपने विकार भी सरलता से त्यागते नहीं हैं… जहाँ तक हो सके यह पञ्च कोष अपने विकारों को धारण करके ही रहना चाहते हैं I
और क्योंकि इस शरीर का प्रभाव विकारों के नाश का भी होता है इसलिए इस शरीर की ऊर्जाओं के प्रभाव से साधक विकार रहित दशा को भी प्राप्त कर लेता है I
और ऐसी दशा को प्राप्त करके ही वह साधक उस भाग में जाता है, जो त्याग भाव का है और जिसमें पूर्ण स्थित होकर, उस साधक को इस सूर्य शरीर के देवता, अर्थात सूर्य देव ही उनके नियंत्रित सूर्य लोक से आगे जाने का मार्ग दिखाते हैं I
इसलिए देवलोकों से (या देवयान पर) गमन करते हुए साधक के मुक्तिमार्ग के अनुसार, यह शरीर एक महत्वपूर्ण सिद्ध शरीर ही है I
आगे बढ़ता हूँ…
सूर्य लोक में गमन, सूर्य देवता का स्वरूप, सूर्य देवता का विकराल स्वरूप, सूर्य लोक क्या है, सूर्य लोक कैसा होता है, तैजस लोक में प्रवेश, सूर्य देव की विशेषताएं, सूर्य देवता कौन हैं, सूर्य लोक के जीव कैसे हैं, सूर्य सिद्धि क्या है, सूर्य लोक में लय प्रक्रिया, सूर्य देवता का स्वरूप, … गुरु शिष्य परंपरा की महिमा का स्वरूप, गुरु शिष्य परंपरा का सनातन स्वरूप, गुरु शिष्य परंपरा का अखण्ड स्वरूप, गुरुदक्षिणा का अखण्ड सनातन स्वरूप, गुरुदक्षिणा का चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में व्यापक स्वरूप, सूर्य लोक में लय, सूर्य देवता में लय, …
यह चित्र सूर्य लोक और उनके देवता (सूर्य देव) को दर्शा रहा है I इसमें दिखाए सूर्य देवता, दक्षिण दिशा को देख रहे हैं I
इस अध्याय में बताया गया सिद्ध शरीर इसी लोक में जाता है I
यदि एक बार भी वह सिद्ध शरीर सूर्य लोक में पहुँच गया, तो वह प्रतिदिवस एक बार तो अवश्य ही उस सूर्य लोक में जाएगा I और ऐसा तबतक होता ही जाएगा, जबतक वह साधक सूर्य लोक से आगे के मार्ग पर गमन करने का पात्र नहीं हो जाता I
और सूर्य लोक से आगे जाने की पात्रता भी तब ही आती है जब साधक उस सूर्य लोक में बैठकर, मन ही मन (अर्थात अपने भावों में) उस सूर्य लोक को त्यागता है और जहाँ उस त्याग भाव में इस अध्याय के सिद्ध शरीर को भी त्यागा जाता है I
और इसी त्याग भाव से जब साधक सूर्य लोक से आगे जाता है, तब यह सिद्ध शरीर सूर्य लोक में ही लय होकर, वहीं पर रह जाता है I और जब ऐसा होता है, तब साधक की चेतना पर सूर्य देव की पकड़ समाप्त भी हो जाती है I
जब साधक की चेतना पर सूर्य देव की पकड़ समाप्त हो जाती है, तब ही वह साधक सूर्य लोक से आगे जाने के मार्ग पर चल पाता है I और ऐसी दशा में सूर्य देव ही उस साधक को उनके सूर्यलोक से आगे जाने वाला मार्ग दिखाते हैं I
टिप्पणियां:
- जबतक कोई साधक किसी लोक से आगे जाने का पात्र नहीं बनता, तबतक उस साधक को उस लोक का नियंत्रक देवता (अथवा देवी) उस लोक से आगे जाने का मार्ग भी नहीं दिखाता है I
- और यह पात्रता भी तब ही आएगी जब साधक उसके अपने भाव साम्राज्य में उस लोक, उसके देवता और उनकी सिद्धि को त्याग देता है I इसलिए यह मार्ग भी त्याग का ही है I
- और जब साधक अपने भाव साम्राज्य में उस लोक को त्यागता है, तब उसका उस लोक से संबद्ध सिद्धादि शरीर उसी लोक में लय होने लगते हैं I और जब वह सिद्ध शरीर उस लोक में लय होने लगता है, तब ही उस लोक का नियंत्रक देवता उस साधक की चेतना को उनके नियंत्रित लोक से आगे जाने का मार्ग दिखाता है I
- किसी भी लोक के देवता के यह दो कार्य तो होते ही हैं…प्रथम कार्य यह है कि उस लोक में वही साधक आ पाएगा, जो उस लोक में प्रवेश करने की पात्रता पाया है… और द्वितीय कार्य यह है कि उस लोक से वही साधक आगे के लोकादि में जा पाएगा, जो उस लोक से अतीत होने की पात्रता पाया है I
- और जहाँ यह दोनों पात्रताएं भी त्याग मार्ग का ही अंग रही हैं I जबतक साधक उसके अपने भाव साम्राज्य में ही पूर्व के लोक का त्याग करके, उस पूर्व के लोक का जो भी है उसी लोक में लय नहीं कर देता, तबतक साधक उस लोक से आगे के लोक में जाने का पात्र भी नहीं बन पाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब सूर्य लोक की प्रचण्ड ऊर्जाओं के बारे में बताता हूँ…
जब यह सूर्य लोक का सिद्ध शरीर स्थूल काया में प्रकट हुआ और इसके पश्चात, जब वह सूर्य सिद्ध को दर्शाता हुआ शरीर, सूर्य लोक में गया, तो वह इस लोक और उसके देवता (अर्थात सूर्य देवता) की विकराल ऊर्जाओं के प्रभाव में आया और ऐसी स्थिति में वह सिद्ध शरीर अधमरी सी स्थिति में आ गया और उसी सूर्य लोक में इसी अधमरी सी अवस्था में ही लेट गया I
