त्रिदेव, त्रिबुद्ध, हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा, रुद्र ही रुद्र में, रुद्र लिंगात्मक गुफा

त्रिदेव, त्रिबुद्ध, हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा, रुद्र ही रुद्र में, रुद्र लिंगात्मक गुफा

इस अध्याय में मैं हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा में बसे हुए त्रिदेव, तीन बुद्ध या त्रिबुद्ध के बारे में बतलाऊँगा। इस गुफा को रुद्र लिंगात्मक गुफा भी कहा जा सकता है, और इसको का मार्ग, रुद्रलिंगात्मक गुफा और अत्मलिंग गुफा भी कहा जा सकता है। और इस गुफा के साक्षात्कार के समय पर, ऐसा साधक “रुद्र ही रुद्र में”, इस वाक्य के मार्ग पर, स्वतः ही, स्वयं चलित हो जाता है। इस गुफा के मार्ग में, रुद्र ही साधक के अत्मलिंग स्वरुप में होता है, अर्थात, रुद्र ही अत्मलिंग है।

यहाँ कहे गए लिंग शब्द का अर्थ, द्योतक, सूचक, चिन्ह, प्रतीत, प्रकाशक, बतलाने वाला, इत्यादि होता है।

जब साधक “स्वयं ही स्वयं में”, के मार्ग पर आगे बढ़ता है, और वो साधक स्वयं को, अर्थात, अपनी आत्मा को ही रुद्र स्वरुप में पाता है, और ऐसी आत्मस्तिथि में ही वो साधक इस गुफा को जान पाता है।

और इस गुफा के साक्षात्कार के पश्चात, वो साधक “रुद्र ही रुद्र में”, इस वाक्य के मार्ग में स्वत: ही, स्वयं ही प्रवेश कर जाता है, क्यूंकि ऐसा करने के सिवा, उस साधक के पास और कोई विकल्प ही नहीं बचता।

स्वयं ही स्वयं में, के मार्ग के साक्षात्कारों में, ये रुद्र लिंगात्मक गुफा एक प्रधान बिंदु है, क्यूंकि इसमें से ही एक ऐसा मार्ग निकलता है, जो इतना गुप्त है की इस ब्रह्माण्ड के इतिहास में कुछ मुट्ठी भर साधक ही उसको जान पाए हैं और उस मार्ग पर जा पाए हैं।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु योगेश्वर कहलाते हैं, जो, योगीराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता, ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तेरहवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

रुद्र लिंगात्मक गुफा का गुप्त मार्ग रुद्र ही रुद्र में … तीन बुद्ध …

 

रुद्र ही रुद्र में, हृदय रुद्रातमलिंग गुफा, रूद्र लिंगात्मक गुफा, आत्मशक्ति गुफा,
रुद्र ही रुद्र में, हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा, रुद्र लिंगात्मक गुफा, आत्मशक्ति गुफा,

 

ये चित्र, हृदय की एक गुफा का है।

ये दिखलाई गई दशा भी हृदय में, इसके ही स्वयंजनित तिरोधान के भीतर ही बसी हुई होती है।

इसका ज्ञान भी तब होता है, जब साधक इस गुफा में प्रवेश करके, इसका साक्षातकार करता है। इसलिए, इसके बारे कोई कुछ भी बता दे, लेकिन जबतक साधक इस गुफा में प्रवेश नहीं करेगा, तबतक इसकी वास्तविकता को जानना भी असंभव ही होगा।

वास्तविक बात बताऊं तो, इस ब्रह्मांड के इतिहास में, बहुत कम योगी इस गुफा में प्रवेश कर पाये हैं। ऐसे योगी इतने कम हैं कि उनको उँगलियों पर गिना जा सकता है।

जो योगी इस गुफा में प्रवेश करता है, वो तांत्रिक, मांत्रिक या यांत्रिक नहीं होता, क्योंकि वो योगी ऐसे मार्गों से कोसों दूर रहता है।

ऐसे योगी को तो इसका भी अंतर नहीं पड़ता, की उसने क्या पाया और क्या खोया। ऐसा योगी कुछ भी पाने और खोने, दोनों से ही सुदूर होता है।

