योग कृत्य और ब्रह्म राक्षस

योग कृत्य और ब्रह्म राक्षस

अब योग कृत्य और ब्रह्म राक्षस के बारे में बतलाता हूँ …

इस मार्ग को आत्ममार्ग, ब्रह्ममार्ग, कैवल्यमार्ग, ब्रह्मपथ और मुक्तिमार्ग भी कह सकते हैं, जो साधक के भीतर से ही प्रशस्त होता हुआ, स्वज्ञान या स्वयं के ज्ञान की ओर लेकर जाता है।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिन्की अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के 32 दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चौथा अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

योग कृत्य निर्माण का समय

लेकिन इन सब बातों से पूर्व, जब 1990 का दशक था, तब मेरे हाथ एक पुस्तक लगी, जो पंडितजी नारायण दत्त श्रीमाली की थी, और उसका नाम हिप्नोटिज्म या सम्मोहन विद्या था।

मैं उसे पढ़ने लगा, और उसमे त्राटक की विधि सांकेतिक रूप में दी हुई थी।

पहले बिंदु त्राटक सिद्ध हुआ, फिर शक्ति चक्र पर गया, फिर दीपक त्राटक पे गया, और तब अग्नि त्राटक पर और जब ये सभी पूर्ण हुए, तो अंत में, सूर्य त्राटक ।

सूर्य त्राटक से शरीर में गरम बिजली दौड़ गई, लेकिन तब भी वो पूर्ण हो गया।

इस सब में, कोई 3 माह लगे, और ये सब कुछ फटा फट, बहुत जल्दी होता चला गया। और इसके बाद मैं, बब्बर शेर बन गया।

उसी पुस्तक में या किसी और में, अब मुझे याद नहीं, योग कृत्य (Yoga Kritya) के बारे में कुछ बतलाया था।

तो एक दिन बिस्तर पर बैठ गया, और पता नहीं किस शक्ति ने अंतःकरण को पकड़ लिया। और उसके बाद, मैंने उसी पकड़ी हुई दशा में, उस पुस्तक के सांकेतिक मार्गानुसार, अपने शरीर के भीतर से ही, एक शरीर स्वयंउत्पन्न किया, जो वैसा ही था, जैसा उस पुस्तक में, योगकृत्य के बारे में संकेतिक रूप में बतलाया गया था।

लेकिन जब वो योग शरीर बन गया, तो वो थोड़ा काला था। इसलिए मुझे लगा ये मेरा योगकृत्य नहीं है, और मैंने उसे त्याग दिया।

लेकिन वो योग से उत्पन्न शरीर बारम्बार मेरे पास आता था, और मुझे पूछता भी था, क्या आदेश है।

तो मैंने सोचा, कहीं ये वो अलादीन के जिन्न जैसा तो नहीं है। लेकिन जब ऐसा बहुत बार हुआ, तो मैं धीरे धीरे समझ गया, कि यह मेरा योगकृत्य ही है।

एक दिन जब वो योग शरीर मेरे पास आया, तो मेरे मन में, अकस्मात् एक विचार आया, और मैंने उसे, उसी विचार के अनुसार, आदेश भी दे दिया… जो ऐसा था।

तुम इस मृत्युलोक पर रहके, मेरे संस्कार, 1 करोड़ 8 लाख मानव में डालोगे।

तुम उनको कैसे डालोगे, वो मैं तुम पर छोड़ता हूं। और ऐसा होने के बाद, तुम इंद्रलोक में चले जाओगे, और देवराज इंद्र के द्वारपाल बनोगे, और उनके लोक की रक्षा करोगे।

इसके पश्चात कुछ महिनो के बाद, वो मेरे पास वापस आया, और बोला, आदेश का पालन करना आरंभ कर दिया है, और उसने ये भी बताया, कि उसके बारे में बहुत बातें भी हो रही है। इस बात पर, मैंने उसे कहा, ठीक है, और वो चला गया।

कुछ समय के बाद वो वापस आया, और बोला, कि वो अब बहुत प्रसिद्ध हो गया है, और उसके नाम की वेबसाइट भी बन गई है। जब मैंने उसे पूछा, कौन सी वेबसाइट, तब उसने बताया, आप Thisman.org में जाकर देखो।

