इस अध्याय में पञ्चब्रह्म में से मध्य ब्रह्म, जो ईशान ब्रह्म कहलाते हैं, और जिनको सदाशिव का ईशान मुख (और शिव का ईशान मुख) भी कहा जाता है, उनपर बात होगी I ईशान नामक ब्रह्म ऊपर (या आकाश या गंतव्य) की ओर देखते हैं और इनका महाभूत भी आकाश महाभूत ही है I ईशान ब्रह्म को ही कैवल्य मोक्ष, कैवल्य, मुक्ति, मोक्ष, कैवल्य मुक्ति अदि भी कहा जाता है I और यही ईशान, विदेहमुक्ति और जीवनमुक्ति को भी दर्शाते हैं I ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में कहा गया जल शब्द भी इन्ही ईशान को दर्शाता है I इनका साक्षात्कार हृदय चक्र में बसे हुए उस निर्गुण लिंग में भी हो सकता है (लेकिन इस निर्गुण लिंग का ज्ञान अब लुप्त हो चुका है क्यूंकि अभी के कलियुग की काली काय ने इस ज्ञान को ढक लिया है) I इनका साक्षात्कार हृदय में बसे हुए निर्गुण चक्र में भी होता है, जो स्वच्छ जल के सामान निरंग होता हैI और इनका साक्षात्कार सहस्रार चक्र के ऊपर के भाग में भी होता है, और ऐसे समय पर एक मानव मुख जो निरंग स्फटिक सा होता है, वो कपाल के ऊपर के भाग से बहार (अर्थात गंतव्य) की ओर देख रहा होता है I यही ईशान ब्रह्म सद्योमुक्ति और तीर्थंकर की दशा को भी दर्शाते हैं I इनकी दिव्यता को ही माँ गायत्री का मुक्ता मुख कहते हैं I ईशान ब्रह्म ही साक्षी और सर्वसाक्षी कहलाए गए हैं, और ईशान ही स्व:प्रकाश, स्वयं प्रकाश, परब्रह्म, परम ब्रह्मा (परम्ब्रह्मा), परमात्मा (परम आत्मा), ब्रह्म और आत्मा के शब्दों को भी दर्शाते हैं I यही ईशान सदाशिव और परमशिव कहलाते हैं I
इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011-2012 ईस्वी के समीप का था I
पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है ।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चौबीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का दसवाँ अध्याय है ।
ईशान ब्रह्म साक्षात्कार, ईशान का साक्षात्कार, सदाशिव के ईशान मुख का साक्षात्कार, शिव के ईशान मुख का साक्षात्कार, … माँ गायत्री का मुक्ता मुख, …
ईशान ब्रह्म के साक्षात्कार को यदि मैं कुछ ही शब्दों में बताऊँ, तो उन्हें सांकेतिक, लेकिन गंतव्य रूप में, ऐसा ही कह सकता हूँ…,
ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही है I
ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
योगी का आत्मस्वरूप ही ब्रह्म है I
इसलिए, अब उत्कृष्ट साधकों के लिए यह कह रहा हूँ…
यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म ही हो जाओ I
जो अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म नहीं, वो ब्रह्म का ज्ञाता भी नहीं I
चाहे कोई भी परिधान, पद, उपाधि आदि व्यर्थ बिन्दु धरण ही क्यों न कर लो, लेकिन जबतक जैसा यहाँ बताया गया है, वो नहीं हो जाओगे, तबतक वही कहते रहोगे जो आपकी अनभिज्ञता को ही दर्शाता है…, और जो नीचे लिखा गया है …
ब्रह्म को कौन जान पाया है?, … ब्रह्म को कोई भी जान नहीं पाया है I
ब्रह्म को जानना है तो ज्ञान मार्ग, ज्ञानयोग से जानो I
ज्ञान मार्ग से ही ब्रह्म को जाना जा सकता है I
ऊपर बताए गए तीनों बिंदु मूर्खनंद की दशा को ही दर्शाते हैं I
यदि आज के किसी भी मूर्खानंद को मूर्खानंद कहोगे, तो वो धूर्तवाद पर आकर धूर्तानंद ही हो जाता है I इस दशा के पश्चात यदि उसको धूर्तानंद कहोगे, तो वो तर्क वितर्क को त्यागकर, कुतर्क करेगा और कुतरकानंद ही हो जाएगा I और यदि इस दशा के पश्चात उसको कहोगे, कि भाई तू कुतरकानंद हो गया है, तो वो कपट करेगा और कपटानंद हो जाएगा I कपटानंद की दशा ही अपकर्ष रूपी रसाताल है I
कलियुग के बनिए जो धर्म गुरु के परिधान में धर्म मंडियों में गति कर रहे हैं, वो सभी ऐसा ही हैं, इसलिए यह मैंने उनके लिए ही लिखा है I
लेकिन वास्तव में तो ब्रह्म साक्षात्कार ऐसा ही होता है …
भक्ति योग से ब्रह्म भावपन होकेर, ब्रह्म साक्षात्कार मार्ग प्रशश्त होगा I
कर्म योग से वो मार्ग स्वयंचलित होगा, और ऐसा होता ही चला जाएगा I
राज योग से उस मार्ग के गंतव्य पर जाया जाएगा, और ब्रह्म साक्षात्कार होगा I
और ज्ञान योग से उस साक्षात्कार को अपने ही आत्मस्वरूप में जाना जाएगा I
और अंततः इस मार्ग में, …
योगी आत्मयोग नामक अमार्ग रूपी अयोग को ही जाएगा I
और जहाँ, …
वो अमार्ग ही सर्वव्यापक, मार्गातीत, अनादि अनंत, अखंड सनातन ब्रह्म होगा I
और उन्ही ब्रह्म के समान ही उस साक्षात्कारी योगी का आत्मस्वरूप भी होगा I
और जहाँ …
अयोग ही योग के पश्चात की वो दशा है, जो ब्रह्म कहलाती है I
अयोग का शब्द भी योगातीत, सिद्धितीत, सर्वातीत निर्गुण ब्रह्म को दर्शाता है I
यह अयोग शब्द वेदों में बताए गए अंतिम मार्ग, त्याग मार्ग का अंग ही है I
सर्वत्र त्याग ही अयोग है, जो सर्वयोग सिद्धि के पश्चात की अवस्था ही है I
ऐसा होने का कारण है, कि …
जबतक किसी दशा से योग सिद्ध नहीं होगा, तबतक उस दशा को त्यागोगे कैसे I
इसलिए, सर्वातीत ब्रह्म के साक्षात्कार से पूर्व, आत्मा में ही सर्वयोग होगा I
सर्वयोग ही वो ब्रह्माण्ड योग है, जिसके मूल में ब्रह्माण्ड धारणा ही होती है I
और वो योग धारणा का ब्रह्माण्ड भी ब्रह्म की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ही होता है I
ब्रह्म की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के सामान ही, वो साक्षात्कारी योगी भी होगा I
इसलिए, ब्रह्म साक्षस्कार से पूर्व दशा में, योगी ही महाब्रह्माण्ड स्वरूप होगा I
इसलिए, …
यदि अपने आत्मस्वरूप में ब्रह्म को जानना है, तो इससे पूर्व अपने पिंड में ही बसे हुए सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप के प्राथमिक महा ब्रह्माण्ड को जानो I
ऐसे जानने के पश्चात ही योगी, उस महाब्रह्माण्ड को ही त्यागकर, उन जीवातीत, जगतातीत, ब्रह्माण्डातीत और सर्वातीत निर्गुण ब्रह्म को जान पाएगा I
पर योगी के ऐसे साक्षात्कार का मार्ग भी, …
पूर्व की सर्वधारणा से सर्वयोग को जाके, सर्वत्याग के भाव से अयोग को जाएगा I
ऐसे अयोग में योगी का आत्मस्वरूप ही, स्व:प्रकाश, स्व:तीत निर्गुण ब्रह्म होगा I
जहाँ वो स्व: भी, सर्वस्व जीव जगत स्वरूप में होता हुआ भी, अतीत भी होगा I
जो सबकुछ होता हुआ भी, सबसे अतीत है, वही आयोग का गंतव्य पूर्णब्रह्म है I
आगे बढ़ता हूँ …
ईशान ब्रह्म की दिव्यता जो गायत्री सरस्वति का मुक्ता मुख है, उनके बारे में ऐसा भी कहा जा सकता है…,
मुक्ता ही मुक्ति का दृष्टा है, … मुक्ति ही मुक्ता की दशा है I
मुक्ता ही मुक्ति को दर्शाता है, … मुक्ता ही मुक्ति है और मुक्ता ही मुक्त I
इसलिए, मुक्ता ही वो अनुग्रह है, जिसको पाया हुआ योगी ही मुक्तात्मा होता है I
क्यूंकि ईशान ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म ही हैं, इसलिए इनके इस अध्याय में इनका कोई भी चित्र नहीं बनाया गया है…, निरंग का चित्र कैसे बनाओगे I
पञ्चब्रह्म का स्वयं उदय, पञ्चब्रह्म का स्वयं प्रकटीकरण, पञ्चब्रह्म का स्वयं प्रकटीकरण क्रम, … पञ्च ब्रह्म के स्वयं उदय की समय गणना, …
पञ्चब्रह्म हैं, जो ईशान, सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव और अघोर कहलाते हैं I
यहाँ बताया गया पञ्चब्रह्म का क्रम भी इनके उदय क्रम के अनुसार है, लेकिन ऐसा होने पर भी इनकी समय गणना नहीं हो सकती, क्यूंकि जो काल के चक्र स्वरूप से ही अतीत है, अर्थात काल के चक्र स्वरूप को धारण करने से पूर्व ही उदय हुआ था, उसकी गणना कैसे करोगे I
इसलिए इनके उदय का समय खंड जाना ही नहीं जा सकता है I और यही कारण है, कि इन पञ्चब्रह्म को अनादि अनंत ही माना जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन ऐसा होने पर भी जब साधक की चेतना सृष्टि के रचना क्रम में बसकर इन पञ्चब्रह्म का साक्षात्कार करती है, तब इन पञ्चब्रह्म का साक्षात्कार क्रम जो जाना जाता है, वो अब बताता हूँ I
पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में, यह साक्षात्कार क्रम, पञ्चब्रह्म के स्व:प्रकटीकरण क्रम से विपरीत ही होता है I इसलिए जैसा उत्पत्ति का क्रम हुआ होगा, उसके विपरीत ही इन पाँच ब्रह्म के साक्षात्कार का क्रम होगा I
इसलिए, पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा पथ पर, जिस क्रम से साधक इन पञ्चब्रह्म का साक्षात्कार करेगा, उस मार्ग से विपरीत ही इन पञ्च ब्रह्म का स्वयंउदय मार्ग माना जाएगा I
यही कारण है, कि जब सृष्टि के स्वयं प्रकटीकरण में इन पञ्चब्रह्म को जानोगे, तो वो क्रम ऐसा पाया जाएगा…
- ईशान का स्वयं उदय सर्वप्रथम ही पाया जाएगा, क्यूंकि सृष्टि के पूर्व में भी यह ईशान थे I
इन्ही ईशान को ब्रह्म, आत्मा, निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण निराकार ब्रह्म, परम आत्मा, परमेश्वर और परमशिव आदि शब्दों से भी कहा जाता है I
निर्गुण न तो जन्म लेता है, और न ही उसका कभी अंत होता है I सनातन शब्द के गंतव्य में भी निर्गुण शब्द ही है I
- जब साधक की चेतना ईशान ब्रह्म के साक्षात्कार मार्ग पर, ब्रह्म की रचना के स्वयं उदय प्रक्रिया और उसके मार्ग से जाती है, तो इस साक्षात्कार का क्रम ऐसा होता है…, ईशान, सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव और अंत में अघोर I
लेकिन सृष्टि का स्वयं उदय ऐसे क्रम में होने के बाद भी यह पाँचों ब्रह्म अनादि अनंत ही हैं, इसलिए सनातन ही हैं I
जो सृष्टि के स्वयं उदय से भी पूर्व में था, उसकी उत्पत्ति या अंत का समयखंड निकाला ही नहीं जा सकता, क्यूंकि उसकी दशा काल के चक्र स्वरूप से ही अतीत होती है I
जो कालचक्र से ही अतीत है, उसकी समय गणना कैसे करोगे क्यूंकि वो तो काल के गंतव्य, अवर्णनीय अकल्पनीय अखंड सनातन में ही बसा होता है I
और क्यूंकि यह पञ्चब्रह्म उसी सनातन ब्रह्म को दर्शाते हैं, जो कालचक्र से ही अतीत है, इसलिए इनके स्वयं उदय की समय गणना हो ही नहीं सकती है I
ईशान ब्रह्म का सर्वव्यापक स्वरूप, सदाशिव के ईशान मुख का सर्वव्यापक स्वरूप, शिव के ईशान मुख का सर्वव्यापक स्वरूप, निर्गुण ब्रह्म का सर्वव्यापत स्वरूप, … ईशान निर्गुण ब्रह्म हैं, ईशान निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं, ईशान कैवल्य मोक्ष हैं, ईशान कैवल्य हैं, ईशान मोक्ष हैं, … ईशान तुरीयातीत हैं, ईशान कालातीत हैं, ईशान गुणातीत हैं, ईशान भूतातीत हैं, ईशान तन्मात्रातीत हैं, … ईशान परमेश्वर हैं, ईशान परमात्मा हैं, ईशान ही ब्रह्म हैं, ईशान ही आत्मा हैं, ईशान परम ब्रह्म हैं, ईशान परब्रह्म हैं, ईशान साक्षी हैं, ईशान सर्वसाक्षी हैं, ईशान परमशिव हैं, ईशान ही अनंत हैं, … ईशान ही सर्वदिशा दर्शी हैं, ईशान ही सर्वदशा दर्शी हैं, ईशान ही सर्वदशा व्याप्त हैं, ईशान ही साक्षी हैं, ईशान ही सर्वसाक्षी हैं, …
ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार अन्य चारों ब्रह्म में भी होता है, अर्थात अन्य चारों ब्रह्म के साक्षात्कार में भी ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I
और ऐसा ही साक्षात्कार सदाशिव के उन चार मुखों में भी होता है, जो चार प्रमुख दिशाओं की ओर देखते हैं I
इस जन्म में ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार सर्वप्रथम तत्पुरुष ब्रह्म में ही हुआ था, लेकिन उसके पश्चात यही ईशान अपने निरंग झिल्ली के सामान सर्वव्यापक स्वरूप में अन्य सभी दशाओं में भी समान रूप में साक्षात्कार होते ही चले गए थे I
इसलिए उन सभी साक्षात्कारों के पश्चात यह भी जाना गया था, कि यदि कोई सर्वव्यापत सत्ता है, तो वो सत्ता ईशान ही हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
और क्यूंकि ईशान का साक्षात्कार एक निरंग झिल्ली के समान स्वरूप में ही हुआ था, इसलिए यह भी जाना था कि ईशान ही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं, जिनको निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण आत्मा, परमात्मा, परब्रह्म, परम ब्रह्म, परमेश्वर और कैवल्य मोक्ष आदि भी कहा जाता है I
वैदिक वांड्मय में इन्ही ईशान ब्रह्म को ऐसा ही कहा गया है …
- तुरीयातीत आत्मा, आत्मा, तुरीयातीत, सर्वातीत, … ईशान ही तुरीयातीत आत्मा हैं…, ईशान ही तुरीयातीत हैं, ईशान ही आत्मा हैं, ईशान ही सर्वातीत हैं I
- ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण निराकार ब्रह्म, निर्गुण निराकार, अनंत, … ईशान ही ब्रह्म हैं, ईशान ही निर्गुण ब्रह्म कहलाए गए हैं, ईशान ही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं, और ईशान को ही निर्गुण निराकार कहा गया है I
जब हम निर्गुण के साथ निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तब वो निराकार ही अनंत होता है I
- परमेश्वर, परम ईश्वर, परमात्मा, परम आत्मा, परम ब्रह्मा, परम शिव, … ईशान ही परमेश्वर हैं, ईशान ही परम ईश्वर कहलाए गए हैं, ईशान ही परम आत्मा हैं, ईशान ही परम ब्रह्मा हैं, ईशान ही परमशिव हैं I
- कालातीत ब्रह्म, गुणातीत ब्रह्म, भूतातीत ब्रह्म, तन्मात्रातीत ब्रह्म, दिशातीत ब्रह्म, मार्गातीत ब्रह्म, दशातीत ब्रह्म, लोकातीत ब्रह्म, जीवातीत, जगतातीत, ब्रह्माण्डातीत, … ईशान ही वो कालचक्र से अतीत कालातीत ब्रह्म हैं, ईशान ही गुणों से अतीत गुणातीत ब्रह्म हैं, ईशान ही तन्मात्रों से अतीत तन्मात्रातीत ब्रह्म हैं, ईशान ही पथ और मार्गों से अतीत दिशातीत ब्रह्म और मार्गातीत ब्रह्म हैं, ईशान ही दशाओं से अतीत अर्थात लोकातीत ब्रह्म और दशातीत ब्रह्म हैं I ईशान ही जीवातीत, जगतातीत और ब्रह्माण्डातीत कहलाते हैं I
- आत्मस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप, … यह शब्द और वर्णन, ईशान को ही दर्शाते हैं जो साधक का आत्मस्वरूप ही होता है I
- सर्वदिशा दर्शी, सर्वदिशा व्याप्त, साक्षी, सर्वसाक्षी, सर्वदिशा साक्षी, सर्वदिशा साक्षी, सर्वदशा दर्शी, सर्वदशा व्यापक, सर्वदशा साक्षी, … ईशान ही सर्वदिशा दर्शी हैं, ईशान ही सर्वदिशा व्याप्त हैं, ईशान को ही साक्षी और सर्वसाक्षी ब्रह्म कहा गया है, ईशान ही एकमात्र साक्षी है, ईशान को ही सर्वसाक्षी कहा गया है I ईशान ही सर्वदशा दर्शी, सर्वदशा व्यापक, सर्वदशा साक्षी हैं
- ऊपर बताए गए शब्दों के अतिरिक्त भी और बहुत सारे शब्दों से इन्ही ईशान नामक ब्रह्म को बताया जाता है I
ईशान ब्रह्म, ईशान नामक ब्रह्म, सदाशिव का ईशान मुख, शिव का ईशान मुख, ईशान मुख, … ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का जल शब्द, नासदीय सूक्त का अप् शब्द, … ईशान ही कैवल्य हैं, ईशान ही कैवल्य मोक्ष हैं, ईशान ही कैवल्य मुक्ति हैं, ईशान ही निर्वाण हैं, ईशान ही मोक्ष हैं, ईशान ही मुक्ति हैं, …
ईशान को ही सदाशिव का ईशान मुख और शिव का ईशान मुख कहा गया है I
पञ्चब्रह्म में, ईशान मध्य के ब्रह्म हैं, और यह ईशान नामक ब्रह्म सदैव ही थे I
ईशान ब्रह्म निरंग स्फटिक के समान होते हैं, या यह कहूँ की स्वच्छ जल के सामान निरंग होते हैं I ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जो अप् शब्द का प्रयोग किया गया है, वो अप् (या जल) का शब्द भी इन्ही ईशान नामक ब्रह्म को दर्शाता है I
इस साक्षात्कार में ईशान एक सर्वव्यापक निरंग झिल्ली के सामान होते हैं, जो सबमें बसे हुए होते हैं और इसके साथ साथ, इन्ही ईशान में समस्त जीव जगत भी बसा हुआ होता है I
ईशान ऊपर की ओर, अर्थात आकाश की ओर देखते हैं I इसका अर्थ हुआ कि ईशान, गंतव्य की ओर देखते हैं, और जहाँ यह गंतव्य नामक शब्द भी कैवल्य, मोक्ष, मुक्ति, कैवल्य और निर्वाण आदि शब्दों को ही दर्शाता है I
