ये चित्र हृदय के सूक्ष्म तत्त्वों में बसी हुई एक ऐसी गुफा का है, जो उस मार्ग को दर्शाती है, जिसको मैं स्वयं ही स्वयं में, ऐसा कहता हूं। इस चित्र के मार्ग को, रुद्र ही रुद्र में, ब्रह्म ही ब्रह्म में, आत्मा ही आत्मा में, ऐसा भी कहा जा सकता है। ये मार्ग आत्मसाधना का ही है, और इस मार्ग का आत्मसाधना ही ब्रह्मसाधना कहलाता है, क्यूंकि इस मार्ग में आत्मा ही ब्रह्म है।
यहां पर “स्वयं ही स्वयं में”, के वाक्य के उत्कर्ष मार्ग पर बात होगी।
ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।
इसको आत्ममार्ग, ब्रह्ममार्ग, कैवल्यमार्ग और मुक्तिमार्ग भी कह सकते हैं, जो साधक के भीतर से ही प्रकट होता हुआ, स्व:ज्ञान या स्वयं के ज्ञान को लेकर जाता है। ये चित्र उसी भीतर के मार्ग की मूल दशा को भी दर्शाता है।
इस चित्र में दिखलाये गए तत्त्वों का साक्षात्कार हृदयाकाश गर्भ से जाकर ही होता है, लेकिन हृदयाकाश गर्भ को कभी बाद में बताउंगा। हृदयाकाश गर्भ तंत्र भी “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य और इसके मार्ग का ही अंग है।
हृदयाकाश गर्भ तंत्र को घटाकाश तंत्र भी कहा जा सकता है। लेकिन इसकी अंत गति में, जब साधक का घट ही टूट जाता है, तब साधक का घटाकाश ही महाकाश होता है, जिसके कारण यह घटाकाश तंत्र ही, महाकाश तंत्र हो जाता है। लेकिन महाकाश के साधक और सिद्ध, दोनों ही विरले होते हैं।
ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पांचवा अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
हृदय में अत्मलिंगात्मक रुद्रावस्था … आत्मसाधना …
जो साधक इस अध्याय में कही गयी बातों का साक्षात्कारी और धारक होगा, वो रुद्रामय हुए बिना नहीं रह पाएगा, क्यूंकि ये अध्याय उस रुद्र की एकादशवी स्वरूप सिद्धि को दर्शाता है।
इस अध्याय के सिद्ध साधक के हृदय में, वो एकादशवें रुद्र, उनके अपने अत्मलिंगात्मक स्वरूप में ही निवास करते है और वो रुद्र वैसे ही निवास करते है, जैसा इस चित्र में दिखलाया गया है।
ऐसा रुद्रमय साधक, रुद्र का ही लिंगात्मक स्वरूप कहलाता है।
ऐसे साधक के पञ्च प्राण और पञ्च उप-प्राण, उसके पिण्ड रुपी शरीर के भीतर ही बसे हुए दस रुद्र होते हैं। और ऐसे साधक की आत्मशक्ति ही एकादशवां रुद्र होती है। इसलिए ऐसे साधक की प्राण शक्ति भी रुद्रामयी हुए बिना नहीं रह पाती।
वैसे एक बात बता देता हूँ, की जब प्राण शक्ति रुद्रमय होती है, तब कुछ समय के लिए, जबतक साधक इस विकराल दशा का आदी नहीं होता, तबतक साधक का जीवन नरक सरीका ही होता है। इसलिए इस दशा के बारे में, विस्तार से नहीं बताया जायेगा।
ऐसा साधक मानव शरीर में रहता हुआ भी, वास्तव में एकादशवां रुद्र ही होता है।
ऐसे साधक की पिङ्गला नाड़ी में ही रुद्र शक्तिमय होके रहते हैं। ऐसे साधक की पिङ्गला नाड़ी में साधक की प्राण शक्ति ही, उस पिंगल रुद्र के स्वरूप में होती है, जिसको एक कृष्ण वर्ण की शक्ति ने घेरा होता है। और इन दोनो के योग को ही वेद मनीषियों ने कृष्ण पिंगल रुद्र कहा था।