ऐसी ही स्थिति मेरे स्थूल शरीर की भी हुई और इस दशा में मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरा स्थूल देह एक विकराल अग्नि में ही प्रवेश कर गया है और स्थूल शरीर की ऊर्जा भी अग्निमय हो गई है I इस दशा में ही मैं कई दिनों तक पड़ा रहा क्योंकि बिस्तर पर से उठने तक में कठिनाई हो रही थी I
मेरा स्थूल शरीर पत्ते के समान कम्पन कर रहा था और सूक्ष्म शरीर को भी काया में रह पाना बहुत कठिन हो रहा था, इसलिए कई दिनों तक और उन दिनों में अधिकांश समय में मेरा सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर ही रहने लग गया थाI
और वह सूक्ष्म शरीर मेरी काया के पास ही खड़ा रहता था और उस अधमरी गीली सी, चिकनी मिट्टी के समान और उन सूर्य लोक की विकराल ऊर्जाओं से युक्त अधमरे पड़े हुए मेरे स्थूल देह को बस, स्थूल देह के समीप खड़ा हुआ देखता ही रहता था I
क्योंकि उस समय मेरी चेतना भी उस सूक्ष्म शरीर के साथ ही मेरे स्थूल देह से बाहर चली जाती थी और ऐसी दशा में वह चेतना मेरे सूक्ष्म शरीर के भीतर स्थित होकर मेरे स्थूल देह के समीप ही खड़ी रहती थी, इसलिए मैं अपने स्थूल देह की जो अतिदयनीय स्थिति थी, उसको भी उसके समीप ही खड़ा हुआ देखता रहता था I
उन दिनों मैं उसी सूक्ष्म शरीर के भीतर से अपने स्थूल शरीर की दयनीय स्थिति को दयाभाव से युक्त होकर देखते ही जा रहा था I
और प्रतिदिवस चाहे कुछ ही समय के लिए ही सही, लेकिन जब मेरे स्थूल शरीर के भीतर मेरा वह सूक्ष्म शरीर प्रवेश करता था, तब मैं अपने स्थूल शरीर की उस अधमरी सी और अतिदयनीय स्थिति का कारण भी जानता था I वह कारण था इस सूर्य लोक के सिद्ध शरीर की तैजसमय, अग्निमय और इस शरीर की प्रचण्ड ऊर्जाएं जो मेरे स्थूलशरीर के भीतर रमण कर रही थी और मेरे स्थूल देह के भीतर उफान मचाई हुई थीं I
यही वह कारण था कि उन दिनों मैं अपने स्थूल देह में अधिक समय तक रह भी नहीं पा रहा था I
बस कुछ ही समय तक स्थूल देह में रहकर, मेरा चेतना से युक्त सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकलकर मेरे स्थूल शरीर के समीप ही खड़ा होकर, उस स्थूल शरीर को एक अति दयनीय भाव से एकटक दृष्टि से देखता ही रहता था I
कुछ दिवस तक इस प्रक्रिया जाकर में मुझे लगने लग गया था, कि अब मेरा सूक्ष्म शरीर मेरे स्थूल शरीर में तबतक निवास नहीं कर पाएगा, जबतक उस स्थूल शरीर के भीतर अकस्मात् ही प्रकट हुई यह विकराल अग्निमय दशा शांत नहीं हो जाएगी I
और उस विकराल ऊर्जा के प्रभाव में अधमरे से स्थूल शरीर को देखते हुए, एक समय तो मुझे ऐसा भाव भी आया, कि अब मृत्यु ही सरल मार्ग है… इस स्थूल शरीर का नष्ट होना ही इसकी पीडाओं को अंत करने का मार्ग होगा, क्योंकि उस समय कोई और विकल्प भी नहीं दिखाई दे रहा था I
लेकिन मैं इस स्थूल शरीर का अंत कर भी नहीं पाया, क्योंकि मेरी वह गुरुदक्षिणा, जिसके कारण यह ग्रंथ लिखा गया है, वह पूर्ण नहीं हुई थी I यदि उस समय वह पूर्ण हुई होती, तो मैं अवश्य ही अपने स्थूल देह का अंत कर चुका होता I
वैसे भी इस अध्याय श्रंखला में गति करते हुए और इस अध्याय श्रंखला के लय मार्ग पर गमन करते हुए योगी का जीव जगत और जीव जगत के स्थूल, सुक्ष्म और कारण भागों से क्या लेना देना I ऐसा इसलिए है क्योंकि वह योगी तो उस लय मार्ग पर ही चल पड़ा है जिसमें उस योगी का सबकुछ ही लय होगा, चाहे वह दैविक भाग हो, या सूक्ष्म भाग हो अथवा स्थूल भाग ही हो… अपने अपने कारणों में लय तो सब कुछ ही होगा I इस अध्याय श्रंखला में गमन करते हुए योगी की काया में जो कुछ भी है, वह सब कुछ ही अपने अपने मूलादि कारणों में लय होगा I
इस ग्रंथ और अध्याय श्रंखला में गमन करते हुए योगी की काया में जो स्थूल, सुक्ष्म और कारण आदि जगत से भी आगे के महाकारण जगत का जो भाग है, वह भी भारत नामक ब्रह्मा और उनकी शक्ति, भारती सरस्वती विद्या में लय हो जाएगा I
इस ग्रंथ और अध्याय श्रंखला में गमन करते हुए योगी की काया में जो भी पञ्च ब्रह्म और पञ्च सरस्वति से संबद्ध भाग हैं, वह सब उन्हीं पञ्च ब्रह्म और पञ्च विद्या में ही लय हो जाएंगे I
