यहाँ पर सावित्री मार्ग और ॐ पथ की समानता की बात होगी I यह अध्याय बुद्ध प्रज्ञापारमिता मंत्र पर साधक की उत्कर्ष गति को भी दर्शाता है I इस अध्याय में, हृदय प्रज्ञापारमितासूत्र पर बात होगी, जिसको मेरे इससे पूर्वजन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने बताया था I वेदों की सावित्री विद्या को ही बौद्ध पंथ में बुद्ध प्रज्ञापारमिता कहा जाता है, और इन्ही प्रज्ञापारमिता बुद्ध के मंत्र का मार्ग, सावित्री मार्ग है, और ॐ पथ भी है I इस मंत्र के मार्ग पर साधक की गति से ॐ साक्षात्कार भी होता है I
बौद्ध मनीषी आज प्रज्ञापारमिता ग्रन्थ को प्रज्ञापारमिता हृदय सूत्र भी कहते हैं I लेकिन यह नाम उचित नहीं है, क्यूंकि इस प्रज्ञापारमिता मंत्र के मार्ग पर, साधक की चेतना की गति, हृदय से होकर ही प्रज्ञापारमिता को जाती है I जिनको बौद्ध मार्ग में, बुद्ध प्रज्ञापारमिता कहा गया है, वही अकार की देवी भी हैं जिनके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
इसलिए इस सूत्र का वास्तविक नाम हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र होना चाहिए, न कि प्रज्ञापारमिता हृदय सूत्र…, जैसा आज के बौद्ध मनीषी इस ग्रन्थ का नाम बताते हैं I
जब किसी ग्रन्थ का नाम ही अनुचित हो जाएगा, तो उस ग्रन्थ के मार्ग पर गति भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाती है I इसके कारण, उस ग्रन्थ के बिन्दुओं का साक्षात्कार भी उनके वास्तविक क्रम में नहीं हो पाता है और यदि कुछ साक्षात्कार होगा भी, तब भी वो साक्षात्कार पूर्ण और विशुद्ध रूप में नहीं होगा I यही कारण है, कि आज बौद्ध विद्वान इस ग्रन्थ और इसके मंत्र को बताते तो हैं, लेकिन इसका साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं I ऐसे मनीषी बस कुछ भी बोलते हैं, जिसकी वास्तविकता का इस मंत्र के मार्ग से अधिकांश रूप में कुछ भी लेना देना नहीं है I
जब गुरु ही उन बिंदुओं में अनभिज्ञ हो जाएंगे, जो योगमार्ग के मुख्य बिंदुओं में से हैं, तो उनके साधक शिष्यों का क्या उद्धार होगा I लेकिन ऐसा ही तो होता है, जब योगी (और गुरुजन) ही बनिए हो जाते हैं, और बनिए गुरु बनकर, धर्म और योग मंडियों में स्वयं को उच्च उपाधियां में प्रतिष्ठित करते हैं I जब वास्तव का तुच्छ ही योग और धर्म के उच्च पदों में प्रतिष्ठित हो जाए, तो धर्म और योगमार्ग भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाते I आज के समय में अधिकांश रूप में, ऐसा ही है I
इसलिए यह अध्याय, इस विकृति को ध्वस्त करने के लिए भी लिखा गया है, क्यूंकि यह ग्रन्थ मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव का है, नाकि आज के किसी योग, बौद्ध या वेद मनीषी की बपौती I
उस जन्म में गुरुदेव ने मुझे मित्र का नाम भी दिया था I और यह नाम भी बुद्ध प्रज्ञापारमिता के नाम से ही जुड़ा हुआ था, जो वेदों में सावित्री सरस्वति कहलाती हैं, और जो मेरी वास्तविक माँ भी हैं I
क्यूंकि गुरुदेव को यह बात पता थी, इसलिए प्रज्ञापारमिता शब्द से, उन्होंने मिता शब्द निकाल कर, जिसके अर्थ मित्र ही होता है, मुझे यह मित्र का नाम दिया था, जब मेरे उस जन्म के ब्राह्मण कुल के माता पिता ने मुझे गुरुदेव को ही सौंप दिया था, और जब मैं कोई सात वर्ष का बालक ही था I
उस पूर्व जन्म में, मैं बौद्धों का बोधिसत्व और अर्हत भी कहलाया था I और इसके साथ साथ, उस समय के वेद मनीषीयों ने मुझे महर्षि की उपाधि भी दी थी I