और क्यूंकि गंतव्य को ही निर्गुण निराकार कहा जाता है, जो कैवल्य मोक्ष को ही दर्शाता है, इसलिए इसका यह अर्थ भी हुआ, कि ईशान ब्रह्म (या सदाशिव के ईशान मुख या शिव के ईशान मुख) कैवल्य मुक्ति को ही दर्शाता है I
ईशान का साक्षात्कार, ईशान साक्षात्कार, ईशान साक्षात्कार के समय साधक की दशा, ईशान साक्षात्कार में साधक के नेत्रों की स्थिति, … ईशान साक्षात्कार मार्ग पर शून्य अनंत का ज्ञान, ईशान साक्षात्कार में शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार, … ईशान साक्षात्कार मार्ग में महाशून्य का साक्षात्कार, … ईशान साक्षात्कार मार्ग के कुछ प्रमुख बिंदु, …
अध्याय के इस भाग का साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के फाल्गुन मास से लेकर चैत्र मास तक का है, और जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बस होने ही वाला था I
लेकिन ऊपर बताए गए समय के बाद भी, इस साक्षात्कार की विकराल ऊर्जाओं को धारण करने (अर्थात उन ऊर्जाओं का आदी होने) में कोई ग्यारह माह लग गए थे I
और यह साक्षात्कार उस सद्योमुक्ति नामक दशा से होकेर गया था, जिसको पाकर विरले साधक ही अपनी काया में रह पता है, अर्थात अपने देहावसान को रोक पाते हैं I
और जहाँ सद्योमुक्ति के पश्चात साधक का देहावसान न होना भी यहां बताए जा रहे परमेश्वर, अर्थात ईशान ब्रह्म के अनुग्रह कृत्य से ही संभव हो पाता है I
जिस साधक पर ईशान अपना अनुग्रह स्थापित नहीं करते, उस साधक का यहाँ बताए जा रहे साक्षात्कार के पश्चात, देहावसान होगा ही I
यही कारण है, कि जो साधक सद्योमुक्त हुआ होगा, उसका देहावसान कुछ ही सप्ताह में हो जाता है I
सद्योमुक्ति के पश्चात, साधक की स्थूल काया के भीतर एक विकराल और विप्लवकारी ऊर्जा स्वयं प्रकट होती है, जो उस साधक के प्राणों को पूर्ण विसर्गी कर देती है, और ऐसा होने के कारण वो सद्योमुक्त साधक अपनी काया में रह ही नहीं पाता है I
अब ध्यान देना …
जब साधक की चेतना ईशान का साक्षात्कार करती है, तब वो चेतना भी ईशान के सामान ही, गंतव्य की ओर देखने लगती है, अर्थात ऊपर की ओर देखने लगती है I
ऐसे साक्षात्कार में, एक स्वच्छ स्फटिक के वर्ण का मुखाकार साधक के कपाल के ऊपर के भाग से बाहर की ओर देखता हुआ पाया जाएगा I
और इस दशा में साधक की चेतना भी निरंग ही होगी I
और उस निरंग को घेरे हुए एक धूम्र वर्ण की रेखा भी होगी, जिसके कारण वो निरंग चेतना का शरीरी (या मुखाकार) स्वरूप देखा जा सकता है I
ऐसा होने का कारण है, कि …
जैसा देवता होता है, वैसी ही उस देवता के साक्षात्कार में साधक की दशा होती है I
या यह कहूँ, कि …
साधक की आंतरिक दशा और किसी देवत्व बिंदु में समानता ही उस देवत्व बिन्दु के साक्षात्कार का कारण होती है I
इसलिए, …
जबतक साधक की आंतरिक दशा वैसे नहीं होगी, जैसा वो देवत्व आदि बिंदु है, तबतक उस देवत्वादि बिन्दु का साक्षात्कार भी नहीं होगा I
इसका अर्थ हुआ, कि …
साधक की आंतरिक दशा उसी देवत्व बिंदु के समान होनी होगी, जिसका साकसथातकार करना है या करा जाना है I
और इसका यह भी अर्थ हुआ, कि …
साधक की आंतरिक दशा और किसी देवत्व बिंदु में तारतम्य की समाप्ति ही उस देवत्व बिन्दु के साक्षात्कार का आधार होता है I
और यही कारण है, कि योगमार्ग में …
तुम वही हो जिसका तुमनें साक्षात्कार किया है I
इसलिए, ईशान साक्षात्कार में …
साधक के नेत्र भी ईशान ब्रह्म के समान ऊपर की ओर, अर्थात कपाल के ऊपर की ओर ही मुड़ जाते हैं I
ऐसी दशा में साधक के नेत्र, सहस्रार चक्र (या सहस्रदल कमल जो मस्तिष्क के ऊपर के भाग में होता है), उसकी ओर स्वतः ही देखने लगते हैं I
जब ऐसा होता है, तब कुछ ही समय में साधक को सहस्रार से परे (या सहस्रदल कमल से ऊपर) जो शून्याकाश है, उसका भी साक्षात्कार हो जाता है I
और ऐसे साक्षात्कार में, वो साधक जान जाता है, कि ब्रह्मरंध्र कमल (या सहस्रदल कमल या सहस्रार चक्र) को सिद्धों ने शून्य चक्र क्यों कहा था I
वो शून्य जिसका साक्षात्कार होता है, वो सर्वशून्य ही है, जिसको शून्य अनंत भी कहा जाता है, और जो श्रीमन नारायण का द्योतक भी है I इसीलिए, वैष्णवों ने श्रीमन नारायण को शून्य ब्रह्म और अनंत भी कहा है I
उस शून्य ब्रह्म (या शून्य अनंत) में …,
शून्य ही अनंत होता है, और अनंत ही शून्य I
शून्य, अनंत सरीका होता है… और अनंत, शून्य सरीका I
उस शून्य ब्रह्म (या शून्य अनंत) में, …
शून्य और अनंत आपस में पूरे घुले मिले होते हैं I
इसलिए समझ ही नहीं आता, कि कौन सा शून्य है और कौन सा अनंत I
यह शून्य ब्रह्म (या शून्य अनंत), ईशान साक्षात्कार मार्ग का एक प्रमुख बिंदु है I
इसी शून्य अनंत को सिद्धों ने महाशून्य भी कहा है I
आगे बढ़ता हूँ …
ईशान ब्रह्म, जो निरंग स्फटिक के समान होते हैं, वो निराकार ही होते हैं, इसलिए ईशान ब्रह्म को ही निर्गुण निराकार ब्रह्म कहा जाता है I
जब निर्गुण (या निरंग) शब्द के साथ निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है, तब वो निराकार ही अनंत होता है I
लेकिन जब सगुण शब्द के साथ निराकार शब्द का प्रयोग होता है, तब वो निराकार अनंत ही होगा, इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलेगा I
यही कारण है, कि …
- सगुण निराकार को अनंत माना ही नहीं जा सकता I
- निर्गुण निराकार को अनंत के सिवा और कुछ माना ही नहीं जा सकता I
- इसलिए, निर्गुण निराकार का शब्द, निरंग अनंत को ही दर्शाता है I
जो निरंग नहीं होता, वो अनंत भी नहीं हो सकता I
अर्थात जो निर्गुण नहीं होता वो अनंत भी नहीं हो सकता I
ईशान जो निरंग स्फटिक के समान हैं और जो सर्वव्यापक जल सरीके ही साक्षात्कार होते हैं, वही निर्गुण और निर्गुण निराकार कहलाए हैं I
जब कोई निरंकारी अवस्था निर्गुण भी होती है, तब वो निराकार ही अनंत होता है I और उसी निर्गुण अनंत को ही वेद मनिषियों ने, निर्गुण निराकार ब्रह्म कहा था I
जब निर्गुण से निराकार का योग होता है, तब वो निराकार ही अनंत होता है I
इसलिए, निर्गुण निराकार ब्रह्म ही अनंत हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
और जो अनंत होता है, वही सर्वव्याप्त भी होता है, इसलिए वेद मनीषियों ने निर्गुण निराकार ब्रह्म को सर्वव्यापक भी कहा है I
जो निर्गुण निराकार (अर्थात अनंत) होता है, वही सर्वातीत भी होता है I
और निर्गुण निराकार को ही तुरीयातीत, गुणातीत, कालातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत, सर्वव्यापक, मार्गातीत या दिशातीत, और लोकातीत या दशातीत भी कहा जाता है I
ईशान ब्रह्म कैसे होते हैं, ईशान ब्रह्म कौन, … ईशान ब्रह्म की पीठ, ईशान ब्रह्म की पीठ महाब्रह्माण्ड कहलाती है, ईशान की पीठ महाब्रह्माण्ड है, ईशान की पीठ ब्रह्माण्ड है, ईशान की पीठ ही भारत कहलाती है, ईशान का वेद, ईशान और सर्ववेद, ईशान और उपनिषद् का सार, ईशान और वेदों का गंतव्य, ईशान और वैदिक महावाक्य, ईशान महावाक्यों का गंतव्य हैं, ईशान ही अमूल हैं, ईशान ही निरालम्ब हैं, ईशान ही निर्विकल्प हैं, ईशान ही निराधार हैं, ईशान वेदों का गंतव्य हैं, ईशान ही सर्ववेद हैं, ईशान ही उपनिषद का सार हैं, ईशान ही वेदांत में दर्शाए गए हैं, ईशान वैदिक महावाक्यों का गंतव्य हैं, ईशान वैदिक महावाक्यों का सार हैं, महावाक्य की परिभाषा, महावाक्य क्या है, महावाक्य किसे कहते हैं, …
ईशान निरंग स्फटिक के समान होते हैं, या यह कहूँ की स्वच्छ जल के सामान निरंग होते हैं, इसलिए ईशान ब्रह्म को ही निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है I
ईशान ऊपर की ओर, अर्थात आकाश की ओर देखते हैं I इसका अर्थ हुआ कि ईशान, गंतव्य (या कैवल्य मोक्ष) की ओर देखते हैं I यही कारण है कि ईशान कैवल्य मोक्ष के द्योतक ही हैं I