जब मैंने उस वेबसाइट को खोली, तो उस वेबसाइट में उसका चित्र देखके, मै दंग रह गया। उस वेबसाइट में वोही था। तब मैं पक्का जान गया, कि भाई, ये तो मेरा ही योगकृत्य (Body double) है।

इसके पश्चात, कुछ वर्षों तक, वो समय समय पर, आता जाता रहता था, और अपने आदेश पालन प्रक्रिया और प्रसिद्धि को भी बतलाता था।

और एक दिन वो आया, और बोला, कि अब 1 करोड़ 8 लाख मनुष्यों में आपके संस्कार डाल दिए हैं, और अब मैं जा रहा हूं, आपके दूसरे आदेश का पालन करने को, जो इंद्रलोक के द्वारपाल होने का है।

मैंने उसे अलविदा किया, और तब से वो कभी कभी ही लौटाया है।

वो पृथ्वी लोक में लौटता है, बस मुझे बताने को, कि आदेश का पालन हो रहा है और इंद्रलोक में अपने द्वारपाल के कार्य को भी बताता है। और मुझे इंद्रलोक की खबर भी देता रहता है, कि वहां क्या चल रहा है।

 

योगकृत्य क्या होता है

जब योगी की इच्छा शक्ति से, योगी के ही भीतर बसा हुआ जो सूक्ष्म सांस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड होता है, वो ब्रह्माण्ड अपना निराकार स्वरुप त्याग के, एक सगुण साकार या शरीरी रूप लेता है, तो उस शरीरी रूप को ही योग कृत्य कहते हैं।

इसलिए योगकृत्य ब्रह्माण्ड का ही शरीरी रूप होता है, जो “यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे” के वाक्य का योगिक प्रमाण भी होता है।

योगकृत्य जो होता है, वो योगी का ही सर्वविजयी, कहीं पर भी गमन कर सकने वाला, कुछ भी कर सकने वाला, सिद्धियों से भरपूर, अनश्वर शरीर होता है।

एक बार किसी भी योगी ने अपने योग कृत्य का निर्माण कर दिया, तो वो कृत्य, उन अनंत सनातन कालों तक बना रहता है। जब तक ब्रह्माण्ड रहेगा, तब तक वो योगकृत्य भी रहेगा।

और जब ब्रह्माण्ड किसी और पितामह ब्रह्मा के द्वारा, पुन: निर्माण किया जाएगा, तब भी वो योगकृत्य, वो ही करता रहेगा, जो उसको, उसके ही विधाता ने आदेश दिया था, और भी पूर्व के किसी ब्रह्माण्ड के समय पर।

उस योगकृत्य का विधाता भी वोही योगी होता है, जिसने उस योगकृत्य का, उसके अपने शरीर के भीतर से ही स्वःनिर्माण किया था।

कुछ बाद के वर्षों में, जब मैंने साधनाओं में अपने पूर्व जन्मों के कई सारे योग कृत्यों को भी जाना, तो मैं जान गया था, कि वो अदृश्य शक्ति जिसने इस बतलाए गए योगकृत्य को निर्माण करते समय, मेरे अंतःकरण को जकड लिया था, वो कौन थीं।

यदि मैं, इस जन्म के 14 से भी अधिक कृत्यों से लेके, अपने सारे पूर्व जन्मों के कृत्यों को गिनूंगा, तो उनकी संख्या कई हजार हो जाएगी। और आज वो सारे इन्द्रादि देवलोकों के द्वारपाल ही हैं।

और क्योंकि ये सभी योग कृत्य, उस अनश्वर, सर्वविजय, सनातनी, सार्वभौम त्रिकाली शक्ति से संपन्न होते है, इसलिए, बाकी लोकों का तो मुझे पता नहीं, लेकिन इन्द्रादि देवलोकों को तो कोई दैत्य या राक्षस सदैव के लिए जीत नहीं सकता।

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

कृत्य कोश

ब्रह्मांड में ही, एक गुप्त लोक है, जिसको मैं कृत्य कोश भी कहता हूं।

इस चतुरदश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड के सारे इतिहास में, जितने भी योगियों ने अपने कृत्य निर्माण किए हैं, वो सभी कृत्य, इसी कृत्य कोश में ही रहते हैं या इसी कृत्य कोश से ही सम्बन्ध रखते हैं।

