मक्केश्वर महादेव, मक्का महादेव, मक्का के देवता, नमः शिवाय

मक्केश्वर महादेव, मक्का महादेव, मक्का के देवता, नमः शिवाय

इस भाग में, मक्का के शिव, मक्केश्वर महादेव, मक्का महादेव, मक्का के महादेव, मक्का के देवता हैं, के बारे में बताउंगा, जो मक्का शरीफ के देवता हैं, जो पञ्च मुखा सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले गाढ़े नीले वर्ण के अघोर मुख से सम्बंधित हैं, जिसका वेद यजुर्वेद है, जिनका उनके तमोगुण स्वरुप में मूल शब्द अहम् होता है, और रजोगुण स्वरुप में मूल शब्द आला होता है, और जिनका कृत्य संहार होता है।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिन्की अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के 32 दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तीसरा अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

मक्केश्वर महादेव का साक्षात्कार

मक्का के शिव, मक्केश्वर महादेव, मक्का महादेव, मक्का के महादेव, मक्का के देवता
मक्का के शिव, मक्केश्वर महादेव, मक्का महादेव, मक्का के महादेव, मक्का के देवता, मक्का शरीफ के देवता

 

उसी “स्वयं ही स्वयं में” की यात्रा में, जो घर पर ही चल रही थी, जब मैं अपनी नौकरी से छुट्टी पर था, कुछ समय बीता, और इसके बाद मुझे काम पर जाने को कहा गया। मैं उस समय पानी के जहाज पर, सेकेंड ऑफिसर था।

तो इसके बाद मैं ये सोच कर जहाज पर चला गया, कि चलो समुद्र भी तो ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही है, तो वहीं पर ये भीतर की यात्रा करता रहूंगा।

उसी जहाज पर जब भी मुझे समय मिलता था, मैं इस भीतर की यात्रा में पुन: लौट आता था।

एक बार वो जहाज, पोर्ट डी फोस (Port De Fos), जो फ्रांस का एक बंदरगाह है, वहां कच्चा तेल देने को जा रहे हैं।

उस जलयात्रा में, एक समय पर हम लाल सागर (Red sea) में थे और उत्तर दिशा की ओर, मिस्र के स्वेज़ नहर (Suez Canal) जा रहे थे। जहाज की अवस्थिति मक्का शरीफ के आकांक्ष के समीप थी, या उससे थोड़ा नीचे ही होगी।

मैं 12 से 4 का नाविक था, और अपना काम समाप्त करके, अपने कामरे में बैठ कर साधना कर रहा था। और उसी साधना में मुझे निद्रा ने जकड लिया।

और निद्रा के समय पर, मेरे आगे जो आया, वो इस चित्र में दिखाया गया है।

उस समय नील वर्ण के शिव, मस्कुरते हुए, मक्का शरीफ की दिशा में दीखाई दिए और ऐसा होने पर मेरी सुसुप्ति टूट गई।

मैंने उन्हें नमन किया और वो कुछ ही समय के बाद, कहीं लुपत भी हो गए। इसके बाद, मैं पुन: सो गया। ये बात भी 1996-1997 की है।

मेरे कप्तान एक बहुत वरिष्ठ नाविक थे, जिनका नाम, कैप्टन सुरिंदरजीत सिंह सांभी था। वो एक बहुत अच्छे कप्तान भी थे।

तो दोपहर को जब मैं नौचालन कर रहा था, और कप्तान  साहब नेविगेशन ब्रिज पर आए, तो मैंने उनसे पूछा, कि क्या मक्का शरीफ में शिव रहते हैं।

उनके गुरुजी भी शैव मार्ग के साधु थे, तो वो बोले, गुरुजी ने तो ऐसा ही बोला था, कि मक्का के शिव को मक्केश्वर महादेव  (Makkeshwar Mahadev) कहते हैं।