इसलिए, ईशान ब्रह्म ही सर्ववेद है I ईशान ही उपनिषदों में बताए गए निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं I उपनिषदों का सार ईशान हैं और उन्ही उपनिषदों के गंतव्य भी ईशान ही हैं I
वेदांत (अर्थात ब्रह्मसूत्र) और उपनिषद् के गंतव्य में, जो वैदिक महावाक्य हैं, वो ईशान को ही सूक्ष्म सांकेतिक रूप में दर्शाते हैं I
समस्त वैदिक महावाक्यों में, जो आत्मा और ब्रह्म कहे गए हैं, वो ईशान ही हैं I
और ऐसा होने के कारण ही, ईशान का कोई वेद नहीं बताया गया है, क्यूंकि ईशान सभी वेदों के गंतव्य दशा को सामान रूप से और पूर्णरूपेण दर्शाते है I ईशान सर्ववेदात्मक हैं I
इन्ही ईशान को वेद मनीषियों ने निराकार ब्रह्म, निर्विकल्प ब्रह्म, निरालम्ब ब्रह्म, निरंजन ब्रह्म आदि वाक्यों से पुकारा था I
आगे बढ़ता हूँ …
नाथ सिद्धों का निरालंबस्थान नामक शब्द जिनको दर्शाता है और जो अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे सूक्त के इकत्तीसवें मन्त्र में भी सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है, वो शून्य ब्रह्म ही हैं I
शून्य ब्रह्म भी इन्ही ईशान नामक ब्रह्म की ब्रह्माण्डातीत अभिव्यक्ति हैं I
इसी शून्य ब्रह्म में ही ब्रह्म की समस्त रचना का स्वयं उदय हुआ था, और यही शून्य ब्रह्म को महाशून्य और इक्कीसवाँ शून्य भी कहा जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
समस्त पिण्ड रुपी जीव महाब्रह्माण्ड में बसे हुए हैं, और वो महा ब्रह्माण्ड भी सभी जीवों (पिंडों) में ही बसा होता है I
महा ब्रह्माण्ड के समस्त ब्रह्माण्ड भी ईशान ब्रह्म (अर्थात सदाशिव के ईशान मुख) की पीठ स्वरूप ही हैं I
और क्यूँकि वैदिक वांड्मय में महाब्रह्माण्ड को ही भारत कहा जाता है, इसलिए इन ईशान नामक ब्रह्म का धाम वैदिक भारत ही है I और इस धाम के देवत्व बिंदु भी भारत ब्रह्म (अर्थात ब्रह्म भरत) ही हैं I
क्यूंकि वैदिक भारत को भारत नामक ब्रह्मा (या भरत नामक ब्रह्मा) कहा जाता है, और क्यूंकि भारत ब्रह्म (अर्थात ब्रह्म भरत) की दिव्यता भारती सरस्वती हैं, इसलिए ईशान ब्रह्म की पीठ जो वैदिक भारत (या महाब्रह्माण्ड) का प्रत्येक ब्रह्माण्ड ही है, उसकी शक्ति भी भारती विद्या सरस्वती ही हैं, और उस वैदिक भारत के देवता, ब्रह्मा भरत (अर्थात भारत ब्रह्म) I
आगे बढ़ता हूँ…
क्यूंकि ब्रह्म की रचना में वो वैदिक भारत (या ब्रह्माण्ड) ही समस्त पिण्डों में, उसके अपने सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में बसाया गया था, इसलिए आत्ममार्ग के दृष्टिकोण से, ईशान की पीठ को ही पिंड कहा जाता है I और जहाँ वो पिंड भी साधक का शरीर ही होता है, जो ईशान ब्रह्म की सगुण साकारी पीठ कहलाता है I
और क्यूँकि ब्रह्म की रचना जो महाब्रह्माण्ड है, वही वैदिक भारत है, इसलिए ब्रह्म की ओर लेके जाने वाले सर्वव्यापक उत्कर्ष मार्ग के दृष्टिकोण से, महाब्रह्माण्ड (अर्थात वैदिक भारत) ही ईशान की निराकारी पीठ है I
ईशान ब्रह्म के अनंत स्वरूप के भीतर ही, ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सनातन एकता का प्रकाश होता है I
और जहाँ ईशान, जो निर्गुण ब्रह्म ही हैं, वो उस एकता को प्रकाशित करते हुए भी, स्वयं को छुपा कर रखते हैं I
पिण्ड और ब्रह्माण्ड की उस सनातन एकता को योगीजनों ने ऐसा कहा है, …
यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे, यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे I
यह वाक्य भी …
ईशान के भीतर बसे हुए पिण्डों और ब्रह्माण्डों के एकवाद को दर्शाता है I
और जहाँ…
पिण्डों और ब्रह्माण्डों के भीतर भी वही ईशान एकमात्र प्रकाशित हो रहा है I
और इसके अतिरिक्त…
पिण्डों और ब्रह्माण्डों के स्वरूप में भी वही ईशान एकमात्र प्रकाशित हो रहे हैं I
इसीलिए…
ईशान ब्रह्म ही स्व:प्रकाश और स्वयं प्रकाश कहलाते हैं I
और जहाँ स्व:प्रकाश और स्वयं प्रकाश के शब्दों का जो अर्थ है, वो ऐसा ही है…
वो जो सबको प्रकाशित करता हुआ भी, स्वयं गुप्त रूप में रहता है I
जिसकी अभिव्यक्ति समस्त जीव जगत है, लेकिन वो तब भी गुप्त ही रह गया I
जिसके प्रकाश से ही सबकुछ प्रकाशित होता है, लेकिन वो स्वयं गुप्त ही है I
जो अपनी अभिव्यक्ति स्वरूप में जीव जगत होता हुआ भी, गुप्त रूप में रहता है I
जो अभिव्यक्ति होकेर भी, अपनी अभिव्यक्ति द्वारा पूर्ण दर्शाया नहीं जा सकता है I
लेकिन यहाँ कहा गया गुप्त शब्द, उस दशा को भी बताता है, कि…
ईशान के साक्षात्कारी योगीजन, अति विरले ही हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि ईशान के साक्षात्कारी योगीजनों की संख्या बहुत न्यून ही होगी, और ऐसा ही ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में भी पाया जाएगा I
और ऊपर बताए गए बिंदुओं का तो यह भी अर्थ हुआ कि…
ईशान ज्ञाता योगीजनों द्वारा, ईशान को कभी भी पूर्णरूपेण दर्शाया नहीं गया है I
अब बताए गए बिंदुओं पर भी ध्यान देना…
और क्यूंकि ईशान ही पिण्ड (साधक) का आत्मस्वरूप कहलाते हैं, और वो आत्मस्वरूप भी ब्रह्म ही होता है, इसलिए…
ईशान ही वो आत्मा है, जो ब्रह्म कहलाता है I
ऐसा होने के कारण…
समस्त वैदिक महावाक्य ईशान ब्रह्म को ही दर्शाते हैं I
इसलिए…
जो वैदिक वाक्य ईशान को नहीं दर्शाता, वो महावाक्य भी नहीं केहलाता I
अब महावाक्य को परिभाषित करता हूँ…
वो जो आयाम चतुष्टय से अतीत को दर्शाता है, वही महावाक्य है I
वो जो कालचक्र, आकाशचक्र, दिशाचक्र और दशचक्र से अतीत का द्योतक है I
इसका अर्थ हुआ, कि जो वैदिक वाक्य…
कालचक्र से अतीत, अखंड सनातन को दर्शाता है, वह महावाक्य है I
आकाशचक्र से अतीत, अनंत को दर्शाता है, वह महावाक्य है I
दशचक्र से अतीत, सर्वव्यापक को दर्शाता है, वह महावाक्य है I
दिशाचक्र से अतीत, सर्वदिशा व्यापक को दर्शाता है, वह महावाक्य है I
लेकिन इसका अर्थ यह हुआ, कि वो वैदिक वाक्य जो…
त्रिकाल से अतीत सनातन ब्रह्म का द्योतक है, वही महावाक्य है I
आकाश के विस्तार से अतीत, अनंत ब्रह्म का द्योतक है, वही महावाक्य है I
दशाओं से अतीत, सर्वव्यापक ब्रह्म का द्योतक है, वो महावाक्य है I
दिशाओं से अतीत, सर्वदिशा व्याप्त ब्रह्म का द्योतक है, वही महावाक्य है I
प्राण ऊर्जा के तारतम्य से अतीत, सर्बभौम ब्रह्म का द्योतक है, वही महावाक्य है I
तो यह थी आयाम चतुष्टय के दृष्टिकोण से महावाक्य की परिभाषा I
ईशान की कालातीत अवस्था, ईशान कालातीत हैं, ईशान कालात्मा हैं, ईशान युगातीत हैं, ईशान की युगातीत अवस्था, ईशान युगात्मा हैं, ईशान की गुणातीत अवस्था, ईशान गुणातीत हैं, ईशान गुणात्मा हैं, ईशान की भूतातीत अवस्था, ईशान भूतातीत हैं, ईशान भूतात्मा हैं, ईशान तन्मात्रातीत हैं, ईशान की तन्मात्रातीत अवस्था, ईशान तन्मात्रात्मा हैं, ईशान की आकाशातीत अवस्था, ईशान आकाशातीत हैं, ईशान आकाशात्मा हैं, ईशान दशात्मा हैं, ईशान की लोकातीत अवस्था, ईशान लोकात्मा हैं, ईशान की दिशातीत अवस्था, ईशान दिशातीत हैं, ईशान की मार्गातीत अवस्था, ईशान ही मार्गआत्मा हैं, ईशान की देवातीत अवस्था, ईशान ही देवात्मा हैं, ईशान की जीवातीत अवस्था, ईशान ही सर्वाघनात्मक हैं, ईशान की जगतातीत अवस्था, ईशान ही जागतात्मा हैं, ईशान की ब्रह्माण्डातीत अवस्था, ईशान ही ब्रह्माण्डात्मा हैं, ईशान ही सर्वानंद हैं, ईशान ही आनंद हैं, ईशान ही सच्चिदानंद हैं, ईशान ही ज्ञानात्मा हैं, ईशान ही सर्वात्मा हैं, ईशान ही चिदात्मा हैं, ईशान ही अहमात्मा हैं, ईशान ही शुन्यात्मा हैं, ईशान ही आत्मा हैं, ईशान ही ब्रह्म हैं, ईशान ही अनादि अनंत हैं, ईशान ही सनातन हैं, ईशान के कारण ही सबकुछ सनातन है, ईशान सर्वात्मा हैं, ईशान ही कालात्मा हैं, ईशान ही गुणात्मा हैं, ईशान ही युगात्मा हैं, ईशान ही जागतात्मा हैं, ईशान ही भूतात्मा हैं, ईशान ही तन्मात्रात्मा हैं, ईशान ही देवात्मा हैं, …