इसीलिए, एक बोधिसत्व (अर्थात, वो अर्हत जिसने अपनी मुक्ति को आगे ठेल दिया है) और एक महर्षि, के नाम एक ही हैं…, यदि विशवास नहीं होता, तो दोनों मार्गों के ग्रंथों का अध्ययन कर लो I
मेरे उस पूर्व जन्म में गुरुदेव (बुद्ध अवतार या गौतम बुद्ध) इस ग्रन्थ को सर्वप्रथम बताते थे I
आत्ममार्ग में इस ग्रन्थ का मंत्रमार्ग, एक विशुद्ध और उत्कृष्ट बिंदु है, क्यूंकि इसका सम्बन्ध ॐ मार्ग से भी है और देवी सावित्री (अर्थात सावित्री विद्या सरस्वती) से भी है, जो शब्द की दिव्यता भी होती हैं, जो शब्दात्मक नामक शब्द की शक्ति और विद्या भी हैं, और जो शब्दब्रह्म को भी दर्शाती हैं I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है।
पूर्व के सभी अध्यायों के सामान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इकसठवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, ओ३म् सावित्री मार्ग की श्रृंखला का नौवाँ अध्याय है।
प्रज्ञापारमिता मंत्र के चित्र का वर्णन,… सावित्री मार्ग और ॐ पथ,…
ऊपर दिखाया गया चित्र, ॐ नाद और ॐ मार्ग का है, और इस चित्र का नाता, प्रज्ञापारमिता मंत्र से भी है I
यह चित्र ॐ मार्ग को पूर्ण रूप में दिखा रहा है, इसलिए त्रिकालों के समस्त खण्डों में, यह चित्र मुमुक्षुजन के लिए एक उत्कृष्ट मार्ग भी है I
इस चित्र और उसके मार्ग का नाता, सावित्री मार्ग से भी है, क्यूंकि बौद्धों की प्रज्ञापारमिता बुद्ध ही वेदों की माँ सावित्री हैं I ॐ की दिव्यता को ही सावित्री विद्या कहते हैं I इसलिए चाहे ॐ महामंत्र को रटो या सावित्रि सरस्वती का नाम बोलो…, फल एक ही मिलेगा I
ॐ साक्षात्कार का मार्ग, जिसका यह चित्र है, वो ही बौद्ध पंथ का प्रज्ञापारमिता मंत्र कहलाया था I
और इस मंत्र की मूल विद्या, जो ॐ की शब्दात्मक दिव्यता भी हैं, और जो पञ्च विद्या में सावित्री सरस्वति कहलाती हैं, उनका ही यह मार्ग है, जो इस चित्र और इस अध्याय के मंत्र के माध्यम से बताया जाएगा I
मैं भगवान बुद्ध का शिष्य हूँ, और उनकी गुरुदक्षिणा के कारण भी, मुझे इस बार लौटना पड़ा I बुद्ध भगवान् ने मुझे उस पूर्व जन्म में गंतव्य तक जाने से रोक दिया था और उन्होंने कहा भी था, कि इस मार्ग को अपने अगले जन्म में ही पूर्ण करना I और यह भी वो कारण था, कि उस पूर्व जन्म में मुझे अपनी गंतव्य प्राप्ति को आगे, इस जन्म तक ठेलना (ढकेलना) पड़ गया था I
इसलिए मुझे पता भी है, कि आज जो बौद्ध मनीषी, वेदों और ब्रह्मा देव के बारे में विकृत रूप में बोलते हैं…, वो सब असत्य ही है I गुरुदेव ने कभी भी वेदों या पितामह ब्रह्मा का निरादर नहीं किया था, क्यूंकि उनका तो मार्ग ही ब्रह्मलोक का था I
यदि उन्होंने ऐसा निरादर किया होता, तो मेरे पूर्व जन्म के ब्राह्मण माता पिता ने मुझे बाल्यावस्था में ही भगवान् को सौंपा नहीं होता I माता पिता के द्वारा मुझे भगवान् को सौंपने के बाद ही मैं भगवान् का शिष्य हुआ था I
और एक बात, कि बुद्ध भगवान् ने वेदों को तोड़ा नहीं था, बल्कि अपनी गंतव्य रूपी योगसिद्धि से योगमार्ग और वेदमार्ग को ही विशुद्ध किया था I लेकिन इस बात को न तो आज के वेद मनीषी मानेंगे, और न ही आज के बौद्ध मनीषीI