आगे चलके, ऐसे साधक के स्थूल शरीर में ही कृष्ण पिंगल रुद्र का एक सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, जिसके पश्चात ब्रह्मण्ड की दिव्यताओं में, वो साधक कृष्ण पिङ्गल रुद्र कहलाता है। ये कृष्ण पिङ्गल रुद्र सिद्धि, परमगुरु सदाशिव के अघोर मुख की सिद्धि होती है, जिसके बारे में किसी बाद के अध्याय में बताऊंगा।
ब्रह्मसाधना, रुद्र ही रुद्र में, ब्रह्म ही ब्रह्म में, आत्मा ही आत्मा में, … अपने भीतर की यात्रा …
कुछ दशाक पूर्व, कोई 1996-97 में, जब इस स्थूल शरीर की आयु कोई 24 वर्ष की थी, और मुझे इस स्थूल शरीर में कोई 14 वर्ष हुए थे, तब एक साधना में, अपने ही भीतर से एक वाणी सुनाई दी। वो वाणी, हृदय से आई थी।
और उस वाणी ने ऐसा कहा था…
अब बस भी कर दे यार
जैसे ही अपने भीतर से स्वयं उत्पन्न, इस वाक्य को सुना, तो मैं सोचने लगा, कि मेरे भीतर कौन बैठा हुआ है, जो मुझसे बात भी कर रहा है, और बोल रहा है, अब बस भी कर दे यार।
तो मैंने सोचा, कि इस वाणी को बोलने वाले को तो ढूंढ़ना पड़ेगा।
और मैंने ये भी सोचा था, कि यदि इस वाणी के कारण को जानना है, तो हृदय में प्रवेश भी करना ही पड़ेगा, क्यूंकि ये वाणी तो मेरे हृदय के भीतर से ही आयी थी।
और उसी समय से, मैं अपने भीतर की यात्रा पर निकल पड़ा, “स्वयं ही स्वयं में” होकर, स्वयं की ओर, स्वयं ही चल पड़ा।
“स्वयं ही स्वयं में, ब्रह्म ही ब्रह्म में” यात्रा की पीड़ाएं …
उन भीतर की साधना रूपी यात्राओं में, समय बीतता ही चला गया, लेकिन मैं अपने हृदय में प्रवेश कर ही नहीं पा रहा था। उन साधनाओं में हुआ तो बहुत कुछ, लेकिन हृदय में प्रवेश नहीं हो सका।
अपनी उन साधनाओं में, अपने प्रयासों में, मैं कुछ भी कर लूं, लेकिन हृदय में प्रवेश का मार्ग ही नहीं मिल रहा था।
इन प्रयासों में कई वर्ष बीत गए, और मुझे कुछ भी सफलता हाथ नहीं लगी।
लेकिन मैंने वो प्रयास रोके नहीं, बस करता चला गया, और निरंतर विफल भी होता ही चला गया।
उस भीतर की यात्रा के सारे समय, मेरे मन में बस एक ही भाव था, कि मुझे भीतर से आई हुई उस वाणी के कारण को जानना है, और पता करना है, कि मेरे अंदर ऐसा कौन बैठा हुआ है, जो मुझसे बोलता भी है।
जब भी मैं हृदय में घुसने का प्रयास करता था, तब एक ऐसी दशा आती थी, जिसमे मुझे ऐसा लगता था, कि मेरी चेतना के आगे, एक सूक्ष्म दिवाल खड़ी हो गयी है।
वो दिवाल मुझे दिखाई तो नहीं देती थी, लेकिन वो दिवाल है, इतना पक्का हो चुका है।
उन साधनाओं में मुझे, कुछ सूक्ष्म जगत के निवासी, तंग भी करते थे, कभी मार पीट भी करते थे, और ये सिलसिला भी कुछ समय तक चला।
तब एक दिन मुझे ब्रह्मचारी के परिधान में, ब्राह्मण वर्ण के दो योगी जी मिले। उनके साथ उनकी अनुजा भी थी, वो भी ब्रह्मचारिणी थी। मैंने उनसे, इसका सात्विक उपाय पूछा।
उन दोनो में से एक योगी जी बोले, बेटा, ये सब पहलवान होते हैं, जो साधक को परेशान करने आते हैं, उसकी परीक्षा भी लेते हैं।
और क्योंकि तुम्हारी साधनाओ में, तुम अपने सूक्ष्म रूप में, उनके लोक में जा रहे हो, इसलिए, वो तुम्हारे पास आ रहे हैं।