लेकिन क्योंकि मेरे पूर्व जन्मों की जो गुरुदक्षिणा थी, वह इस अध्याय में बताई जा रही दशा तक पूर्ण नहीं हुई थी, इसलिए अपने पूर्व जन्मों की शेष गुरुदक्षिणा के कारण निर्मित मेरे उस अतिप्रबल प्रारब्ध के अनुसार मैं अपने स्थूल देह का त्याग भी नहीं कर पा रहा था I
वही गुरुदक्षिणा मेरे इस जन्म के प्रारब्ध का मूल कारण भी थी I और इसी के कारण इस स्थूलदेह में मेरे इस जन्म का आगमन, परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही सही, लेकिन हुआ था I और ऐसा तब भी था, जब मेरा चित्त जिसमें मेरे पूर्व जन्म के संस्कार थे, वह अब तक तो संस्कार रहित ही हो चुका था I
चित्त की ऐसी संस्कार रहित दशा में भी यदि मैं अपनी काया से अपने संबध का योगमार्ग से अंत कर देता, तो भी मेरा प्रारब्ध पूर्ण नहीं होता I और यह तब भी होता जब संस्कार रहित चित्त अपनी प्रारब्धातीत अवस्था का ही द्योतक होता है I
इसलिए जबकि उस दशा में यह स्थूल काया का अंत संभव ही था, किन्तु अपने पूर्व जन्मों के गुरुजनों के आदर और उनकी वाणी में कही गई उनकी गुरुदक्षिणा का मान रखने के लिए मैं बाध्य भी हो रहा था I
आगे बढ़ता हूँ…
और एक बिंदु जो हो सकता है आज लुप्त हो गया हो, उसको बताता हूँ…
यदि गुरु की दक्षिणा उनके कहे अनुसार न दी जाए, और ऐसी दशा में योगी उस गुरुदक्षिणा को ही अपने प्रारब्ध कर्म में पाकर लौटा हो (अथवा परकाया प्रवेश से लौटाया ही क्यों न गया हो) और यदि ऐसा होने पर भी वह अपने जीवन काल में उस गुरुदक्षिणा को पूर्ण न कर पाया हो और जहाँ उसके पूर्ण न करने के कारण में उसका स्वेच्छा से देहावसान हो, तो ऐसी दशा में स्थूल देह के मृत्युपरांत ब्रह्मराक्षस की योनि भी असंभव नहीं होती I
ऐसी दशा में चाहे योगी जीवित होता हुआ भी मुक्त ही क्यों न हुआ हो, लेकिन तब भी वह अपने स्थूल देह के मृत्युपरांत, कुछ समय अंतराल के लिए ही सही, लेकिन ब्रह्मराक्षस की योनि तक में भी जा सकता है I
और जहाँ वह ब्रह्म राक्षस की योनि जो पाई जाएगी, वह गुरु दक्षिणा की सार्वभौम महिमा का एक विकराल स्वरूप ही होगी I
और ऐसा तब भी जो जाएगा, जब वह योगी जीवन्मुक्त हुआ होगा I
और ऐसा तबतक रहेगा, जबतक उसके पूर्व जन्म के गुरु आदि जन जिनकी गुरुदक्षिणा अपूर्ण रही थी, वही उस योगी को उस अधम योनि से या तो बाहर निकालते हैं और या उसको उससे बाहर निकलने का मार्ग दिखाते हैं I
और बाहर निकलने के पश्चात, ऐसा भी हो सकता है कि वह योगी पुनः उसी गुरुदक्षिणा को अपने आगामी के प्रारब्ध का ही लक्ष्य बनाकर लौटाया जाए I और लौटने के पश्चात अपने आगामी जन्म में वह योगी पुनः उसी गुरुदक्षिणा को पूर्ण करने के मार्ग परगति करे I यह गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत स्थापित हुई गुरुदक्षिणा परंपरा का अखण्ड सनातन स्वरूप ही है I
ऐसा होने के कारण भी मैं न चाहते हुए भी, इस स्थूल काया में रह गया I
और उस समय उस अधमारे से स्थूल शरीर के समीप खड़ा हुआ मैं यह सब भी सोचने ही लगा…
कितने भाग्यशाली होते हैं वह शिष्य, जिनके गुरुदेव मनु नहीं होते I
कितने भाग्यशाली होते हैं वह जिनके गुरु गोत्रप्रवर्तक ऋषि नहीं होते I
कितने भाग्यशाली होते हैं वह जिनके गुरुजन सिद्धादि मनीषी नहीं होते I
कितने भाग्यशाली होते हैं वह, जिनके गुरु ब्रह्मार्षि आदि ऋषिगण नहीं होते I
कितने भाग्यशाली होते हैं वह जिनके गुरुजन देवी देव और अवतारादि नहीं होते I
ऐसे गुरुजनों की दक्षिणा को पूर्ण करने हेतु कई जन्म नहीं, बल्कि कल्प ही लगेंगे I
और कितने भाग्यशाली होते हैं वह जिनकी गुरुदक्षिणाएँ उसी जन्म में पूर्ण होती हैं I
कितने भाग्यशाली होते हैं वह जो अपनी गुरुदक्षिणा को पूर्ण करके मुक्त भी होते हैं I
उस समय ऐसा सोचकर मैंने अपनी काया को त्यागने का भाव ही त्याग दिया और सोच ही लिया, कि अब इस जन्म के प्रारब्ध के निर्माण के मूलकारण में जो मेरे पूर्वजन्मों की गुरुदक्षिणाएँ शेष रही हैं, और यही तो है जो मेरे संपूर्ण जीव इतिहास का वह एकमात्र कर्म है और जो अभी तक शेष रहा है, इसलिए इसको पूर्ण करके ही सोचूँगा कि काया में रहना है… अथवा नहीं I
और ऐसे समय तक जो भी होगा, वह सब देखा जाएगा I
और क्योंकि अभी के समय तो मेरी स्थूल काया की दुर्दशा के कारण, यह गुरुदक्षिणा की पूर्ति असंभव ही प्रतीत हो रही है, लेकिन यह भी तो सत्य ही है कि इस जीव जगत के रचैता जो योगेश्वर है और जो उकार और कार्य ब्रह्म भी कहलाए हैं, उन्होंने ऐसा कोई विधान ही नहीं बनाया है जो किसी शिष्य के अपने गुरु के प्रति कर्तव्यों को पूर्ण करने में बाधा डाल सके I