बुद्ध भगवान् का जन्म भी तब नहीं हुआ था, जो आज बताया जाता है I उनका जन्म बीसवीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था I और यदि मैं उनके जन्म का समय वैदिक, कालचक्र विज्ञानं से बतलाऊँगा, तो वो समय भी 1914 ईसा पूर्व से, 2.7 वर्षों के भीतर का ही पाया जाएगा I लेकिन कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, आज तो उस वैदिक कालचक्र का विज्ञान भी लुप्त सा हो ही गया है I इस गणना का लिंक नीचे डाल रहा हूँ…, यदि इसको जानना हो तो पड़ लेना I
जो बौद्ध धर्म की प्रज्ञापारमिता बुद्ध हैं, जिनके बारे में एक पूर्व के अकार नामक अध्याय में बताया गया था, वो ही वेदों की सावित्री विद्या सरस्वती हैं, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की कार्यब्रह्म नामक अभिव्यक्ति की विद्या शक्ति रूप में अभिव्यक्ति, दिव्यता, शक्ति, अर्धांगनी और दूती भी हैं I
जब साधक की चेतना, हृदय कैवल्य गुफा के ब्रह्माकाश नामक भाग से (जिसके बारे में पूर्व का पाँच अध्यायों में बताया गया था) ऊपर की ओर जा रही होती है, और बस ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में पहुँचने ही वाली होती है, और जब वो चेतना जो अकार की देवी (अर्थात बुद्ध प्रज्ञापारमिता) के नीचे की ओर होती है, अपना मुख उठा के इन अकार की देवी को स्वयं से ऊपर की ओर देखती है, तो इस दशा में जो वो चेतना देखती है उसे ही गुरुदेव गौतम बुद्ध ने प्रज्ञापारमिता नामक शब्द से सम्बोधित किया था I
लेकिन यही बात तो मैंने पूर्व के अकार नामक अध्याय में भी बताई थी, इसलिए अब आगे बढ़ता हूँ I
संक्षेप में इस चित्र का मार्ग …
यह चित्र ॐ मार्ग को पूर्णतः बता रहा है I और उस साक्षात्कार के मार्ग में साधक की चेतना…,
- हृदय मोक्ष गुफा से जाकर, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के आकार के भाग में जाती है I
- इसके पश्चात, वो चेतना, उसी ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के उकार में पहुँचती है I
- और इसके बाद साधक की वो चेतना, उकार से जाकर मकार में जाती है, जहाँ वो त्रिदेव और त्रिदेवी की योगावस्था को, उनके अपने लिंगात्मक स्वरूप में साक्षात्कार करती है I
- और इसके पश्चात, वो चेतना ब्रह्मतत्त्व (अर्थात शुद्ध चेतन तत्त्व में जाकर, ओमकार का साक्षात्कार करके, ॐ के ऊपर के बिंदु में ही विलीन हो जाती है I
- इस चित्र में, इसी मार्ग को एक तीर से दिखाया गया है I
इस मार्ग से वो चेतना, ॐ के त्रिबीज स्वरूप का साक्षात्कार करती है, जिसके पश्चात वो चेतना ॐ के ही एकाक्षर स्वरूप का साक्षात्कार करके, उसी ॐ के अनाक्षर स्वरूप (अर्थात ॐ बिंदु) का साक्षात्कार करती है, और अंततः उसी बिंदु में ही विलीन हो जाती है, जिसके पश्चात वो चेतना स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती है I ऐसी दशा में साधक की चेतना स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती और इसके साथ साथ, वो चेतना, पूर्व के ब्रह्माण्ड को भी नहीं देख पाती, जिसको उसने इस दशा के साक्षात्कार से पूर्व पार किया था I
जब पूर्व का दृष्टिगोचर शरीर और ब्रह्माण्ड ही अदृष्टिगोचर हो जाए, तो उसे ही मुक्ति कहते हैं I
इसलिए यह ॐ मार्ग, या सावित्री मार्ग, जिसको मेरे पूर्व जन्म के, गुरुभगवान बुद्ध ने प्रज्ञापारमिता मंत्र से बताया था, वो मुक्तिमार्ग ही है I और यह चित्र भी उसी मुक्तिपथ को दर्शा रहा है I
जब कोई साधक इस प्रज्ञापारमिता मंत्र का साक्षात्कार कर लेता है, तो वो साधक यह भी जान जाता है, की बुद्ध भगवान् का मार्ग भी वही था, जो उनसे पूर्व के वेद मनीषीयों ने बताया था I