लेकिन साधक को, इन सब को डिस्टर्बेंस (Disturbance) में ही मानना चाहिए, इनसे, ना तो लगाव करना चाहिए न ही अलगाव। ये डिस्टर्बेंस (Disturbance) नामक शब्द भी अनहोने अंग्रेजी में ही बोला था।
और वो योगी जी ये भी बोले थे, कि, यदि ऐसा बारम बार करेंगे, तो कुछ ही समय में, ये सब आना बंद कर देंगे।
जब तुम इन पर ध्यान देते हो, तो संकेतिक रूप तुम इनके लोक पर भी ध्यान देते हो, और ऐसी दशा में, तुम उनके लोक में ही फंस जाते हो। इसलिए, इन पर ध्यान ही मत दो।
ऐसा करने से, तुम इनके लोक से ही अतीत हो जाओगे, और ऐसी दशा में, ये सूक्ष्म जगत के पहलवान तुम्हारे पास भी नहीं आ पाएंगे।
इसके बाद, जब भी ये सूक्ष्म जगत के पहलवान आते थे, तो मैं मन ही मन, वैसा ही बोलता था, जैसा उन योगी जी ने बतलाया था। और मन में ऐसा बोल के, मैं उन सब सूक्ष्म जगत के पहलवानों से, न तो कोई लगाव रखता था, न ही अलगाव, बस उन पर ध्यान ही नहीं देता था।
और ऐसा करने से, कुछ ही समय में, उन सभी लाल, गुलाबी, पीले, नीले, बैंगनी, काले और धूम्रआदि वर्णों के पहलवानों ने आना बंद भी कर दिया।
इसके बाद, मैं सुख पूर्व साधना करने लगा, क्योंकि मुझे कोई भी सूक्ष्म जगत का पहलवान अब तंग नहीं कर रहा था। ये साधना भी उसी भीतर की यात्रा की ही थी, जिसपर मैं कुछ वर्ष पूर्व से ही चल पड़ा था।
तो ऐसा करने से, कुछ ही समय में, मेरी चेतना ने उस सूक्ष्म दिवाल को भेद दिया। और मैं उस सूक्ष्म दिवाल के भीतर जा कर, उससे परे भी हो गया।
लेकिन, जैसे ही ऐसा हुआ, तो मेरी चेतना के सामने, पतली पतली, बहुत सारी तारें आ गई।
ये तारें, तीव्र गति से गोल गोल घूमती थी, और जब मैं इनको भेदने का प्रयास करता था, तो ये तारे, मधुमक्खी के समान भिनभिनाति भी थी।
जब भी मैं उन तारों को भेदने का प्रयास करता था, तो मुझे ये तारें चुभती भी थी, शरीर में बिजली के झटके भी मारती थी, और मुझे बहुत गर्मी लगती थी, गुदा से लेकर नाभि तक।
तो मैंने सोचा, कर लो बात, अब मैं तारों में फंस गया। आकाश से गिरे, बबूल पर अटके।
एक काल खण्ड ऐसा भी आया, की इतनी गर्मी लगने लगी कि मैं कई किलो बरफ ला कर, उससे बड़ी सी बाल्टी में डाल कर, उसमें घंटों बैठता था, और बैठ कर ये सोचता था, कि ये कहां फंस गया… दिवाल से निकले, अग्नि में अटके।
जब इससे भी उस गर्मी पर कुछ अंतर नहीं पड़ा, तो मैं अनीमा लेने लग गया, ठंडे पानी से। और तब ये गर्मी कम होने लगी।
बस, तब जहाज पर वापस चला गया, और वहां पर भी अनीमा लेता था, जब भी आवश्यकता होती थी। और उस जहाज पर ऐसा करते करते, जब ये गर्मी समाप्त हो गई, तो मेरी साधना पुन: शांति में होने लगी।
लेकिन, मैं देखता था, कि ये गोल गोल घूमती, पतली पतली तारे, दो रंगों की थी। उन रंगों में से, एक पीला था और दूसरा लाल था, और ये दोनों रंगों की तारें, आपस में घुली मिली सी थी। लेकिन अब भी, मेरी चेतना, इन तारों को भेद नहीं पा रही थी।
यही तारें इस चित्र में भी दिखायी गयी हैं, और इन्ही तारों ने इस चित्र के बिन्दुओं और तत्त्वों को घेरा भी हुआ है।
अब कुछ बता के में इस बात को विराम दूंगा…