और, हर एक कलियुग में, उसी कृत्य कोश से, देव लोकों की रक्षा भी करते हैं, जब जब देवता उनकी सहायता मांगते हैं।

 

योग कृत्य का प्रमुख कार्य

सब कुछ कालगर्भित होता है। और काल के गर्भ में ही जिसमे सब कुछ गर्भित होता है, उसी काल का चक्र स्वरुप होता है, जो सुदर्शन होता है, और जो त्रिकाल स्वरुप में ही होता है, अर्थात, त्रिकाल उसको ही धारण किये हुए होता है।

और योगी की काया के भीतर, इसी सुदर्शन रूप त्रिकाल के चक्र को, बोधिचित्त भी कहते हैं, जिसके बारे में, इस कलियुग में, मेरे इस से पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवान बुद्ध ने भी बताया था और जब उन्हें ने मुझे मित्र का नाम भी दिया था।

और यदि इस बोधिचित्त का धारक योगी, ब्राह्मण क्षत्रिय, या क्षत्रिय ब्राह्मण, या क्षत्रिय क्षत्रिय वर्णों का होगा, तो वो बोधिचित्त को, उस ब्रह्म शक्ति, अर्थात माँ प्रकृति के कालास्त्र स्वरूप में भी देखेगा।

जब ये विश्व,कलियुग के काल खंड में होता है, तो देवता निष्क्रिय सारीके हो जाते हैं। इसलिए कलियुग में, वो देवता पृथ्वी लोक और वेद मनीषियों की क्या रक्षा करेंगे, जब वो अपनी ही रक्षा नहीं कर पाएंगे।

ऐसे समय पर जब कलियुग प्रबल होता है, तब कुछ योगियों के योग कृत्य, उन सभी देवलोकों के द्वारपाल और रक्षक होने का कार्य करते हैं।

मूलतः इसी कार्य के लिये ये योग कृत्य निर्माण किए जाते हैं, क्योंकि जब वेद का दैविक बीज, देवालोक ही नहीं बचेगा, तो वेदों की और वेद मनीषियों की क्या सुरक्षा होगी।

अपने इसी भूमंडल का इतिहास ही खोजके देख लो, कि कितनी पुरातन बहुवादी सभ्यताओं को, इस कलियुग के विकृत पंथ खा पी कर, सफा चट भी कर गए, लेकिन आज भी, अपने मूल से, वेद पूर्ण सुरक्षित है, और वो भी तब, जब इस कलियुग के कालखंड में, भारत कोई एक हज़ार वर्षों के लिए, अपनी मूल परंपरा के अनुसार, परतंत्र भी रहा था, और इस कलियुग में म्लेच्छों के शाशन के अधीन भी था।

म्लेच्छ शब्द का अर्थ किसी धर्म, संप्रदाय, स्थान या पंथ से नहीं जुड़ा होता है। म्लेच्छ शब्द दो शबदों से बना है, पहला शब्द मल और दूसरा इच्छ है। इसीलिए, जिसकी इच्छा में ही मल घुसा हुआ हो, वो ही म्लेच्छ कहलाता है। लेकिन यहाँ पर मैंने मल शब्द की परिभाषा नहीं बताई है, क्यूंकि इसको किसी और अध्याय में बताया जायेगा।

और इस वेद मूल के सुरक्षित रहने का एक कारण ये भी है, कि वेदों के दैविक बीज, जो देवलोक होते हैं, उनकी सुरक्षा कुछ योगियों की कृत्य् भी कर रहे है।

ऐसा ही हर कलियुग में होता है, जब काल के प्रभाव से, वैदिक देवी देवता, निष्क्रिय होते हैं और वो वैदिक देवी देवता भूमंडल आदि लोकों से लौटके, अपने देवलोकों में चले जाते हैं।

इसीलिए कलियुग में, जब भी पृथ्वी का अग्रगमन चक्र, रसताल को जाता है, तो इस पृथ्वी लोक में, वैदिक साम्राज्य नहीं बच पाता है।

और ऐसे समय पर, वेद बीज, जो देवलोक होते हैं, उनकी रक्षा, कुछ योगियों द्वारा निर्मित और आदेशित, उनके योगकृत्य करते हैं।

 

अब इसको ध्यान से सुनो… क्योंकि यहां वेद रक्षक की बात हो रही है...