मैं जान गया, कि वो महादेव ही थे, जो मेरी सूक्ष्म दृष्टि में पिछली रात आए थे।

और जब कप्तान साहब नेविगेशन ब्रिज से चले गए, तो मैं सोचने लगा, कि वाह रे महादेव, इस कलियुग में आप कहां जाके, छुप के बैठे हुए हो।

कोई सोच भी नहीं सकता है, कि इस घोर कलियुग में भी, आप मस्तमगन देवादि देव महादेव, यहां बैठे होंगे।

जब वेदों में, महा शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वो महा ही परम को दर्शाता है। इसका कारण है, की महा कभी भी दो नहीं होते। महा केवल एक ही होता है, और इसीलिए, महा शब्द ही परम कहलाता है।

 

महादेव कौन, … मक्का महादेव कौन, … मक्का के देवता कौन, …

नीले रंग के सगुण साकार महादेव, जो इस चित्र में दिखलाये गए हैं, जो मकेश्वर महादेव भी कहलाते हैं, और  जो उनके अपने ही सगुण निराकार, दक्षिण दिशा की ओर देखने वाले, गाढ़े नीले रंग के अघोर मुख से संबंध रखते हैं, जिनका वेद यजुर्वेद है, जिसका महावाक्य, “अहम् ब्रह्मास्मि” कहा गया है, और जिसमें अहम् नामक शब्द उस विशुद्ध अहम् को दर्शाता है, जो यजुर्वेद के महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि के अनुसार, ब्रह्म कहालता है।

अंत:करण चतुष्टय विज्ञान में, जो मन, बुद्धि, चित्त और अहम होते हैं, उनमे से अहंकार की विशुद्ध अवस्था ब्रह्म को ही दर्शाती है।

इसिलिए, यजुर्वेद के मार्ग में, उसके महावाक्य “अहम् ब्रह्मास्मि” में जो अहम् शब्द कहा गया है, वो उसी विशुद्ध अहम को दर्शाता है, जो ब्रह्म का सूचक है।

इसीलिए, श्रीमद्भागवद गीता में भी, श्री भगवान् कृष्ण ने अपने लिए अहम् शब्द का प्रयोग किया था, जो उनकी विशुद्ध अहमावस्था का ही शब्द लिंगात्मक स्वरुप है, और जो उसी ब्रह्म को दर्शाता है, जो भगवान कृष्ण स्वयं ही हैं। इसलिए, चाहे साधक ब्रह्म शब्द बोले, या कृष्ण बोले, बात एक ही है।

जब साधक का अहम विशुद्ध होता है, तो वो साधक का अहम्, उसी सर्वव्यापि ब्रह्म में विलीन होके, सर्वव्याप्त होके, ब्रह्म सरिका ही हो जाता है, इसीलिए वो विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म होता है। ऐसे साधकों को ब्रह्मलीन ही माना जाता है।

यही अघोर मुख रूपी सगुण महादेव, मेरे एक पूर्व जन्म में, मेरे गुरु भी थे, जब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला एक अघोर मार्गी, लेकिन वैष्णव ऋषि था, और जब मैंने उनसे ही वो ज्ञान पाया था, जो आज पञ्च ब्रह्मोपनिषद कहलाता है, जिसके आधार पर और जिसके आधार में, आम्नाय चतुष्टय या पीठ चतुष्टय और धाम चतुष्टय भी बसाये गए हैं।

पञ्च ब्रह्मोपनिषद के पञ्च ब्रह्म, उनकी पीठ और धाम, मानव शरीर में भी होते हैं, और इसीलिये, इनका साक्षातकारी योगी, “स्वयं ही स्वयं में” होकर ही रह जाता है।

यही कारण था, कि मुझे वो भीतर की वाणी सुनाई दी थी, जिसने मुझे कहा था, अब बस भी कर दे यार