वो योगी जी जिन्होंने कुछ दशक पूर्व, मुझे सूक्ष्म जगत के पहलवानों के बारे में और उस विपदा के सात्विक समाधान के बारे में बताता था, अभी कुछ ही दिवस पूर्व, एक रात्री को, मेरी साधना में आए थे, और बोले थे, कि, बेटा, तेरी बातें देवलोकों में हो रही हैं, और देवता बोल रहे हैं, कि ……… बस इससे आगे मैं नहीं बताउंगा।
लेकिन उस रात उनको मिलने के पश्चात, मुझे दुःख भी हुआ, क्यूंकि मैं जान गया की वो अपनी काया त्याग चुके हैं।
तो अब उनके लिए बोल रहा हूँ ……. मृत्योर्मा अमृतं गमय।
अब आगे बढ़ता हूँ …
स्वयं ही स्वयं में … भीतर और बाहर की यात्रा …
जब 1996-1997 में इस भीतर के मार्ग पर चला था, तो उस समय, पानी के जहाज पर काम करता था और सेकेंड ऑफिसर था।
उस गर्मी को जानने और उससे निकलने के बाद, जब छुट्टी पर आता था, तो हिमालय पर थंडे क्षेत्रों में जाने लगा।
गाड़ी चला के जाता था, और ऊपर किसी स्थान पर, 20-25 रोटियां बंद करवाता था, दारासिंह जी का बताया हुआ मिल्कफुड का देसी घी का एक डब्बा, कुछ नमक और शक्कर लेता था, गाड़ी किसी होटल या किसी गांव में या कहीं पर्वतों की सुनसान कच्ची सड़क पर ही खड़ी कर देता था, और बस पैदल पैदल ही निकल पडता था, वहां जहां आज की विकृत मानव जाति का शोरगुल मिल ही नहीं सकता।
और कुछ दिनों तक, उन मानव रहित पहाड़ों और घाटियों में चलने के बाद, कोई गुफा, कंदरा, शिला या नदी का तट ही सही, उसे दूंड़ कर, वही पर दिगंबर होके, अपनी कुल देवी, भू देवी को स्मरण करता हुआ, शरीर पर मिट्टी का लेप लगता था और फिर साधना करता था।
मेरे इस जन्म का कुल, अपने मूल से, शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत ब्राह्मणों का है, उसकी कुलदेवी भू देवी हैं, जो नारायण की स्थिति शक्ति भी हैं, पृथ्वी महाभूत के स्वरूप में। और आज के भारत के पंजाब में, वो शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत ब्राह्मण, मोहयाल ब्राह्मण कहलाते हैं।
भू देवी की आवश्यकता तो हर भीतर के मार्ग पर जाने वाले योगी को पड़ेगी ही, क्यूंकि भू देवी के बिना, उन गहरी साधनाओं में, उस योगी का जीवन ही संकट में आ जाएगा। वेदों में बतलाया गया शाकद्वीप, आज के अफगानिस्तान और ईरान से लेकर, इजराइल तक है।
उन साधनाओं में, मैं अपने कुल देव, रुद्र को भी मन ही मन, आह्वान करके, साधना प्रारंभ करता था। वास्तव में तो यहां पर, उसी रुद्र मार्ग की ही बात हो रही है, क्योंकि रुद्र ही ऐसे देवता हैं, जो “स्वयं ही स्वयं के” उपासक होते हैं।
इसलिए, उस समय पर, मैं उस नारायणी शक्ति, मेरी कुल देवी, भू देवी के मिट्टी रूपी कवच में बैठ कर, अपने ही कुल देव, रुद्र देव के मार्ग पर जाता हुआ, स्वयं ही स्वयं का उपासक था।
और ऐसे समय पर मेरी आत्मधारणा में, मेरे कुल देव, रुद्र ही, मेरा आत्मास्वरूप होते थे।
अब आगे बढ़ता हूं…
बस उन चुने हुए पर्वतों के दुर्गम स्थानों को लेके, मेरी एक ही आवश्यकता होती थी, कि उस स्थान की ऊर्जा, किसी पहलवान की नहीं होनी चाहिए।