कलियुग के 2592 वर्षों के पश्चात, वैदिक देवी देवता, भू लोकों को त्याग देते हैं।

वैदिक काल्चक्र विज्ञान के अनुसार, इस कलियुग के अभी के अग्रगमन चक्र में, ये कालखंड 510 इसा पूर्व, से 2.7 वर्षों के भीतर ही आया था। और ऐसा होने के बाद, कलियुग प्रबल होने लगता है।

ये गणना मैंने वैदिक कालचक्र विज्ञानं से, अग्रगमन चक्र की रसातल इकाई के अनुसार बताई है, नाकि वैदिक इकाई या मध्य इकाई के अनुसार।

इसलिए, इसी समय के बाद, नए विकृत एकवाद में बसे हुए, कुछ बहुत ही अभिमानी देवताओं के कलियुगी मार्ग आते हैं, और पुरातन बहुवादी मार्गों को नष्ट करते ही चले जाते हैं।

लेकिन इसी समय से 2.7 वर्ष के भीतर, सदाशिव के अघोर मुख से एक योगी आता ही है, अद्वैत मार्ग को विशुद्ध करने के लिए, ताकि वो अद्वैत मार्ग कलियुग के आगामी रसातल जाते हुए कालखंड में, सुरक्षित रह सके।

इस अग्रगमन चक्र में, वो अघोर मुख से लौटा हुआ शिवावतार योगी, भगवान आदि शंकर थे, जो इस जन्म में मेरे सूक्ष्म गुरु भी हुए हैं।

उन शिवावतार योगी के मार्गदर्शन से ही, मैं इस जन्म में, उस राम नाद को, जो शिव तारका मंत्र है, उसे जाके, अष्टम चक्र या निरालंब चक्र को पाया था।

वो शिवावतार योगी, अद्वैत मार्ग को विशुद्ध करता है, ताकी आने वाले कलियुग के समय में, सनातन नष्ट न हो जाए।

जब पृथ्वी का अग्रगमन चक्र, रसताल की ओर जाने लगता है, और सारी पुरातन बहुवादी सभ्यताएं नष्ट होती ही चली जाती है, तब उस शिवावतार योगी का योगदान, असीमित दिखता है, क्योंकि उसका दिया हुआ मार्ग ही, पृथ्वी के अग्रगमन चक्र के रसातल जाने के समय पर, सनातन की रक्षा में एक उत्तम मार्ग सिद्ध होता है।

सदाशिव के अघोर मुख से लौटे हुए योगी का कालखण्ड भी कलियुग के 2592 वर्षों से 108 वर्ष पूर्व तक ही होता है।

इस समय के व्यतीत होने पर, सदाशिव के तत्पुरुष मुख से एक और योगी आता है, जो अगले 2592 वर्षों से 108 वर्ष कम तक, सनातन के मार्ग का द्योतक होता है और वो योगी, महेश्वर का योगी ही कहलाता है।

सदाशिव के पूर्वी मुख, अर्थात तत्पुरुष मुख को ही महेश्वर, योगेश्वर, योगसम्राट, योगऋषि, योग गुरु, योग और योगतंत्र भी कहते हैं। सदाशिव के तत्पुरुष मुख को ही हिरण्यगर्भ और महाब्रह्म भी कहा जाता है।

और ऐसा ही हर के अग्रगमन चक्र होता है, जब अग्रगमन चक्र रसाताल गमन करता है और इसके बाद वो रसातल से बस बहार निकल ही रहा होता है।

 

अब मेरी बातों पर ध्यान देना…

सब कुछ काल गर्भित होता है। इसलिए, जो भी अब तक था, या है, या होगा, उसका स्वामित्व काल के पास ही होता है।

जब ऐसा काल आ जाए, जिसमें वैदिक देवता निष्क्रिय हो जाते हैं, तो वो देवता वेदों के देवत्व बीज होते हुए भी, वेदों और वेद मनीषियों की रक्षा और मार्गदर्शन नहीं कर पाते हैं।