इस मार्ग की वेदों से एकता के कई प्रमाण हैं I और यही मार्ग तो मैंने भी एक पूर्व जन्म में दिया था, जब मुझे इसी पृथ्वीलोक पर भेजा गया था, और जिसका समयखण्ड कोई 5694 इसा पूर्व से 27 वर्षों के भीतर था I उस जन्म में मैं अघोर मार्ग का वैष्णव योगी था, जिसका नाम पत्तल के नाम पर था, जो राजयोगी था, और जिसने अपना साक्षात्कार करके (अर्थात अपना जन्म सफल करके), अपना देह केवल सत्ताईस वर्षों की आयु के भीतर ही त्याग दिया था I
उस योगी का यह पत्तल शब्द पर नाम भी उसे बालकृष्ण ने दिया था, जो उसके गुरुभगवान भी थे, क्यूंकि उसने उस जन्म की सिद्धि के कारण, उन बालकृष्ण की लकड़ी की शय्या पर जो 108 पत्ते होते हैं, और जो उनका शयन स्थान होता है, उनमें से एक पत्ते को पा लिया था I
वो बालकृष्ण प्रकाश रहित ऊर्जा रूपी, उफान मारते हुए सागर के भीतर, जो प्रत्येक आकाश गंगा के मध्य में होता है, उसमे निवास करते हैं I
और एक बात, कि बालकृष्ण से सुन्दर बालक कोई और है ही नहीं, इसलिए मैं उनसे प्रेम भी कर बैठा था, जिसके कारण मुझे उन्होंने मुझे अपनी शय्या का एक पत्ता बना कर, उनके पास ही रख लिया था I और यही वो कारण था, कि उस जन्म में, मैंने अपने देह बहुत कम आयु में ही त्याग दिया था…, 27 वर्षों से भी कम आयु थी, जब अपने प्राण ऊपर उठा के, मैं ब्रह्मरंध्र से बहार निकला था, और अपना देह अपनी इच्छा से ही त्यागा था I
आगे बढ़ता हूँ …
जबकि मैंने (या मेरे किसी भी गुरु ने) उस या किसी और जन्म में, कभी भी अपने ज्ञान का व्यापार नहीं किया था, लेकिन आज उन सब ज्ञानमार्गों और योगमार्गों और उनकी पुस्तकों का सभी प्रकारों से व्यापार हो रहा है I
इसलिए मेरी एक बात कान खोलके सुनलो…, कि उन सभी ज्ञानमार्गों और योगमार्गों के व्यापारी…, अंततः रसाताल में ही जाएंगे I
और यही बात आज के (अर्थात 2023 ईस्वी के आषाढ़ मास से आगे तक) उन वेदमनिषियों, योग मनीषीयों और पंथ मनीषीयों (अर्थात किसी भी रिलिजन के मनीषी) पर भी पूर्ण और समान रूप में लागू होगी, जो ऐसा व्यापार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कर रहे हैं I
यही बात आज के सभी मार्गों पर भी लागू होगी, चाहे वो किसी भी ग्रन्थ के क्यों न हों I
और एक बात भी ध्यानपूर्वक जानो, कि यदि तुम्हे तुम्हारी परंपरा से ही ऐसा करने का आदेश है, तो आगामी समयखण्ड में, वो गुरु और भगवद परंपरा ही लुप्त हो जाएगी, चाहे वो परंपरा किसी भगवान् या भगवद तत्त्व प्राप्त या योगशिखर पर बैठे हुए मनीषी की ही क्यों न हो I
और इसके साथ साथ, आज के समय खंड में (अर्थात 2023 ईस्वी के आषाढ़ मास से और इससे आगे के कालखंडों में), जो भी योग या ज्ञान का प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यापार कर रहे होंगे, तो आगामी कालखंड में उनकी पारिवारिक परंपरा भी पूर्ण नाश हो जाएगी, चाहे वो परंपरा किसी भगवान् या ऋषि या किसी भगवान् के दूत या मसीहा की ही क्यों न हो I
उस नष्ट होने की प्रक्रिया में, बस वोही परिवार मेरी इस बात से अछूते रहेंगे, जिनमें कम से कम एक सत्यद्रष्टा (अर्थात आत्मद्रष्टा या कर्मद्रष्टा या योगदृष्टा या ब्रह्मदृष्टा या वेदद्रष्टा) मनीषी होगा I
इस भाग को मैं 2023 ईस्वी के आषाढ़ मास में इस ग्रन्थ में जोड़ रहा हूँ, और इसका प्रभाव भी शनैः शनैः आएगा…, और वो प्रभाव इसी 2023 ईस्वी के सावन मास से प्रारम्भ हो जाएगा I
इसी कारणवश, आगामी कालखंड में, एक भी तांत्रिक परंपरा नहीं बचेगी, एक भी तांत्रिक नहीं रहेगा, और उनके परिवार तक पूर्णनष्ट हो जाएंगे I