इस आवश्यकता का कारण है कि, आज इस जीव जगत में सूक्ष्म तत्व के पहलवानों की कोई कमी नहीं है।
क्योंकि उस भीतर की यात्रा में, मैं इस बात को तो जान चुका था, इसलिए, अपनी ही कुल देवी, नारायणी स्थिति शक्ति, भू देवी के ही मिट्टी रूपी लेप में बैठक कर, रुद्र मार्गी होके, स्वयं ही स्वयं का साधक था।
वैसे, यमुना के जिस तट पर बैठ कर, मैं ये बता रहा हूं, वहां मेरे कुछ पुराने और बहुत अच्छे मित्र भी हैं, जो पहलवान हैं। लेकिन मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि यहां बात, सूक्ष्म जगत के पहलवानों की हो रही है, नाकि इस स्थूल जगत के पहलवानों की।
अब आगे बढ़ता हूं…
हिमालय के उन दुर्गम स्थानों पे कई दिनों तक चलते चलते, जहाँ से भी मेरे शरीर की चमड़ी कट फट जाती थी, तो उन कटे फटे भाग पर, कोई पत्ते ये बेरी रगड़ देता था। यदि रगड़े हुए भाग में, कुछ बुरा हो गया, तो उस पत्ते को या बेरी को नहीं खाता था, बाकी सब खा लेता था।
वैसे भी उस समय, मैं कई दिनों में ही एक बार भोजन करता था। आत्मभजन से ही पेट भर जाता था, इसलिए स्थूल भोजन की आवश्यकता कम ही थी।
उस समय मेरा शरीर ही मेरे भोजन की प्रयोगशाला था, क्योंकि वनस्पति विज्ञान तो मुझे था नहीं, और न मेरे पास इसको सीखने का समय भी नहीं था।
जीवन मेरा छोटा लगने लगा था, और ये भीतर की यात्रा लंबी ही होती जा रही थी। और उस समय, मुझे इस यात्रा का अंत भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।
हिमालय के उन दुर्गम, ठन्डे स्थानों पर, दिगंबर होके, अकेला बैठा हुआ, मैं कभी कभी सोचता भी था, की यदि इस जीवन में ये यात्रा पूरी नहीं हुई, तो दोबारा किसी जन्म में आना पडेगा, क्यूंकि उस समय, इस भीतर की यात्रा के समापन समारोह का संकेतमात्र भी, मुझे दिखाया नहीं दे रहा था।
उन हिमालय की गुफाओं कंधारों या शिलाओं के नीचे बैठ कर, साधना करता था, और उस पूर्व की वाणी के मूल कारण को, अपने भीतर ही खोजता था।
उस लम्बी और दुर्गम, अपने ही भीतर की यात्रा में, मुझे पता ही नहीं चला, कि मैं कब, स्वयं ही स्वयं को चला गया।
कई बार उन दुर्गम स्थानों पर, मुझे मेरे कुछ ज्येष्ठ साथी, योगीगण, कुछ साधुगण भी मिले, और मैं उनसे भी पूछता भी था।
लेकिन उनके उत्तरों से मैं कभी भी संतुष्ट नहीं हुआ, क्योंकि उनमें से किसी को पता ही नहीं था, उस भीतर की यात्रा की बारे में, जिसपर मैं कई वर्षों से निकल पड़ा था, चल पड़ा था।
कालचक्र से अतीत, … कालातीत सिद्धि मार्ग …
एक बार, एक गुफा में बैठा साधनारत था, और जब आंख खुली तो देखा, एक साधु का टोला मेरी गुफा के बाहर ही बैठा हुआ है।
मैं उनके पास गया, तो उन्हें बताया गया कि वो 4-5 दिनों से मेरी गुफा के बाहर ही बैठे हुए हैं।
और तब मुझे समझ में आया, कि अब मेरी साधना गहरी हो गई है, और अब इस सृष्टि के कालचक्र से ही अतीत होती जा रही है।
तब मैंने मन ही मन सोचा, कि सबकुछ कालगर्भित होता है, इसलिए जो कालचक्र के तारतम्य से अतीत हो गया, वो कालचक्रमें बसी हुई सृष्टि के तारतम्य से भी तो अतीत हो गया ।
और मैंने सोचा, की अब लगता है मेरी साधना गहरी हो गई है, और इस सृष्टि के कालचक्र से ही अतीत होती जा रही है।