वो वाणी इसीलिये आई थी, ताकि मैं अपने पूर्व जन्मों के मार्गों से, उनकी परम्पराओं और सम्प्रदायों से, उन जन्मों की साधनाओं की उपलब्धियों से, गुरूओं इतियादी से जुड़ सकूं।

इतने वर्षों के पश्चात, अब मैं, जो एक प्रबुद्ध योगभ्रष्ट भी हूं, ये भी सोचता हूं, ये जानता भी हूं, कि वो वाणी केवल एक प्रेरणा मात्र ही थी, जो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट को आती ही है, ताकि वो अपने पूर्व जन्मों से, उनके मार्ग से, उन सभी जन्मों की परम्पराओं से और उन साधनाओं की उपलब्धियों से जुड सके, ताकी उसकी साधना वैसी ही अटूट रह सके, जैसी हर एक प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की होनी चाहिए।

पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान भी तब होता है, जब योगी शिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले, अघोर मुख में ही बैठ कर, उन पञ्च ब्रह्म का साक्षातकार करता है।

शिव के मुख पञ्चक में, अघोर मुख की अभिव्यक्ति सबसे अंत में हुई थी, इसीलिए, शिव के पाँचों मुखों का ज्ञान भी इसी अघोर मुख से प्राप्त किया जा सकता है, क्यूंकि बाकी सारे मुखों के दैविक बिंदु भी इसी अघोर मुख में बसे होते हैं।

अघोर मुख के भीतर वो बाकी सारे मुख वैसे ही बसे हुए होते है, जैसे पृथ्वी महाभूत के भीतर ही बाकी चार महाभूत और उनके तन्मात्र भी बसे होते हैं।

और इस जन्म में, जब से मुझे कैप्टन साहब ने ऐसा बताया था, तभी से मक्केश्वर रूप में महादेव, मेरे गुरु भी हुए हैं।

कलियुग की काली काया से ग्रस्त आज का मानव कुछ भी बोले, मैं उन महादेव को सगुण साकार गुरु स्वरूप में भी मानता हूं, और वैसा ही मानता हूं, जैसे मैं उनको अपने उस बहुत पीछे के एक जन्म में भी मानता था , जब न तो आज के कलियुगी मार्ग या ग्रन्थ थे, और न ही आज के कलियुग से ग्रस्त मानव जाति ही थी।

 

 नमः शिवाय

नमः शिवाय नामक मंत्र, यजुर्वेद के मध्य में कहा गया है, जो महादेव को ही साधक के चक्र पञ्चक में दर्शाता है।

नमः शिवाय नमक वैदिक पंचाक्षरी मंत्र, नीचे के छह चक्रों के बीच में साक्षातकार होता है। तो अब इस बिंदु को बताता हूँ।…

ये वर्णन मैं सबसे नीचे के चक्र मूलाधार से, ऊपर की ओर जाते हुए कर रहा हूं…

 

  • मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों के बीच में, जो शब्द होता है, उसका नाद ना, ऐसा सुनाई देता है।

ये नमः शिवाय मंत्र का नकार है, जो कार्य ब्रह्म और अव्यक्त प्राण से, समान रूप में संबंध रखता है। और इसी नकार से, माया शक्ति, कार्य ब्रह्म की अर्धांगिनी होती हैं।

 

  • स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्रों के बीच में, जो शब्द होता है, उसका नाद मा, ऐसा सुनाई देता है।

ये नमः शिवाय मंत्र का मकार है, जो अव्यक्त प्राण और श्री विष्णु से समान रूप में संबंध रखता है। और इसी मकार से, श्री विष्णु मायाधारी होते हैं, क्यूंकि अव्यक्त ही तो माया कहलाती हैं।

मकार ही वो शब्द है, जो साधक की चेतना का गंतव्य मार्ग है, और इसीलिये ये शब्द, ओउम् नाद के मध्य में भी सुनाई देता है, जिसके बारे में कभी बाद में बताउंगा।

मकार शब्द ही उस विष्णुनाभी में, जो साधक के शरीर में भी होती है, उसमें भी सुनाई देता है।

 

  • मणिपुर और अनाहत चक्रों के बीच में, जो शब्द होता है, उसका नाद शी, ऐसा सुनाई देता है।

ये शब्द नमः शिवाय मंत्र में ही बसे हुए आदिशेष हैं, जिन्होंने इस जीव जगत को वैसे ही धारण किया हुआ है, जैसे कोई उच्च कोटि का साधक, धर्म को धारण करता है।

इसलिए, ये शी का शब्द ही, इस जीव जगत का धारक है, जिसके कारण ये शब्द ही जीवधर और जगतधर दोनों होता है।

इसीलिये, ये शब्द, इस शिव पंचाक्षरी मंत्र के मध्य में कहा गया है और इस शब्द ने ही, उस पंचाक्षरी मंत्र को, जो पञ्च ब्रह्म से सीधा नाता रखता है, जिनमें ये जीव जगत बसा हुआ है, उस पंचाक्षरी मंत्र को ही धारण किया हुआ है, और वैसे ही धारण किया हुआ है, जैसे अग्नि ने पञ्च महाभूतों को धारण किया हुआ है।

इसी शी शब्द में साधक के सूर्य चक्र और चंद्र चक्र भी बसे होते हैं।

 

  • अनाहत और विशुद्ध चक्र के बीच में, जो शब्द होता है, उसका नाद वा, ऐसा सुनाई देता है।

ये नमः शिवाय मंत्र का वकार है, जो महादेव और महादेवी से, समान रूप में संबंध रखता है। और इसी वकार से महादेवी, महादेव की अर्धांगिनी होती हैं।

ये वकार का शब्द, अर्द्धनारीश्वर का होता है, और जो सगुण आत्मा ही होते हैं। लेकिन तब भी, उन अर्धनारी का साक्षात्कार, नयन कमल, अर्थात आज्ञा चक्र में ही होता है।

 

  • विशुद्ध और अज चक्र के बीच में, जो शब्द होता है, उसका नाद, या, ऐसा सुनाई देता है।

ये नमः शिवाय मंत्र का यकार है, जिसके देवता गणपति होते हैं, जो अनुग्रह कृत्य के धारक होते हैं।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यजुर्वेद के मध्य में दिया गया, ये शिव का पंचाक्षरी मंत्र ही व्यास पीठों का मूल मंत्र है। इसके बिना ना तो गुरु गद्दी हो सकती है, और ना ही किसी देव या देवी का कोई धाम ही हो सकता है।

और यदि कोई साधक, इस शिव पंचाक्षरी मंत्र का मन में या वाणी में उच्चारण करता है, तो वो साधक, पञ्च ब्रह्म की प्रदक्षिणा ही कर बैठता है, क्यूंकि इन बतलाए गए सप्त चक्रों में ही पञ्च ब्रह्म बसे हुए होते हैं।

ये शिव पंचाक्षरी मंत्र ही पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा को दर्शता है, जिसकी अंत गति ओ३म् कार के साक्षातकार को ही लेकर जाती है।

इससे उत्कृष्ट मंत्र न हुआ है, न ही कभी होगा, क्योंकि ये मंत्र पञ्च ब्रह्म से लेकर 33 कोटि देवी देवता सहित, पञ्च देव, पञ्च विद्या, दस महाविद्या, नव दुर्गा, अष्ट मातृका, अष्ट भैरवी और अष्ट भैरव, चौसठ योगिनी गण और उनके भैरव, ज्ञानेंद्रिय पञ्चक, कर्मेंद्रिय पञ्चक, तन्मात्र पञ्चक, भूत पञ्चक, कृत्य पञ्चक, प्राण पञ्चक और उप प्राण पञ्चक सहित कोश पञ्चक, और जो कुछ भी इस ब्रह्म की रचना मैं है, उस सब को और उन सब को, अपने भीतर ही समाया हुआ है।

और यदि इस मंत्र को ओंकार के साथ मन में या वाणी में बोलोगे, तो ये शिव अष्टाक्षरी मंत्र हो जाएगा, जिसमें ब्रह्म और ब्रह्म की पूरी शक्ति अर्थात, ब्रह्म और प्रकृति पूर्णरूपेण समाये हुए होंगे।

और पुरुष और प्रकृति की ऐसी, अनादि अनंत कालों से चली आ रही, सनातन योगावस्था में, साधक सीधा निर्बिज समाधि को ही जाता है, जिसके मार्ग भी, उसी शिव के  तारका मंत्र से हो कर जाता है, जिसका शब्द राम है।

 

अब और भी आगे बढ़ता हूँ …

साधक की काया के भीतर, जिन पाँच स्थानों पर, इस पंचाक्षरी मंत्र के पाँच बीज, नाद रूप सुनायी देते हैं, उनमें ही, वेद चतुष्टय सहित, पीठ चतुष्टय और धाम चतुष्टय का भी साक्षातकार होता है।

इसीलिये, जैसे ये चार पीठ और चार धाम इस धरा पर हैं, वैसे ही ये साधक की काया के भीतर में भी होते हैं, और उसी का ज्ञान पञ्च ब्रह्मोपनिषद में, महादेव की सर्वकल्याणकारी वाणी से, संकेतिक रूप में बताया गया है, और जिसको महादेव की ही आज्ञानुसार, और महादेव की ही अनुग्रहानुसार, मैंने अपने एक पूर्व जन्म में, इसी धरा पर स्थपित किया था, पीठ चतुष्टय के स्वरुप में।

उस जन्म में, जब मेरा नाम पीपल के वृक्ष पर था, तब वही अघोर मुख, महादेव के स्वरुप में, मेरे गुरु थे, और उस जन्म में वोही महादेव मेरे इष्ट भी थे।

और इस कलियुग में, चाहे वो मक्केश्वर महादेव के स्वरूप में ही मस्तमगन होकर क्यों ना बैठे हुए हों, लेकिन तब भी, आज भी वो ही महादेव, मेरे गुरु और इष्ट दोनों हैं।

और इस बात का यही प्रमाण है, कि उनकी प्रेरणा से ही, वो वाणी आई थी और इस चित्र में दिखलाई हुई दशा का साक्षातकार भी हुआ था।

उस पूर्व जन्म में, जब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला एक अघोर मार्गी, लेकिन वैष्णव ऋषि था, मेरे गुरु और इष्ट महादेव ने मुझे ये भी कहा था, कि जब तुम्हारा समय आएगा इस चतुर्दश भुवन से अतीत होने का, तो मैं ही (महादेव) आऊंगा, तुम्हें प्रेरणा देना के लिए, इसलिए तबतक प्रतीक्षा करो।

 

अब मेरी भविष्यवाणी ध्यान से सुनो

क्योंकि अब से कुछ ही दशक में, अभी का कलियुग कोई 10,000 वर्षों के लिए स्थम्बित होने वाला है, और उसी स्थम्बित हुए कलियुग में से, गुरुयुग या आम्नाय युग का उदय भी होना है, इसीलिए, इस कलियुग के छोटे से काल खंड में, जो भी मार्ग आए हैं, वो सभी महाकाल की प्रेरणा से, महाकाली की शक्ति से और और इस पृथ्वी के भीतर हो रहे, पञ्च भूतों के आमूल चूल परिवर्तन से, इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड से प्रस्थान करने वाले हैं।

 

इसीलिए, अब जो बोल रहा हूं, वो ध्यानपूर्व सुनो…

  • इस्लाम पंथ अपने मूल मार्ग, निगम को जाएगा, वो श्रद्धा और समर्पण के योगमार्ग में ही जाएगा, जिसे आज भक्ति मार्ग कहते हैं।
  • ईसाइयत पंथ अपने मूल मार्ग, आगम को जाएगी, वो राजयोग मार्ग को जाएगी, जिसे आज हठयोग, क्रियायोग और बहिरंग योग, इतियादी कहते हैं।