वो ऐसे सभी द्वैतवादों को केवल साक्षी भाव में स्थित होके ही देखता है। ऐसा योगी सभी द्वैतवादों से न तो कोई लगाव रखता है, और न ही कोई अलगाव ही रखता है।

वो तो बस स्वयं ही स्वयं में रहता हुआ, अपने भीतर की यात्रा में ही मस्तमगन रहता है।

ऐसा योगी जानता भी है, कि इस भीतर की यात्रा में, एक बात तो होगी ही, की जिसने दी चोंच, वोही देगा दाना,… और जितनी बड़ी चोंच, उतना बड़ा दाना।

उस योगी के लिए तो अन्नदाता या दानादाता, अन्न या दाने को खाने वाला और अन्न या दाना, तीनों ही ब्रह्म होते हैं, क्यूंकि वैदिक वांग्मय में इन तीनों को ही ब्रह्म कहा गया है।

वैसे इस कहे गए दाना शब्द का अर्थ, मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण, सभी से प्रकाशित होता है। लेकिन इसके बारे में बाद के किसी अध्याय में बतलाऊँगा।

इस दिखलायी गयी दशा के बाद, उस योगी को यह भी पता होता है, कि अंततः, जिस श्रेणी और प्रकार का दाना उसको चाहिए, वो तो केवल उसकी भावनात्मक ऊर्जा से ही आयेगा, नाकि किसी और प्रक्रिया से, क्यूंकि इस भीतर के मार्ग की अंतगति में तो, भाव में ही साधन होता है।

और वो दाना भी साधन स्वरूप में ही होता है, जो योगी के भाव से ही, योगी की काया के भीतर ही, योगी के आत्मसाक्षात्कार के स्वरुप में ही स्वयंप्रकट होता है।

उस योगी को यह भी पता होता है, कि इस हृदय गुफा का मार्ग, कलियुग सहित, किसी भी युग में नहीं होता, इसलिए इसके मार्ग को बतलाया भी नहीं जाता। इसका केवल संकेतमात्र ही दिया जाता है।

इसका मार्ग, हृदयाकाश गर्भ से होकर ही जाता है, इसलिए, यदि इसको जानना है, तो हृदयाकाश गर्भ से होकर ही जाना होगा, अर्थात, हृदय के घटाकाश से होकर ही यहाँ बतलाई गयी गुफा में पहुंचा जाता है।

 

हृदय रुद्रलिंगात्मक गुफा और सगुण करमात्मा पद … आत्मशक्ति गुफा …

हृदय की इस गुफा में, एक भागवे रंग का पिंड होता है, जो योगी की ही आत्मा शक्ति का, पिण्डात्मक स्वरुप होता है।

इस चित्र में, यह भगवा पिंड नीचे की ओर दिखाया गया है, और यही भगवा पिंड योगी की ही आत्मा शक्ति का, रुद्र लिंगात्मक स्वरूप होता है।

आंतरिक योग मार्ग में, इस नीचे दिखलाये गए भगवे रंग के पिंड को योगी का रुद्रात्म शक्तिलिंग भी कहा जा सकता है, रुद्रात्मलिंग भी कहा जा सकता है।

एकादश रुद्र में, यही ग्यारहवां रुद्र होता है, जो योगी के हृदय के भीतर, उस योगी की आत्मशक्ति का ही, सर्व लिंगात्मक स्वरूप होता है।

ऐसे योगी के शरीर में ही, बाकी दस रुद्र, उस योगी के ही पञ्च प्राण और पञ्च उप प्राण स्वरुप में होते हैं।

और इस समस्त जीव जगत में, इसी हृदय लिंग से, सगुण करमात्मा पद को पाया जाता है, जो कार्य ब्रह्मात्मक होता है, और इसलिए वो सगुण करमात्मा पद, कार्य ब्रह्म का पद भी कहलाता है।

ये पद कार्य ब्रह्म सिद्धि को भी दर्शाता है, इसलिए, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी कार्य ब्रह्म ही कहलाता है।

 

रुद्रात्मलिंग साधना में तीन दैविक जीव … हृदय में त्रिदेव … हृदय में त्रिबुद्ध …

इस हृदय की गुफा में घुस कर, योगी ये भी देखता है, कि, उसी भगवे पिंड रूपी, रुद्रात्मलिंग की उपासना, तीन दैविक जीव कर रहे हैं।