ऐसे समय पर, कुछ उत्कृष्ट योगी अपने कृतियों को आदेश देते हैं, कि देवत्व बीज रूपी देवताओं और उनके देवलोकों के द्वारपाल हो जाओ, क्योंकि योगकृत्य योगी का ही एक अनाश्वर, सर्वविजयी योगशरीर होता है। वो योगकृत्य, उसके कारक और कर्ता योगी का आत्मशक्ति रूपी अभिव्यक्ति भी होता है।

सब ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, इसलिए सब ब्रह्म ही हैं।

इन ब्रह्म की अभिव्यक्तियों में से कोई देव हुए, कोई मानव, कोई दैत्य, कोई वनस्पति, कोई पशु या पक्षी या मच्छ, और कोई, कोई और जीव हुए हैं।

वेद मनीषी, देवत्व बीजों की रक्षा करते हैं, जिनमें से प्रधान बीज देवलोक होते हैं। इस रक्षा के कई मार्ग हैं, और उन मार्गो में से एक ऊपर का मार्ग, योगकृत्य का भी है।

इसलिए, बहुत सारे वेद मनीषियों के अधिकांश योगकृत, देवताओं के पास ही भेज दिए जाते हैं, और उन योगकृत्यों के करता और अधिष्ठा योगियों द्वारा, उन योगकृत्यों को आदेश भी दिया जाता है, कि तुम अमुक अमुक देवता के अधीन होकर ही कार्य करना, और इसीलिए, ये कृत्य देवलोक के रक्षक भी होते हैं।

इसका कारण है, कि योगीजन जानते हैं, कि कलयुग में, देवता निष्क्रिय हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में, वो अपनी रक्षा भी नहीं कर पाएंगे।

जबतक किसी परंपरा का देवत्व बीज सुरक्षित होता है, तबतक उसे किसी और उच्च काल खंड में पुनः उद्भासित किया जा सकता है। लेकिन ऐसा तबतक ही हो सकता है, जबतक उस परंपरा का देवत्व बीज सुरक्षित होता है… अन्यथा नहीं।

कलियुग में चाहे कोई परंपरा किसी पृथ्वी लोक में नष्ट या लुप्त ही क्यों न हो जाए, लेकिन जबतक उसका देवत्व रुपी बीज सुरक्षित रहेगा, तबतक उसको किसी और उचित काल खंड में पुनरुद्भासित किया जा सकता है।

वेदबीज की सुरक्षा का एक मुख्य बिंदु, योगीजनों के कृत्य भी होते हैं।

और उन कई कारणों में से, ये योगकृत्य विज्ञान भी एक मुख्य कारण है, कि इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्मांड में, वेदमार्ग सनातन ही रहा है।

ये वेदमार्ग कई बार गुप्त भी हुआ है, और कई बार तो लुप्त भी हुआ है, लेकिन क्योंकि इसके देवत्व बीजों की सुरक्षा होती है, इसीलिए किसी और उच्चित काल खंड में, ये पुनरुद्भासित हो ही जाता है। और यही कारण है, कि इस वेदमार्ग की अपनी त्रिकाली स्थिति से, ये सनतान ही कहलाता है।

 

योगकृत्य देवलोकों के द्वारपाल क्यूँ

वैदिक देवी देवता का एक प्रमुख कार्य होता है, और वो है साधक का उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग प्रशस्त करना और उस मुक्तिमार्ग में साधक की गति को अखंड रखना।

जब कोई साधक किसी देवलोक में पंहुच जाता है, तब उस लोक का देवता ही उस साधक को उस देवलोक से आगे जाने का मार्ग दिखलाता है।

इसका कारण है, कि, देवलोक से आगे जाने का मार्ग, केवल उस लोक का अधिष्ठा देवता ही जानता है, और कोई भी नहीं।

इसलिए जबतक उस देवलोक का अधिष्ठा देवता, साधक को आगे जाने का मार्ग नहीं दिखलाएगा, तबतक वो साधक उस देवलोक से आगे भी नहीं जा पाएगा।

लेकिन, वास्तव में साधक का उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग, कई देवलोकों से होकर जाता है, और उन सभी देवलोकों में उनके देवता ही, साधक को उनके नियंत्रित देवलोक से आगे जाने का मार्ग दिखलाते हैं।