चाहे वो तांत्रिक, या धर्म (या ज्ञान या योग) का व्यापारी किसी भी मार्ग का हो, किसी भी पन्थ या मत (रिलिजन) का हो, यह बात सब पर पूर्ण और समान रूप में ही लागू होगी I
और यही बात, चोरों, ठगों, माफिया, लूटेरों पर भी कलियुग के एकमात्र पुरुषार्थ, अर्थ के अनुसार पूर्ण और समान रूप में लागू होगी I
मेरे इन शब्दों की पूर्णता, 2026 ईस्वी के प्रारंभ से लेकर 2031 ईसवी के मध्य में ही दिखाई देगी, जब इस संपूर्ण पृथ्वीलोक में विकृत मनीषीयों का, उनके परिवारों और संस्कारों का, उनके सम्प्रदायों और परम्पराओं का , देहावसान पूर्ण रूप में हो चुका होगा…, और यह पृथ्वीलोक, गुरुयुग की ओर, और गुरुयुग की वैदिक जीवन शैली में अग्रसर होने लगेगा I
प्रज्ञापारमितासूत्र, मंत्र और कैवल्य मोक्ष … सावित्री सरस्वती और कैवल्य मोक्ष …
प्रज्ञापारमिता मंत्र, जो ॐ मार्ग ही है, वो कैवल्य मोक्ष का ही मंत्र है I
जीव जगत से सदैव के लिए पूर्णातीत होना ही कैवल्य मोक्ष है I लेकिन ऐसा तो केवल निर्गुण ब्रह्म में ही हो सकता है, इसलिए जो कैवल्य मोक्ष है, वो ही निर्गुण निराकार ब्रह्म भी है I निर्गुण ब्रह्म को ही कैवल्य मोक्ष कहते हैं I
यदि हम इस बिन्दु को बौद्ध मार्ग के अनुसार समझे, तो यह प्रज्ञापारमिता मंत्र अनागामी साधकों का मार्ग भी है I और इसके अतिरिक्त यह मंत्र अर्हत का भी मार्ग है I इस मंत्र के मार्ग का साक्षात्कारी साधक, अंततः अर्हत भी हो सकता है I
लेकिन क्यूंकि यह मंत्र का मार्ग वास्तव में सावित्री सरस्वती का ही मार्ग है, इसलिए अंतगति के अनुसार, इस मंत्र के मार्ग का और किसी भी दशा से कुछ भी लेना देना नहीं, क्यूंकि यह मंत्र कैवल्य मोक्ष का ही मंत्र है I
वैसे गुरुदेव बुद्ध के इस प्रज्ञापारमिता सूत्र के ज्ञान को बांटने के पश्चात, वेद मनिषियों ने इसी को प्रज्ञापारमिता ग्रन्थ भी कहा था I
प्रज्ञापारमिता मंत्र और जीवात्मा का ॐ में लय, … सावित्री विद्या में जीवात्मा का लय, … जीवात्मा ही विज्ञानमय कोष है, … बोधि शब्द जीवात्मा का ही सूचक है, …
पूर्व का अध्याय, जिसका नाम ॐ था, उसमें बताया था कि जीवात्मा अंततः ॐ के ऊपर के बिन्दु में ही विलीन हो जाती है, जिसके बाद वो जीवात्मा स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती है I
वेदों में कहा गया जीवात्मा ही साधक का विज्ञानमय कोष है, क्यूंकि यह विज्ञानमय कोष ही वो है, जो ॐ के बिन्दु में विलीन होता है I विज्ञानमय कोष का सगुण साकार स्वरूप ही जीवात्मा कहलाया गया है I
इसीलिए, इस मंत्र में कहा गया बोधि शब्द, जो गंतव्य स्थित बुद्धि को दर्शाता है, वो ही जीवात्मा है I
इसलिए यह मंत्र जीवात्मा का लय मार्ग भी दर्शाता है, जिसके कारण इस मंत्र को “जीवत्मा लय मंत्र” भी कहा जा सकता है I
यही कारण था कि इस मंत्र के अंत में, मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने स्वाहा शब्द का प्रयोग किया था I
जीवात्मा का लय स्थान ॐ के ऊपर का बिंदु ही है I
प्रज्ञापारमिता मंत्र का मार्ग … प्रज्ञापारमिता मंत्र ही ॐ पथ है …
अब इस मंत्र के ॐ मार्ग स्वरूप को बताता हूँ …
गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा I
अर्थ :
गया…, गया…, पार गया…, सर्वसम होकर पार से भी पार गया…, जीवात्मा विलीन I
इस मंत्र का एक-एक शब्द, जीवात्मा के उत्कर्ष मार्ग पर उस गति को दर्शाता है, जो मुक्तिमार्ग कहलाता है I