इस चित्र में, जिस दशा में, इन तीन दैविक जीवों को दिखलाया गया है, वो उस स्थिति में नहीं होते हैं, बल्की, वो अपने हाथ जोड़ कर, आंख बंद करके, उस योगी के रुद्रात्मलिंग की उपासना कर रहे होते हैं।

और उनकी यह उपासना चलती ही रहती है, अर्थात, अखंड होती है।

योगी के हृदय की इस गुफा में बसे हुए, वो तीन दैविक जीव अपनी उपासना में इतने संलग्न होते है, कि यदि उनसे बात भी करोगे, तो भी वो अपने नेत्र नहीं खोलेंगे। बस इस हृदय की गुफा के भीतर बैठे हुए वो तीन दैविक जीव, अपनी अखंड उपासना में ही मगन रहते हैं।

इसीलिये, जब योगी, अपने ही हृदय की इस दिखलाई गई गुफा में चला जाता है, तो वो योगी इन तीन दैविक जीवों को, अपनी ही आत्माशक्ति के रुद्र लिंगतमक स्वरूप की, अखंड उपासना करते हुए देखता है।

इसके पश्चात, वो योगी, अपने ही हृदय में, इन तीन दैविक जीवों के साथ बैठ कर, अपने ही रुद्रात्मलिंग स्वरूप की उपासना करने लगता है।

और जैसे जैसे, इस स्वयं ही स्वयं की उपासना में, समय बीतता जाता है, वैसे वैसे वो योगी, इसी भगवे रुद्र के पिंडात्मक स्वरूप में, समाता ही चला जाता है। और अंततः, इसी रुद्रात्मलिंग में, पूर्ण समा के, इसके जैसा ही हो जाता है।

लेकिन इस प्रक्रिया में वो योगी, स्वयं को एक अदेही निरंग चेतना रूप में ही देखता है, नाकि यहाँ दिखलाये गए भगवे रूप में।

तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, रुद्र ही एक मात्र देवता है, जो स्वयं ही स्वयं का उपासक होता है। और कोई देवी देवता, ऐसा है ही नहीं।

और उसी भगवे रुद्रात्मलिंग में सामने के बाद, ऐसा योगी, रुद्र के समान, स्वयं ही स्वयं का उपासक हो जाता है।

रुद्र के समान, ऐसा योगी स्वयं ही स्वयं का भक्त और इष्ट, दोनों हो जाता है। और ऐसा योगी, स्वयं ही स्वयं का गुरु और शिष्य, ये दोनों भी होता है।

अपने योगमार्ग में ऐसा योगी, स्वयं ही स्वयं का जनक और जन्मा, दोनों होता है। वो अपने योगमार्ग में, अपना ही माता और पिता, दोनो होता हुआ, अपना पुत्र भी होता है।

इसलिए, ऐसा योगी, उसी रुद्र के स्वयंभू स्वरूप के मार्ग को, अपने आत्मलिंग स्वरूप में ही पाता है, जिसके साक्षात्कार के पश्चात, वो योगी अपनी ही आत्मशक्ति के पिण्डात्मक स्वरुप का उपासक होकर ही रह जाता है।

जब पीले रंग की बुद्धि का योग, लाल रंग के रजोगुण से समानता में होता है, तो भगवा रंग उदय होता है, जो रुद्र का ही होता है। इसीलिए रुद्रदेव, कार्यात्मक और ज्ञानात्मक दोनों ही हैं।

लेकिन, ऐसी रुद्रात्मक उपासना में उस योगी का आत्मा ही, कर्मात्मक और ज्ञानात्मक, सर्वात्मस्वरुप में होता है।

उन स्वयं ही स्वयं की साधनाओं में, वो योगी समस्त चलित और अचलित जीव जगत को अपने भाव में ही पाता है, और इसी भाव से एक साधन स्वयंप्रकट होता है, जो उस योगी को इस बतलाई जा रही दिशा और दशा की ओर अकस्मात् ही लेकर जाता है।

अपनी काया में, जीव जगत की दिव्यताओं में, ऐसा योगी उस भगवे रुद्र का, सगुण साकार स्वरूप कहलाता है। और अपने ही आत्मस्वरूप में, इस जीव जगत की दिव्यताओं में, ऐसा योगी रुद्रात्मलिंग कहलाता है।