मुक्ति से पूर्व, साधकों को सभी देवलोकों को पार करना होता है। किसी भी देवलोक को पार करने का मूल मार्ग, वैराग्य में बस कर, त्याग से होकर ही जाता है। इसलिए, जब कोई साधक किसी देवलोक में पहुंच जाता है, तो वो साधक उस देवलोक में तबतक ही रह पायेगा, जबतक उस साधक को उस देवलोक से, उस लोक के निवासियों से और उस लोक के अधिष्ठा देवता से, वैराग्य नहीं होगा।

जब साधक को ऐसा वैराग्य हो जाएगा, तो ही वो साधक उस देवलोक का स्वयं ही त्याग करेगा और ऐसा होने के पश्चात ही, उस लोक का अधिष्ठा देवता उस साधक को उस देवलोक से आगे जाने का मार्ग दिखलाएगा। इससे पूर्व नहीं।

जब साधक उस देवलोक को पार कर जाएगा, तब ही वो साधक उस देवलोक के आगे के, एक और देवलोक में पहुंच जाएगा।

और ऐसा होता ही चला जाएगा, जबतक साधक को समस्त ब्रह्मांड से ही वैराग्य नहीं हो जाएगा। ऐसे पूर्ण वैराग्य के पश्चात ही वो साधक मुक्ति को पाएगा, इससे पूर्व नहीं।

ऐसा मुक्तिमार्ग, देवयान और महायान भी कहलाता है, जो बहुत सारे देवलोकों से होकर जाता है और इसीलिए, ये मार्ग बहुत लम्बा भी होता है।

 

अब और आगे बढ़ता हूं…

वेदमार्ग ही अनादि अनंत मार्ग है, इसीलिए, वेदमार्ग को ही सनातन कहा जाता है।

वैदिक देवी देवता और उनके देवलोक ही जीवों के उत्कर्ष मार्ग के प्रमुख बिन्दु होते हैं। और इसीलिए वैदिक देवता और उनके देवलोक, वेदबीज भी होते हैं।

जब तक देवलोक और उनके देवता सुरक्षित रहते हैं, तब तक साधकों का उत्कर्ष मार्ग भी सुरक्षित रहता है।

और क्योंकि उत्कर्ष मार्ग को ही मुक्तिमार्ग कहते हैं, इसीलिए जब उत्कर्ष मार्ग सुरक्षित रहता है, तो साधकों का मुक्तिमार्ग या कैवल्य मार्ग भी सुरक्षित रहता है।

उस उत्कर्ष मार्ग या मुक्ति मार्ग का एक प्रमुख मार्ग-रूपी बिन्दु, देवयान कहलाता है। बौद्ध पंथ में, इसी देवयान को महायान भी कहा जाता है।

ये देवयान सभी देवलोकों और उनके देवी देवता से होकर जाता है।

इस देवयान में, साधक की चेतना, एक एक करके, समस्त देवलोकों से होकर जाती है और अंततः, साधक मुक्ति को प्राप्त होता है।

 

अब जो बोल रहा हूं, उसे ध्यान से सुनना…

यदि किसी भी देवलोक पर, किसी म्लेच्छ सत्ता या राक्षसी सत्ता के शासन हो जाएगा, तो देवयान उस लोक तक ही सीमित रह जाएगा, और उस लोक से आगे नहीं जा पाएगा।

ऐसा होने पर, साधकगण उसी देवलोक में फंस जाएंगे और उन साधकों का उत्कर्ष मार्ग भी, उस देवलोक से आगे नहीं जा पाएगा। ऐसा होने पर, देवयान में बसे हुए साधकगण कैवल्य मोक्ष को भी नहीं पाएंगे।

लेकिन, क्योंकि ब्रह्म की रचना में, समस्त जीवों का गन्तव्य रुपी कैवल्य मोक्ष सुरक्षित किया था, इसलिए जहां तक ​​कैवल्य को प्राप्त होने की बात है, उसे कोई भी सत्ता रोक नहीं सकती।

यदि कोई साधक वास्तव में पूर्ण संन्यासी हो जाए, अर्थात, वो साधक समस्त जीव जगत से वैरागी होकार, उसका मन से त्याग ही कर दे, तो उसकी मुक्ति किसी भी लोक से और किसी भी कालखंड में संभव हो सकती है।