कोई पूर्व कालों का उत्कृष्टम योगी ही तो ब्रह्मा बनता है I
जो योगी ही था, वह कभी न कभी शिष्य भी तो रहा ही होगा I
इसलिए उन ब्रह्मदेव को भी तो गुरु शिष्य परंपरा का ज्ञान होगा ही I
ऐसा कैसे हो सकता है कि रचैता ने इस परंपरा को सुरक्षित नहीं किया होगा I
ऐसा हो नहीं सकता… ब्रह्मरचना में इस परंपरा के योगी की गति सुरक्षित नहीं होगी I
इसलिए उस अधमरे स्थूल शरीर पर दयनीय दृष्टि से देखते हुए मैंने सोचा… ब्रह्मा ने इस अखण्ड सनातन परंपरा पर गति करते मनीषियों की सुरक्षा का विधान भी तो बनाया ही होगा I
तो क्यों न उन समस्त पूर्व जन्मों की शेष रह गई गुरुदक्षिणा की पूर्ती हेतु, जो इसी अखण्ड सनातन गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत है, उस परंपरा को ही मूल, मार्ग, लक्ष और गंतव्य बनाकर, इसको पूर्ण किया जाए I
और इस मार्ग में जो भी होगा, वह सब का सब देखा जाएगा I
वैसे भी इस छोटे से कर्म के लिए, जो कुछ वर्षों से चल भी रहा है और आगामी कुछ ही वर्षों में पूर्ण भी हो जाएगा, पुनः इस कलयुग की काली काया से ग्रसित मृत्युलोक में क्यों लौटना I
वैसे भी किसी कलि आदि युग में इतना दम कहां होगा, कि वह किसी अखण्ड सनातन परंपरा और उसपर गति करते योगी से टकरा जाए… और टकराने के पश्चात, वह कलि आदि युग सुरक्षित भी कहाँ रह पाएगा, उसका तो अंत ही नहीं हो जाएगा I
किसी भी अखण्ड सनातन परंपरा से टकराकर कलि आदि युग समाप्त हुए बिना भी तो नहीं रह पाएगा… कलि आदि युग इतने शक्तिशाली कहाँ है कि वह इस वाक्य का विरोध कर पाएं और ऐसा करके भी वह सुरक्षित रह पाएं I
इस ब्रह्म रचना में जबकि काल के गर्भ में ही सबकुछ बसाया गया है, लेकिन काल के जनक भी तो वही हिरण्यगर्भ ब्रह्म हैं जिनकी सूर्य नामक अभिव्यक्ति है और जिनके विकराल ऊर्जा प्रभाव में आकर मेरे स्थूल शरीर की यह दुर्दशा हुई है I
इसलिए अब हिरण्यगर्भ की परंपरा में जाकर ही काल के इस कलियुग नामक खंड के प्रभाव को समाप्त किया जाएगा I और स्थूल देह की ऐसी दुर्दशा के समय मैंने यह भी सोचा कि जब कोई योगी काल के मूल हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में चला जाएगा, तो ऐसे योगी पर हिरण्यगर्भ से प्रकट हुए काल और उसके चक्र स्वरूप का प्रभाव भी तो समाप्त हो जाएगा I
और क्योंकि काल का चक्र स्वरूप ही तो इस शक्तिमय जीव जगत रूप में उद्भासित हुआ था, इसलिए यदि कोई योगी अपनी आंतरिक दशा से उन हिरण्यगर्भ का ही हो जाएगा जिनकी अभिव्यक्ति कार्य ब्रह्म है और जो काल और उसके चक्र स्वरूप के जनक हैं, तो उस योगी पर जीव जगत और उसकी कलि आदि युगों से संबद्ध शक्ति का प्रभाव भी तो समाप्त हो जाएगा I
और इन सब भावों में बसकर, मैंने सोचा …
काल का अनादि अनंत, अखण्ड अज स्वरूप ही तो सनातन ब्रह्म कहलाता है I
काल का चक्र स्वरूप ही तो परिवर्तनशील जीव जगत कहलाया जाता है I
काल के सदैव चलायमान चक्र रूप में ही तो उत्कर्ष पथ बसे हुए हैं I
काल के अखण्ड सनातन स्वरूप में ही तो परंपरा बसी हुई है I
काल का कालातीत स्वरूप ही तो हिरण्यगर्भ कहलाता है I
इसलिए अब हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म से चालित कालातीत परंपरा को ही मूल, मार्ग, लक्ष्य और गंतव्य बनाकर अपनी सभी शेष गुरुदक्षिणाएँ पूर्ण करूँगा I और इस मार्ग में जो भी होगा, वह सब देखा जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
अब सूर्य लोक में सिद्ध शरीर की स्थिति को बताता हूँ…
सूर्य के अग्निमय विकराल स्वरूप के कारण, वह सिंदूर के वर्ण का सिद्ध शरीर सूर्य लोक में पहुँच कर वहीं पर लेट जाता था I और वह कुछ समय के लिए ही लौटकर स्थूल काया में वापिस आता था I ऐसा ही वह प्रतिदिन कर रहा था I
उस सूर्य लोक में जो देखा वह ऐसा था…
उस सूर्य लोक के नियंत्रक देवता (सूर्य देव) बहुत बड़े आकार के हैं I
वह देवता एक बहुत ही सूक्ष्म, श्वेत वर्ण के कमल पर बैठे हुए हैं और वह कमल भी बहुत ही बड़े से आकार का है I और ऐसा ही सूक्ष्म श्वेत प्रकाश उन सूर्य देवता के शरीर से बाहर भी निकलता जा रहा है, जिसके कारण उनका नाता परा प्रकृति (अर्थात आदि शक्ति) से भी होगा ही I