लेकिन, यहाँ पर, केवल रुद्रत्मालिंग की बात की गयी है, और रुद्र के सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार स्वरूपों की बात नहीं की है। इन बिंदुओं पर कभी और बात होगी।

तो अब मैं आगे बढ़ता हूं।

 

रुद्र लिंगात्मक गुफा में तीन दैविक जीव … हृदय में त्रिदेव … हृदय में तीन बुद्ध …

 

हृदय रुद्रातमलिंग गुफा में तीन दैविक जीव, अत्मलिंग गुफा में तीन दैविक जीव
हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा में तीन दैविक जीव, अत्मलिंग गुफा में तीन दैविक जीव

 

अब इस चित्र में दिखलाये गए तीन दैविक जीवों के बारे में बतलाता हूँ …

ये तीन दैविक जीव, साधक के हृदय की इसी दिखलाई गई रुद्रात्मलिंग गुफा में निवास करते हैं, और ये तीनों दैविक जीव, साधक की आत्मा शक्ति, जो भगवे रंग के पिंड स्वरुप में होती है, उसकी उपासना करते ही रहते हैं।

विभिन्न मार्गों में, लेकिन इन तीनों दैविक जीवों को कई प्रकार से बतलाया गया है। लेकिन यहां पर, केवल बौद्ध और वैदिक मार्ग के अनुस्‍कार ही बतलाया जायेगा।

 

बौद्ध मार्ग में इन तीन दैविक जीवों का वर्णन … हृदय में तीन बुद्ध …

बौद्ध मार्ग में हृदय के इन तीन दैविक जीवों को ऐसा कहा गया है…

  • नीले रंग के दैविक जीव का नाम, बोधिसत्व वज्रपाणि है, जो समस्त शक्तियों का धारक, बुद्ध कहलाता है।

इस नीले रंग के बुद्ध की शक्ति का संबंध, शिव की ज्ञान शक्ति से भी होता है। इसीलिये, जिस भी योगी के हृदय में, ये बुद्ध प्रकट होता है, वो योगी, गुरु शिव की ज्ञान शक्ति का धारक हो जाता है।

लेकिन वास्तव में तो इस नीले रंग के दैविक जीव की सत्ता का नाम, नील सरस्वती है।

और त्रिगुण विज्ञान में, इस बुद्ध का संबंध तमोगुण से होता है।

 

  • पीले रंग के दैविक जीव का नाम, बोधिसत्व मंजुश्री है, जो समस्त ज्ञान का धारक, बुद्ध कहलाता है।

इस पीले रंग के बुद्ध की शक्ति का संबंध, शिव की चेतन शक्ति से भी होता है। इसीलिये, जिस भी योगी के हृदय में, ये बुद्ध प्रकट होता है, वो योगी, गुरु शिव की चेतन शक्ति का धारक हो जाता है।

लेकिन वास्तव में तो इस पीले रंग के दैविक जीव की सत्ता का नाम, पीली सरस्वती या हेमा सरस्वती है।

और त्रिगुण विज्ञान में, इस बुद्ध का संबंध सत्त्वगुण से होता है।

 

  • लाल रंग के दैविक जीव का नाम, बोधिसत्व अवलोकितेश्वर है, जो अपने ही कर्मों में, करुणा, ममता और प्रेम तत्व का बुद्ध है।

इस लाल रंग के बुद्ध की शक्ति का संबंध, शिव की क्रिया शक्ति से भी होता है। इसीलिये, जिस भी योगी के हृदय में, ये बुद्ध प्रकट होता है, वो योगी, गुरु शिव की क्रिया शक्ति का पूर्ण धारक हो जाता है।

लेकिन वास्तव में तो इस लाल रंग के दैविक जीव की दैविक सत्ता का नाम है, लाल सरस्वती या रक्त सरस्वती है। और इनही सरस्वती का एक स्वरूप, पिंगला सरस्वती भी है।

और त्रिगुण विज्ञान में, इस बुद्ध का संबंध रजोगुण से होता है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

बौद्ध मनीषी ये भी कह गए, कि ये तीनो बुद्ध, सम सम बुद्ध, या ज्ञान बांटने वाले पूर्ण बुद्ध के भीतर रहते हैं, और ये तीनो बुद्ध, ऐसे सम सम बुद्ध की रक्षा भी करते हैं।

लेकिन इस चित्र में दिखलाई गई सिद्धि, जिसमे ये तीनो बुद्ध, उस भगवे रंग की आत्मशक्ति के पिण्डात्मक स्वरुप की उपासना कर रहे हैं, उसे रुद्र सिद्धि और कार्य ब्रह्म सिद्धि भी कह सकते हैं।

इस दिखलाई गयी दशा में, वो भगवा रुद्र, योगी की आत्मा का ही लिंगात्मक स्वरूप होता है, और इसके साथ साथ, ये योगी की आत्मा का शक्तिलिंग स्वरुप भी होता है।

इसी दशा में, रुद्र ही योगी का आत्मलिंग होता है, अर्थात, रुद्र ही योगी की निर्गुण आत्मा का ध्योतक, सूचक, चिन्ह या सगुण संकेत होता है, इसलिए, इस सिद्धि को, रुद्रात्मलिंग सिद्धि भी कहा जा सकता है।

 

वैदिक मार्ग में इन तीन दैविक जीवों का वर्णन हृदय में त्रिदेव …

वैदिक वांगमय में, इन तीनो को जैसा कहा गया है, वो अब बता रहा हूं …

  • नीले रंग के दैविक जीव को शिव कहा गया है … इसलिए, इस दैविक जीव का संबंध, परमगुरु शिव से होता है, और इस संबंध में, शिव ही शक्ति होते हैं और शक्ति ही शिव होती हैं।

इसलिए, इस दैविक जीव में ही, शिव शक्तिमय होता है, और शक्ति ही शिवमय होकर रहती हैं। और यही कारण है, कि वो शक्ति, सर्व कल्याणकारी ज्ञानमय होती है।

इस दैविक जीव का संबंध, समस्त ज्ञान से होता है। इसलिए, जिस योगी के हृदय में, ये दैविक जीव स्वयं प्रकट होता है, वो योगी ज्ञानात्मा कहलाता है। और उसकी योगी सिद्धि का नाम, ज्ञान ब्रह्म भी होता है। उसका ज्ञान ही ब्रह्मलीन होके, ब्रह्म होता है।

त्रिगुण विज्ञान में इस दैविक जीव का संबंध, तमोगुण से होता है।

और क्योंकि त्रिगुण विज्ञान में, इस दैविक जीव का संबंध तमोगुण से होता है, जो ब्रह्म की रचना में अंत में ही स्वयंप्रकट होता है, इसलिए, तमोगुण ही समस्त गुणों का धारक होता है। और यही कारण है, कि इस स्वरूप में वो गुण ब्रह्म कहलाता है।

इसलिए, जिस योगी के हृदय में, ये दैविक जीव स्वयं प्रकट होता है, वो योगी ही गुणात्मा कहलाता है। और उसकी सिद्धि का नाम, गुण ब्रह्म भी होता है।

ऐसे योगी ही जड़ समाधि के सिद्ध हो सकते हैं।

 

  • पीले रंग के जीव को विष्णु कहा गया है, जो सत्वगुणी होता है।

जिस योगी के हृदय में ये दैविक जीव, स्वयं प्रकट होता है, वो योगी ही चिदात्मा कहलाता है।

ऐसा योगी चिदाकाश को पाता है, और उसकी सिद्धि का नाम चेतन ब्रह्म कहलाता है। उसकी चेतना ही ब्रह्मलीन होके, ब्रह्म ही हो जाती है।

वो योगी का चित्त ही संस्कार रहित होके, ब्रह्मलीन होता है। और चित्त के संस्कार रहित होने का मार्ग भी, निर्बीज समाधी से ही जाता है।

ऐसे योगी ही सम्प्रज्ञात समाधि के सिद्ध भी होते हैं।

 

  • लाल रंग के जीव को ब्रह्मा कहा गया है, जो रजोगुणी स्वरूप में होता है, इसिलिए इस स्वरूप में है, वह ब्रह्मा ही कार्य ब्रह्म कहता है। ब्रह्मा देव के इसी रजोगुण कार्य ब्रह्म स्वरुप से ही, पञ्च तन्मात्र और पञ्च महाभूत स्वयंप्रकट हुए थे।