इस मंत्र की गति हृदय कैवल्य गुफा से लेकर, अकार, उकार, मकार और शुद्ध चेतन तत्त्व में बसे हुए ॐ के शब्द्लिंगात्मक और लिपिलिंगात्मक स्वरूप तक जाती है, और जिसके अंत में जीवात्मा उसी ॐ के ऊपर के बिन्दु में ही विलीन हो जाती है I
वैसे आज के बौद्ध मनीषीगण भी इस सत्य को नहीं जानते इसलिए, वो इस मंत्र के बारे में कुछ भी मन घडन्त बोलते है, जबकि यह मंत्र जीवात्मा के ॐ में विलीन होने का ही मार्ग है I
भगवान् बुद्ध के दिए हुए मंत्रो और मार्गों में से, और साधकों के उत्कर्ष मार्ग के दृष्टिकोण से, यह मंत्र सर्वोत्कृष्ट है I
तो चलो अब इस मंत्र के मार्ग रूपी सर्वोच्च स्वरूप, अर्थात आत्ममार्गी स्वरूप को बताता हूँ …
पहला शब्द “गते” …
यह चित्र उसी कैवल्य गुफा का है जिसका वर्णन एक पूर्व के अध्याय में किया गया था I यह चित्र इस प्रज्ञापारमिता मंत्र में बताए गए “पहले गते शब्द” को दर्शाता है I
यहाँ बताए गए “गते” का अर्थ है, “गया” I लेकिन यहाँ पर इसका अर्थ “जाना” भी है, क्यूंकि इस स्थिति में तो जीवात्मा उत्कर्ष मार्ग पर जा भी रही है I इस “पहले गते शब्द” स्थिति में उसका उत्कर्ष मार्ग पर जाना पूर्ण नहीं हुआ है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
हृदय मोक्ष गुफा में, इस गते शब्द की गति, ऐसी होती है …
साधक की चेतना, अव्यक्त और परा प्रकृति की योगावस्था से घटाकाश को जाती है, जिसमे वो चेतना (जीवात्मा) स्वर्ण लिंग का अध्यन्न करके अहमकाश में जाती है I
इस अहमाकाश से वो जीवात्मा शून्याकाश का साक्षात्कार करती है, और इस शून्याकाश से वो चेतना, अंततः हृदय के अग्र भाग में उदय होते हुए विशालकाय प्रकाश, अर्थात ब्रह्माकाश में चली जाती है I
जीवात्मा के यह पूरा मार्ग, इस “पहले गते शब्द” को दर्शाता है I
इसलिए यह “पहला गते का शब्द”, जीवात्मा के हृदय विसर्ग गुफा में गति को दर्शाता है I
क्यूंकि यह मंत्र का मार्ग, हृदय से प्रारम्भ होता है, इसलिए इसके ग्रन्थ को “ह्रदय प्रज्ञापारमिता सूत्र” ही कहना चाहिए…, न की “प्रज्ञापारमिता हृदय सूत्र” जैसा आज के बौद्ध मनीषी कहते हैं I
- दूसरा शब्द “गते” …
इस दुसरे गते के शब्द में, जीवात्मा (अर्थात साधक की चेतना) जो यह सब साक्षात्कार करती है, वो ह्रदय के उस विशालकाय ब्रह्माकाश की किरणों से ऊपर की ओर उठती है, और ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष की ओर जाती है I
ऐसी दशा में जब वो चेतना, आकार की देवी से थोड़ा नीचे की ओर से, उन देवी को अपना सर उठाकर अपने से ऊपर की ओर देखती है, तो वो देवी की जो दशा होती है, उसको ही मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने बुद्ध प्रज्ञापारमिता कहा था I उनकी इस दशा के बारे में पूर्व के अध्याय, अकार (सावित्री विद्या सरस्वती) में बताया जा चुका है I
और इस दशा से जैसे-जैसे जीवात्मा और ऊपर की ओर उठती जाती है, तो वो जीवात्मा अकार की देवी के पास जाकर, उनके श्री चरणों में ही बैठ जाती है I
इस मंत्र का “दूसरा गते” का शब्द, जीवात्मा के उत्कर्ष मार्ग के इसी बिंदु को दर्शाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
इस दशा में अकार की देवी, अर्थात सावित्री सरस्वती (या बुद्ध प्रज्ञापारमिता) ही, शब्द, प्रकाश और सगुण साकार दशाओं की माता भी हैं I
ब्रह्माण्ड में जो भी प्रकाश है, शब्द हैं, और सगुण साकार स्वरूप में हैं, यह देवी उन सबकी प्राथमिक दशा को अपने भीतर ही समाई हुई हैं, और उन सबकी जननी भी हैं I
इस सृष्टि के समस्त मंत्रो में जो भी शब्द हैं, यह देवी सावित्री (अर्थात प्रज्ञापारमिता बुद्ध) उन सब शब्दों के मूल की भी धारक हैं I