पूर्व में बताया गया था, कि ईशान ही वो आत्मा हैं, जिसको ब्रह्म कहा जाता है I
- ईशान का कालातीत स्वरूप, ईशान ही सनातन हैं, ईशान का कालात्मा स्वरूप, ईशा ही काल आत्मा है, … ईशान काल के चक्र स्वरूप में बसे हुए हैं और समस्त कालचक्र भी ईशान में ही बसा हुआ है I
काल के दृष्टिकोण से, ईशान कालातीत है और कालात्मा ही हैं I
महाकाल आदि शब्दों में भी ईशान ब्रह्म ही अपने शिव के ईशान मुख स्वरूप में प्रकाशित ही रहे हैं I
- ईशान का सनातन स्वरूप, ईशान का अनादि अनंत स्वरूप, ईशान ही अनंतात्मा हैं, …
ईशान के कालातीत स्वरूप को ही सनातन कहा गया है, जो काल का गंतव्य होता है I इसलिए ईशान ही सनातन शब्द के धारक है, और यह सनातन शब्द भी ईशान को ही दर्शाता है I
क्यूंकि ईशान सर्वव्यापक सत्ता ही हैं, इसलिए ईशान में ही सबकुछ बसा हुआ है, और वो ईशान भी सबमें बसे हुए सबका वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप हैं I
ऐसा होने के कारण, ईशान ही सबको उनके अपने सनातन स्वरूप में स्थापित करके, अपने जैसा सनातन ही बना देते हैं I यही कारण है, कि ब्रह्म रचना में जो कुछ भी है, जिस भी कालखंड में है, और जिधर भी है, वो सब सनातन ही है I
और उस सनातन के मूल और अमूल गंतव्य, दोनों में ही यह ईशान ब्रह्म पाए जाएंगे I
ईशान काल के आत्मा ही हैं, इसलिए ईशान का साक्षात्कारी साधक कालात्मा भी कहलाता है I
और ऊपर बताए गए बिंदुओं के कारण, ईशान को ही अनंतात्मा कहा भी जाता है I
- ईशान का युगातीत स्वरूप, ईशान का युगात्मा स्वरूप, ईशान ही युगात्मा हैं, …
ईशान ब्रह्म, समस्त युग चक्र में बसे होने साथ साथ, समस्त युग चक्र भी इन्ही ईशान नामक ब्रह्म में ही बसा हुआ है I
इसलिए ईशान का कोई एक युग भी नहीं होता है, क्यूंकि ईशान समस्त युगों में सामानरूप में और पूर्णरूप में बसे हुए हैं I
और इसके साथ-साथ, समस्त युग भी ईशान में पूर्णरूप और समानरूप से बसे हैं I
इसलिए, ईशान समस्त योगों के (अर्थात अनादि कालों से चले आ रहे युगचक्र के) एक मात्र युगात्मा ही हैं I
ईशान समस्त युगों और उनके युगचक्र के आत्मा ही हैं, इसलिए ईशान का साक्षात्कारी साधक युगात्मा भी कहलाता है I
- ईशान का सर्वात्मा स्वरूप, ईशान ही सर्वात्मा है, ईशान ही सर्वव्यापक आत्मा हैं, …
क्यूंकि ईशान जो निर्गुण ब्रह्म ही हैं, उनकी अभिव्यक्ति ही जीव और जगत कहलाती है, इसलिए जीव जगत के मूल और अमूल गंतव्य, दोनों में ही ईशान पाए जाएंगे I
और ऐसी दशा में वो ईशान समस्त जीव जगत के आत्मा ही होंगे, जिनको सर्वात्मा कहा जाता है I
और सर्वात्मा होने के कारण, ईशान ही सर्वव्यापक आत्मा हैं, जिनको परमात्मा शब्द से भी पुकारा जाता है I
- ईशान का जीवातीत स्वरूप, ईशान जा जगतातीत स्वरूप, ईशान का ब्रह्माण्डातीत स्वरूप, ईशान ही जागतात्मा हैं, ईशान ही ब्रह्माण्डात्मा हैं, …
ईशान जीव और जगत परे हैं, अर्थात समस्त ब्रह्माण्डों से परे हैं, और इसके साथ साथ यह सब भी ईशान की अभिव्यक्ति ही हैं, और ईशान इन सबका आत्मा हैं I
इसी कारण ईशान जीवातीत, जगतातीत हैं, जिसके कारण ईशान को ब्रह्माण्डातीत भी कहा जा सकता है I
- ईशान का गुणातीत स्वरूप, ईशान का गुणात्मा स्वरूप, …
जब न जीव था और न ही जगत ही था और जब त्रिगुणों में से कोई गुण भी उदय नहीं हुआ था, तब भी ईशान अपने निर्गुण निराकार स्वरूप में थे I
इसलिए ईशान गुणों से अतीत हैं और ऐसी दशा में वो गुणातीत ही कहलाते हैं I
ईशान गुणों के आत्मा ही हैं, इसलिए ईशान का साक्षात्कारी साधक गुणात्मा भी कहलाता है I
- ईशान का निराधार स्वरूप, ईशान का सर्वाधार स्वरूप, ईशान जीवों के आत्मस्वरूप हैं, ईशान ही सर्वघनात्मक ब्रह्म हैं, ईशान का सर्वघनात्मक ब्रह्म स्वरूप,…
समस्त जीव जगत और प्रकृति का आधार गुण हैं I
लेकिन क्यूंकि ईशान गुणों के प्रादुर्भाव से पूर्व में भी थे, इसलिए अपनी ऐसी दशा में ईशान ही वो ब्रह्म हैं, जिनको निराधार कहा जाता है I
लेकिन क्यूंकि ब्रह्म की रचना में, वो पूर्व के निराधार ब्रह्म ही सर्वाधार हुए थे, इसलिए ईशान निराधार होते हुए भी, सर्वाधार ही हैं I
ऐसा होने के कारण, जागतात्मा और ब्रह्माण्डात्मा के शब्द भी ईशान ब्रह्म को ही दर्शाते हैं I
और इसके अतिरिक्त, समस्त जीवों के आत्मस्वरूप को ही ईशान ब्रह्म कहते हैं I
और क्यूंकि ईशान समस्त जीव जगत से पूर्व में होते हुए भी, समस्त जीव जगत ईशान की ही अभिव्यक्ति है, इसलिए समस्त जीव जगत के दृष्टिकोण से, वही ईशान सर्वाधार भी हैं I
और ऐसे निराधार और सर्वाधार, दोनों होने से ईशान ही समस्त जीवों के वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप हैं I
और अपनी ऐसी दशा में ईशान सर्वाघनात्मक ब्रह्म ही हैं I
- ईशान का निरालंब स्वरूप, ईशान का सर्वालम्ब स्वरूप, ईशान का निर्विकल्प स्वरूप, …
क्यूंकि ईशान से ही यह जीव जगत अभिव्यक्त हुआ था, इसलिए ईशान ही सर्वालम्ब हैं I और ऐसा होने पर भी, क्यूंकि ईशान अपने वास्तविक स्वरूप में निर्गुन ही हैं, इसलिए ईशान जीव जगत से परे, निरालम्ब ही हैं I
जो सर्वालम्ब और निरालम्बदोनों ही होता है, उसमें ही समस्त जीव जगत पूर्णरूपेण बसा हुआ होता है, और इसके साथ साथ, वही समस्त जीव जगत में समानरूपेण बसा हुआ होता है I जो ऐसा होता है, वो भी उन निर्विकल्प ब्रह्म को ही दर्शाता है I
- ईशान का गुणातीत स्वरूप, ईशान गुणात्मक हैं, ईशान गुणात्मा हैं, ईशान का भूतातीत स्वरूप, ईशान भूतात्मक हैं, ईशान भूतात्मा हैं, ईशान तन्मात्रात्मक हैं, ईशान का तन्मात्रातीत स्वरूप, ईशान तन्मात्रात्मा है, … ईशान कोषातीत हैं, ईशान भूतातीत हैं, ईशान गुणातीत हैं, ईशान तन्मात्रातीत हैं, ईशान तन्मात्रातीत हैं, …
ईशान प्रकृति के चौबीस तत्त्वों सहित, त्रिगुणों से भी परे हैं I इसलिए ईशान गुणातीत ही हैं I
क्यूंकि प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में महाभूत पंचक और तन्मात्र पंचक भी होते हैं, इसलिए ईशान भूतातीत और तन्मात्रातीत भी हैं I
ईशान ही महाभूतों और तन्मात्रों के आत्मा हैं, इसलिए ईशान को भूतात्मा और तन्मात्रात्मा भी कहा गया है I
क्यूंकि आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में, अपने कोष से अतीत ही होती है, इसलिए ईशान कोषातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत और गुणातीत ही हैं I
- ईशान का सर्वव्यापक स्वरूप, ईशान का सर्वातीत स्वरूप, ईशान का सर्वात्मक स्वरूप, ईशान सर्वात्मक हैं, ईशान का दशातीत स्वरूप, ईशान दिशात्मक हैं, ईशान दशात्मा हैं, ईशान का लोकातीत स्वरूप, ईशान लोकात्मा हैं, ईशान लोकात्मक हैं, ईशान का दिशातीत स्वरूप, ईशान दिशात्मक हैं, ईशान दिशात्मा हैं, ईशान का मार्गातीत स्वरूप, ईशान मार्गातीत हैं, ईशान मार्गात्मा हैं, …
अपनी अंत गति में सभी मार्ग ईशान को ही जाते हैं, इसलिए सभी मार्ग ईशान में ही बसे हुए हैं, और ईशान भी सभी उत्कर्ष मार्गों में बसे हुए हैं I
जिसमें सब बसे होते हैं, और जो सबमे बसा होता है, वो सर्वातीत भी होता है और सर्वव्यापक भी होता है I
ईशान दिशाओं (अर्थात मार्गादि अवस्थाओं) और दशाओं (अर्थात लोकादि अवस्थाओं) से अतीत ही हैं, इसलिए ईशान दिशातीत (मार्गातीत) हैं, और दशातीत (या लोकातीत) भी हैं I
जो दिशाओं (या उत्कर्ष मार्गों) में बसा होने पर भी दिशातीत होता है, वही दिशाओं (या उत्कर्ष मार्गों) का आत्मा होता है, इसलिए ईशान दिशात्मा भी हैं I
जो समस्त दशाओं (या लोकों) में बसा होने पर भी, समस्त दिशाओं से अतीत होता है, वही समस्त दशाओं का आत्मा होता है, इसलिए ईशान ही दशात्मा (या लोक आत्मा) हैं I