इसलिए, जिस योगी के हृदय में, ये दैविक जीव स्वयं प्रकट होता है, वो योगी भूत ब्रह्म नामक उपाधि को पाता है, और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी भूतात्मा भी कहलाता है।

और ऐसा योगी शब्द ब्रह्म, आकाश ब्रह्म, वायु ब्रह्म, अग्नि ब्रह्म, आपः ब्रह्म और भू ब्रह्म का सिद्ध भी हो सकता है।

इन पांच प्रकार की बतलाई गयी महाभूत सिद्धियों में से, प्रथम और अन्तिम सिद्धि योगचक्रवारत की भी वाचक हैं जिसके कारण ऐसा योगी, योग चक्रवर्तिन भी कहलाता है।

अपने एक पूर्व जन्म में, मैं ही वो चक्रवर्तिन था, जिसका नाम पृथ्वी महाभूत पर था और जिसने इस धरा पर कृषि गोरक्ष की स्थापना की थी, जिसके वाणिज्य स्वरुप के बारे में श्री कृष्णा ने भी बतलाया है।

और अपने एक और जन्म में, मैं वो चक्रवर्तिन भी था, जिसके नाम आकाश महाभूत पर था, और जिसने इस धरा पर वैदिक राजतंत्र की स्थापना की थी।

और एक और इन दोनों से पूर्व जन्म में, जो स्वयम्भू मन्वन्तर के प्रथम सतयुग में हुआ था, मैं ही वो चक्रवर्तिन था, जिसका नाम आगे बढ़ने वाली बुद्धि और चेतना पर था, और जिसके राज के समय पर, इस धरा का मार्ग वैदिक हुआ था। लेकिन उस जन्म में, मेरे साथ बहुत सारे धुरंधर ऋषि भी थे, जिनमें से अधिकांश का नाम आज के वैदिक वांग्मय में मिलता ही नहीं है।

ऐसे योगी का प्रमुख मार्ग, रजोगुण समाधी का होता है, जिसे अस्मिता समाधि भी कहते हैं।

 

हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा का गंतव्य स्वरूप

अब इन बातों पर ध्यान देना…

जब योगी के ही हृदय में, उस योगी के ही आत्मलिंग स्वरूप में, वो भगवा रुद्र स्वयंभू होता है, तब वो भगवा रुद्र ही योगी का आत्मा कहलाता है।

ऐसी अवस्था में, उस योगी का आत्मा ही, ग्यारहवां रुद्र कहलता है, जिसके जीव स्वरूप, भगवान हनुमान जी हैं।

और उसी ग्यारहवें रुद्र के लिंगात्मक स्वरूप के उपासक, त्रिदेव भी होते हैं।

और यही रुद्रावस्था, इस हृदय गुफा के चित्र में दिखलाई गई है।

 

हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा की स्तिथि का वैदिक प्रमाण

सर्वे रुद्रम भजनयेवा रुद्र: किंचिद भजेंनाहि

स्वात्मा भक्तावातसलयाद भजत्येवा कदाचन।।

इसका भावार्थ है,

सभी रुद्र की उपासना करते हैं, रुद्र किसी और की उपासना नहीं करता,

कभी अपने भक्तों पे अनुग्रह करता, रुद्र स्वयं ही स्वयं का उपासक है

अब इन बातों पर ध्यान दो…

जो योगी यहाँ बतलाई गयी अवस्थाओं का साक्षात्कारी होता है, वो योगी भी रुद्र के समान, स्वयं ही स्वयं को जाता है, जिसमे उस योगी का आत्मस्वरूप ही सर्वात्मा होता है, अर्थात, समस्त जीव जगत का आत्मा होता है।

और अंततः, अपने ऐसे आंतरिक सर्वभौम मार्ग से वो योगी, अपने इस भीतर के मार्ग से, जीव जगत के समस्त विकारों को नष्ट भी करता है।

और ऐसे योगी का ज्ञान और उसके शब्द ही उसका अस्त्र होते हैं, क्योंकि उसकी वाणी ही शब्दात्माक होके, उसका शब्दास्त्र स्वरूपा होती है।