इसलिए, जिस योगी ने इनको जान लिया (अर्थात इनका साक्षात्कार कर लिया), उसने शब्द ब्रह्म को ही जान लिया I
इस सृष्टि के समस्त सगुण साकार स्वरूपों में, जो भी है, यह देवी उन सबकी जननी हैं I इसलिए, इनका साक्षात्कार सगुण साकार ब्रह्म सिद्धि भी कहा जा सकता है I
और क्यूंकि जिस विशालकाय प्रकाशमय दशा में यह देवी निवास करती हैं, वो सगुण निराकार है, इसलिए इनके साक्षात्कार को सगुण निराकार ब्रह्म सिद्धि भी कहा जा सकता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसका अर्थ हुआ, कि यह “दूसरा गते का शब्द”, जीवात्मा की गति की उस दशा को दर्शाता, है, जब जीवात्मा हृदय मोक्ष गुफा से उठकर, अकार तक पहुँचती है, और इसके पश्चात वो जीवात्मा अकार का साक्षात्कार करती है I
इसलिए यहाँ पर इस गते शब्द का अर्थ, “गया” है, क्यूंकि वो चेतना अपने ॐ उत्कर्ष मार्ग पर, इस मंत्र के दूसरे बिंदु पर चली गयी है I
और इसके साथ साथ, प्रज्ञापारमिता मंत्र में गति की इस स्थिति में इस “गते” शब्द का अर्थ “जाना” भी है, क्यूंकि वो जीवात्मा अभी भी ॐ के चिंन्ह तक पहुँची नहीं है, इसलिए उसकी गति अभी भी चल रही है (क्यूंकि वो अपने गंतव्य, अर्थात ॐ तक पहुँची नहीं है) I
इसका अर्थ हुआ, कि यह दूसरा “गते” का शब्द, “गया और जाना”, दोनों ही दशाओं को दर्शाता है I
तीसरा शब्द “परागते” …
पूर्व का अध्याय उकार में बताया गया था, कि उकार ही कार्यब्रह्म हैं और जो बौद्धों के अमिताभ बुद्ध भी हैं I यह “परागते का शब्द” जीवात्मा के अकार से अगले पड़ाव, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की कार्य ब्रह्म अभिव्यक्ति पर पहुँचने तक की गति को दर्शाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ, और इस परागते शब्द को बतलाता हूँ…
यह परागते का शब्द, दो शब्दों से बना है…, पहला “परा” है, और दूसरा “गते” I
- परा नामक शब्द … इस साक्षात्कार में, परा शब्द का साधारण अर्थ स्थूल से परे होता है…, अर्थात इन्द्रियों से परे, या इन्द्रिय अगोचर, ऐसा भी होता है I
इस परा शब्द का मध्यमिक अर्थ, “अपरा प्रकृति से परे” होता है, इसलिए यह शब्द परा प्रकृति के भीतर बसी हुई दशाओं को भी दर्शाता है I
और इसी शब्द का उच्च अर्थ, “परा से भी परा” होता है…, अर्थात परा प्रकृति से भी परे, ऐसा होता है I
- गते नामक शब्द … और साक्षात्कार की इस दशा में, गते नामक शब्द का अर्थ, “गया और जाना” दोनों है I
पूर्व की दशाओं से आगे जाने के कारण, यह गते शब्द का अर्थ, “गया” ही है I
लेकिन क्यूंकि वो जीवात्मा अभी तक ॐ तक नहीं पहुंची है और उसी ॐ की ओर चलायमान भी है, इसलिए इसी गते शब्द का अर्थ, “जाना” भी है I
इसलिए, इस परागते शब्द का अर्थ “परा अवस्थाओं में गया” ऐसा है I और इसके साथ साथ, इसी शब्द का अर्थ, “परा अवस्थाओं में जाना” भी है क्यूंकि उस जीवात्मा की गति को भी यह शब्द दर्शाता है और यही शब्द जीवात्मा की उस गति को भी दर्शाता है, जिसमें वो अभी तक ॐ के गंतव्य साक्षात्कार पर नहीं पहुंची है I
चौथा शब्द “पारसंगते”…
इस शब्द के अंतर्गत, जीवात्मा उकार से मकार की ओर जाती है I पूर्व के अध्याय में बताया गया था, कि मकार ही त्रिदेव और उनकी दिव्यता, त्रिदेवी हैं Iऔर मकार ही हरिहरब्रह्मा के साथ साथ, महालक्ष्मी महापार्वति और महासरस्वती भी है I
पारसंगते का शब्द तीन शब्दों से बना है … पार, संग और गाते … जिनके अर्थ अब बताता हूँ I …