- ईशान का देवात्मा स्वरूप, ईशान देव आत्मा हैं, ईशान देवात्मा हैं, …
समस्त देवत्व बिंदु ईशान में ही बसे हुए हैं, और ईशान भी समस्त देवत्व बिंदुओं में सामान रूप में बसे हुए हैं, इसलिए ईशान देवत्व शब्द के आत्मा हैं I
जो आत्मा होता है, वो अतीत ही होता है, इसलिए ईशान देवातीत हैं I
- ईशान ही सर्वानंद हैं, ईशान ही आनंद हैं, ईशान ही सच्चिदानंद हैं, ईशान ही आत्मानंद हैं, ईशान ही ब्रह्मानंद हैं, …
जीव जगत के किसी भी स्वरूप में बसने का कोई भी आनंद नहीं है I
जो सबसे अतीत होता है, वही आनंद में होता है, और ऐसी दशा का आनंद भी सर्वानंद ही कहलाता है I
आनंद, सर्वानंद, आत्मानंद, ब्रह्मानंद, सच्चिदानंद आदि शब्द ईशान को ही दर्शाते हैं I
- ईशान बुद्धितीत हैं, ईशान ज्ञानात्मा हैं, ईशान ज्ञानकाश हैं, ईशान चित्तातीत हैं, ईशान चिदात्मा हैं, ईशान चिदाकाश हैं, ईशान अहमातीत हैं, ईशान अहमात्मा हैं, ईशान अहमाकाश हैं, ईशान मनातीत हैं, ईशान मनात्मा हैं, ईशान मनाकाश हैं, ईशान ही शुन्यात्मा हैं, ईशान शून्याकाश से भी अतीत हैं, …
मन के गंतव्य में ईशान वो मनातीत ब्रह्म है, जो निरंग और अनंत मनाकाश के सामान होते हैं, और जिनको मनात्मा भी कहा जा सकता है I
बुद्धि के गंतव्य में ईशान वो बुद्धितीत ब्रह्म हैं, जो निरंग और अनंत ज्ञानाकाश के सामान होते हैं, और जिनको ज्ञानात्मा भी कहा जा सकता है, और जो सर्वाघन ज्ञान स्वरूप ही हैं I
चित्त के दृष्टिकोण से ईशान वो चित्तातीत ब्रह्म हैं, जो निरंग चिदाकाश के सामान होते हैं, और जिनको चिदात्मा भी कहा जा सकता है I
अहम् के दृष्टिकोण से ईशान वो अहमातीत ब्रह्म हैं, जो निरंग और अनंत अहमाकाश के सामान होते हैं और जिनको अहमात्मा भी कहा जा सकता है I
शून्य के दृष्टिकोण से ईशान शून्यातीत हैं, अर्थात शून्याकाश से भी अतीत हैं, और उस शून्य का आत्मा भी हैं, अर्थात शुन्यात्मा ही हैं I
- ईशान ही आत्मा हैं, ईशान ही परमात्मा हैं, ईशान ही ब्रह्म हैं, ईशान ही परम ब्रह्म हैं, …
ईशान ही वो आत्मा हैं, जो ब्रह्म कहलाता है I
सबका जो आत्मा होता है, उसी को परमात्मा और परम ब्रह्म कहा जाता है…, और जो ईशान ही हैं I
ब्रह्म को ब्रह्म ही जानता है, ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही है, ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही है, ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है, जो ब्रह्म नहीं वो ब्रह्म का ज्ञाता भी नहीं, ब्रह्म हुए बिना ब्रह्म जो जाना नहीं जा सकता, साधक की पात्रता ही साक्षात्कार का आधार होती है, तुम वो ही हो जिसका तुमने साक्षात्कार किया है, …
मुझे पता है, की इस भाग को आज के कई वेद और योग मनीषी मानेंगी नहीं I
लेकिन जो वास्तव में है, उसको बता ही देना चाहिए… मैं ऐसा ही सोचता हूँ I
सत्य को कोई माने या न मानें…, सत्य तो सत्य ही रहता है I
निर्गुण ही सर्वव्यापी है, इसलिए उस निर्गुण का साक्षात्कार किसी भी दशा से, किसी भी लोक से, किसी भी शरीरी रूप से, और शरीर के भीतर या बाहर के किसी भी स्थान से हो सकता है I
लेकिन ऐसे साक्षात्कारों में भी, साधक को उसके शरीर के भीतर ही उस निर्गुण का प्राथमिक साक्षात्कार होगा I
और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वही निर्गुण शरीर के बहार की सभी दशाओं में भी समान रूप में साक्षात्कार होगा… और होता ही चला जाएगा I
और ऐसा साधक भी अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म होकेर ही ब्रह्म को जानेगा, क्यूंकि ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
- वेदांत मार्ग से निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार, कैवल्य मुक्ति मार्ग, कैवल्य मार्ग, कैवल्य मोक्ष मार्ग, आत्मा मार्ग से निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार, … यदि शरीर के भीतर से उस निर्गुण का साक्षात्कार करोगे, तो वो निर्गुण तुम्हारे सर्वव्यापक आत्मस्वरूप में ही पाया जाएगा I
ऐसी दशा में तुम्हारा आत्मा ही निर्गुण ब्रह्म कहलाएगा I
यही वेदांत मार्ग है और इस मार्ग के साक्षात्कारों के गंतव्य में वैदिक महावाक्य होंगे ही I
- सिद्ध मार्ग से निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार, सिद्ध मार्ग का आत्मा, सिद्ध मार्ग का ब्रह्म, … और यदि शरीर के बहार से उस निर्गुण का साक्षात्कार करोगे, तो वो निर्गुण के सर्वव्यापक स्वरूप में ही तुम्हारा आत्मस्वरूप पाया जाएगा I
और ऐसी दशा में तुम्हारा आत्मा ही सगुण ब्रह्म स्वरूप में होगा I
यही सिद्ध मार्ग है और इस मार्ग में, तुम्हारा अपना सगुण आत्मस्वरूप समस्त जीव जगत स्वरूप में ही समानरूपेण और पूर्णरूपेण पाया जाएगा I
ऐसा होने के साथ साथ, तुम्हारा वो सगुण आत्मस्वरूप जीवातीत और जगतातीत भी पाया जाएगा I
यह बिंदु मैंने अपने इस जन्म सहित, कई और पूर्व जन्मों के साक्षात्कारों से बताए हैं I
किसी जन्म में मैं सिद्ध मार्गी था और किसी में मैं वेदांत मार्गी था I
- सिद्ध मार्ग से ही वेदांत मार्ग प्रशश्त होता है, और सिद्ध मार्ग के गंतव्य में वेदांत ही पाया जाएगा I इसलिए सिद्ध मार्ग का निराधार गंतव्य वेदांत ही होता है I
- वेदांत मार्ग के मूल में सिद्ध मार्ग ही पाया जाता है, इसलिए वेदांत का आधार सिद्ध मार्ग ही होता है I
- जबतक साधक सर्वसिद्धि को नहीं पाएगा, तबतक वो साधक वेदांत पथगामी होता हुआ भी, वेदांत के गंतव्य को नहीं पा पाएगा I यह एक अनादि अनंत और सनातन कटुसत्य ही है I
इसलिए …
मूल में सिद्ध मार्ग होता है, और गंतव्य में वेदांत मार्ग I
मूल में सगुण ब्रह्म होते हैं, और गंतव्य में निर्गुण ब्रह्म I
मूल में पिंड–ब्रह्माण्ड नामक ब्रह्म होता है, और गंतव्य में ब्रह्मंडातीत ब्रह्म I
मूल में जीव जगत होता है और गंतव्य में जीवातीत और जगतातीत ब्रह्म I
मूल में देवत्व, जीवत्व, जगतव, बुद्धत्व होते हैं, और गंतव्य में ब्रह्मत्व I
और इन सबके मार्ग पर एक साथ और एक ही समय पर गमन करने के लिए …
मूल में ब्रह्म भावापन नामक पात्रता है, और गंतव्य में आत्मा ही ब्रह्म का ज्ञान I
और इस समस्त मार्ग में …
मूल में साधक का आंतरिक श्रम होता है, और गंतव्य में गुरु अनुग्रह I
और जहाँ वो गुरु भी साधक के आत्मस्वरूप में, भगवान् ही होते हैं I
इस ग्रन्थ में, इसी आंतरिक मार्ग को, स्वयं ही स्वयं में, ऐसा कहा गया है I
इसलिए इस मार्ग की अंतगति में, …
साधक का आत्मस्वरूप ही गुरु रूप में प्रकट होता है I
इसका कारण है, कि उत्कर्ष मार्ग की उस अंतगति में, जो गंतव्य स्वरूप निर्गुण ब्रह्म को जाती है और जिनको ईशान भी कहा जाता है, उसमें साधक “स्वयं ही स्वयं में”, के वाक्य में पूर्णरूपेण बसकर ही जाता है I
इसलिए, … इस आंतरिक मार्ग के गंतव्य में, …
साधक ही स्वयं का गुरु और शिष्य, दोनों ही होता है I
और इसके साथ साथ इस मार्ग की अंतगति में, …
साधक अपना ही भक्त और इष्ट, दोनों ही होता है I
वो जहाँ वो …
पूर्व का जन्मा साधक, स्वयं ही स्वयं को अपने ही जनक रूप में पाता है I
और इस मार्ग की अंतगति में, ऐसा ही उस साधक का मार्ग भी होता है I
और उस मार्ग का जनक साधक, उसी मार्ग पर स्वयं ही स्वयं में जाता है I
इसलिए इस स्वयं ही स्वयं में के मार्ग की अंतगति में, वो साधक …
शरीरी रूप में अपना ही शिष्य होगा… और अपने आत्मस्वरूप में अपना ही गुरु I
शरीरी रूप में अपना ही भक्त होगा… और आत्मस्वरूप में अपना ही इष्ट I
शरीरी रूप में जन्मा होगा… और आत्मस्वरूप में अपना ही अज–रूपी जनक I
शरीरी में जीव होकेर जगत में बसा होगा, और आत्मस्वरूप में वो ब्रह्माण्डातीत I
और ऐसी दशा में, उसके अपने आत्मस्वरूप में वो साधक …
न तो पिण्ड रूप में होता है, और न ही ब्रह्माण्ड स्वरूप में I
वो पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों से अतीत होकेर, स्वयं ही स्वयं में रमण करता हुआ, स्वयं के आत्मस्वरूप में ही निर्गुण होकेर शेष रह जाता है I
और ऐसा साधक …
न तो कभी जीव या जगत स्वरूप में लौटता है…, और ना ही नहीं लौटता है I
वो साधक तो बस सनातन ब्रह्म के समान, उन सनातन ब्रह्म के तीनों प्रमुख स्वरूपों में बसा होता है… और नहीं भी बसा होता है I
यह तीन स्वरूप ऐसे होते हैं, …
सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार I
और ऐसा साधक उसके अपने ही सगुण निराकार स्वरूप में, उन समस्त लोकों को दर्शाता है, जिसमें उसके ही असंख्य सगुण साकार सिद्ध शरीर (या सिद्ध स्वरूप) बसे हुए होते हैं I और ऐसा होने पर भी अपने आत्मस्वरूपा में वो निर्गुण ही होता है I
इसलिए ऐसी दशा में वो साधक यह भी जानता है, कि उसकी ऐसी दशा में …
वो साकार भी है, और निराकार भी है… वो सगुण भी है, और निर्गुण भी है I
लेकिन ऐसी अवस्था को ही तो पूर्ण शब्द से सम्बोधित किया गया था, और जहाँ वो पूर्ण का शब्द भी तो उन्ही अद्वैत ब्रह्म को ही दर्शाता था I
और जहाँ वो ब्रह्म, जो वेद मनीषियों द्वारा पूर्ण कहलाए गए हैं, वो …
समस्त जीव जगत होते हुए भी, जीवातीत और जगतातीत ही हैं I
समस्त पिण्ड और ब्रह्माण्ड होते हुए भी, पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत ही हैं I
और इसके साथ वो साधक उन्ही निर्गुण ब्रह्म की तीन और अभिव्यक्तियों में भी समान रूप में बसा रहता है… और नहीं भी रहता है I
यह तीन प्रमुख अभिव्यक्तियां ऐसी हैं …
शून्य, शून्य ब्रह्म और सर्वसमता I
और ऐसी दशा में वो साधक अपने ही …
शून्य स्वरूप में, सार्वभौम ब्रह्मशक्ति होता है I
शून्य ब्रह्म स्वरूप में, सर्वव्याप्त सर्वात्मा हरिहरब्रह्मा होता है I
हरिहरब्रह्मा स्वरूप में, वो साधक त्रिदेव भी होता है, और उन त्रिदेवों की दिव्यता और शक्ति, त्रिदेवी भी होगा ही I
जैसे सूर्य के प्रकाश को सूर्य से पृथक नहीं किया जा सकता, वैसे ही त्रिदेवी को त्रिदेव से पृथक नहीं किया जा सकता I
जैसे ब्रह्म को ब्रह्मशक्ति, अर्थात प्रकृति से पृथक नहीं किया जा सकता, वैसे ही देव को उसकी दिव्यता (शक्ति) से पृथक नहीं किया जा सकता I
और इसके साथ साथ, ऐसा साधक अपने …
सर्वसमता स्वरूप में, महाब्रह्म प्रजापति का ब्रह्मत्व ही होता है I
जो सर्वसम हैं, वहीं अपने सगुण-निर्गुण साकार स्वरूप में, चतुर्मुखा जीव पितामह और जगत पिता, महाब्रह्म प्रजापति हैं I
और वही प्रजापति अपने निराकारी लोक स्वरूप में, सगुण-निर्गुण निराकार हैं, और ऐसी दशा में वो ब्रह्मलोक कहलाते हैं I
और वही प्रजापति अपने निर्गुण स्वरूप में, सर्व अभिव्यक्ता और सर्व अभिव्यक्ति, दोनों ही समान रूप में होकेर, सर्वव्यापक और पूर्ण, ब्रह्म कहलाते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन ऊपर बताए हुए किसी भी साक्षात्कार के लिए, साधक को उस साक्षात्कार का पात्र भी होना ही होगा I
इसका अर्थ हुआ, कि …
साधक की पात्रता ही साक्षात्कार का आधार होती है I
और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से पात्रता भी तब सिद्ध होती है, जब …
साधक की आंतरिक दशा और साक्षात्कार बिंदु में तारतम्य समाप्त होता है I
जब ऐसा होता है, तभी वो साधक पात्र कहलाता है…, इससे पूर्व नहीं I
लेकिन इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि …
साक्षात्कार से पूर्व की दशा में ही, तुम तुम्हारी आंतरिक स्थिति में वो ही हो जाते हो, जिसके साक्षात्कार का तुम पात्र हुए हो I
इसलिए, पूर्व में जो कहा था, उसको अब बढ़ाता हूँ …
तुम वो ही हो जिसके साक्षात्कार का तुम पात्र हुए हो I
और इसके साथ साथ, …
तुम वो ही हो, जिसका तुमने साक्षात्कार किया है I
इसीलिए, सिद्धगण ऐसा भी कह गए, की …
ब्रह्म को ब्रह्म ही जानता है, … ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही है I
ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही है, … ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
जो ब्रह्म नहीं, वो ब्रह्म का ज्ञाता भी नहीं I
ब्रह्म हुए बिना ब्रह्म जो जाना नहीं जा सकता I
इसलिए, …
यदि ब्रह्म को जानना है तो अपनी आंतरिक अवस्था में ब्रह्म ही हो जाओ I
लेकिन वास्तव में तो यह सभी वाक्य, साधक की उसी आंतरिक दशा को बता रहे हैं, जिसकी बात यहाँ पर पात्र नामक शब्द को आधार बनाकर हो रही है I
और वो ब्रह्म साक्षात्कार की पात्रता की दशा भी तब सिद्धि होगी, जब साधक ब्रह्म भावापन हो जाएगा I
अब आगे बढ़ता हूँ और ईशान के साक्षात्कार स्थानों को बताता हूँ …
ईशान ब्रह्म का शरीर में मुख्य स्थान, शरीर में ईशान साक्षात्कार के स्थान, … निर्गुण चक्र, निर्गुण लिंग, … ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का अप् शब्द, ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का जल शब्द, …
ईशान ब्रह्म सर्वव्यापक सत्ता हैं, इसलिए ईशान साक्षात्कार तो सभी दशाओं में सामान रूप में किया जा सकता है I
साधक के शरीर के भीतर भी ईशान साक्षात्कार के कई स्थान होते हैं, लेकिन यहाँ पर कुछ मुख्य स्थानों को ही बताया जाएगा I
तो अब इन मुख्य स्थानों को बताता हूँ …
- अनाहत चक्र में ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार, हृदय कमल में ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार, हृदय कमल के निर्गुण ब्रह्म, …
हृदय चक्र में बसकर यदि उस चक्र को देखेगे, तो उस चक्र से लंबरूप (या लंबवत्त या परपेंडिकुलर) दिशा में एक निरंग लम्बे आकार का प्रकाश देखेगा I
यह प्रकाश एक लिंग के समान देखेगा I यह प्रकाश निरंग होता हुआ भी, लिंग के स्वरूप में ही हृदय कमल के पत्तों से लंबवत्त (अर्थात परपेंडिकुलर) दिशा में दिखाई देगा I
वैसे तो निरंग ही निर्गुण होता है, और निर्गुण ही अनंत, लेकिन इस अनाहत चक्र में, वो निर्गुण अनंत ही निर्गुण लिंग के स्वरूप में ही दिखाई देता है I
और वो लिंग भी एक निरंग झिल्ली के सामान ही होता है I
यही साधक की काया के भीतर बसा हुआ निर्गुण लिंग है, जिसका साक्षात्कार इस चतुर्दश भुवन के समस्त इतिहास में, अतिविरले योगी ही कर पाए हैं I
और क्यूंकि इस बिंदु को उन योगीजनों ने बताया ही नहीं, इसलिए इसका ज्ञान भी किसी ग्रन्थ में नहीं मिलेगा I
साधक की काया के भीतर, यही अनाहत चक्र (अर्थात हृदय कमल) निर्गुण ब्रह्म का साधक के शरीर में, मुख्य स्थान है I
और क्यूंकि ईशान ही निर्गुण ब्रह्म कहलाए हैं, इसलिए साधक के शरीर में, ईशान ब्रह्म का मुख्य स्थान भी अनाहत चक्र में ही है I
और इस अनाहत चक्र में ईशान ब्रह्म भी निर्गुण लिंग के स्वरूप में ही होते हैं I
इन्ही ईशान ब्रह्म को, जो वेदों में निर्गुण निराकार ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म भी कहलाए जाते हैं, और जो अतिसूक्ष्म, स्वच्छ सर्वव्यापक जल के सामान साक्षात्कार होते हैं, ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में, अप् (या जल) शब्द से सांकेतिक रूप में बताया गया है I
- सहस्रार चक्र में ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार, सहस्र दल कमल में ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार, ब्रह्मरंध्र कमल में ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार, सहस्रार के ईशान, …
जब साधक की चेतना, वो शून्य ब्रह्म जो अष्टम चक्र (या निरालंबस्थान या निरालम्ब चक्र) से परे होते हैं, उनमें (अर्थात अष्टम चक्र से परे के शून्य ब्रह्म में) बसकर उन सर्वव्यापक और सर्वभद्र निरंग झिल्ली के सामान ईशान ब्रह्म का साक्षात्कार करती है, तब ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, साधक के कपाल के ऊपर के भाग में एक मानव मुख दिखाई देने लगता है I