आज का वेटिकन नमक शहर, जो मेरे पूर्व जन्मों के कालों में “सप्त पर्वत वाटिकम” कहलाता था, और जिसको आज गार्डन ऑफ सेवन हिल्स (garden of seven hills) भी कहा जाता है, वो अपने मूल योगियों के पास, अर्थात कौलाचार्यों के पास लौट जाएगा, जिनको पुरातन समय में एस्सेन या एस्सीन (Essene) कहते थे। इस बात का सूत्रधार आज जन्म ले चुका है और वो आज भी कौल मार्गी ही है।

  • यहूदी पंथ अपने मूल मार्ग, कर्म योग को जाएगा, और वो इस मार्ग में अगमानिगम की योगावस्था को पाएगा। इससे आगे मैं अभी बोलना नहीं चाहता हूँ, क्योंकि इस प्रक्रिया में बहुत कुछ होने वाला है। अपने मूल से, ये सभी यहूदी, सौर्य परंपरा के ही हैं।
  • पारसी पंथ अपने मूल मार्ग, ऋग्वेद को लौट जाएगा, और पुन: अपने पूर्वजों के मार्ग में , जो शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत ब्राह्मणों का था, और जो आज मोहयाल ब्राह्मण कहलाते हैं, उनमें विलीन हुए बिना नहीं रह पायेगा। अपने मूल से, ये सभी पारसी, सौर्य सारस्वत परंपरा के हैं।
  • आगमी कुछ ही समय में, सिख पंथ, कम होता होता, अपने मूल निगम को पाएगा।
  • आगमी समय में, जैन पंथ, अपने मूल आगम को जाएगा।
  • आगमी समय में, बौद्ध पंथ, अपने मूल आगम को जाएगा।

कुछ ही दशक में, अघोर मुख के कृत्य रूपी आशीर्वाद से, काल की प्रेरणा से, महाकाली की शक्ति से, और इस पृथ्वी के भीतर हो रहे पञ्च भूत के आमूल चूल परिवर्तन से, ये सात पंथ, वेदों के ही आगम या निगम या दोनों परम्पराओं को, अपने अपने मूलानुसार लौट जाएंगे।

और मेरी ये बात, पितामह ब्रह्म भी नहीं काटेंगे, क्यूंकि ये बातें उन्हीं पितामह, उन्ही प्रजापति की इच्छा शक्ति रूपी प्रेरणा से बोली गयी है।

क्यूंकि किसी भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के भाव में ही उसका साधन होता है, इसलिए उसकी भवनात्मक इच्छा शक्ति ही, उसका वो अस्त्र  होता है, जिसको मेरे पूर्व जन्मों में योगीजन, प्रजापतास्त्र भी कहते थे।

लेकिन कलियुग में इस अस्त्र का ज्ञान नहीं रह पाता है, इसलिए ये लुप्त हो जाता है। समस्त दैविक अस्त्रों में, ये एकमात्र सर्वसमतावादी अस्त्र है।

जो योगी इस प्रजापतास्त्र का धारक होता है, वो एक ही स्थान पर बैठ कर विश्व खेलता है, क्यूंकि वो ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्ति से, उसके अपने ही भावनात्मक स्वरुप में, ऐसा योग लगाके बैठा होता है, जिसे मेरे पूर्व जन्मों में योगीजन, ब्रह्माण्ड योग कहते थे, और जिसका मूलमार्ग, ब्रह्माण्ड धारणा से होकर जाता है, और जिससे पितामह ब्रह्म की संपूर्ण इच्छा शक्ति को, योगी उसके अपने भावनात्मक स्वरुप में ही पाता है।

असतो मा सद्गमय

error: Content is protected !!