- पार शब्द का अर्थ पार जाना (या परे) है … पार वो होता है, जो प्रत्यक्ष से परे है I लेकिन यहाँ, पार शब्द उकार (या सृष्टिकर्ता) से परे, ऐसा ही है I और क्यूंकि यह सृष्टिकर्ता से ही परे है, इसलिए यह उन श्रिष्टीकर्ता (या कार्य ब्रह्म) से भी परे ही है I
- संगते शब्द का अर्थ योग, परा से एकता, पूर्णतः जाना…, आदि होता है I यही पूर्व का अध्याय में बताए गए, मकार को दर्शाता है I
और साक्षात्कार के अनुसार, इस शब्द का अर्थ सर्वत्र से एकता, समतावादी एकता इत्यादि भी है I
इस शब्द का अर्थ, वो दशा जो “संघ शब्द की परा से भी परे है”…, यह भी है I इसका कारण है, कि यह दशा सृष्टिकर्ता (अर्थात उकार) से भी आगे की है I
और वो दशा जिसमे त्रिदेव और उनके कृत्य ही एक हो जाएं, उसको भी यह शब्द दर्शाता है I
पांचवां शब्द बोधि …
बोधि शब्द का अर्थ, बुद्धि और विज्ञानमय कोष भी होता है I
लेकिन यहाँ बताया गया बोधि नामक शब्द, जीवात्मा को दर्शा रहा है, अर्थात साधक की चेतना की विज्ञानमय दशा प्राप्ति को दर्शा रहा है I
इसलिए यहाँ बताया गया बोधि शब्द, बुद्धत्व प्राप्ति को भी दर्शा रहा है I
और इस बोधि शब्द की अंतगति में, इस शब्द की दशा, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के भीतर के ब्रह्मतत्त्व को भी दर्शा रही है I
और इसलिए बोधि का यह शब्द, साधक के आत्मज्ञान को भी दर्शा रहा है I
छटा शब्द स्वाहा …
यहाँ पर स्वाहा का अर्थ, स्वयं की भेंट और स्वयं के जीव रूपी अस्तित्व की समाप्ति भी है I
यह वो दशा है जब जीवात्मा, ॐ के शब्दात्मक और लिपिलिंगात्मक साक्षात्कार के पश्चात, उसी ॐ के ऊपर के बिन्दु में लय हो जाती है I और इस लय के पशचात, वो जीवात्मा (या साधक की चेतना) स्वयं ही स्वयं को देख भी नहीं पाती है I क्यूंकि जब वो जीवात्मा स्वयं को ही देख नहीं पाती, इसलिए वो ब्रह्माण्ड को भी नहीं देख पाती I
और ॐ का लिपि लिंगात्मक चिंन्ह, ब्रह्म एकाक्षर मंत्र को भी दर्शाता है, जिसके बारे में पूर्व के ॐ नामक अध्याय में भी बताया गया था I
यह स्वाहा का शब्द, निर्विकल्प समाधि को भी दर्शाता है, और यही शब्द ब्रह्म अनाक्षर को भी दर्शाता है I
प्रज्ञापारमिता मंत्र की गंतव्य दशा …
वास्तव में यह प्रज्ञापारमिता मंत्र …
- दिव्यता के दृष्टिकोण से, सावित्री विद्या को दर्शाता है, जिनको बौद्ध पंथ में प्रज्ञापारमिता बुद्ध भी कहा जाता है I
- ऊर्जा के दृष्टिकोण से यह मंत्र, प्रणव साक्षात्कार का मार्ग है I
- स्व:साक्षात्कार की उस दशा को दर्शाता है, जिसमे साधक इस जीव जगत से ही परे चला जाता है I
- गंतव्य रूप में यह मंत्र, कैवल्य मोक्ष को दर्शाता है I
- साधना रूप में यह मंत्र, निर्विकल्प समाधी को ही दर्शाता है I
- श्रिष्टि से तारणकारक रूप में यह मंत्र, ॐ मार्ग को पूर्णरूपेण दर्शाता है I
- मार्ग रूप में यह मंत्र, ज्ञानमार्ग का गंतव्य है, अर्थात आत्मज्ञान का मार्ग है I
- योगचतुष्टय के दृष्टिकोण से, इस मंत्र के मार्ग पर किसी भी योग पद्दति से जाया जा सकता है I
- साक्षात्कार के गंतव्य में यह मंत्र, ॐ रूपी ब्रह्म के साक्षात्कार को लेकर जाएगा I
- अंतस्थिति में, यह मंत्र निर्गुण ब्रह्म में जीवात्मा का लय दर्शाता है I
तो अब मैं इस अध्याय और अबतक चली आ रही ओ३म् मार्ग की श्रंखला का अंत करता हूँ…, और रकार मार्ग की श्रंखला पर जाता हूँ I
तमसो मा ज्योतिर्गमय I
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra