शिवलोक, शिव शक्ति लोक, अर्द्धनारी लोक, अर्द्धनारीश्वर लोक, अर्धनारी लोक, अर्धनारीश्वर लोक, सगुण निराकार आत्मा, विष्णु लोक, गौरीशंकर लोक, उमा महेश्वर लोक, उमाशंकर लोक, गुरु लोक, गुरु स्थान, गुरुमाई लोक, गुरु स्थानम्, आदिनाथ लोक, आदिनाथ, सगुण निराकार ब्रह्म, जीव जगत की गुरु गद्दी

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यहाँ पर शिवलोक, शिव शक्ति लोक, अर्द्धनारी लोक, अर्द्धनारीश्वर लोक, अर्धनारी लोक, अर्धनारीश्वर लोक, सगुण निराकार आत्मा, विष्णु लोक, गौरीशंकर लोक, उमा महेश्वर लोक, उमाशंकर लोक, गुरु लोक, गुरु स्थान, गुरुमाई लोक, गुरु स्थानम्, आदिनाथ लोक, आदिनाथ, सगुण निराकार ब्रह्म, जीव जगत की गुरु गद्दी आदि पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का अठहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का सातवाँ अध्याय है I

शिवलोक, शिव शक्ति लोक, अर्द्धनारी लोक, अर्धनारीश्वर लोक, सगुण निराकार आत्मा, विष्णु लोक
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टिपण्णी: पूर्व में बताए गए अर्धनारिश्वर के अध्याय से इस अध्याय का नाता है I उस पूर्व के अध्याय का जो अर्द्धनारीश्वर शरीर बताया गया था, वह अंततः इसी अध्याय के लोक में लय होता है I महाकाली महाकाल योग से इस अध्याय का मार्ग प्रशस्त होता है I

 

शिवलोक क्या है, शिव शक्ति लोक क्या है, शिव शक्ति योग का लोक, अर्द्धनारी लोक क्या है, अर्द्धनारीश्वर लोक क्या है, अर्धनारी लोक क्या है, अर्धनारीश्वर लोक क्या है, सगुण निराकार आत्मा क्या है, विष्णु लोक क्या है, गौरीशंकर लोक क्या है, उमा महेश्वर लोक क्या है, उमाशंकर लोक क्या है, गुरु लोक क्या है, गुरु स्थान क्या है, गुरुमाई लोक क्या है, गुरु स्थानम् क्या है, आदिनाथ लोक क्या है, आदिनाथ कौन हैं, जीव जगत की गुरु गद्दी क्या है, …

ऊपर का चित्र शिवलोक का ही है, यही विष्णु लोक भी है, यही शिव शक्ति लोक है और इसी को अर्धनारी लोक भी कहा जा सकता है I ऐसा होने के कारण यही लोक गुरु स्थान और गुरुमाई स्थान भी है I

यह लोक नीले वर्ण का है और उस नीले वर्ण में वज्रमणि का प्रकाश गति कर रहा होता है और जब यह गति होती है तब एक गंभीर ध्वनि (मंद्र ध्वनि) प्रकट होती है I नील वर्ण, शिव का द्योतक है और वज्रमणि वर्ण, शक्ति का, इसलिए यह लोक शिव शक्ति लोक (अर्थात अर्धनारी लोक) ही है I और क्यूँकि भगवान् अर्धनारिश्वर ही श्री विष्णु को दर्शाते हैं, इसलिए यह विष्णु लोक भी है I

क्यूंकि शिव शक्ति का योग ही सगुण आत्मा होता है और क्यूंकि यह लोक, शिव शक्ति के योग का द्योतक है, इसलिए यह लोक सगुण निराकार आत्मा का भी द्योतक है I

 

टिप्पणियाँ:

  • कोई 2016-2017 की बात होगी, मेरे घर के पास एक वृद्ध पुरुष और स्त्री, अपने परिवार जनों के साथ निवास करते थे I
  • एक दिवस जब मैं साधना में ही था, तब मुझे उनके शरीर से इसी चित्र में दिखाया गया प्रकाश, बाहर की ओर जाता हुआ दिखाई दिया I
  • इससे मैं जान गया की उनका देहावसान हो चुका है और वह विष्णु लोक की ओर जाने वाली गति को पाए हैं I और जब यह बात मैंने मेरी माँ को भी बताई तो वह बोली हाँ, अभी समाचार आया है कि वह चले गए I
  • पर इससे मैं यह तो जान ही गया, कि परिवार में बसा हुआ साधारण मानव भी यदि अपने कर्म अच्छे से निर्वाह करेगा, तो विष्णु भगवान को प्राप्त हो सकता है I
  • यह मैं इसलिए बोल रहा हूँ क्यूंकि न तो उन्होंने कभी कोई ग्रंथ आदि का पठन पाठन करा था, न मंत्र आदि से संयुक्त कोई साधना और न कोई भारी तप आदि ही करा था… बस एक साधारण सा जीवन व्यतीत किया था I
  • इसलिए इससे मैं यह भी जान गया कि विष्णु भगवान् को प्राप्त होने के लिए कोई कठोर योग, तप अथवा साधना की आवश्यकता नहीं है… बस अपने कर्मों का उचित प्रकार और भाव से निर्वाह करो और देहावसान के समय विष्णु लोक में स्थान पाओ I
  • और क्यूंकि मैं इन कलियुगी सामाजिक मान्यताओं को मानता ही नहीं हूँ, इसलिए जब उनका दाह संस्कार हो रहा था और उनके परिवारजन बहुत दुखी थे और रो भी रहे थे, तो शमशान में खड़े हुए ही मैंने यह बात उनकी पत्नी और सुपुत्र को बताई I
  • जबकि मेरी बात सुन कर वह शांत तो हो गए थे, लेकिन वह मेरा मुख ऐसे देख रहे थे जैसे कोई पगलनाथ परग्रही उनके समक्ष खड़ा हुआ हो I तो इसपर मैंने उनको बोल भी दिया, किमैं सत्य बोल रहा हूँ… वह शरीर त्यागकर विष्णु भगवान् के लोक में ही गए हैं I
  • ऊपर का चित्र उसी विष्णु लोक को दर्शा रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस लोक को एक अतिसूक्ष्म अंधकार ने घेरा हुआ होता है I यह सूक्ष्म अन्धकारमय दशा शून्य ब्रह्म ही हैं और उन्हीं शून्य ब्रह्म के भीतर यह लोक बसा हुआ होता है I ऐसा ही ऊपर का चित्र भी दिखा रहा है I

इसका अर्थ हुआ, कि जबतब साधक शून्य ब्रह्म (अर्थात शून्य अनंत अनंत शून्य) को सिद्ध नहीं करेगा और इसके पश्चात उस शून्य ब्रह्म को भेदकर आगे नहीं जाएगा, तबतक साधक जीवित होते हुए तो इस अध्याय का साक्षात्कार कभी नहीं कर पाएगा I

इसका अर्थ हुआ, कि यदि किसी साधक को इस अध्याय का साक्षात्कार जीवित रहते हुए करना है, तो शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार इस अध्याय के साक्षात्कार से पूर्व ही होना होगा I लेकिन मृत्युपरांत यदि साधक इस अध्याय में दिखाई गई दशा में जाएगा, तो उस समय यहाँ बताया गया बिंदु लागू नहीं होगा I

और क्यूंकि शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार मार्ग असंप्रज्ञात समाधि ही है, इसलिए इस अध्याय के साक्षात्कार से पूर्व, असंप्रज्ञात समाधि की सिद्धि होनी ही होगी I

इस लोक में जब चेतना जाती है तो वह इस लोक के ऊपर उड़ रही होती है I और उस चेतना की उड़ान भी उन असंप्रज्ञात ब्रह्म (अर्थात शून्य ब्रह्म) में ही हो रही होती है जो एक अतिविशालकाय सूक्ष्म अंधकार स्वरूप हैं I

और ऐसी उड़ान में जब चेतना उस सूक्ष्म अन्धकारमय दशा में गति कर रही होती है, तब वह इस लोक का साक्षात्कार करती है I और ऐसी दशा के साक्षात्कार को ही यह चित्र दिखा रहा है I यह चित्र, शिवलोक को ऐसे दिखा रहा है जैसे चिड़िया आकाश में उड़ते हुए धरती को देखती है I

अर्धनारीश्वर लोक इस जीव जगत की गुरु गद्दी भी है I इस ब्रह्मकल्प के समय से, इसी लोक के देवता, जो अर्धनारी अर्थात श्री विष्णु ही हैं, और जो सगुणत्मा भी हैं, वह समस्त पारंपरिक गुरु गद्दियां के प्रथम पीठाधीष्वर हुए हैं I

इस ब्रह्म कल्प के समय में, व्यास पीठ सहित, अन्य सभी वेद सम्प्रदायों के प्रथम पीठाधीष्वर भी श्री विष्णु ही हैं I

 

यही शिवलोक है I

यही आदिनाथ हैं I

यही विष्णु लोक है I

यही अर्धनारी लोक है I

यही उमाशंकर लोक है I

यही गौरी शंकर लोक है I

यही उमा महेश्वर लोक है I

यही भद्र भद्री योग लोक है I

यही निराकार जगत आत्मा हैं I

यही सगुण निराकार आत्मा है I

यही गुरुमाई शक्ति का लोक है I

यही शिव शक्ति योग का लोक है I

यही जीव जगत की गुरु गद्दी भी है I

ऐसा होने के कारण, यह गुरु स्थान ही है I

अब ध्यान देना…

गुरु स्थानम् होने के कारण, जो योगी यहाँ पर जीवित होता हुआ ही पहुँच गया, वह उस सार्वभौम और सर्वव्यापक गुरु तत्त्व में ही चला जाएगा, जिसका नाता परमगुरु शिव, गुरुमाई शक्ति और सनातन गुरु विष्णु से है I

इस गुरु तत्त्व को प्राप्त हुआ योगी ही उन पञ्च मुखा सदाशिव का पूर्णरूपेण साक्षात्कार करता है, जो भगवान् पशुपतिनाथ और गुरु विश्वकर्मा कहलाते हैं I और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ऐसा योगी ही गुरु विश्वकर्मा स्वरूप कहलाता है I

और इसके अतिरिक्त, क्यूंकि गुरु ही कैवल्य मोक्ष होते हैं, और क्यूंकि यह लोक उन्ही गुरु का स्थान है, इसलिए जो योगी यहाँ पर अपने देहावसान के पश्चात पहुंचेगा, वह कैवल्य मुक्त ही हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

पञ्च मुखी सदाशिव के दृष्टिकोण से, इस लोक के प्रकाश का नाता ऐसा होता है…

नील वर्ण के मूल में सदाशिव का अघोर मुख है I

वज्रमणि वर्ण के मूल में सदाशिव का सद्योजात मुख है I

पञ्च ब्रह्मोपनिषद में बताए गए बिंदुओं के दृष्टिकोण से, इस लोक के प्रकाश का नाता ऐसा होता है…

नील वर्ण के मूल में अघोर ब्रह्म हैं I

वज्रमणि वर्ण के मूल में वामदेव ब्रह्म हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

शिवलोक साक्षात्कार, शिवलोक का पथ, शिवलोक का मार्ग, शिवलोक साक्षात्कार मार्ग, शिवलोक साक्षात्कार के पश्चात की दशा, शिवलोक साक्षात्कार से पूर्व की दशा, सगुण निराकार आत्मा का साक्षात्कार, सगुण निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार, सगुण साकार का सगुण निराकार में परिवर्तन, सगुण निराकार का सगुण साकार में परिवर्तन, सगुण साकार और सगुण निराकार का संबंध,

इस साक्षात्कार का मार्ग ब्रह्मलोक से होकर जाता है I और ब्रह्मलोक को पार करके ही यह साक्षात्कार होता है I

इस साक्षात्कार से पूर्व साधक जो भी सिद्धियाँ और सिद्ध शरीर आदि पाया होगा, वह सब के सब अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाते हैं I इसलिए इस साक्षात्कार का पथ भी वही लय मार्ग है जिसकी केवल प्रधान दशाओं का ही सही, लेकिन इस अध्याय श्रंखला में वर्णन किया जा रहा है I

अपने ब्रह्माण्डीय प्रधान कारणों में लय होकर, वह सभी सिद्ध शरीर अपना सगुण साकार स्वरूप त्यागते हैं, और अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों के समान ही सगुण निराकार हो जाते हैं I जबतक यह लय नहीं होता और उन लय हुए सिद्ध शरीरों को अपने सगुण निराकार स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती, तबतक साधक इस शिवलोक का साक्षात्कार भी नहीं कर पाएगा I

इस साक्षात्कार के समय जब साधक की चेतना शिवलोक को घेरे हुए उस सूक्ष्म अंधकार (अर्थात शून्य ब्रह्म) से जा रही होती है, तब साधक की सभी सिद्धियाँ अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय होती चली जाती हैं I

जब साधक अपनी पूर्व की सिद्धियों से रिक्त हो चुका होगा, तब ही इस लोक में जा पाएगा I

इसके पश्चात, जैसे ही साधक इस लोक से आगे जाने लगेगा, तो उस साधक की एक पूर्व की सिद्धि, जो अर्धनारी शरीर कहलाती है, वह भी इस लोक में लय होकर, अपना पूर्व का सगुण साकार स्वरूप त्यागकर, सगुण निराकार होगी I

इसलिए यह अध्याय योगीजनों का सगुण साकार स्वरूप को त्यागने का और इस त्याग के पश्चात निराकारी अस्तित्व (निराकारी अस्तित्व सत्ता) को प्राप्त होने का मार्ग है I

क्यूंकि वह निराकारी अस्तित्व भी सगुण ही होता है, इसलिए इसी अध्याय से योगी अपना सगुण साकार स्वरूप त्यागकर, सगुण निराकार स्वरूप को प्राप्त होता है I यही इस लोक की महिमा है I

ऐसा साधक अपनी आंतरिक स्थिति के अनुसार सगुण निराकार ही होता है और ऐसा तब भी होगा जब वह सगुण साकारी स्थूल शरीर को धारण करा हुआ होगा I

 

इस साक्षात्कार में साधक को जानेगा, वह ऐसा होगा…

सगुण निराकार से ही सगुण साकार का उदय हुआ था I

सगुण साकार अपना समय पूर्ण करके, सगुण निराकार ही होता है I

अंतगति में सगुण साकार अपने उदय स्थल, सगुण निराकार में लय होगा I

गुरुशिव, गुरुशक्ति और गुरुविष्णु सगुण साकार प्रतीत होते हुए भी, सगुण निराकार हैं I

इस साक्षात्कार के पश्चात जब साधक का देहावसान होगा, तो वह अपना सगुण साकार स्वरूप त्यागकर, निराकार निराकार होकर ही रहेगा I इसलिए यह साक्षात्कार सगुण निराकार दशाओं में प्रवेश करने का दिव्य द्वार भी है I

इस अध्याय की दशा के पश्चात, योगी सगुण साकार भी नहीं रह पाएगा क्यूंकि वह अपने सगुण निराकार स्वरूपों का साक्षात्कार भी कर लेगा I यही कारण है कि भारत भारती मार्ग, जो योग का लय मार्ग ही है, उसका यह अध्याय एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब सगुण साकार का सगुण निराकार में परिवर्तन, सगुण निराकार का सगुण साकार में परिवर्तन, सगुण साकार और सगुण निराकार का संबंध सांकेतिक रूप में सही, लेकिन बताता हूँ…

अब ध्यान देना…

जैसे…

सागर से भाप मेघ रूप लेती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड का उदय होता है I

मेघ से वही जल, बूँद रूप में आता है, वैसे ही पिण्डों का उदय होता है I

सागर में लय होकर बूँद ही सगर होती है, वैसे ही साकार, निराकार होता है I

यह चक्र अनादि कालों से अनंत कालों तक गति करता है, वैसे ही सृष्टिचक्र है I

इस सृष्टिचक्र में असंख्य बार ब्रह्माण्ड उदय और नष्ट हुआ है, और आगे भी होगा I

आगे बढ़ता हूँ…

जैसे…

निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सगुण निराकार भवसागर रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

सगुण निराकार से ही सगुण साकार के पृथक स्वरूपों की अभिव्यक्ति होती है I

सगुण साकार अपना समय पूर्ण करके, पुनः सगुण निराकार में लय होता है I

अंततः सगुण निराकार अपने मूलकारण, निर्गुण निराकार में लय होता है I

वैसे ही…

उस विशालकाय भवसागर से सृष्टि के पृथक भाग उदय होते हैं I

अपना समय पूर्ण करके वह समस्त भाग उसी भवसागर में लय होते हैं I

बूँद और सागर का, जीव और जगत का, पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐसा ही नाता है I

और उस लय मार्ग पर गति के लिए जिसका नाता सगुण साकार ब्रह्म और सगुण निराकार ब्रह्म से है, यह अध्याय मुख्य ही है I

 

और ऐसा होने के कारण…

जो योगी इस सिद्धि को पाया होगा, उसके लिए साकार और निराकार समान होंगे I

चाहे वह जीवरूप में जन्म ले अथवा निराकारी होकर ही रहे, उसके लिए समान है I

चाहे वह साकार या निराकार रहे या निर्गुण में ही लय होए, उसके लिए समान है I

ऐसा होने के कारण, इस अध्याय का साक्षात्कारी योगी…

समस्त बूँदों के प्रकारों को और सागर को भी समान दृष्टि से देखता है I

सागर के सगुण निराकार और निर्गुण निराकार स्वरूपों में भी समान दृष्टि रखता है I

 

ऐसे योगी के लिए…

सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार सब के सब समान ही हैं I

सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार, ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैंब्रह्म ही हैं I

 

ऐसे योगी ही समय समय पर किसी न किसी दैविक प्रेरणा से, कोई न कोई विशेष कार्य करने हेतु, किसी न किसी लोक में लौटाए जाते हैं I ब्रह्माण्ड के इतिहास में इस बिंदु के कई प्रमाण भी मिलेंगे I

 

तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ जिसका नाम सदाशिव का वामदेव मुख होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

 

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