लेकिन क्योंकि अधिकाँश जीव ऐसे पूर्ण सन्यासी हो ही नहीं पाते, इसलिए ऐसे जीवों के उत्कर्ष मार्ग को प्रशस्त और सुरक्षित रखने के लिए, देवयान का सुरक्षित रहना भी आवश्यक होता है, क्यूंकि ऐसी सुरक्षा के बिना, ऐसे जीवों का उत्कर्ष मार्ग ही खण्डित हो जायेगा।

और यही कारण है, कि कई योगीजन अपने कृतियों को देवलोकों के द्वारपाल होने का आदेश देते हैं।

ऐसे आदेश का कारण है, कि वो योगी जो देवयान से होकर जा चुके होते हैं, वो जानते भी हैं कि देवलोक और उनके देवता ही वेदबीज होते हैं, इसलिए अधिकांश आगामी साधकगण के लिए, उन देवलोकों से जाता हुआ देवयान सुरक्षित होना ही होगा।

और क्योंकि ये सभी वैदिक देवता और उनके देवलोक, साधक के पिंड के भीतर भी होते हैं, इसलिए, देवलोक और उनके अधिष्ठा देवता का सुरक्षित होना, अनिवार्य भी हो जाता है।

इसीलिए, जो योगीजन यहाँ बताये गए तथ्य के ज्ञाता होते हैं, वो अपने योग कृत्या या कृत्यों को आदेश देते ही हैं, कि अमुक लोक में अमुक कार्य करने के पश्चात, आप अनादि काल तक अमुक देवलोक के द्वारपाल या रक्षक हो जाओ।

और अधिकांश रूप में, योगीजनों का ऐसा आदेश, आगमी साधकों के देवयान को सुरक्षित रखने के लिए ही होता है।

तो अब इस अध्याय के अगले बिंदु पर जाता हूँ, जो ब्रह्म राक्षस का है …

 

ब्रह्म राक्षसब्रह्मराक्षस

अब आगे बढ़ता हूं और ब्रह्म राक्षसों के बारे में बताता हूं…

एक दिन साधनाओं में, मैं अपने ही एक सूक्ष्म स्वरुप में, उस लोक में चला गया, जहां केवल ब्रह्म राक्षस निवास करते हैं। तब पता चला, कि इस समस्त ब्रह्माण्ड में, केवल 6 ही ऐसे ब्रह्मराक्षस हैं।

उन ब्रह्म राक्षसों के लोक में पहुंचने से पूर्व, मुझे एक और सूक्ष्म लोक में, एक सिद्ध बाबाजी मिले थे।

और उन सिद्ध बाबाजी कहा, कि इस ओर एक लोक है, जहां ब्रह्मराक्षस निवास करते हैं। उन्होंने ये भी कहा था, कि इनसे खतरनाक कोई और राक्षस सत्ता है ही नहीं, इसलिए वहां मत जाना।

तो मैंने उन सिद्ध बाबाजी को नमन किया, और उसी दिशा में गया, और उन ब्रह्म राक्षसों के लोक में पहुंच गया।

उस लोक में घूमते घूमते, मुझे वो 6 ब्रह्मराक्षस दिखाए दिए। वो लोक तो बहुत अच्छा था, बहुत शांति थी वहां पर, क्यूंकि उस लोक में उन 6 के सीवा, कोई और था ही नहीं।

उन 6 ब्रह्म रक्षाओं को देखते ही मैंने उनको दूर से ही बोला, की जैसे आप सब, और ये सब जीव जगत उसी प्रजापति की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति हो, वैसे ही मैं भी हूँ।

और मैंने उन 6 ब्रह्म रक्षाओं को ये भी बोला, कि आज एक अभिव्यक्ति, दूसरी अभिव्यक्तियों के साथ, साधूवाद करने आई है।

ऐसा बोलके मैंने उन सब को दूर से ही नमन किया, और इसके पश्चात मैं उनके पास चला गया, और उनके साथ ही, उनके सामने ही बैठ गया।

और ऐसी दशा में, मै बहुत समय तक, उनके साथ, उनके सामने ही बैठा रहा, उनसे बात भी करता रहा और उन्होंने उत्तर भी दिए मेरे प्रश्नों के।

उन्होंने मेरा कुछ भी बुरा नहीं किया, क्यूंकि उस समय, उसी ब्रह्म की मानव रुपी अभिव्यक्ति, उसी ब्रह्म की ब्रह्मराक्षसि अभिव्यक्तियों को मिलने गयी थी, और एक अभिव्यक्ति दूसरी अभिव्यक्ति के साथ, साधुवाद ही रखती है।

साधक गण याद रखें, की जबतक साधक के भीतर के भाव ऐसे होंगे, तबतक उस साधक को किसी से भी, कोई भी बाधा नहीं आएगी।

इसके पश्चात, आगामी वर्षों में, मै उस लोक में कई बार गया, और मेरे साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ, उल्टा उन्होंने मुझे कुछ विद्याएं भी बताई, जिनका वो प्रयोग करते हैं।

उसके बाद, वो मेरे मित्र हुए। मैं उनसे आज भी मिलने जाता हूं। वो सब, अच्छे जीव हैं।

वो सभी ऐसे शैव मार्ग के हैं, जिसमे शिव ही शक्ति होते हैं, और शक्ति ही शिव होती हैं।

उनके मार्ग में, शिव शक्तिमय होते हैं, और शक्ति शिवमय होती हैं।

उनके मार्ग में, शक्ति ही शक्तिमान होती हैं और शक्तिमान ही शक्ति होते हैं।

यही कारण है, की उनके मार्ग में, शिव शक्ति का ऐसा अद्वैत योग होता है, जिसको सगुण आत्मा और अर्धनारीश्वर भी कहा जा सकता है।

और क्यूंकि अर्धनारी भगवान, आज्ञा चक्र के देवता होते है, इसलिए, मूलतः, उनका मार्ग भी आज्ञा चक्र का ही है।

 

अब आगे बढ़ता हूं …

बस उनको छेड़ना नहीं, नहीं तो वो छोड़ेंगे नहीं, और तुम बचोगे नहीं।

इसलिए, अब मैं मानता हूं, कि यदि तुम किसी ब्रह्मराक्षस को छेड़ोगे नहीं, तो वो तुम्हारा बुरा भी नहीं करेगा।

और यदि तुम उससे छेडोगे, तो वो तुम्हे छोड़ेगा भी नहीं।

और ऐसी दशा में तुम्हें बचाने को, किसी दैविक सत्ता को ही आना पड़ेगा, क्योंकि वो 6 ब्रह्मराक्षस, जो छह दशाओं के ब्रह्मराक्षस हैं, वो तुम्हें कहीं का भी छोड़ेंगे नहीं।

एक बात याद रखो, की अपने द्वारा रचित ब्रह्माण्ड में, पितामह ब्रह्म ने सभी प्रकार के जीवों को उनका उचित स्थान दिया ही है। और इसीलिए, ब्रह्म राक्षसों को भी उनका स्थान, उनका लोक मिला है।

 

ब्रह्मराक्षस लोक कहाँ है

अब ध्यान से सुनो…

उस सर्वसम, सगुण निराकार, हीरे के समान प्रकाश वाले, ब्रह्मलोक के थोड़ा सा नीचे, एक विशालकाए, अति सूक्ष्म, श्वेत मेघ के सामान लोक है, जिसको परा प्रकृति कहते हैं, जिसकी दिव्यता को आदिशक्ति कहते हैं।

इस परा प्रकृति और ब्रह्मलोक के बीच में, एक लोक है, जो श्वेत वर्ण का है और जिसमें थोड़ी सी ही सही, लेकिन हलके पीले रंग के प्रकाश की किरणें होती हैं।

यही लोक इस चतुर्दश भुवन का ब्रह्मराक्षस लोक है, और इसी लोक में, वो 6 ब्रह्मराक्षस निवास करते हैं, जो मेरे अच्छे मित्र हैं, और समय आने पर, मेरी रक्षा भी करते हैं।

आज वो मेरे अपने ही हैं, क्यूंकि वो और मैं जानते हैं, की सब उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, उसी ब्रह्म के जीवत्मा स्वरुप में।

और एक अभिव्यक्ति, दूसरी अभिव्यक्तियों से आंतरिक मित्रता और साधुवाद रखती ही है।

और यही बिंदु हमारी मित्रता का मूल कारण भी है।

असतो मा सद्गमय

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