वो शब्द ब्रह्म को ज्ञान, क्रिया और चेतन स्वरूपों में पाके, उस शब्द ब्रह्म को अस्त्र रूप में भी देखता है।

ऐसे योगी का आत्मा ही रुद्र होता है, जिसमे वो योगी, स्वयं ही स्वयं में रमण करता है।

 

ऐसे योगी का मूल मार्ग, … स्वयं ही स्वयं में… ऐसा होता है।

ऐसे योगी का सिद्ध मार्ग, … रुद्र ही रुद्र में… इस वाक्य की ओर जाता है।

 

और अंतगति में, ऐसा योगी के मार्ग का गंतव्य … ब्रह्म ही ब्रह्म में… ऐसा ही होगा। इस वाक्य में कहे गए, ब्रह्म शब्द को निर्गुण ही मानना चाहिए।

और ऐसा योगी, अहम अस्मि के आत्मार्थ से होता हुआ, अहम् ब्रह्मास्मि के गंतव्य को भी पा जाता है।

अब आगे बढ़ता हूं …

 

हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा और अहम अस्मि का मार्ग

मैं इस अहम असमी के मार्ग को गंतव्य मार्ग भी मानता हूं, क्योंकि मेरी साधनाओं में, ये मार्ग, एक बहुत ही उत्कृष्ट मार्ग रहा है।

ये अहम असमी का मार्ग इतना विशालकाए है, कि साधक इसमें ही, समस्त जीव जगत को, अपने ही आत्मस्वरूप में पा सकता है।

 

अब जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान दो, नहीं तो तुम्हारे ऊपर से निकल जाएगा…

जो योगी अहम असमी के वाक्य के आत्मार्थ रूपी भावार्थ को पा गया, उसका मार्ग ऐसा होता है…

भीतर से शाक्त, बहार से शैव, और इस धरा पर वैष्णव

 

और अपने गंतव्य में, वह योगी ऐसा भी होता है …

भीतर से आत्मना, बहार से सर्वा और इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में ब्राह्मण

यहां कहा गया, ब्राह्मण शब्द का अर्थ, आत्मदृष्टा या ब्रह्मदृष्टा, ऐसा ही मानना ​​चाहिए।

और इस ब्रह्मदृष्टा शब्द को, वेददृष्टा, वेदार्थस्थित, मंत्रार्थदृष्टा, मंत्रार्थस्थित, आत्मार्थस्थित, और ॐ दृष्टा, ऐसे भी माना जा सकता है।

और क्योंकि ये सभी शब्दार्थ, मनु और ब्रह्मऋषि नामक शब्दों को भी दर्शाते हैं, इसलिए ऐसा योगी, मनुवादी तो होगा ही।

 

हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा और भक्त और भगवान का नाता

यहां बात सांकेतिक रूप में होगी, क्यूंकि ऐसी बातों को खुल के बताया ही नहीं जाता है…

इसलिए, इसपर भी ध्यान देना …

वास्तविकता में तो, भक्त के हृदय में ही, भगवान बस्ते होते हैं। और भगवान के हृदय में भी, वही भक्त बसा होता है।

एकादशवें रुद्र के सगुण साकार स्वरूप, हनुमान जी के हृदय में, सियाराम बस्ते हैं, उनके ही आत्मा और आत्मा शक्ति के स्वरूप में।

और सियाराम के हृदय में भी, वोही एकादशवें रुद्र, हनुमान जी बस्ते हैं, उनके ही रुद्रात्मकलिंग स्वरूप में।

सियाराम, हनुमान जी की आत्मा और आत्मा शक्ति होते हैं। और हनुमान जी, सियाराम की आत्मा के ही रुद्र लिंगात्मक स्वरूप होते हैं।

इसलिए, भक्त के हृदय में भगवान बस्ते हैं और भगवान के हृदय में भक्त ही बसा होता है।

ये भक्त और भगवान का नाता, विचित्र होता हुआ भी, अद्वैत ही होता है। इसलिए, इस नाते का साक्षात्कारी या स्वयंज्ञाता और धारक योगी, निरालम्ब हुए बिना रह ही नहीं पाता है।

ऐसा योगी ही, उस निरालंब चक्र को जाता है, जिसका वर्णन, अथर्ववेद के 10.2.31, 32, और तैंतीसवे मंत्रों में, सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन किया गया है।