लेकिन, क्योंकि कालचक्र की अभिव्यक्ति तो हिरण्यगर्भ ब्रह्म से हुई थी, इसलिए, उस समय, मैंने मन ही मन ये भी सोचा, की, अब मेरी साधना का अगला पड़ाव, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म ही हो सकते हैं, प्रजापति ही हो सकते है, सृष्टिकर्ता ही हो सकते है, मेरे जन्म स्थान का धामाधीश्वर, जगत का नाथ, जगन्नाथ ही हो सकते है।
और मैंने ये भी सोचा, कि हो सकता है मेरी साधनाओं में, पहले के बत्तीस कोटि देवी देवता पार हो चुके हैं, और अब 33वें, सृष्टिकर्ता, प्रजापति की बारी है, समस्त जीव सत्ता के दादाजी की बारी है, जगतपिता, जगत तात की बारी है।
और मैंने ये भी सोचा, कि हो सकता है, मेरी साधनाओं में, मैंने स्थूल, सूक्ष्म, कारण या दैविक जगत पार कर लिए हैं, और अब मेरी चेतना, उस प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड में जा चुकी है, इसलिए, अब इस ब्रह्माण्ड के रचैता की बारी है।
अब आगे बढ़ता हूं…
और इन सभी प्रयासों में, कोई 14 वर्ष बीत गए, और 2010 का वर्ष आ गया।
अब तक तो मुझे समुद्र के जहाज पर कप्तान बने हुए भी कोई 5-6 वर्ष हो चुके थे।
लेकिन, मैं अब भी अपने भीतर से आई हुई, उस वाणी के कारण को जान नहीं पाया था। इसलिए, ये भीतर की यात्रा, अनंत सरीकी ही लगने लगी थी।
लेकिन अनंत भी तो अच्युत गोविंद, मेरे सनातन गुरुदेव, नारायण ही होते हैं, जो पुरुषार्थ शब्द के, पुरुष भी होते हैं।
और इसके साथ साथ, गोविंद के गो शब्द के गंतव्य में भी तो, माँ मूल प्रकृति स्वरूपा, नारायणी सार्वभौम शक्ति ही होती हैं, जो पुरुषार्थ शब्द की अर्थ शब्द भी होती है।
इस पूरे समय, मैंने अपने को एक स्वयं जनित तिरोधान में डाल रखा था, इसलिए इस भीतर की यात्रा के बारे में, मेरे अपनों को भी नहीं पता था।
घर पर कहते थे, की ये बालक जहाज से आता है, और सोता ही रहता है। ये कमरे से बहार निकलाता ही नहीं है, और एक दिन में, एक ही बार खाता है, और कभी कभी तो, ये भोजन ग्रहण ही नहीं करता है। और कुछ दिनों में ही, हिमालय की ओर भाग जाता है।
एक बार, जहाज पर तो मेरी शिकायत भी हो गई थी, कि कप्तान साहब ने एक सप्ताह से भोजन ही नहीं लिया है, और वो काम ठीक ठाक कर रहे हैं।
तो सेफ्टी मैनेजर ने फोन पर पूछा, कि कप्तान साहब, ये क्या माजरा है। मैंने बताया, कि जब मेरी बूंद टपक जाती है, तब मुझे भूख नहीं लगती।
सेफ्टी मैनेजर ने पूछा, कौन सी बूंद?।
तो मैंने उसे कहा, जबतक आप योगी नहीं हो जाओगे, तबतक, अगर मैं उस बूंद के बारे में बता भी दूं, तो भी आप समझ नहीं पाओगे।
बस फिर वो बात आई गई हो गई, और जहाज की बातें होने लगी।
वास्तविक साधक कभी भी अपने बारे में ढिंढोरा नहीं पीटता, क्योंकि वो चाहता ही नहीं है, कि कोई उसे जाने, नहीं तो बहुत बातें हो जाती है, इस कलयुगी समाज में।
वो साधक, “स्वयं ही स्वयं में” रमण करता हुआ, उन सब सामजिक प्रपंचों से सुदूर, अपने मन से ही एक स्वयंजनित एकांत अवस्था में, शांत और प्रसन्नचित होके, साधनारत रहता है।