उन सूर्य देव की श्वास प्रस्वास से वह पूरा लोक कम्पमान हो रहा था और ऐसा लग रहा था जैसे कोई भूमिकम्प बार बार हो रहा है I इसलिए मैंने यह भी सोचा कि इस पृथ्वी सहित अन्य लोकों में जो भूमिकम्पन होता होगा, वह भी सूर्य देव की श्वास प्रस्वास से निकलती ऊर्जाओं के किसी न किसी प्रभाव से ही होता होगा I
वह बहुत बड़े आकार के देवता आवेश से भरपूर और भयावह से लग रहे थे I लेकिन ऐसा होने पर भी वह अपने उस सूक्ष्म श्वेत वर्ण के कमल पर पद्मासन में, अपने नेत्र बंद करके साधना में बैठे हुए ही प्रतीत हो रहे थे और ऐसे ही साधनारत वह सदैव रहते थे I
और कुछ दिवस के पश्चात मैं (अर्थात मेरा सिद्ध शरीर जो उस लोक में प्रतिदिवस जाता था) उस विचित्र से लोक का आदी होता चला गया I इसी समय के समीप मेरे पास उस लोक के कुछ जीव प्रस्तुत हुए I
वह जीव पूर्व कालों के वह सिद्ध ही थे जिन्होंने सूर्य लोक को प्राप्त किया था I सूर्य लोक के वह सभी सिद्ध बहुत मिलनसार थे, और उनके शरीर भी उसी सिंदूरी वर्ण के थे, जिसके वर्ण का मेरा वह सिद्ध शरीर था जो प्रतिदिन सूर्य लोक में जाया करता था I
और उन सूर्य लोक के सिद्धों के साथ मैं (अर्थात मेरा वह सिद्ध शरीर जो सूर्य लोक में गया था) घूम घूमकर उस लोक जो जानने भी लगा I और शनैः शनैः ही सही, लेकिन उस लोक का आदि हो ही गया I
उन्ही सूर्य लोक के सिद्धों के मार्गदर्शन से मैंने अपने स्थूल देह के भीतर चलायमान हो रही उस विकराल अग्निमय ऊर्जा के आदि होने का मार्ग जाना I इसलिए इस पूरी अध्याय श्रंखला के अनुसार, वह सब मेरे गुरुभाई ही हुए I
और इसके अतिरिक्त, मेरे सभी परे और परे से भी परे लोकों में गमन, गमन मार्ग और उन लोकों के सिद्ध आदि मनीषियों के साथ अध्ययन और उन लोकों के साक्षात्कारों के अनुसार, सूर्य लोक के मनीषी ही सबसे उत्कृष्ट, आनंदयुक्त, सबसे अधिक सहायता करने वाले और सबसे प्यारे हैं I
और इसके अतिरिक्त, सूर्य देव जो दिखने में और उनकी ऊर्जा के परिपेक्ष में तो अतिभयावह ही लगते हैं, वह भी सबसे अच्छे देवता हैं क्योंकि उनका अनुग्रह ही मुझे उस लोक में लेकर गया, जहाँ मेरी वह गुरुदक्षिणा जो भगवान् बुद्ध से संबद्ध थी… पूर्ण हुई थी I
उन्ही सूर्य देव के अनुग्रह से ही मैं अष्टपाश के प्रभाव से सुदूर हुआ था और आगे चलकर पाशुपत मार्ग पर जाकर, मैंने पञ्चमुखी और अष्टमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा भी पूर्ण करी थी I इसलिए अब मैं कई बार सोचा भी करता हूँ, कि मेरे इस अंतिम लय मार्ग के अनुसार (जो मेरा मुक्तिमार्ग ही है), सूर्य ही प्रधान देवता होंगे I
और सूर्यलोक से प्रारम्भ हुआ इस लय मार्ग का एक मुख्य बिंदु यह भी है, कि लोक सहित लोक के देवता में भी उस लोक से संबद्ध सिद्ध शरीर लय हो सकता है I
लेकिन आगामी समय के साधकगण मेरी यह बात जो मेरे अनुभवों पर ही है, अपने स्मरण में अवश्य रखें कि किसी भी देवादि लोकों का नियंत्रक देवता तब ही मदद करेगा, जब साधक की आंतरिक दशा में वह भाव ही प्रधान होगा, कि मुझे उस देवादि लोक से आगे जाना है I
और ऐसा भाव भी तब ही पूर्ण प्रतिष्ठित होकर, साधक के ही मुक्तिमार्ग रूप में और उस देवादि लोक के देवता के अनुग्रह से ही सही, लेकिन क्रियान्वित होगा, जब साधक पूर्ण त्यागी, पूर्ण संन्यासी अर्थात पूर्णतः मुमुक्षुपन में होगा… अन्यथा नहीं I
ऐसा होने का भी वही कारण है जो पूर्व के अध्ययन में बताया गया था कि…
मुक्त कभी सिद्ध नहीं होता I
सिद्ध कभी मुक्त नहीं हुआ है I
मुक्त, सिद्धियों से भी मुक्त होता है I
सिद्ध, मुक्ति या बंधन में कभी नहीं होता I
जो सर्वातीत ही नहीं है, वह मुक्त भी नहीं कहलाएगा I
जो मुक्त है, उसको सिद्धि या लोक परलोक से क्या लेना देने I
और जो सिद्ध ही हो गया, उसको मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना I
सिद्ध से उत्कृष्ट कोई गुरु नहीं होता… जो सिद्ध नहीं, वह गुरु भी नहीं होगा I
मुक्त से उत्कृष्ट कोई तारक नहीं होता… जो मुक्त नहीं, वह तारक भी नहीं होगा I
और जो सिद्ध, मुक्तात्मा ही हुआ है, वह उस जन्म में न गुरु होगा और न तारक I
देहावसान के पश्चात ही वह पूर्व का सिद्ध, जो अब मुक्त हुआ है… कुछ हो पाएगा I
वैदिक देवी देवता भी वह हैं, जो मुक्त होकर भी, पुनः सिद्धि आदि को धारण किए हैं I
देवता का ऐसा करना भी अन्य जीवों के उत्कर्ष और मुक्तिपथ आदि की सुरक्षा हेतु हुआ है I