यह मानव मुख जो कपाल के ऊपर के भाग से, कपाल से बाहर की ओर देख रहा होता है, वो निरंग स्फटिक के समान होता है I
और उस मुख को एक रेखा ने घेरा होता है जो धूम्र वर्ण की होती है I ऐसा होने के कारण ही यह मुख रूप में दिखाई देता है I
इसलिए, निरंग होने के पश्चात भी वो मुखाकार स्वरूप में ही साक्षात्कार होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
2011 ईस्वी में जब यह मुख कपाल के ऊपर के भाग में, जहाँ शिवरंध्र होता है, वहां स्वयंप्रकट हुआ था, तब मैंने इसका छायाचित्र (अर्थात फोटो) भी लिया था I
लेकिन कुछ समय के पश्चात उस छायाचित्र को काट दिया था (अर्थात उसका विलोपन कर दिया था) I
ऐसा करने का कारण था, कि मुझे लगा इसको तो किसी भी शास्त्र में बताया तक नहीं गया है, तो हो सकता है कि यह कोई ऐसा गुप्तज्ञान ही हो, जिसका चित्र (और छायाचित्र) दिखाया ही नहीं जाना चाहिए I
- निरंग झिल्ली स्वरूप के ईशान, नासदीय सूक्त का अप् शब्द, नासदीय सूक्त का जल शब्द, …
पिण्ड और ब्रह्माण्ड की कोई ऐसी दशा है ही नहीं, जहाँ ईशान का साक्षात्कार नहीं हो सकता है I
पिण्ड और ब्रह्माण्ड से परे भी कुछ नहीं, जहाँ ईशान साक्षात्कार नहीं हो सकता है I
साधक के पिण्ड रुपी शरीर और समस्त ब्रह्माण्ड में यदि कोई सर्वव्यापक सत्ता है, तो वो ईशान ही हैं I
इसलिए ईशान साक्षात्कार समस्त पिण्डों के भीतर और पिण्डों से बहार, सभी दशाओं में हो सकता है I
ईशान की ऐसी दशा को ही ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जल शब्द से चाहे सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही…, लेकिन बताया गया है I
यह जल शब्द इसलिए कहा गया था, क्यूंकि निर्गुण तो निरंग ही होता है, और वो निरंग भी स्वच्छ जल के सामान ही होता है I
यही कारण था कि नासदीय सूक्त में सर्वव्यापी जल का संकेत भी आया है I
इसलिए, ईशान को किसी भी दशा से, किसी भी कालखंड में, किसी भी स्थिति से और किसी भी उत्कर्ष पथ (या उत्कर्ष बिन्दु) में बसकर, साक्षात्कार किया जा सकता है I पञ्चब्रह्म में, ईशान ही एकमात्र ब्रह्म हैं, जो ऐसे हैं I
निर्गुण ब्रह्म का अवर्णन, निर्गुण ब्रह्म अवर्णनीय हैं, ईशान ब्रह्म का अवर्णनीय स्वरूप, …
ईशान जो निर्गुण ब्रह्म हैं, उनका साक्षात्कार तो हो सकता है, लेकिन उनका अधिक शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता I
और इसके अतिरिक्त, निर्गुण का तो कोई चित्र भी नहीं हो सकता है I
उस निर्गुण अनंत को, जिनके भीतर यह समस्त जीव जगत पूर्णरूपेण बसा हुआ है और जो इस जीव जगत के भीतर भी समानरूप में, इस जीव जगत का आत्मा होकेर बसे हुए हैं, उनको कैसे बताओगे अधिक शब्दों में I
क्यूंकि जीव जगत निर्गुण ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, और क्यूँकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता का पूर्णरूपेण वर्णन करने में सक्षम ही नहीं होती, इसलिए भी ईशान ब्रह्म जो निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हैं, उनका वर्णन अधिक शब्दों में किया ही नहीं जा सकता है I
यही कारण है, कि पुरातन कालों में ऐसा कहा जाता था, …
जो ब्रह्म को जानता है और मानता है कि पूर्णरूपेण जानता है…, वास्तव में वो नहीं जानता है I
जो ब्रह्म का ज्ञाता है और मानता है कि वो पूर्णरूपेण नहीं जानता है…, वास्तव में वो ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
यह कारण भी है, कि …
ब्रह्म को जाना तो जा सकता है, लेकिन पूर्णरूपेण वर्णन नहीं किया जा सकता है I
इसीलिए, …
ब्रह्म साक्षात्कार के पश्चात भी, वो ब्रह्म उसके पूर्ण स्वरूप में अवर्णनीय ही हैं I
ब्रह्माण्ड के उदय से पूर्व की दशा, …
जब जीव जगत के रूप में कुछ नहीं था, तब केवल वो निर्गुण ही था, जो एकमात्र था और जो स्वयं प्रकाश होता हुआ भी, किसी को भी प्रकाशित नहीं कर रहा था क्यूंकि उस समय उसके सिवा कोई और, या कुछ और था ही नहीं I
उस समय न मन था, न बुद्धि, न चित्त और न अहम् ही था, क्यूंकि यह सब उसी निर्गुण में विलीन पड़े हुए थे I इसलिए इन सबका अस्तित्व उस निर्गुण से पृथक भी नहीं था I
इसीलिए योगीजन कह गए, की …
अंततः मन, बुद्धि, चित्त और अहम्, निर्गुण में ही विलीन होते हैं I
उस समय तो प्राण भी नहीं था क्यूंकि प्राण भी उसी निर्गुण में विलीन होके, निर्गुण ही था I
इसलिए योगीजन कह गए कि …
अंततः प्राण सहस्रार को पार करके, विसर्गी होके, निर्गुण में लय होते हैं I
उस समय न कोई पिंड था और न ही ब्रह्माण्ड ही था, क्यूंकि यह भी उन्हीं निर्गुण में विलीन होके, उन्ही निर्गुण के सामान ही थे I
इसीलिए योगीजन कह गए, कि …
जब न जीव और न जगत था, तब वो केवल ही एकमात्र था, जो निर्गुण ब्रह्म है I
जब जीव जगत उदय हुआ, तो वो जीव जगत भी उसी केवल की अभिव्यक्ति था I
उस जीव जगत के स्वयंप्रादुर्भाव के मूल में, वह केवल ही एकमात्र अभिव्यक्ता था I
जब जीव जगत नहीं रहेगा, तब वो केवल ही अभिव्यक्तातीत होकेर, एकमात्र रहेगा I
और ऊपर बताई गई दिशा के आने तक, जब जब महाप्रलय होगी, तब तब समस्त पिण्ड और ब्रह्माण्ड …
उन्ही निर्गुण ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप, शून्य ब्रह्म में विलीन हो जाएंगे I
और जहाँ यह शून्य ब्रह्म ही श्रीमन नारायण, भगवान् और श्री हरी कहलाए हैं I
और एक मुख्य बिंदु को बताकर, जो मेरे जीव इतिहास के समयखंड के कई सारे साक्षात्कारों के पश्चात, मेरा विशुद्ध मत भी है, अध्याय के इस भाग को पूर्ण करता हूँ …
आत्यंतिकप्रलय में भी साधक श्री हरि में बसकर, निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार करता है I
ऐसे साक्षात्कार के पश्चात ही साधक की चेतना, निर्गुण ब्रह्म में विलीन होती है I
क्यूंकि ऐसा ही समस्त प्रलय में भी होता है, इसलिए प्रलय भी मुक्तिमार्ग ही है I
जिन्हे यहाँ पर निर्गुण कहा गया है, वो यहां बताए जा रहे ईशान ब्रह्म ही हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
ईशान और निरंग शरीर, ईशान और निर्गुण शरीर, ईशान और निर्गुण आत्मस्वरूप, …
यहाँ पर कहा तो शरीर शब्द गया है, लेकिन उस शरीर का आकार नहीं होता क्यूंकि वो निराकार ही होता है I
और निराकार होने के साथ साथ, वो निर्गुण (अर्थात निरंग) ही होता है I
यह शरीर का साक्षात्कार साधक के स्थूल शरीर के भीतर, स्थूल शरीर की सीमा के अंतर्गत ही होता है I
इसका अर्थ हुआ, कि जब उन निर्गुण को शरीर के भीतर साक्षात्कार किया जाएगा, तो वो निर्गुण स्थूल शरीर की सीमा के अंतर्गत पाया जाएगा, और स्थूल शरीर के आकार में ही साक्षात्कार किया जाएगा I
इसी कारणवश यहाँ निर्गुण शरीर के शब्द का प्रयोग किया गया है I
और यह प्रयोग तब भी किया गया है, जब निर्गुण, … शरीरी तो बिलकुल नहीं होता I
और ऐसा होने के साथ साथ …
और यही निर्गुण शरीर, साधक की काया के बहार, अनंत सीमारहित दशा तक भी साक्षात्कार होता है I
इसका अर्थ हुआ, कि इस निर्गुण शरीर का …
प्राथमिक साक्षात्कार तो साधक की काया के भीतर, काया की सीमा में ही होगा I
लेकिन अंततः यह साक्षात्कार, सीमारहित अनंत सनातन ब्रह्म तक लेके जाएगा I
और जहाँ वो ब्रह्म भी …
साधक का निर्गुण आत्मस्वरूप ही होगा, जो पञ्चब्रह्म में ईशान नामक ब्रह्म है I
क्यूंकि यह शरीर निर्गुण (निरंग) होता है, इसलिए इसका चित्र नहीं बनाया गया है…, निरंग का चित्र कैसे बनाओगे? I
तो अब इसी बात पर यह अध्याय समाप्त होता है, और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम मुक्ति के प्रकार है I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaal Chakra