मैं भी ये सब नहीं बताता, अपनी मस्ती में जीता और समय आने पर, इस भूमण्डल से फुर्रर्रर्र हो जाता।
लेकिन इस जन्म में ऐसा हो नहीं सका, क्यूंकि मेरे हृदय की एक गुफा में बसे हुए सनातन गुरुदेव ने, इसको बताने को कहा था।
चलो अब आगे बढ़ता हूं…
समाज शब्द की परिभाषा …
पर यहां शब्द तो मैंने समाज कहा है, जिसका आज मूल ही लुप्त हो गया है। इसलिए अब मैं इस शब्द, समाज को समझाता हूं।
समाज नामक शब्द, दो शबदों से बना है, जिनमे से एक सम का शब्द है और दूसरा अज है।
सम का अर्थ होता है, समता, जो प्रकृति की होती है। और अज शब्द, उस अजन्मे ब्रह्म को दर्शाता है, जो अज या अजा भी कहलाता है।
जब प्रकृति की समता, उस अज या अजा ब्रह्म से योग लगाती है, तो ही समाज का निर्माण होता है। और ये योग समतावादी प्रकृति और अज ब्रह्म का होने के कारण, निष्काम ही होता है।
इसलिए, जिस समाज के तंत्र में, प्रकृति और पुरुष का वो अनादि अनंत, सनातन निष्काम योग नहीं होता, वो समाज, अराजक हुए बिना नहीं रह पाता।
इस समाज शब्दके मार्ग में, प्रकृति बहुवादी होती है, और ब्रह्म, उस समस्त बहुवाद का एकमात्र गन्तव्य, अद्वैत होता है, जो निर्गुण और निराकार दोनों ही होता है।
जब हम निर्गुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वो निराकार ही अनन्त होता है, श्रीमन नारायण होता है, परब्रह्म होता है, एकमात्र सनातन गुरु होता है।
इसलिए, यदि किसी भी जीव समाज को उसके उत्कर्ष मार्ग पर जाना है, तो बहुवादी अद्वैत के मार्ग पर ही जाना होगा, जिसे वेद मनीषियों ने कुछ वाक्यों के द्वारा, संकेतिक रूप में बताया था, जैसे सर्वं खल्विदं ब्रह्म, वसुधैव कुटुम्बकम्, एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, इत्यादि।
इस कलियुग के छोटे से, कोई 5100 वर्षो के कालखण्ड में, यही त्रुटि हो गयी, कि मानवजाति इस समाज शब्द को, अपने तन्त्रों में, अपने व्यहार में और अपने जीवनमार्ग में, परिभाषित और क्रियान्वित ही नहीं कर पाई है, जिसके कारण इस कलियुग में मानवजाति का अधिकांश समय, अराजकता में ही बीता है।
यदि मेरी इस बात पर विश्वास नहीं होता, तो अपना 4 से 5 हज़ार वर्षों का इतिहास खोज लो।
और यदि तब भी नहीं समझे, तो कुछ ही वर्षों में, जो विश्व व्यापी विप्लव उनके अपने खन्डित स्वरूप में आने वाले हैं, वो तुम्हें क्या, तुम्हारे सारी आगमी पीडिय़ों को भी समझा देंगे।
वो आगामी विश्व व्यापी खण्डविप्लव, तीन प्रकार से होंगे।
वो मानव जनित से प्रतीत होते हुए भी, वास्तव में प्राकृत और दैविक ही होंगे, क्यूंकि वो समस्त खण्डविप्लव, काल की प्रेरणा से और काल की शक्ति से ही उनके अपने खण्डित स्वरूप में, इस मृत्युलोक में, समय समय पर प्रकट होते ही चले जायेंगे।
और उन आगामी विप्लव में, त्रितापों की भरमार आएगी।
तो अब मैं इस भाग को समाप्त करता हूं और इसका शेष भाग, आगामी अध्यायों में बताउंगा।
असतो मा सद्गमय।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
रुद्र, Rudra
कालचक्र, Kaalchakra
सर्वं खल्विदं ब्रह्म, Sarvam Khalvidam Brahma
ब्रह्म, Brahman