आगे बढ़ता हूँ…
एक बार उन विशालकाया देवता के समक्ष गया और उनके पास ही बैठ गया I वह देवता अपने श्वास प्रस्वास से तो बहुत भयावह थे किन्तु उनका स्वभाव बहुत ही निर्मल और शांत था I उनको देखता हुआ वहीँ बैठा रहता था और समय समय पर उस लोक के सिद्धों के साथ भी उत्कर्ष मार्ग आदि बिंदुओं पर वार्तालाप होती थी I
वह सभी सिद्धगण उच्च कोटि के योगी थे इसलिए उनसे जानता भी था उन बिंदुओं को जो मुझे उस समय तक स्पष्ट नहीं हुए थे और वह मुझे बताया भी करते थे I
धीरे धीरे मेरा सिद्ध शरीर उस लोक में बस गया और अंततः उस लोक से आगे जाने के बारे में विचार भी करने लग गया I वह सिद्ध शरीर आगे जाना चाहता था किन्तु उसको मार्ग नहीं मिल रहा था I
ऐसी दशा में उसकी आगे जाने की इच्छा शक्ति भी प्रबल होती चली गयी I
जब वह सिद्ध शरीर उस लोक का आदी हो गया, तब मेरा स्थूल देह भी उतने कष्ट में नहीं रहा था, क्योंकि वह स्थूल देह भी उसके भीतर स्वयंचालित हो रही अग्निमय ऊर्जाओं का आदी होने लगा I कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन अब वह बिस्तर पर बैठ भी पा रहा था, थोड़ा चल ही पा रहा था और शनैः शनैः वह उसके भीतर स्थापित हो रही उस अग्निमय ऊर्जा को धारण भी करने लगा था और उस विकराल ऊर्जा के आदि भी होने लग गया था I ऐसी दशा आते-आते मुझे यह भी पता चलने लगा था, कि अब इस ऊर्जा का आदि होना ही होगा, क्योंकि यह सूर्य लोक की ऊर्जा कहीं जाने वाले नहीं है… यह ऊर्जा मेरे साथ ही रहने वाली है और मुझे इसके साथ ही अपने कर्म करने होंगे I
आगे बढ़ता हूँ…
और सूर्य देव और सूर्य लोक की प्रधानता के बारे में बताता हूँ …
अनादि कालों से प्रत्येक उत्कर्ष मार्ग ने अपने देवता को प्रकाश रूपा ही माना है I यहाँ कहा गया प्रकाश का शब्द नेत्रों से दिखाई देता हुआ प्रकाश भी है, और ज्ञान, चेतन, सत्कर्म, उत्कर्ष आदि का भी द्योतक है I
अनादि कालों से और किसी भी लोक में कोई उत्कर्ष पथ हुआ ही नहीं जिसका नाता प्रकाश से नहीं हुआ है I
और क्योंकि प्रकाश के रूप में सूर्य ही होते हैं, इसलिए कोई ऐसा पंथ है ही नहीं, जो उत्कर्ष पथ होगा और उस पंथ में सूर्य को अथवा सूर्य के प्रकाश को अथवा उस पंथ के देवता को ही प्रकाश शब्द से नहीं दर्शाया गया होगा I
और क्योंकि ब्रह्माण्ड में हिरण्यगर्भ ब्रह्म की सूर्य नामक अभिव्यक्ति ही किसी न किसी रूप में प्रकाश होती है, इसलिए सूर्य देवता ही प्रकाश शब्द के अनुसार प्रधान हैं I यही सूर्य देवता की महिमा है I
लेकिन ऐसा होने का एक और कारण भी होता है और वह यह है कि सूर्य लोक से ही वह मार्ग जाता है, जो साधक की चेतना को ब्रह्मलोक में ही सीधा-सीधा स्थापित कर देता है I
इस अध्याय में बताया गया सूर्य शरीर जब अपने प्रचण्ड अग्निमय और विप्लवकारी स्वरूप में प्रकट होता है, तब साधक की मानसिकता का शुद्धिकरण भी स्वतः होने लगता है I और इस शुद्धिकरण प्रक्रिया के पूर्ण होने के पश्चाय, साधक की जो मानसिकता होगी वह पूर्व की विकृत मानसिकता से बिलकुल उत्क्रम (प्रतिलोम) भी हो सकती है I इसका अर्थ हुआ कि इस सिद्धि के पश्चात, साधक वैसा होगा ही नहीं जैसा वह तब था, जब वह इस सूर्य लोक को न पाया था और न ही इस सूर्य शरीर को धारण किया था I
सूर्य देव उत्पत्ति स्थिति और संहार, इन तीन कृत्यों के भी धारक हैं इसलिए त्रिदेव स्वरूप भी हैं I
इसलिए जब साधक उनके लोक में चला जाता है, तब उस साधक पर इस सूर्य लोक का जो प्रभाव आता है, वह इन्ही तीनों कृत्यों का एक साथ (अर्थात मिला जुला) प्रभाव ही होता है I एक ओर साधक की काया में विकृतियों का संहार हो रहा होगा, दूसरी ओर उत्कृष्टम भाव आदि उत्पन्न हो रहे होंगे और एक ओर उत्कृष्ट दशाओं की स्थिति भी हो रही होगी I ऐसा होने के कारण साधक को समझ में ही नहीं आता, कि उसके साथ क्या हो रहा है अथवा क्या क्या हो रहा है या यह कहूँ, की क्या क्या नहीं हो रहा है I
आगे बढ़ता हूँ…
लय मार्ग का प्रारंभ, लय पथ का प्रारंभ, त्यागमार्ग का प्रारंभ, ब्रह्माण्ड त्यागमार्ग का प्रारंभ, सूर्य लोक से जाते हुए लय मार्ग की गति, … लय मार्ग और त्याग, त्याग और लय, त्याग मार्ग का लय प्रक्रिया से नाता, सूर्य लोक से प्रारंभ हुए लय मार्ग की गति, …
अब सूर्य लोक में लय को बताता हूँ I