इस विचित्र लेकिन अद्वैत नाते का मार्ग, अथर्ववेद के दसवें अध्याय का इकतीसवाँ मंत्र है, मार्ग की गति बत्तीसवें मंत्र में होती है, और इसी मार्ग का गंतव्य, तैंतीसवें मंत्र में कहा गया है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ये विचित्र लेकिन अद्वैत नाता, वैसा ही है, जैसे ब्रह्माण्ड में ब्रह्म बसते हैं, और उसी ब्रह्म में ही ब्रह्माण्ड बसा होता है।

और ये विचित्र लेकिन अद्वैत नाता, वैसा भी है, जैसे ब्रह्माण्ड में पिंड बसते हैं, और सभी पिंडों में भी, वही ब्रह्माण्ड उसके अपने प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरुप में ही बसा होता है।

और ये विचित्र लेकिन अद्वैत नाता वैसा भी है, जैसे आत्मा को ही ब्रह्म कहते हैं, और ब्रह्म को ही आत्मा।

ये भक्त और भगवान का विचित्र लेकिन अद्वैत नाता, उतना ही अनादि अनंत, सनातन होता है, जितना ब्रह्म का नाता उसकी प्रथम अभिव्यक्ति, माँ प्रकृति से है।

जो योगी इस नाते को, एक बार भी, किसी भी योनि में पा गया, वो इसमें लय हुए बिना रह ही नहीं पाएगा, क्योंकि बूंद की गति भी तो, केवल सागर में लय होने तक ही होती है। इसके पश्चात नहीं।

 

और अब इस अध्याय के अंत में…

जो योगी इस भगवे रंग के रुद्रात्म लिंग स्वरूप में, उस सर्वशक्तिमान एकादशवें रुद्र का धारक होता है, वो योगी कभी भी इसका या किसी और सिद्धि का प्रदर्शन नहीं करता।

लेकिन क्योंकि मेरे सनातन गुरुदेव, जो मेरे हृदय के भीतर ही, शून्य अनंत गुफा में निवास करते हैं, उन्होंने कहा था बतलाने को, इसीलिये, मुझे ऐसा करना पड़ गया।

इसलिए, भविष्य में, यदि कोई भी योगी, इस या बाकी के अध्यायों में बतलायी गई अवस्थों का, दशाओं का, स्वयंदृष्टा हो जाए, और उसे मेरे जैसा कोई विशेष कारण ना हो, तो उस योगी को शांत होके, “स्वयं ही स्वयं में” रमण करते रहना चाहिए।

ऐसी शांत अवस्था में, उस  योगी को एक आवरण रूपी तिरोधान का स्व:निर्माण करना चाहिए, और उस तिरोधान को धारण करके, अपने प्रारब्ध के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

इस वाले, या बाकी किसी अध्याय में जो कुछ भी बतलाया गया है या बतलाया जाएगा, उन सभी बिंदुओं पर ये बात लागू होती है।

और इस अध्याय के अंत में बता रहा हूं, कि इस मार्ग के मूल में, स्थति कृत्य ही होना चाहिए, नहीं तो इस मार्ग में ही योगी का देहावसान हो जाएगा।

ये मार्ग, रुद्र और रौद्री के योग में होता हुआ भी, सगुणत्मा नामक पद प्रदान करता हुआ भी, रुद्रलिंगात्मा नामक स्थिति को बतलाता हुआ भी, मूल से श्रीमन नारायण में ही बसा हुआ होना चाहिए, नहीं तो इसको साक्षातकार करते ही, योगी मरणासन को पायेगा। और ऐसा योगी जीवन्मुक्त भी नहीं पाएगा।

इसीलिये, इस रुद्र रौद्रि योगमार्ग का मूल वाक्य, सर्वे संतु निरामया, ऐसा ही होना चाहिए।

जो मार्ग जीवनमुक्ति को प्रदान न करवा सके, उसका क्या लाभ।

विदेहमुक्ति से जीव जगत को क्या लाभ…, थोड़ा सोचो तो।

अब मैं इस अध्याय के अंत पर पहुँच गया हूँ, इसलिए, नमः रुद्राय के वाक्य पर, इस अध्याय को समाप्त करता हूं।

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

error: Content is protected !!