और यही सब सिद्धांत प्रत्येक देवलोक में भी समानरूपेण और पूर्णरूपेण पाए जाएंगे, इसलिए साधक यहाँ बताए गए योगमार्ग के बिन्दुओं को अपने साक्षात्कारों में स्पष्ट रूप में और सभी देवादि लोकों से जाते हुए मुक्तिमार्गों में भी व्यापक सा ही पाएगा I
किसी ही देवादि लोक से आगे जाने का मार्ग त्याग है I
यह त्याग भी उस लोक के सिद्धादि शरीर का ही होता है I
इस त्याग का मार्ग साधक के भाव साम्राज्य में ही चलित होता है I
जिस लोक का जो है, उसको उसी में त्यागकर उस लोक से आगे जाओगे I
आगे बढ़ता हूँ…
और अब इस त्याग प्रक्रिया और उसकी लय दशा को बताता हूँ I और यही सिद्धांत प्रत्येक देवलोक में भी समानरूपेण और पूर्णरूपेण पाया जाएगा…
जबतक उस लोक का सबकुछ उसी लोक में त्यागा नहीं जाएगा, तबतक उस लोक के देवता का नियंत्रण भी साधक पर बना रहेगा I
जब कोई साधक उस लोक का सबकुछ, उसी लोक में त्याग देगा, तब उस लोक की ऊर्जाओं, देवत्व बिंदुओं और देवताओं आदि का नियंत्रण उस साधक पर समाप्त भी हो जाएगा I
और जब ऐसा हो जाएगा, तब उसी लोक के देवता ही उस साधक की चेतना को, जो उन देवता के द्वारा नियंत्रित लोक में बैठी हुई होगी, उसको उनके लोक से ही आगे जाने का मार्ग दिखाते हैं I
जबतक किसी लोक के देवता किसी साधक को उनके लोक से आगे जाने का मार्ग नहीं दिखाते हैं, तबतक साधक की चेतना उस लोक से आगे भी नहीं जा पाती है I
और जब देवता उस साधक की चेतना को उनके नियंत्रित लोक से आगे जाने का मार्ग दिखा देते हैं, तब साधक की चेतना उसी दिखाए हुए मार्ग पर जाकर, उस लोक से आगे चली जाती है I
ऐसा भी इसलिए है क्योंकि केवल और केवल उस लोक के देवता को ही उनके नियंत्रित लोक से आगे जाने का मार्ग पता होता है I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि किसी भी लोक से आगे जाने का मार्ग, उस लोक के देवता के सिवा किसी और को पता भी नहीं होता है I
और किसी भी लोक का नियंत्रक देवता, किसी साधक को उस लोक से आगे जाने का मार्ग तबतक नहीं दिखेगा, जबतक साधक उस लोक से आगे जाने की पात्रता नहीं पाएगा I
और जब वह साधक उस लोक से आगे जाने की पात्रता पा जाता है और इसके पश्चात उस लोक का देवता उस साधक को उनके नियंत्रित लोक से आगे जाने का मार्ग भी दिखा देता है, तब वह साधक उन देवता के लोक से आगे जाने से पूर्व, उस लोक से संबद्ध उस साधक के पास जो कुछ भी है, उसी लोक में त्याग देता है I
और इसी त्याग की प्रक्रिया में वह साधक उस लोक के सिद्ध शरीर को भी उसी लोक में त्याग देता है I जब किसी लोक का सगुण साकारी सिद्धादि शरीर उसी लोक में त्यागा जाता है, तब वह सिद्ध शरीर उसी लोक के समान सगुण निराकार हो जाता है I
इस त्याग के पश्चात, वह सिद्धादि शरीर उसी लोक में लय होता है और लय होकर, वह उसी लोक के समान सगुण निराकार स्वरूप में आता है I और उस सगुण निराकार स्वरूप में आने के पश्चात, वह सिद्ध शरीर अपने पूर्व के सगुण साकार स्वरूप में भी नहीं रह पाता है I
यही वह लय मार्ग है, जिससे साधक समस्त देवादि लोक लोकान्तरों को क्रमबद्ध प्रकार से पार करता है I
और जैसे-जैसे वह साधक पार करता जाता है, वैसे-वैसे उस साधक की काया में जो कुछ भी उन-उन लोकों का रहा होगा, वह साधक उस सब को उनके अपने-अपने लोकों में त्याग कर, अर्थात लय करके ही उन उन लोकों से आगे के लोकों में गति कर पाता है I
यही देवयान कहलाया था जिसमें साधक की चेतना समस्त देवलोकों से एक क्रमबद्ध प्रकार से जाती है, और अंततः जब वह साधक उन सभी लोक का जो कुछ भी उस साधक की काया में था, वह सबकुछ उन-उन लोकों में त्याग चुका होता है, तो ही वह साधक अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है I
और जहाँ उस साधक का वह…
आत्मस्वरूप सगुण साकार भी होगा और सगुण निराकार भी होगा I
और अंततः वही आत्मस्वरूप निर्गुण निराकार ही पाया जाएगा I
जब साधक इन तीनों के समस्त बिन्दुओं को साक्षात्कार करेगा, तब भी वह साधक उस पूर्ण शब्द के वास्तविक अर्थ को जानेगा, जो ब्रह्म का ही वाचक है I
और जहाँ वह पूर्ण ब्रह्म भी साधक के पूर्ण शब्द को दर्शाते हुए आत्मस्वरूप में और साधक के समस्त साक्षात्कारों और ज्ञान, दोनों में ही समानरूपेण प्रकाशित हो रहे होंगे I
इसलिए इस सूर्य लोक से चलित होते हुए देवयान (अर्थात महायान) नामक मार्ग पर जाकर भी साधक उन पूर्ण ब्रह्म का ही साक्षात्कार करेगा I
और इन सब साक्षात्कारों में भी साधक वही जानेगा जो पूर्व के अध्यायों में ऐसे बताया गया था…
बूँद ही सागर होती है I
सागर ही बूँद रूप में अभिव्यक्त है I
बूँद के मूल और गंतव्य में सागर ही है I
बूँद की गति अपने गंतव्य, सागर तक होती है I
गंतव्य को पाइ हुई बूँद में कोई गति नहीं बचती I
सागर अपनी बूँद रूपी अभिव्यक्ति से पृथक नहीं है I
अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक भी नहीं होती है I
अभिव्यक्ति ही अपने अभिव्यक्ता का अभिव्यक्त स्वरूप होती है I
निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सगुण साकार और सगुण निराकार हुआ है I
सगुण साकार और सगुण निराकार, उन्ही निर्गुण निराकार की अभिव्यक्तियाँ हैं I
अपनी सभी अभिव्यक्तियों में निर्गुण निराकार, समानरूपेण और पूर्णरूपेण लय हुआ है I
और यह बूँद का शब्द जो जीव और पिण्ड के शब्दों का द्योतक है, और सागर जो जगत और ब्रह्माण्ड सहित, आत्मा और ब्रह्म का भी द्योतक है, उसमें बूँद का लय भी ऐसे ही होगा…
बूँद तबतक ही बूँद होती है, जबतक वह सागर से पृथक रहे I
जब कोई बूँद सागर में लय हो जाती है, तब वह बूँद ही सागर कहलाती है I
ऐसा ही वह योगी होगा, जिसके समस्त सिद्ध शरीर अपने लोकों में लय हुए होंगे I
अब इस लय मार्ग के कुछ और बिंदु बताता हूँ…
इस जीव जगत के एकमात्र अभिव्यक्ता निर्गुण ब्रह्म हैं I
अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता का ही व्यक्त स्वरूप होती है I
लय मार्ग ही अभिव्यक्ति का अभिव्यक्ता की ओर जाने वाला मार्ग है I
अभिव्यक्ति का लय मार्ग अभिव्यक्ता के अव्यक्त स्वरूप से होकर ही जाएगा I
अभिव्यक्ता के अव्यक्त स्वरूप से आगे जाकर ही अभिव्यक्ति का लय होता है I
अंततः वह लय भी अभिव्यक्ता के वास्तविक निर्गुण निराकार स्वरूप में ही होता है I
इसलिए इस लय मार्ग में…
सगुण साकार अभिव्यक्ति सर्वप्रथम सगुण निराकार में लय होगी I
सगुण निराकार होकर वह अभिव्यक्ति अव्यक्त में जाकर, उसमें लय होगी I
अव्यक्त हुई अभिव्यक्ति, निर्गुण अभिव्यक्ता का साक्षात्कार करके, उनमें लय होगी I
यही इस अध्याय और अध्याय श्रंखला में बताए गए लय मार्ग का प्रधान क्रम भी है I
आगे बढ़ता हूँ…
किसी भी लोक के नियंत्रक देवता के कुछ प्रधान कर्म, बिन्दु रूप में बताता हूँ …
- ब्रह्माण्डीय स्वच्छता… देवता यह कर्म ऐसे करता है…
जब लोक का पात्र ही लोक में जाएगा, तब लोक की ऊर्जाओं का अनुरक्षण भी होगा I
जब जीव उस देवता के लोक में आने का पात्र होता है, तब ही वह आने देता है I
इसी कर्म से प्रत्येक देवता अपने लोक की स्वच्छता स्थापित करके रखता है I
और इसी से देवता अपने लोक में बसी हुई उर्जाओं को भी स्वच्छ रखता है I
टिपण्णी: लोक का पात्र भी वही होता है, जिसनें आंतरिक दशा में उस लोक की ऊर्जाओं का धारण किया है I
- मुक्तिमार्ग का प्रशस्तीकरण… देवता यह कर्म ऐसे करता है…
जब जीव उसके लोक से आगे जाने का पात्र होता है, तब ही वह उसको जाने देता है I
देवता के लोक से आगे जाना ही जीव के मुक्तिमार्ग रूप में प्रशस्त होता है I
पात्र के लिए, मुक्तिमार्ग प्रशस्त करना उस लोक के देवता का कार्य है I
टिपण्णी: ऐसा कोई लोक है ही नहीं, जिसका देवता यह दोनों कर्म नहीं करता I
आगे बढ़ता हूँ…
और उस सिंधूरी सिद्ध शरीर का सूर्य लोक में लय बताता हूँ…
उस सूर्य लोक में बैठे हुए सिद्ध शरीर के भाव में उस लोक से आगे जाना इतना प्रबल हुआ, कि सूर्य देवता ने उसके भाव पढ़कर, उसको उनके नियंत्रित लोक से आगे जाने का मार्ग दिखाया I
इसी समय के समीप, वह सिद्ध शरीर जो सगुण साकार रूप में था, वह उसी सूर्य लोक में लय होकर, सगुण निराकार हुआ I
उस सिद्ध शरीर के सूर्य लोक में लय होने के पश्चात ही मेरी चेतना उस लोक से आगे गमन करने का वास्तविक पात्र हुई थी I और इसी पात्रता में उस चेतना ने सूर्य लोक से आगे जाना प्रारंभ किया I
उस आगे के मार्ग में वह अव्यक्त प्रकृति ही थीं, जो हलके गुलाबी वर्ण के अव्यक्त प्राण स्वरूप में थीं I वही अव्यक्त प्राण ही ब्रह्मा की वह माया शक्ति थी, जिनसे जाकर साधक ब्रह्मलोक का साक्षात्कार करता है I
तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अगले अध्याय पर जाता हूँ, जहाँ अव्यक्त प्रकृति, माया शक्ति पर बात होगी I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman